क्यो नहीं चाहते औद्योगिक घराने काँग्रेस की वापसी दिल्ली मे ?
भूतपूर्व मुख्य मंत्री खंडुरी और रतन टाटा तथा जनता दल के दो -एक सांसदो मे क्या कॉमन हैं ? कोई बहुत ज्यादा कठिन सवाल नहीं है | इन सब की एक शिकायत हैं -- दिल्ली मे मनमोहन सिंह की सरकार | ऐसा क्यों हैं इसका कारण समझने के लिए हुमे कुछ घटनाओ को परखना होगा | इन सभी की मांग हैं की देश की दुर्व्यसथा के लिए मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी का नेत्रत्व | शिकायत भी हैं की देश की अर्थव्यसथा को ''ठीक'''करने के लिए एक सख़त और प्रभावशाली नेता की ज़रूरत हैं , जो मनमोहन सिंह नहीं हैं |
इनकी नजरों मे नरेंद्र मोदी ही ऐसे नेता हैं जिनमे दोनों ही गुण हैं | नेत्रत्व के कठोर होने का क्या टेस्ट है ? आखिर इस कठोरता का क्या मतलब हैं ? इसका मतलब हैं की नेता ऐसा हो ""जिसका हुकुम"" कोई अनदेखा न कर सके | अर्थ यह हुआ की नेता का फरमान ही कानून बन जाये | क्योंकि अभी तक 2जी या 3जी की जांच कानून के सहारे चल रहा हैं | और उन मामलो मे देश के बड़े - बड़े औद्योगिक घरानो के मालिको के नाम जांच मे सामने आए हैं | जो इन बड़े नामची हस्तियो को काफी नागवार गुजरा है | अभी तक आर्थिक घोटालो मे इन लोगो को ''भगवान की गाय '' मान कर अलग रखा जाता था | पहली बार जब सीबीआई और अदालत के सामने आना पड़ा | तब काफी तकलीफ हुई |
क्योंकि अभी तक देश के बड़े - बड़े नेताओ से मेलजोल रखने वालों इन ''बड़े लोगो'' को सत्ता के गलियारो मे और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगो द्वारा दी जाने वाली तरजीह प्रशासन और कानून का पालन करने वालों को सहमा देती थी | पर इस बार सत्तारूद दल के नेताओ और मंत्रियो तथा ''इन सेठो'' पर पुलिसिया कारवाई हुई तो तिलमिला उठे | क्योंकि इन औद्योगिक घरानो के मुखिया लोगो को आदत थी सीधे बात करने और अपना काम करवाने की | कोई भी अफसर अगर उनके रास्ते मे आता तो ये उसका तबादला करा देते अगर कोई नियम -कडा आड़े आता तो उसे भी बदलवा देने की ताकत इनके पास थी |
इन्हे तो ऐसा नेता मंजूर हैं जो जनता को प्रशासन दे या न दे इनके प्रोजेक्ट पास करवा दे और इनके माल को खरीदे भले ही वह घटिया स्तर का हो , बैंको से कर्ज़ मिलता रहे ,फिर भले ही उसे वापस करने की छमता हो या न हो | इनकी सनक ही इमकी महत्वा कांछा होती हैं , उसके पूरा करने मे कोई भी रोड़ा बर्दाश्त नहीं कर पाते | रत्न टाटा जब कहते हैं की निवेशको का विश्वास भारत से उठ गया हैं , तब वे खुद अपनी देसी कंपनियो की हालत की ओर गौर नहीं करते | भरोषा नहीं होता की टाटा मोटर्स ऐसी कंपनी के जमशेदपुर प्लांट मे मजदूर से लेकर गेनरल मानेगेरो को भी ''ले ऑफ '''किया जा रहा हैं | पर यह हक़ीक़त हैं | अपने उत्पाद की गुणवत्ता के बजाय जब औद्यगिक घराने विज्ञापनो के सहारे अपनी गिरती साख को ''टेका'' लगते हैं तब इनके शेयर एक सौ दस से गिर कर पाँच और दस रुपये पर बाज़ार मे बिकते हैं | आज देश मे उत्पादन करने वाली इकाइयो की हालत ठीक क्या बहुत बुरी हैं , परंतु क्या कभी इनहोने ''ईमानदारी''से धंधा किया हैं?
इन घरानो को ''फरमान'' से सरकार चलाने वाला नेता मंजूर हैं क्योंकि ये उसकी ''कीमत '' चुका देंगे और अपना काम निकाल लेंगे | क्या रत्न टाटा ने कभी अपने शेयर धारको को सिंगूर से प्लांट हटाने की ''कीमत'' के बारे मे बताया ? शांति व्यसथा ये सभी चाहते हैं पर इनके कारण बेघर होते किसान जिनकी रोज़ी - रोटी का साधन ''ज़मीन'' चीनी जा रही हो उसका ध्यान नहीं हैं | नॉर्थ ईस्ट के चाय बागानो द्वारा टाटा के अधिकारियों द्वारा लाखो रुपये ''उग्रवादी संगठनो ''' द्वारा दिये जाना मंजूर हैं , पर किसान का मुआवजा की दर बड़ाये जाने पर इन्हे ' मे तकलीफ हैं , क्योंकि वह ''मांग'' करता हैं और उग्रवादी रकम मांगते हैं , वह भी धमका कर | यह साबित करता हैं की ये सिर्फ ''डर'' की भाषा ही समझते हैं | इसीलिए ऐसा नेता चाहते हैं जो लोगो को इनके कहने पर डरा सके बस इतनी सी बात हैं ....................................................
भूतपूर्व मुख्य मंत्री खंडुरी और रतन टाटा तथा जनता दल के दो -एक सांसदो मे क्या कॉमन हैं ? कोई बहुत ज्यादा कठिन सवाल नहीं है | इन सब की एक शिकायत हैं -- दिल्ली मे मनमोहन सिंह की सरकार | ऐसा क्यों हैं इसका कारण समझने के लिए हुमे कुछ घटनाओ को परखना होगा | इन सभी की मांग हैं की देश की दुर्व्यसथा के लिए मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी का नेत्रत्व | शिकायत भी हैं की देश की अर्थव्यसथा को ''ठीक'''करने के लिए एक सख़त और प्रभावशाली नेता की ज़रूरत हैं , जो मनमोहन सिंह नहीं हैं |
इनकी नजरों मे नरेंद्र मोदी ही ऐसे नेता हैं जिनमे दोनों ही गुण हैं | नेत्रत्व के कठोर होने का क्या टेस्ट है ? आखिर इस कठोरता का क्या मतलब हैं ? इसका मतलब हैं की नेता ऐसा हो ""जिसका हुकुम"" कोई अनदेखा न कर सके | अर्थ यह हुआ की नेता का फरमान ही कानून बन जाये | क्योंकि अभी तक 2जी या 3जी की जांच कानून के सहारे चल रहा हैं | और उन मामलो मे देश के बड़े - बड़े औद्योगिक घरानो के मालिको के नाम जांच मे सामने आए हैं | जो इन बड़े नामची हस्तियो को काफी नागवार गुजरा है | अभी तक आर्थिक घोटालो मे इन लोगो को ''भगवान की गाय '' मान कर अलग रखा जाता था | पहली बार जब सीबीआई और अदालत के सामने आना पड़ा | तब काफी तकलीफ हुई |
क्योंकि अभी तक देश के बड़े - बड़े नेताओ से मेलजोल रखने वालों इन ''बड़े लोगो'' को सत्ता के गलियारो मे और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगो द्वारा दी जाने वाली तरजीह प्रशासन और कानून का पालन करने वालों को सहमा देती थी | पर इस बार सत्तारूद दल के नेताओ और मंत्रियो तथा ''इन सेठो'' पर पुलिसिया कारवाई हुई तो तिलमिला उठे | क्योंकि इन औद्योगिक घरानो के मुखिया लोगो को आदत थी सीधे बात करने और अपना काम करवाने की | कोई भी अफसर अगर उनके रास्ते मे आता तो ये उसका तबादला करा देते अगर कोई नियम -कडा आड़े आता तो उसे भी बदलवा देने की ताकत इनके पास थी |
इन्हे तो ऐसा नेता मंजूर हैं जो जनता को प्रशासन दे या न दे इनके प्रोजेक्ट पास करवा दे और इनके माल को खरीदे भले ही वह घटिया स्तर का हो , बैंको से कर्ज़ मिलता रहे ,फिर भले ही उसे वापस करने की छमता हो या न हो | इनकी सनक ही इमकी महत्वा कांछा होती हैं , उसके पूरा करने मे कोई भी रोड़ा बर्दाश्त नहीं कर पाते | रत्न टाटा जब कहते हैं की निवेशको का विश्वास भारत से उठ गया हैं , तब वे खुद अपनी देसी कंपनियो की हालत की ओर गौर नहीं करते | भरोषा नहीं होता की टाटा मोटर्स ऐसी कंपनी के जमशेदपुर प्लांट मे मजदूर से लेकर गेनरल मानेगेरो को भी ''ले ऑफ '''किया जा रहा हैं | पर यह हक़ीक़त हैं | अपने उत्पाद की गुणवत्ता के बजाय जब औद्यगिक घराने विज्ञापनो के सहारे अपनी गिरती साख को ''टेका'' लगते हैं तब इनके शेयर एक सौ दस से गिर कर पाँच और दस रुपये पर बाज़ार मे बिकते हैं | आज देश मे उत्पादन करने वाली इकाइयो की हालत ठीक क्या बहुत बुरी हैं , परंतु क्या कभी इनहोने ''ईमानदारी''से धंधा किया हैं?
इन घरानो को ''फरमान'' से सरकार चलाने वाला नेता मंजूर हैं क्योंकि ये उसकी ''कीमत '' चुका देंगे और अपना काम निकाल लेंगे | क्या रत्न टाटा ने कभी अपने शेयर धारको को सिंगूर से प्लांट हटाने की ''कीमत'' के बारे मे बताया ? शांति व्यसथा ये सभी चाहते हैं पर इनके कारण बेघर होते किसान जिनकी रोज़ी - रोटी का साधन ''ज़मीन'' चीनी जा रही हो उसका ध्यान नहीं हैं | नॉर्थ ईस्ट के चाय बागानो द्वारा टाटा के अधिकारियों द्वारा लाखो रुपये ''उग्रवादी संगठनो ''' द्वारा दिये जाना मंजूर हैं , पर किसान का मुआवजा की दर बड़ाये जाने पर इन्हे ' मे तकलीफ हैं , क्योंकि वह ''मांग'' करता हैं और उग्रवादी रकम मांगते हैं , वह भी धमका कर | यह साबित करता हैं की ये सिर्फ ''डर'' की भाषा ही समझते हैं | इसीलिए ऐसा नेता चाहते हैं जो लोगो को इनके कहने पर डरा सके बस इतनी सी बात हैं ....................................................