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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Oct 28, 2019

जांच से तड़पते नौकर शाह का दर्द ! चिदम्बरम को जमानत नहीं और आलोक खरे का निलंबन नहीं - जांच है !!!!!!-2


जांच से तड़पते नौकर शाह का दर्द !

चिदम्बरम को जमानत नहीं और आलोक खरे का निलंबन नहीं - जांच है !!!!!!-2


इस आलेख के प्रथम भाग में मैंने मैंने तीन मामले या केस पर लिखा था की जो जेरे तफतीश हैं ! इन तीनों मामलो में जांच की एजेंसिया भी अलग हैं – और उनके परिणाम भी अलग हैं | इनमे ही एक केस था श्री विवेक अगरवाल द्वरा स्मार्ट सिटी को प्राइस वॉटर अँड कुपेर हाउस को 300 करोड़ का टेंडर दिये जाने के मामले का ल्लेख भी था | जिसकी जांच आर्थिक अपराध शाखा द्वारा की जा रही हैं | एफ आई आर दर्ज़ हो चुकी हैं और तफतीश जारी हैं | इस मामले के तथ्य हैं की श्री विवेक अगरवाल ने मुख्य मंत्री के सचिव पद पर रहते हुए प्राइस वॉटर अँड कुपर की सहयोग कंपनी एच पी ई को टेंडर दिया | जब की सार्वजनिक उपक्रम बीएसएनएल ने इसी काम के लिए 275 करोड़ की "बीड " दी थी | परंतु उन्हे काम नहीं दिया !

एक बड़े अफसरशाह ने मेरे आलेख पर प्रतिकृया देते हुए लिखा हैं की आईएएस के नाम पर सभी हमलावर हो जाते हैं | जबकि विवेक अगरवाल के चिरंजीव हीवेट पैकार्ड [[ के सलहकार बने थे सूत्रो के अनुसार करार होने के कुछ दिनो पूर्व ही !!!! दूसरा विवेक अगरवाल के सहयोगी नौकरशाह ने इस मसले पर काफी उतेजीत होकर प्रतिकृया दी हैं , उनकी तकलीफ को मै कम तो नहीं कर सकता , परंतु उनके उठाए गए सवालो और आक्षेपों का जवाब जरूर दूंगा :::-----

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1 :- उनका आरोप है की आईएएस अफसरो के मामलो में "”लोग "
न्यायपूर्ण रवैया नहीं अपनाते -खासकर मीडिया !
उनके सवाल के जवाब में मेरा कहना हैं की संविधान और कानून की निगाहों में सभी भारतीय बराबर है – उनके रंग - रूप - पद या हैसियत का कोई विचार "”न्याय "” करते समय नहीं किया "” जाना चाहिए "” ! उनकी आपति से लगा की 1947 के पहले भारतीय दंड संहिता में योरोपियन और काले हिंदुस्तानी को दोष सिद्धि करते समय और सज़ा देते समय अलग - अलग व्यवहार किये जाने ल प्रावधान था | जिसे आज़ादी के बाद देश की प्रजातांत्रिक सरकार ने "हटा " दिया ! अब सभी बराबर हैं ----कानून के सामने !

2:- यह भी कहा गया की की अग्रवाल के चिरंजीव अमेरिका की येल विश्वविद्यालय से स्नातक हैं --एक चित्र भी सोशल मीडिया पर डाला गया जिसमे "”यह दावा किया गया "” अब उस चित्र में ना तो समय का उल्लेख हैं और ना ही चित्र में दिखयी पड रहे लोगो का परिचय !!! अब ऐसे में उसकी सच्चाई संदिग्ध हो सकती है !
इस संदर्भ में मेरा मानना हैं की विदेश के प्रख्यात विश्व विद्यालय का विद्यारथी होने का अर्थ यह तो नहीं हो सकता की "” उनकी जांच नहीं हो सकती !!”” पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के नाम से कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में स्कालरशिप है < परंतु इस तथ्य के बावजूद भी कोयला कांड की जांच में सीबीआई ने उन्हे आरोपी बना कर उनसे पूछताछ की ! वह भी हफ़्तों चली | बाद में उन् के विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिलने पर जांच एजेंसी सीबीआई को उनका नाम आरोपी से हटाना पड़ा !!! अतः ना तो श्री अगरवाल के चिरंजीव डॉ मनमोहन सिंह के बराबर है ना ही वे जांच को विद्वेष बता सकते हैं !
3:- यह दावा करना की विवेक अगरवाल जी का टेंडर आवंटन में को प्र्तयक्ष दखल नहीं था ----- यह तथ्य विवादित है | क्योंकि आइमेक्स के जिस मामले में पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम से "”” पूछताछ "”” के लिए जांच एजेंसी सीबीआई को उन्हे हिरासत में लेना जरूरी हैं , ऐसा---- तर्क जांच एजेंसी ने सीबीआई की विशेस अदालत , राउज़ कोर्ट में दिया था ! सीबीआई ने तर्क दिया की इस मामले को जिन आठ सचिवो की समिति ने आइमेक्स को विदेशी निवेश की अनुमति दिये जाने की सिफ़ारिश की थी वह मंत्री के दबाव में थी !!! विशेष जज सीबीआई ने तो रिटायर होने के आखिरी दिन के आखिरी फैसले में चिदम्बरम को "” कांड का किंग पिन लिखा था ! “” यह और बात हैं की रिटायर होने के दूसरे दिन {{ चौबीस घंटे बाद ही }} दिल्ली राज्य के भ्रस्ताचर उन्मूलन अधिकरण का अध्यक्ष सरकार ने बन दिया ??? सीबीआई तो अधिकतर मामलो में एक टकसाली जुमला अदालत में दुहराती हे की '’आरोपी जांच में सहयोग नहीं कर रहा ---इसलिए इसे हिरासत में लिया जाना जरूरी हैं !!!! “””
4:- अब इस हक़ीक़त के बाद "”जांच एजेंसी जेल की सज़ा तो कानूनन नहीं दे सकती ----परंतु दुनिया की नजरों में हिरासत को जेल की सज़ा का विकल्प तो बना सकती है | आदमी की सामाजिक प्रतिस्ठा भले ही भोले - भले देशवासियों के मन बन जाये की ----ये तो जेल गए थे ............. कम से कम आर्थिक अपराध शाखा ऐसा तो नहीं कहती और नाही करती हैं , जनहा तक मेरी जानकारी हैं |
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सत्ता और न्याया की कुर्सी पर आसीन लोगो से उम्मीद की जाती हैं
की ना केवल "” न्याय किया जाये वरन यह भी विश्वास हो { जनता को } की न्याय हुआ है !”” इसी लिए राजनीति शास्त्र में हजारो साल पहले रोमन विचारको ने कहा था की "”” सीजर { शासक की उपाधि } की पत्नी का आचरण भी ऐसा हो की लोगो को लगे की "” निसपक्ष "” रूप से व्यवहार किया जा रहा हैं | बरतानीया हुकूमत के दौरान अंग्रेज़ अफसर सार्वजनिक रूप से न्यायपूर्ण व्यवहार करते थे -------तभी तक जब तक "”” सम्राट "”” को हानि का मामला न हो |
भारतीय सन्स्करती में जन भावना को "”न्याया" का आभास लगे , इसके लिए मर्यादा पुरुषोतम राम ने मात्र एक धोबी के कथन पर माता सीता का परित्याग कर दिया था | वह इसलिए की यदि राजा // या शासक के आचरण से प्रजा //नागरिक केमन में "””संदेह "””हो जाये तो वह "” गुड गवर्नेंस "” नहीं होता !!! फिरा यनहा तो एक ऐसे फैसले के बारे में बात की जा रही हैं ---जिसमे शंका का कारण हैं की उन्होने अपने पुत्र को लाभ पहुचाने के लिए ,, केएनडीआर की एक सार्वजनिक उपक्रम को कार्य नहीं दिया जबकी , उनका प्रस्ताव प्राइस वाटर अँड कूपरस की सहयोगी कंपनि हीवेट पैकर्ड कंपनी से 25 करोड़ रुपए कम था , अर्थात कम कीमत पर वे काम करना चाहते थे | परंतु टेंडर एक समय "””” सत्यम कांड में कंपनी अकाउंटों में हेरा - फेरी करने का आरोप सीध हो जाने के बाद उन्हे भारत में तीन वर्षो तक ---किसी भी कंपनी का ऑडिट करने और वित्तीय सेवा देने के लिए अयोग्य पाया गया था ! इस कंपनी की सहयोगी इकाई में श्री अगरवाल के चिरंजीव सलाह कार बने थे -----टेंडर खुलने के थोड़े समय पूर्व ही !!!!!
अब इन स्थितियो में लिए गए फैसलो या निर्णयो पर "”शक या संदेह " स्वाभाविक ही हैं , और जब ऐसी स्थिति हो तब ------- जांच वह भी "”निसपक्ष "”हो तब जनता के मन में सत्ता और उसके भागीदारो के प्रति सम्मान स्थिर होता हैं |
एक पुरानी कहावत है की हाकिम का हुकुम फौज - या डंडे से नहीं ,वरन उसके इकबाल से चलता हैं :- अनुमान लगाए की फौज के आतंक के बल पर दुनिया के कितने ताना शाह कितने समय तक सत्ता पर काबिज रहे ? वनही लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गए राज नेता जनता के विश्वास से कब तक सत्तासीन रहे ||


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सत्ता की गलियो में अनेक बार ऐसे मौके हुए हैं जब कुर्सी पर बैठे हुए अफसर ने "”अपनी शुचिता और संस्थान के सम्मान को बरकरार रखने के लिए कुर्सी और फैसले से अलग हो गए |
बात उन दिनो की है जब श्रीमति सुचेता क्रपलानी उत्तर प्रदेश की की मुख्य मंत्री थी , यह बीसवीं सदी के छ्ठे दशक की बात हैं , तब के के दास मुख्य सचिव होते थे , शायद वे इंपीरियल सिविल सर्विस के अंतिम बैच के सदस्य थे , जनहा तक मेरी याददाश्त हैं | उनके अनुज ऐ के दास पुलिस में सेवारत थे | प्रदेश के पुलिस की मुखिया की नियुक्ति का मामला जब मुख्य मंत्री क्रपलानी के सम्मुख विचार् के लिए आया तब मुख्य सचिव ने मुख्य मंत्री से बैठक से अनुपस्थित रहने की आज्ञा मांगी | ऐसा क्यो -जब सुचेता जी ने पूछा , तब उन्होने बताया की ऐ के दास उनके अनुज हैं -और उनकी पदोन्नति का मामला हैं , अतः नियमतः मुझे इस विषय से निसपक्षता के कारण संबद्ध नहीं होना चाहिए | वैसा ही हुआ |
ऐसा ही मामला अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट में सामने आया --- जब भीमा कोरे गाँव मामले के आरोपियों की जमानत सुनने के लिए एक के बाद एक पाँच न्यायाधीशो ने अपने को सुनवाई से अलग कर लिया |चूंकि वे कनही ना कनही से आरोपियों से परिचित रहे थे !! इसलिए न्याय की शुचिता के कारण जमानत की सुनवाई करने से अलग रहे ! विवेक अगरवाल से भी यही अपेक्षित था |
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सत्ता की न्यायप्रियता के अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में हैं | उन्हे लिखने बैठूँगा तो "””संबन्धित "”” अफसर को पड़ने और --समझने में ज्यादा समय देना होगा | न्याय के लिए शासको ने पुत्र और पत्नी तक को दंड देने में गुरेज नहीं किया हैं |
इस संबंध में मुग़ल इतिहास का ही एक किस्सा बयान करता हूँ, जहाँगीर ने प्रजा को न्याया देने के लिए महल में एक घंटा लगवाया था | जिसे भी न्याय चाहिए वह चौबीस घंटे में में किसी भी समय जा कर फरियाद कर सकता था | एक बार एक फरियादी ने अपने लड़के की मौत के लिए मालिका नूरजहां को दोषी बताया| किस्सा यह था की शिकार के दौरान मालिका के तीर से फरियादी के लड़के की मौत हुई थी | वे शिकार के बाद महल लौट आई | जब फरियादी की शिकायत पर "जांच हुई तब पता चला की मालिका ही कुसूरवार हैं | जनहागीर ने शरीयत के अनुसार "”खून के बदले खून "” का हुकुम दिया ! दरबार में सन्नता छा गया | दरबारियों ने फरियादी से खून के बदले मुआवजा मांगने की तजवीज रखी | पर फरियादी नही माना , उधर दरबारियों के विरोध के कारण बादशाह मालिका को सज़ा नहीं दे पा रहे थे , तब उन्होने खुद सिंहासन से उतार कर कहा “” तुम्हारा बादशाह इंसाफ नहीं दे पा रहा हैं ----तुन अपने लड़के के बदले मेरा खून ले लो ! तब फरियादी ने अपराधी मालिका नूरजहा की भरे दरबार में लानत - मलानत की | दरबार में सभी के आर झुके हुए थे --- क्योकि गुनहगार को सज़ा नहीं मिली | इसी लिए दरबारी फरियादी की बाटो को सुनते रहे |
अब एक उदाहरण है इलाहाबाद विश्वविद्यालया के गणित विभाग के हैड ऑफ डिपार्टमेंट डॉ गोरख प्रसाद का , उनके चिरंजीव ने बी ए करने के बाद मास्टर्स डिग्री के लिए गणित विषय को चुनना चाहा | पुत्र परीक्षा में टापर थे, उन्हे आसानी से एडमिसन मिल जाता | जब यह बात डॉ गोरख प्रसाद को पता चली तब उन्होने बुला कर कहा "” बेटा अगर तुम गणित में ही पोस्ट ग्रेजुशन करना चाहते हो तब हम दोनों में से एक को यह विश्वविद्यालय छोडना पड़ेगा | क्योंकि भले ही तुम अपनी बुद्धि और मेधा से अव्वल आओ ---पर तुम्हारी सफलता पर हमेशा संदेह के बादल मंडलायंगे ,कहा जाएगा की अपने पिता की बदौलत अव्वल आ गए !! यह सुन कर उनके चिरंजीव {{उनका नाम स्मरण नहीं आ रहा हैं } ने बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में एम ए {गणित } में दाखिला लिया और पुनः टॉप किया |
यही अपेक्षा की जाती हैं जो शासन में ----अदालत में न्याया करते हैं | यानहा आईएएस असोसिएशन द्वरा मुख्य सचिव को मेमोरंडम देकर यह मांग करना की इस मामले की कोई चर्चा ना हो , यह तो भारत के संविधान और अखिल भारतीय सेवा नियमो के विपरीत हैं | यह तो बचपन की राइम बाबा ब्लैक शीप की तरह हैं की "” इटिंग शुगर नो पापा "” हालांकि वह शक्कर खा रहा होता हैं |
आईएएस होने का मतलब मनु स्म्रती का ब्रामहन होना नहीं हो जाता | जिसे कोई साधारण दंड नहीं दिया जा सकता था | पेशवा काल में भी सत्ता के समीप रहने वाले सरकारी कारकुन की कहानी को तेंदुलकर ने अपने नाटक "”घासी राम कोतवाल '’ में बाते है \ जिन बड़े अफसर ने मेरे आलेख पर उत्तेजित होकर अपनी टिप्पणी की हैं ---- उसमे यह भी एक है "”” आईएएस अफसरो के मामलो सभी संत बन जाते हैं "”” मेरे अनुसार आजकल जीतने भी भ्रष्ट और बेईमान है वे अधिकान्स्तः संत का बना पहने हैं !! इस लाइन में बापू आशाराम - राम रहीम - राम लाल और चिन्मयनन्द तथा हाल ही में पकड़े गए "”कल्कि अवतार "” कुछ नाम है | वे सभी साधू --- संत माने जाते हैं \ अब यह बात और हैं की उनका आचरण उनके आवरण के अनुकूल नहीं हैं | फिलहाल इस विषय को यही अर्ध विराम !!!!!!!