आरोप
-
जांच
{ सीबीआई
एवं ई डी}
जमानत
के करमकांड में जज -तथा
न्याय ?
मामला
तो पुराना हैं – परंतु देश की
सर्वोच्च न्यायपालिका ने
कुछ ऐसा कह दिया जिससे की
मुकदमो में जांच एजेंसियो की
नियत और अदालत के संकोच स्पष्ट
दिखते हैं !
शीर्षक
ही द्योतक हैं की देश की इन
दोनों जांच एजेंसियो की नियत
न्यायपूर्ण नहीं हैं ,
और
अदालत भी "संकोचवश
"
इनकी
की गयी गलती को सुधारने में
इच्छुक नहीं है !
ताजा
तरीन मामला हैं --कर्नाटक
के पूर्व गृह मंत्री डी के
शिवकुमार के खिलाफ एंफोर्समेंट
डिरेक्टोरेट द्वरा वित्तीय
अनियमितता केस में जांच के
दौरान – दिल्ली उच्च न्यायालय
द्वरा उन्हे जमानत दिये जाने
के विरोध में इ डी ने सुप्रीम
कोर्ट में अपील की थी |
जिसकी
सुनवाई जस्टिस नारिमान और
जस्टिस रवीन्द्र भट्ट की खंड
पीठ ने पहले तो इस मामले की
सुनवाई करने के लिए ही तैयार
नहीं थे |
| गौर
तलब हैं की इस मामले को अदालत
में देश के सलिसीटर जनरल तुषार
मेहता ने प्रस्तुत किया था |
जब
तुषार मेहता लगातार अदालत से
ई डी की अपील खारिज
नहीं करने की प्रार्थना करते
रहे – इस पर जस्टिस नरीमन ने
कहा की यह “””ई डी “” की यह
याचिका चिदम्बरम मामले की
याचिका ही कापी है !
“” अदालत
ने कहा की आप नागरिकों से इस
तरह से पेश नहीं आ सकते !
“”
संयोगवश
शुक्रवार को ही दिल्ली उच्च
न्यायालय ने ई डी की आपति पर
पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम
की इमेक्स मामले में जमानत
की अर्जी छठी बार “”नामंज़ूर
की हैं --कारण
में वही कहा गया हैं की मुलजिम
मामले को प्रभावित कर सकता
हैं |
गौर
तलब हैं की इमेक्स मामले में
सीबीआई ने अपनी चार्ज शीट
में “” नौ लाख रुपये की रकम “
की गड़बड़ी का आरोप लगाया था |
ई
डी ने उसी मामले में लाखो रुपये
के विदेशी मुद्रा के घोटाले
का आरोप लगाया हैं !!!
विषय
वस्तु एक ही थी परंतु जब सीबीआई
अपने तई कुछ सबूत नहीं जुटा
सकी तब ई डी ने मौके -ए
- वारदात
पर हाज़िरी दी !!
यंहा
यह टिप्पणी "”अति
महत्व पूर्ण हैं की यह चिदम्बरम
मामले की याचिका की ही कापी
लगती हैं !!
क्योंकि
सुप्रीम कोर्ट ने डी के शिव
कुमार की जमानत देने के दिल्ली
उच्च न्यायालय के फैसले को
"”रद्द
"”
किए
जाने की अर्ज़ी डी थी |
अब
यह तो साफ हो गया की ई डी द्वरा
चिदम्बरम और शिव कुमार को
किसी सबूत के आधार पर नहीं
वरन संदेह या शक के आधार पर
जांच के लिए बुलाया फिर पुछ
ताछ में "””सहयोग
"”
नहीं
देने का आरोप लगाते हुए हिरासत
में लेकर जेल भेजे जाने की
अपनी मर्जी की अर्जी पर अदालत
से मंजूरी की मुहर लगवाते रहे
|
अब
यंहा एक सवाल उठता हैं की ---
जब
सुप्रीम कोर्ट को यह मालूम
हैं की शिव कुमार का मामला जिस
प्रकार – बिना सबूत के हैं -
उसी
प्रकार चिदम्बरम के मामले
में अगस्त से लेकर अभी तक जांच
एजेंसियो ने अदालत में कोई
नए सबूत नहीं पेश किए ---
फिरा
किस आधार पर दिल्ली उच्च
न्यायालय बार -
बार
एक ही कारण बता कर "””
पूर्व
वित्त मंत्री -
और
रसूख वाले व्यक्ति है -मामले
को प्रभावित कर सकते हैं !
“” इसके
जवाब में सुप्रीम कोर्ट की
खंड पीठ ने ने ई डी को फटकारते
हुए कहा की "””आप
नागरिकों से इस तरह पेश नहीं
आ सकते !”
अब
धीरे धीरे यह स्पष्ट होने लगा
हैं की चिदम्बरम के मामले में
सरकार की "”तिकड़ी
"”
ने
कोई लगाम खिच रखा है जो जांच
एजेंसियो और अदालत को भी
"”निसपक्ष
और न्यायपूर्ण नहीं रहने दे
रहे है !!”
इससे
इन जांच एजेंसियो के करता
-धर्ताओ
से यह भी अदालत को पुच्छना
चाहिए की आखिर किसी नागरिक
की आजादी छीन कर भी अगर वे कोई
सबूत नही निकाल पाये ---तो
क्यो नहीं उनके विरुद्ध संविधान
के भाग 3
के
अनुच्छेद 20{3}
के
उल्लंघन का मामला चलाया जाए
??
एक
मामला और है जो न्यायपालिका
की छ्वि पर सवालिया निशान लगा
रही हैं ----
भीमा
-कोरेगाव्न
के आरोपियों नौलखा और चार
अन्य को भी बिना किसी "”ठोस
सबूत के "”
जांच
एजेंसी
बस जमानत की अर्जी पर एतराज़
बताती है -
की
आरोपी बहुत खतरनाक है ये मुकदमें
को प्रभावित कर सकते हैं !!
और
बस ज़िला अदालत इस अर्जी पर
अपनी मर्ज़ी की मुहर लगाते हुए
कहती है की दरखाष्त खारिज !!
इसी
सिलसिले में अगर हम प्रधान
न्यायधीश शरद बोवड़े के कथन
को "”
न्यायपालिका
और सरकार के मध्य मधुर रिश्ते
होने चाहिए ----
ऐसे
मौको पर लगता हैं की अदालते
सीमा से अधिक सरकार के नजदीक
हो गयी है क्या ?
|