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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 2, 2013

PRASTAVIT LOKPAL ORDINANCE AUR ANNA KI TEK

 प्रस्तावित लोकपाल  अध्यादेश  और अन्ना  की टेक 
                                      लगभग दो वर्षो के  आन्दोलन और धरने के मौसम बे मौसम होते रहने के बाद भी जब केंद्र ने संसदीय समिति की  प्रमुख सिफ़ारिशो  को मंजूर कर अध्यादेश द्वारा इसे लागू किये जाने का निर्णय किया , तब भी अन्ना  और केजरीवाल का मन नहीं भरा ।उनके हिसाब से यह सरकार की धोखाधड़ी हैं । केजरीवाल तो कह रहे हैं की सी बी आई  को आजाद करे बिना तो बेईमानी  ख़तम ही नहीं की जा सकती ।उधर अन्ना का कहना हैं की सी बी आई  और सी वी सी  को भी चुनाव आयोग की ही भांति दर्ज़ा दो ।वास्तव में यही सुझाव लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान  राहुल गाँधी ने भी दिया था ।पर तब मुखरित विरोधी दलो  के  सुरमाओ  ने इसे बचकाना हरक़त बताया था । अब अन्ना  कह रहे हैं तब ऐसी टिपण्णी  नहीं की जाएगी , आखिर क्यों ? शायद  नैतिक सहस नहीं बचा उन नेताओ के पास की इसे भी खारिज कर दे ।
                                                        
                                                  आइये देखे की संसदीय समिति की सिफारिश क्या  हैं --पहली तो यह हैं की सी बी आई  के डायरेक्टर की नियुक्ति एक पैनल करेगा जिसमें प्रधान मंत्री , लोकसभा में नेता प्रति पक्ष और लोकसभा के स्पीकर  होंगे , सुप्रीम कोर्ट के जज  भी इसमें सदस्य होंगे । अब इस से ज्यादा स्वतंत्रता   किया होगी की इतना सशक्त पैनल किसी पद के लिए अफसर का चयन करे ?राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए राज्यों को एक साल का मौका दिया गया हैं ,की वे इस सम्बन्ध में कारवाई करें । गौर तलब हैं की इस मसलें पर अनेको विरोधी दलों  ने असहमति जताई थी , उनका कहना था की यह क़दम  राज्यों की स्वतंत्रता पर आघात हैं । अब अन्ना  चाहते  हैं की यह नियुक्ति भी लोकपाल के हाथ में हो । इस्मांग पर फिलहाल तो राजनैतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई हैं ।तीसरा  उनका कहना हैं की केबिनेट  सचिव से लेकर मंत्रालय के चपरासी को  भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए । \\होती हैं 

                                             वास्तव में उनका ऐतराज यह हैं की उनके द्वारा प्रस्तावित   मसौदे  को क्यों नहीं सरकार  ने  ज्यों  का त्यों मंजूर नहीं किया ।अब उन्हे कौन समझाए की दलीय प्रजातंत्र में  हिटलरशाही नहीं चल सकती ।यंहा तो प्रधान मंत्री को भी आपने सहयोगियों को सुनना  पड़ता हैं ,और गठबंधन की सरकार हो , जैसी की अभी  हैं तो दूसरे दलों की भी बात को समझाना पड़ता हैं । सही और उचित बात को भी उनके गले से उतरना होता हैं ।केजरीवाल इनकम टैक्स अफसर रह चुके हैं फिर भी उनका कहना की जांच करने और करवाई करने  में किसी का दखल न हो , यानी जिसके यंहा चाहें छापा  मार डे भले ही कोई जुर्म बने या न बने । मतलब  यह की किसी की भी इज्ज़त से खिलवाड़ करने का अधिकार अफसर को हो । उनका ऐतराज सरकार के हस्तछेप  से हैं । अमेरिका में जांच की एजेंसी एफ बी आई  भी सरकार  और सीनेट के अधीन हैं , ब्रिटेन में स्कॉटलैंड  यार्ड भी गवर्नमेंट के निर्देश पर चलता हैं । ऍफ़ बी आई  स्वयं से भी जांच कर सकती हैं पर प्रशासनको बताना पड़ता हैं  ।
                                              संसदीय प्रजातंत्र में नौकरशाही को जन प्रतिनिधियों के आधीन ही रहना होता हैं  , हाँ फौजी हुकूमत में अफसरान बेकाबू रहते हैं ।क्या जन प्रतिनिधियों को शासन या प्रशासन से अलग किया जा सकता हैं  ?जिसको संविधान ने देश चलाने का अधिकार दिया हैं उसके ऊपर कोई गैर निर्वाचित कैसे बैठ सकता हैं  ।एना और केजरीवाल को यह समझाना होगा की संसद सबसे ऊपर हैं , वे नहीं । 
   पूर्व प्रधान  मंत्री अटल बिहारी  वाजपेयी  ने गुजरात में हुए गोधरा काण्ड के बाद वंहा की सरकार  की सार्वजनिक रूप से हुई आलोचना के समय नरेन्द्र मोदी को ''राजधर्म ''पालन करने की सलाह दी थी ।उस का अर्थ था की एक राजनैतिक पार्टी के रूप में हमारे सिधान्त  अथवा विचार भले ही कुछ हो , परन्तु जब हम सत्ता में हों तब हमारे लिए ''सर्व जन सुखाय  -सर्व जन हिताय ''ही धरम हैं ।क्योंकि चुनाव की राजनीती में विरोधियो का होना स्वाभाविक हैं परन्तु सत्ता में आने के बाद सरकार किसी की विरोधी नहीं होती और किसी का पछ  भी नहीं लेती ।मंत्री पद की शपथ में भी यह वादा प्रदेश या देश की जनता से करना होता हैं की ''में बिना किसी भेदभाव या अनुराग के दिए गए उत्तरदायित्व का निर्वहन करूँगा ।''   इस प्रतिज्ञा का पालन ही राज धरम हैं ।परन्तु व्यहारिक रूप में यह कभी असमंजस में डालने का कारन भी बन जाता हैं फिर वाही इसकी कसौटी भी बन जाता हैं ।
           धार स्थित भोजशाला में सरस्वती पूजा को लेकर वर्षो से बहुसंख्यको और अल्पसंख्यको के मध्य विवाद रहा हैं अक्सर ही पुलिस को बल प्रयोग कर स्थिति पर नियंत्रण करना पड़ा हैं । कांग्रेस के समय में बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता  हमेश से उग्र हो कर मनमानी करने का प्रयास करते थे ।जिस पर सार्वजनिक रूप से   निंदा भी की जाती रही हैं  । पर जब संघ और बजरंग दल की सहयोगी सरकार  हैं -तब भी स्थिति  वही ही हैं , कारन हैं राजधर्म । अब राष्ट्रीय  स्वयं सेवक  संघ के लोग  ही शिवराज सरकार  की आलोचना में  बयान दे रहे हैं ,और बसंतपंचमी  के दिन सरस्वती की पूजा जबरदस्ती करने का अल्टीमेटम दे  रहे हैं ।हालाँकि  अभी बात जबानी -जमा खर्च तक ही हैं , पर जन भावनाओ में तर्क  का हिस्सा  कम और उद्वेग का स्थान अधिक होता हैं ।जब से शिवराज सरकार  हैं अभी तक न तो अल्पसंख्यको को न ही बहुसंख्यको उनके  मन  की करने दिया गया हैं ।
                                                     भोजशाला बनाने मुक्ति यज्ञ  और माँ सरस्वती महोत्सव  समिति के संयोजक नवल किशोर शर्मा ,जो की संघ के प्रचारक रह चुके हैं , उन्होने भी शिवराज सरकार पर वाही आरोप लगाये हैं  जो  कभी कांग्रेस सरकारों पर वे लगाया करते थे ।उन्होंने 2006 से भा जा प्  सरकार पर बहुसंख्यको को प्रताड़ित करने और उनके अधिकार की अनदेखी करने का आरोप लगाया हैं ।लेकिन सरकार  और जिला प्रशासन बसंतपंचमी  के समय शांति बनाने के लिए तत्पर हैं ।अब तो शर्मा जी ने यंहा तक कह  दिया की भा ज पा के लिए ''हिंदुत्व  का मुद्दा सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन हैं ''। बस यही राज्य  धर्म  और पार्टी धर्म  के टकराव का मुद्दा हैं । जंहा शांति -व्यवस्था सबके लिए हैं ,वंही सरस्वती वंदना  करके  लोगो में  हिंदुत्व हामी की छवि बनाना संघ और बजरंगदल का उद्देश्य हैं ।अब भारतीय जनता पार्टी में कुछ तत्त्व राम मंदिर के मुद्दे को चुनाव का मसला बनाने  की भले ही वकालत करें , पर एन डी ए   में ऐसा होना संभव नहीं लगता .।हालाँकि सिंघल और तोगड़िया  प्रयाग में हो रहे कुम्भ  में एक संत सम्मलेन कर के इस मुद्दे को चुनाव के पूर्व गरमाना  चाहते  हैं ।पर दिक्कत  वही राजधर्म ।छतीसगड  और मध्य प्रदेश में जन भावनाओ को भड़काने पर सरकार पर कलंक लगेगा की अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं किया  ।वैसे राम मंदिर मुद्दा  काठ की हांडी की भांति हैं जिसके दुबारा सफल   होने की  उम्मीद कम ही हैं , पहले जब यह सवाल जनता के बीच लाया गया था तब कांग्रेस सरकार  पर ठीकरा फोड़ा गया था ।पर इस बार ऐसा संभव  न होगा क्योंकि वाजपेयी जी के काल में ही इस को पीछे धकेल दिया गया था ।जब लोग इस बारे में पूछेंगे तो किया जवाब होगा ?सरकार  बनाने के लिए  तो मुद्दा तब ठीक था पर शायद अब नहीं हैं ।क्योंकि अब राज धर्म आजमाया जा चूका हैं , भले ही समर्थको बुरा लगे या नहीं ।
      राज धर्म बनाम पार्टी धर्म