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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 22, 2013

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र क्या दिल्ली मे संभव हैं ?

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र क्या दिल्ली मे संभव हैं ?

आप पार्टी द्वारा दिल्ली विधान सभा चुनावो मे दूसरी बड़ी पार्टी केरूप मे उभार के आने के बाद भी , जिस प्रकार अलापमात की सरकार के गठन के लिए स्वयंभू जनमत संग्रह किया , उस से अनेक प्राशन खड़े हो गए हैं | सबसे पहला तो यह हैं की ''चुनाव'' किस हेतु सम्पन्न हुए थे और आप पार्टी ने किस भूमिका को निभाने के लिए इनमे भाग लिया था ?स्पष्ट हैं की सरकार गठन के लिए ही चुनाव कराये गए थे -क्योंकि वह संवैधानिक बाध्यता हैं | आप पार्टी ने भी सरकार के गठन के लिए ही इसमे भाग लिया था, अथवा सदन मे विपक्ष मे बैठने के लिए ?अब सवाल यह हैं की सबसे बड़ी पार्टी के रूप मे भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने से साफ माना कर दिया क्योंकि जनता ने उन्हे ''स्पष्ट बहुमत प्रदान नहीं किया | यद्यपि ज़िम्मेदारी उनकी ही बनती थी | परंतु काँग्रेस बहुमत के लिए उनका समर्थन नहीं कर सकती थी | अतः दूसरा विकल्प आप पार्टी का था | परंतु निर्वाचन की राजनीति मे पहली बार आयी इस पार्टी को शासन और सरकार का विरोध तो करने की कुशलता तो थी परंतु ""लोगो को किए गए वादो """ को पूरा कैसा किया जाएगा इसका ज्ञान नहीं था | जनता की निगाहों मे आप की साख बनी रहे इसके बारे मे उन्हे असमंजस था | शायद अपने संदेह को मिटाने और अपनी नव गठित पार्टी की ''साख''' बनाए रखने के लिए 1करोड़ 50 लाख मतदाताओ मे से कितने उनके पक्ष मे हैं , यह जानना उनके लिए ज़रूरी भी था | जो उन्होने किया |

परंतु उन्होने घोसणा की ''उनकी सरकार के सभी फैसले सार्वजनिक सभा मे लिए जाएँगे | अब सरकार के फैसले अधिकतर तो प्रशासन की सलाह पर ही किए जाते हैं | अतः क्या प्रशासन के भी सभी फैसले सभाओ मे किए जाएँगे , यह प्रश्न हैं ? क्योंकि अगर ऐसा किया गया तब तो ना तो Financial hand book and Rule of Buisness ""दोनों का पालन असंभव हो जाएगा फलस्वरूप कानून का शासन किस प्रकार संभव हो पाएगा कठिन हैं |क्योंकि ''जनता ''का समर्थन हर अधिकारी के लिए पाना कठिन होगा | फर्ज़ कीजिये पोलिक किसी अभियोगी को पकड़ के थाने मे लाती हैं और सौ लोगो की भीड़ उस अभियुक्त को रिहा करने का दबाव बनाते हैं तब अधिकारी क्या करेगा ?कानून का पालन अथवा जनता की मांग का सम्मान ? हरियाणा और मध्य प्रदेश के राजस्थान से सटे इलाक़ो मे जाति और धर्म के आधार पर ''साथ''' देने की पुरानी परंपरा हैं | अभी हाल मे मध्य प्रदेश मे एक थाने मे पारदी जाती के व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उसके जाती वालों ने थाने को घेर लिया | स्थिति इतनी बिगड़ गयी की अफसर को अभियुक्त को छोडना पड़ा | बाद मे बल के आने पर उसके निवास पर छापा मार कर उपद्रवियों को बंदी बनाया गया | अगर आप पार्टी की सरकार ऐसे मे भीड़ का साथ देती हैं तब वह कानून का उल्लंघन करती हैं
और ऐसा न करने पर उसकी ""टेक"" की पब्लिक सब जानती हैं ---की अवहेलना होती हैं |

प्रशासनिक फैसले अधिकतर सरकार की सहमति से अफसरो द्वारा लिए जाते हैं | विधि निर्माण के लिए--जनता के सामने जाना समझ मे आता हैं , परंतु प्रशासन के निर्णयो के लिए बहुमत नहीं वरन स्पष्ट मत की ज़रूरत होती हैं | अनेक उत्साही लोग सोश्ल मीडिया और काफी हाउस आदि मे यह कहते सुने जाते हैं की ""सभी फैसले हमारी सहमति से हो """ तभी तो वास्तविक प्रजातन्त्र आएगा | प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र --अर्थात शासन के हर फैसले पर जनता का बहुमत ''अनिवार्य '' हो | यह स्थिति काफी कल्पनाशील और लोक लुभावन तो हो सकती हैं , परंतु >संभव क़तई नहीं हैं | दुनिया मे दो ही स्थान हैं जनहा यह प्रणाली आज भी जारी हैं | दोनों ही स्थान स्विट्ज़रलैंड मे हैं | अब वनहा की व्यसथा को समझना जरूरी हैं | स्विट्ज़रलैंड कुल 26 कैन्टन अर्थात प्रशासनिक इकाइया हैं | जिनसे मिलकर वनहा का ""संघ"" बना हैं है | यह इकाइया एक तरह से प्रदेश हैं | इनमे INNERHAUM AND GLARUS इनमे पहले का छेत्रफल 137 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 15717 हैं जबकि दूसरे की जनसंख्या 39369 और सौ वर्ग किलो मिटर से कम का छेत्रफल हैं | यह प्रथा इन दोनों स्थानो मे 14 वी शताब्दी से चली आ रही हैं | वनहा के शेष 24 कंटन मे गोपनीय मताधिकार द्वारा निरण्य किए जाते हैं | अब केजरीवाल द्वारा 1.50 करोड़ मतदाताओ
मे जनमत संग्रह कितना वास्तविक होगा कहना मुश्किल हैं |

एक दैनिक समाचार पत्र ने इस मुद्दे पर विशेस सामाग्री प्रकाशित की | जिसमे उल्लिखित बारह मुद्दो पर जनमत संग्रह का सुझाव था | उसमे चीन -पाकिस्तान के साथ के साथ कैसे संबंध हो और सी बी आई स्वतंत्र आगेकी बने या नहीं जैसे मसलो पर आम राय लेने का सुझाव तह | क्या हम यह स्वीकार कर ले विदेश नीति को आम मतदाता ठीक से जानता हैं ? क्या वह उन सीमाओ को भी जानता हैं जिनके भीतर रहकर किसी भी देश को काम करना होता हैं ? क्या सभी मतदाताओ को संविधान की सीमाए मालूम हैं ?क्योंकि सरकार और प्रशासन इनहि सीमाओ मे रहकर ही किया जाता हैं | क्या सभी मतदाताओ को मालूम हैं की """ असंवैधानिक'' कौन कृत्य होगा और उसे कौन परिभासित करनेवाली संस्था हैं ? मेरी समझ से इन सभी बारीकियों को समझने वाले कुछ लाख लोग ही देश मे होंगे | अब ऐसे संवेदनशील मुद्दो पर कोई भी '''भड़काऊ भासण देकर जनभवना को गलत दिशा मे मोड सकता हैं | जो देश को युद्ध अथवा विघटनकारी घटना का भागीदार बना सकता हैं |एक्सपेर्ट रॉय के युग मे हम अगर आम आदमी से विशेष मुद्दे पर मत लेगे तो वह सही नहीं होगा | क्योंकि वह उस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं | किसी भी मिल मे मजदूर से लेकर अनेक श्रेणियों मे कार्य विभाजित रहता हैं | अब सभी को उनकी योग्यता के अनुसार ही काम दिया जाता हैं , एक का काम दूसरा नहीं कर पाएगा | बस यही वह ''सीमा'' हैं जो फर्क करती हैं | उन मुद्दो पर सभी से रॉय ली जा सकती हैं जिसका परिणाम उन्हे प्रभावित करता हो --जैसे लड़के --लड़की मे शारीरिक संबद्ध की क्या उम्र होनी चाहिए | सरकारी और निजी स्कूलो की फीस मे कितना अंतर मान्य होना चाहिए ---- समलैंगिकता को मान्य होना चाहिए या नहीं ? जनमत संग्रह की व्यसथा अभी भी हमारे संविधान मे हैं | परंतु वह विधि निर्माण तक ही सीमित हैं | सरकार या प्रशासन के मसलो पर नहीं | अतः जनमत संग्रह सबको संतुष्ट करने की औषधि नहीं हैं | वास्तविकता तो यह हैं हैं की """परमात्मा भी सभी को संतुष्ट नहीं कर सके """ तो हम क्या कर सकेंगे |









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Dec 18, 2013

अब अल्पमत और बहुमत नहीं बल्कि सर्व-मत की ज़िद्द हैं -राजनीति मे


अब अल्प्मत और बहुमत नहीं बल्कि सर्व-मत की ज़िद्द हैं -राजनीति मे
जिन देशो मे सरकार चुनने का हक़ जनता -जनार्दन के पास होता हैं उसे ही व्याहरिक उद्देस्यों के लिए प्रजातन्त्र या जनतंत्र मानते हैं | मसलन ब्रिटेन जहा तकनीकी रूप से राजशाही हैं लेकिन सरकार चुनने का अधिकार जनता के पास हैं -राजा के पास नहीं | ऐसे ही एक राष्ट्र हैं थाईलैन्ड वहा भी यही स्थिति हैं | बहुमत द्वारा सरकार का गठन ही जनतंत्र का आधार है , परंतु विपक्ष सदन मे बैठ कर दायित्व निर्वहन के बजाय अगर सड़क पर प्रदर्शन और हिंसात्मक तरीके से सरकार को हटाने का प्रयास करे अथवा अपनी मांगे मनवाने का प्रयास करे तो उसे क्या कहेंगे ? लोकतन्त्र या भीडतन्त्र ? अब चाहे यह वाक्य दिल्ली का हो या बैंकॉक या काठमांडू का अथवा ढाका का क्योंकि इन सभी स्थानो पर सरकार अथवा बहुमत का विरोध सदको पर हो रहा हैं -वह भी चुनाव के उपरांत ! हैं न अजीब बात , परंतु सत्य हैं |

थायलैंड मे शिंवात्रा की चुनी हुई सरकार के विरोध मे राजधानी बैंकॉक मे लगभग दो लाख लोगो ने सदको पर घोर प्रदर्शन किया जिसमे उन्होने गड़िया भी फूंकी और पुलिस मुख्यलाय को भी घेरा तथा पहले उनकी मांग थी की प्रधान मंत्री शिंवात्रा इस्तीफा दे कर चुनाव कराएं | कई डीनो के विरोध प्रदर्शन के उपरांत शिनवात्रा ने चुनाव करने की घोसना की | परंतु प्रदर्शन कारी इस मांग से संतुष्ट नहीं हुए , उन्होने नई मांग राखी की चुनाव एक गैर निर्वाचित निकाय की देखरेख मे कराये जाये जिस से निसपक्ष चुनाव सम्पन्न हो सके | यानहा सवाल उठता हैं की जब विगत निर्वाचन के परिणाम स्वरूप सरकार का गठन हुआ तब क्यो विरोधी डालो ने उसे स्वीकार किया ? फिर गैर निर्वाचित निकाय का प्रजातन्त्र मे क्या स्थान हैं ? परंतु नहीं वनहा गुथी अभी भी नहीं सुलझी हैं |

कुछ ऐसा ही माहौल पड़ोसी देश बंगला देश मे भी बना हुआ हैं | प्रधान मंत्री शेख हसीना की सरकार ने चुनाव करने की प्रक्रिया शुरू की --तब भी विरोधी दल आरोप लगाते रहे , मीरपुर के कसाई मुल्लाह को वार ट्राइबुनल ने फांसी की सज़ा सुनाई और उन्हेफांसी की सज़ा दे दी गयी | जिस को लेकर मीरपुर सिल्हट आदि मे काफी हिंसात्मक घटनाए हुई , पुलिस ने शांति स्थापित करने के लिए गोली चलायी लोग मारे गए | जिसके बाद तो फिर वही मांग दुहराई गयी की चुनाव किसी गैर निर्वाचित निकाय की अधीनता मे सम्पन्न हो | एक बार वनहा प्रधान न्यायादीष की आद्यक्षता मे चुनाव कराये गए थे - जिसमे शेख हसीना की अवामी पार्टी को बहुमत मिला था | इस बार चूंकि निर्वाचन प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी इसलिए विरोधी डालो की मांग को मंजूर करना संभव नहीं था | परिणाम स्वरूप उन्होने चुनाव के बहिसकार की घोसना करते हुए अपने को जन तांत्रिक प्रक्रिया से अलग कर लिया फलस्वरूप अवामी पार्टी के गठबंधन के उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित घोसित किए गए | अब इसका क्या परिणाम होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा |

तीसरा उदाहरण नेपाल का हैं -जहा पिछली बार की सत्तारूद पार्टी माओवादियो को करारी पराज्य का सामना करना पड़ा | राजशाही के अंत के उपरांत सरकार बनाकर संविधान निर्माण की प्रक्रिया सालो चली फिर चुनाव हुए , जिसमे ''प्रचंड'' तो पराजित हुए काठमाण्डू से और उनकी पार्टी हारी सारे नेपाल मे !अब हताश प्रचंड आरोप लगा रहे हैं की चुनव मे धांधली हुई है | परंतु जब उनकी बातों को उनसुना किया गया तब उन्होने फिर से हथियार उठाने की धम्की दी | जब उसपर भी किसी ने कोई परवाह नहीं की तब उन्होने नया राग अलापा की ""राष्ट्रिय सरकार बनाई जाये जिसमे उनकी पार्टी को भी हिस्सा दिया जाये | सीधा सा उनका मतलब था की शासन की प्रक्रिया मे उन्हे शामिल करें | सवाल हैं जब आपको और आपकी पार्टी को जनता ने नकार दिया तब किस आधार पर सरकार मे आपकी भागीदारी हो ? परंतु नहीं ज़िद्द हैं की हुमे भी सरकार मे लो |

इन तीन घटनाओ से प्रजातन्त्र मे निर्वाचन के परिणामो को व्यर्थ करने का प्रयास ही हैं | एक दल के रूप आप को चुनाव मे सफलता नहीं मिली तब आप को विपुक्ष मे बैठना होता हैं | चुनाव मे सफल होने का मतलब तुरंत सरकार मे भागीदारी नहीं होती | उसके लिए ""बहुमत"" चाहिए , जैसे मतदाता के बहुमत से प्रतिनिधि चुने जाते हैं वैसे ही बहुमत से ही सरकार बनती हैं | जिस प्रकार पराजित प्रत्याशी घर बैठता हैं वैसे ही अल्पमत की पार्टी सरकार से बाहर रहती हैं ----यही प्रजातन्त्र हैं | परंतु अब राजनीतिक दलो मे इतना धैर्य नहीं बचा की वे शासन से बाहर रह कर राजनीति करें | दिल्ली मे अरविंद केजरीवाल की पार्टी को बहुमत प्रपट नहीं हैं | ऐसे मे आम तौर पर गठबंधन की सरकार बनाई जाती हैं | परंतु राजनीति मे ""आप"" पार्टी सभी दूसरी पार्टियो को ""अछूत"" मानती हैं इसी लिए कहती हैं '''न हम किसी से समर्थन लेंगे न देंगे """ | अब उन्होने सरकार गठन के सवाल पर 25 लाख लोगो की रोयशुमारी करने का फैसला किया हैं | यह प्रक्रिया सरकार द्वारा तब की जाती हैं जब किसी मुद्दे पर जो विवादित हो उस पर जनता की प्रतिकृया ली जाती हैं | सरकार के गठन के लिए चुनाव हुए तब फिर किस बात की रॉय ले रहे हैं ? उनके अनुसार वे काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को मतदाताओ के सामने एक्सपोज करना चाहते हैं | अर्थात वे यह बताना चाहते हैं की वे ही ""ईमानदार और श्रेस्थ हैं """ परंतु उनसे अधिक स्थान विधान सभा मे भारतीय जनता पार्टी को मिला हैं ,जो यह साबित करता हैं की आप पार्टी से ज्यादा लोकप्रियता उनकी हैं | इस सत्या को वे शायद मंजूर नहीं कर प रहे हैं | यही हैं अल्पमत की दादागिरी !

Dec 14, 2013

सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का परिणाम हैं शिवराज की तीसरी ताजपोशी


सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का परिणाम हैं शिवराज की तीसरी ताजपोशी

वैसे तो चुनाव राजनैतिक मुद्दो और कार्यक्रम पर लड़े जाते हैं, परंतु प्रदेश मे मुख्य मंत्री शिवराज सिंह की तीसरी पारी का राज --उनके द्वारा सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देने का परिणाम हैं | मेरी समझ से तो उनकी विजय का सबसे बड़ा श्रेय गरीब कन्याओ का विवाह और उनकी लाड़ली लक्ष्मी योजना को जाता हैं , जिसके कारण ग्रामीण और शहरी मतदाताओ मे उनकी छवि एक उदार और संवेदन शील शासक की उभरी | अभी तक राजनीतिक छेत्रों मे यह धारणा थी की ""विकास"" ही चुनाव मे मुद्दा होता हैं | परंतु सड़क - बिजली -पानी से भी बड़ा मुद्दा होता हैं की "'पंक्ति का अंतिम व्यक्ति की प्रथमिकताए क्या हैं , वह सामाजिक और आर्थिक रूप से किन अभावो से पीड़ित रहता हैं , उनको दूर करने मे शासन कितना सजग और सहायक हैं | कन्याओ के हितो के लिए चलायी गयी योजनाओ की सफलता से ही उन्हे ""मामा"" कहा जाने लगा हैं | वैसे भी वेदिक संसक्राति मे मामा की विशेस महता हैं , माता के बाद पिता के बाद मामा ही सहायक - रक्षक माना गया हैं | कन्या के जनम पर उसके विवाह के लिए एक लाख रुपये की फ़िक्स्ड डिपॉज़िट जो उसे वयस्क होने पर मिलेगा तथा स्कूल के लिए ड्रेस और आने -जाने के लिए साइकल ने वास्तव मे ग्रामीण छेत्र मे एक नव जागरण किया हैं |
ग्राम मे सड़क हैं या नहीं बिजली आती हैं अथवा गायब रहती हैं इसका बहुत ज्यादा अथवा निर्णायक महत्व नहीं हैं |परंतु व्यक्ति और परिवार के अभाव से झुझते रहने के बाद भी उससे यह अपेक्षा रहती हैं की वह सामाजिक दायित्वों को ज़रूर पूरा करे | इसमे सबसे पहला होता हैं लड़की की शादी | लड़के की शादी बड़ी बात नहीं हैं जिन छेत्रों या जातियो मे लड़के कुँवारे रह जाते हैं वनहा भी कारण लड़की को जन्म के समय मार देने की परंपरा का ही हैं |फलस्वरूप लिंग अनुपात बहुत विषम हो जाता हैं |
2003 मे भारतीय जनता पार्टी के चुनाव मे विजयी होने पर लाल कृष्ण आडवाणी ने टिप्पणी की थी की " लोगो से जब मैंने पूछा की भाई काँग्रेस की हार क्यो हुई और हम कैसे जीते ? तब लोगो ने कहा था बी एस पी , मेरी समझ मे नहीं आया की कैसे बहुजन समाज पार्टी हमारी विजय का कारण बन सकती हैं ? तब मुझे बताया गया की बी - का मतलब हैं बिजली और एस -का मतलब हैं सड़क और पी का अर्थ हैं पानी , अर्थात इन तीनों ही फ्रंट पर दिग्विजय सिंह सरकार बुरी तरह से असफल रही हैं इसी लिए भ जा प की जीत हुई हैं | तब की गयी यह टिप्पणी इस बार भी मौंजू हैं , विगत दस सालो मे प्रदेश मे विद्युत की आपूर्ति काफी संतोसजनक रही हैं , सिये कुछ ट्रान्स्फ़ोर्मर और लाइन की गड़बड़ी के | चाहे गाँव हो या शहर विद्युत की आपूर्ति से लोगो को शिकायत नहीं हैं ,यूं तो वोल्टेज अथवा बिजली ठप होने की छिटपुट शिकायते रही हैं | जंहा तक सड़क का मामला हैं तो बड़े - बड़े शहरो को जोड़ने वाली सभी सड़के बी ओ टी द्वारा चलायी जाने के कारण काफी ठीक हालत मे हैं जिस से आवागमन बड़ा हैं अब सड़क पर ट्रैक्टर की संख्या संख्या मे बदोतरी हुई हैं , जिनहे किसान फसल के अलावा माल धो कर अपनी किश्त निकाल रहे हैं | पानी की समस्या का समाधान भी बारगी बांध का पानी इस बार से किसानो को सिंचाई के लिए सुलभ हो गया क्योंकि नहरों का निर्माण हो गया | कैसी विडम्बना हैं की बीस वर्ष से बने हुए इस बांध की नहरों का निर्माण काँग्रेस सरकारो द्वारा नहीं कराया गया |
वैसे मध्य प्रदेश मे यह पहला मौका हैं की जब एक व्यक्ति ने तीसरी बार मुख्य मंत्री का पद सम्हाला हैं | यह चमत्कार ''व्यक्ति और संगठन की शक्ति के साथ ही किए गए ""जन कलयाणकारी "" कार्यो के फलस्वरूप ही मिली हैं | यह सफलता न तो चुनावी ELECTION MANAGEMENT" की हैं ना ही जोड़ - तोड़ कर वोट घेरने की | इस सफलता से बहुत से खुर्राट नेताओ के दिमाग के जाले साफ हो जाएँगे | क्योंकि दो बार मुख्य मंत्री बनने के बाद ''राजनीति के पंडित'' बने इन स्वमभू महानुभावों को आज प्रदेश की जनता फूटी आंखो भी नहीं देखना चाहती हैं | शिवराज की तीसरी ताजपोशी ने शासन की प्राथमिकताओ --राजनीतिक छवि --और चुनाव लड़ने के तरीके के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं |

Dec 1, 2013

आरोपो के घेरे मे न्यायाधीश

आरोपो के घेरे मे  न्यायाधीश 
                                           यूं तो अक्सर ही अदालतों मे व्याप्त भ्रस्टाचार के किस्से कहानिया गली चौराहो मे सुनने को मिल जाते हैं , परंतु जैसा की होता हैं की पुलिस को लाख गाली देते हो पर जब कोई बात होती हैं तब पहुँचते थाने ही हैं | फिर भले ही वह रिपोर्ट लिखने के लिए चार -पाँच सौ रुपये निकल जाये | पर जाते तो वंही हैं | उसी प्रकार हर अत्याचार या ज्यादती के खिलाफ  लोग अदालत की शरण मे ही जाते हैं , फिर भले ही वंहा अहलकार - पेशकार और वकील साहब धीरे - धीरे नोट निकलवाते जाये | पर न्याया पाने की आशा मे वह लुटता रहता हैं | सिर्फ एक उम्मीद पर की '''जज''' साहब दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे | 

                                        उस भले मानुष  को क्या मालूम की आज के बाजरवाद  की दुनिया मे सब कुछ बिकाऊ हैं , यहा  तक की '''इंसाफ''' की भी बोली लगती हैं | कई बार एक जैसे मामलो मे अलग - अलग प्रकार का फैसला होना अथवा  गरीब को हथकड़ी और धन पशु  या दबंग आरोपी को पुलिस बड़े आराम से ले जाती हैं | तब लगता हैं की कानून भी बिकता हैं |  अब बात करे न्याया धीशों की , अभी -अभी सूप्रीम कोर्ट के जज  गांगुली साहब पर एक ट्रेनी वकील ने यौन शोषण का आरोप लगाया | सूप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने तीन जजो  की समिति छानबीन के लिए बना दी |अब महिला संगठनो ने तो तुरंत जज साहब के खिलाफ  पुलिस मे रिपोर्ट लिखा कर कारवाई करने की मांग की | मतलब उनकी गिरफ्तारी की ....| जबकि पूर्वा न्यायाधीश  आलतमस कबीर साहब ने ट्रेनी वकील के आरोप को बेबुनियाद करार दिया | पेंच इस मामले यह हैं की 2जी स्पेकट्रूम के फैसले मे गांगुली जी ने उद्योग घरानो के खिलाफ फैसला दिया था , उन्होने अन्य मामलो मे भी बड़े - बड़े लोगो के हितो के खिलाफ फैसला दिया था |   अब यह शक हो रहा हैं की जज के अवकाश प्राप्त करने के बाद  उन्हे नीचा दिखने की यह कारवाई तो नहीं हैं ? आज के माहौल मे इस को खारिज भी नहीं किया जा सकता | लेवकिन फिलवक्त  तो  जज साहब आरोपो के घेरे मे आ गए या लाये गए यही सवाल हैं ?
   

Oct 29, 2013

दंगो की आंच मे बिखरता अजगर का गठबंधन

दंगो की आंच मे बिखरता  अजगर  का गठबंधन   
                                                                      उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग के मुजफ्फरनगर  मे 27 अगस्त से दस दिनो तक चले दंगो ने उस इलाके मे जो जातीय वैमनस्य  का बीज बो दिया हैं , वह खतम होने मे काफी समय लगेगा |  वैसे संयुक्त  प्रांत के समय से ही यानि की आज़ादी के पहले से  बरेली - मेरठ   आदि के इलाको के लोगो को अलग प्रांत की चाहत थी | परंतु आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश बनने  के बाद भी यह मांग धीमी पद गयी | परंतु इस छेत्र के  पुरोधा नेता चौधरी चरण सिंह  ने जब 1967 मे काँग्रेस को छोड़ कर जन काँग्रेस बनाई , और चन्द्र भानु गुप्ता  की साकार गिरा दी | शब्द '''फ्लोर क्रोससिंग " भी उसी समय से बना अस्तित्व मे आया अगले चुनाव मे  जब उनकी ज़न क्रान्ति दल  पार्टी चुनाव मे उतरी तब उन्होने  पश्चिमी ज़िलो के लिए अलग प्रदेश की मांग उठाई | यही  आरंभ  थी ''हरित प्रदेश ''' की आवाज की | साथ ही  उन्होने काँग्रेस के वोट बैंक के मुक़ाबले  '''अजगर'' बने |

                    अजगर जातियो का एक संगठन था जो चरण सिंह को अपना नेता मानते थे | इसमे  उनकी जाति जाट के साथ अहीर या यादव और गुज़र और राजपूत  थे साथ मे वे मुस्लिम भी थे जिनके सरनम जाटो जैसे थे  मसलन मालिक - जाट आदि वे भी इस अजगर मे शामिल हो गए और चौधेरी साहब का काँग्रेस के समानान्तर  एक वोट बैंक बन गया | जिसके कारण उनके समर्थक इस छेत्र मे प्रभावी हो गए |  हरित प्रदेश और अजगर  के बाद लगा  की इन खेतिहर किसानो के समुदाय को एक राजनीतिक पहचान मिली | हालांकि हरियाणा मे देवीलाल उर्फ ''ताऊ'' भी जाटो के नेता थे परंतु अजगर की अन्य जातीय  उन्हे नेता नहीं मानती थी | इस कारण उनका रास्तरीय राजनीति मे उदय तभी हो पाया जब चरण सिंह का अवसान हो गया | उनकी राजनीतिक विरासत  भी तभी पायी |

                                      आज एक बार फिर इस अजगर  की एकता बिखर रही हैं , देखना होगा की चौधरी  चरण सिंह के पुत्र और केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह इस विरासत को कितना सम्हाल पाते हैं | 

Oct 27, 2013

राजनीति मे वंशवाद --देश और दुनिया

        क्या फर्क हैं काँग्रेस के  और भारतीय जनता पार्टी के वंशवाद मे ?

                       वंशवाद के  मूल मे है -- विवाह संस्था , मोदी का यह कहना की काँग्रेस ने देश मे वंशवाद फैलाया हैं , इसका एक अर्थ यह भी हो सकता हैं की ''राजनीति ''' मे वे लोग ही आए जो परिवार छोड़ दे या विवाहित नहीं हो | इस कसौटी  पर तो  श्री  अटल बिहारी  वाजपाई  के अलावा और कौन खरा उतरेगा ,कहना मुश्किल हैं | उनके इस प्रलाप से ग्रीक दार्शनिक अरस्तू  के राज्य के सिधान्त की याद आती हैं , जिसमे उसने कहा था की ''''शासक  बनाने वाले लड़को  को बचपन मे ही  परिवार से अलग कर देना चाहिए | एवं उन्हे विवाह की मनाही होनी चाहिए , हाँ उनके मानो - विनोद के लिए महिलाए सुलभ कराई जानी चाहिए """ | उसका तर्क था की परिवार के कारण शासक मे निस्पक्श्च्ता नहीं रह जाती हैं | वह परिवार के मोह मे फंस जाता हैं |  साम्यवादी क्रांति के बाद चीन मे ''कम्यून "" की स्थापना की थी , जिसमे लड़के और लडकीय अलग -अलग रहते थे | उनका खाना एक साथ होता था , परंतु सोते अलग - अलग थे | परंतु आखिर मे पार्टी नेत्रत्व को यह प्रयोग बंद करना पड़ा | वैसे मोदी ने लोकतन्त्र के चार दुश्मन बताए ---वंशवाद - जातिवाद --संप्र्दयवाद और अवसरवाद , वासतवे मे प्रथम तीन मूल रूप से एक हैं | '''वंश''' से ही कुल -गोत्र - जाति और संप्रदाय  का स्वयमेव  निर्धारण हो जाता हैं | क्योंकि इन तीनों संस्थाओ मे कोई ''''' चुनाव'''करके नहीं आता हैं वरन जनम लेते ही इन तीनों का निर्धारण हो जाता हैं | रही बात अवसरवाद की तो , वह तो ''बुराई'''नहीं वरन '''गुण''' माना जाता  हैं | अङ्ग्रेज़ी और हिन्दी याहा तक की गवई   -गाव  की भाषा मे भी यही कहा गया हैं { मोदी भोजपुरी - मैथिली और मगही मे भी बोले थे } समय चूक पुनि का पछताने अथवा अब पछताए होत का जब चिड़िया चूक गयी खेत  आदि ऐसी ही कहवाते हैं , जिनमे अवसर '''पहचानने """" की सीख दी गयी हैं | पर गुजरात के मुख्य मंत्री  ''उल्टी सीख ''''दे रहे हैं |



                      पटना मे मोदी ने राहुल गांधी को शहज़ादा  कहने पर काँग्रेस पार्टी की प्रतिकृया  का जवाब देते हुए कहा की , मैं उन्हे शहज़ादा कहना  बंद कर दूंगा , बशर्ते  काँग्रेस पार्टी यह वादा करे की वह अपने यहा से वंशवाद को परिवारवाद को खतम कर दे | यानि की उन्हे  काँग्रेस  से ''एलेरजी''  नहीं हैं , वरन उसे उस परिवार से हैं जिसके  दो   लोग  प्रधान मंत्री   रहे हैं , और देश के लिए शहीद हुए | दुनिया के प्रजातांत्रिक इतिहास मे बिरले परिवार ही हुए हैं जिनके दो लोगो ने  देश का  नेत्रत्व किया हो | हाल  ही मे अमेरिका के बुश परिवार के पिता और पुत्र ने देश का नेत्रत्व किया |  श्री  लंका मे यही बात भंडारनायके  परिवार मे भी हुई श्री भंडार नायके  की हत्या के बाद श्रीमति सीरिमावों  भंडारनायके प्रधान मंत्री बनी फिर उनकी पुत्री श्री कुमार तुंगा प्रधानमंत्री  बनी | बाद मे सीरिमावों भंडार नायके  राष्ट्रपति भी बनी | 

                                                           इसलिए परिवारवाद को "कलंक" समझने  की आदत का आधार क्या हैं , यह स्पषट  करना होगा उन लोंगों को जिनका 'आरोप '' हैं की इस वंशवाद ने राजनीति को दूषित कर दिया हैं | अब उनसे यह पूछना होगा की आखिर  क्या हैं कारण ? क्या इसकी वजह यह तो नहीं की  खानदान  की विश्वसनीयता - और पकड़ तथा  जनता मे उनके प्यार से कनही उन लोगो डर तो नहीं लग रहा हैं ---जो इस """ अवसर""" से वंचित हैं ? शायद ऐसा ही हैं | अब दक्षिण के राज्यो से शुरू करे तो हम पाएंगे  की केरल के मुख्य मंत्री  चांडी के पिता भी केरल मे मंत्री रहे फिर मध्य प्रदेश के राज्यपाल रहे | तमिलनाडु मे तो डीएमके  मे करुणानिधि मुख्य मंत्री रहे और और उनका समस्त परिवार  राजनीति मे हैं बेटा विधायक दोसरा बेटा संसद और बेटी भी राज्य सभा सदस्य  हैं | जयललिता  को भी पूर्व मुख्य मंत्री  एम  जी रामचंद्रन की राजनीतिक विरासत मिली जो उनकी पत्नी नहीं प्राप्त कर सकी | अब यह एक संयोग ही हैं की ब्रा महण विरोधी राजनीति की सर्वे सर्वा एक ब्रा महण कन्या ही हैं | गोवा मे भी पिता -पुत्री मुख्य मंत्री  रह चुके हैं |  उड़ीसा  मे बीजू पटनायक मुख्य मंत्री रहे आज उनके चिरंजीव  वहा के मुख्य मंत्री हैं  |  उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा  के पुत्र आज उतराखंड के मुख्य मंत्री हैं |

                     इतने उदाहरणो के बाद क्या मोदी के कथन को ''वज़न'' दिया जा सकता हैं ? बिलकुल नहीं , क्योंकि जो घटनाए इतिहास मे ''स्वयं सिद्ध""" हैं वे एक मुख्य मंत्री के कहने से गलत नहीं हो जाती हैं | उत्तर प्रदेश मे मुलायम सिंह यादव के बाद उनके सुपुत्र अखिलेश यादव आज मुख्य मंत्री हैं |  पंजाब मे पिता -पुत्र अकाली सरकार मे मुख्य मंत्री और उप  मुख्य मंत्री हैं | कश्मीर मे तो तीसरी पीड़ी  मुख्य मंत्री हैं - शेख अब्दुल्ला फिर फारुख अब्दुल्ला और अब ओमर अब्दुल्ला , क्या खराब हुआ वहा पर ?

            मोदी के इस प्रलाप मे उनका साथ उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष  प्रभात झा  ने कुछ इस अंदाज़ मे दिया की , अगर किसी नेता के परिवार का सदस्य  राजनीति मे आ जाता हैं तो वह वंशवाद नहीं हैं , लेकिन किसी नेता के पुत्र या पुत्री को इसलिए पार्टी अपना उम्मीदवार नहीं बनती हैं की उसके पिता  पार्टी के नेता हैं | अब इस '''आ जाने''' और रिश्ते के कारण टिकिट न देने का तर्क क्या हैं ? जिस किसी को भी पार्टी की ओर से चुनाव लड़ने का उम्मीदवार बनाया जाता हैं , तो जनता को क्या यह बात नहीं मालूम होगी की पार्टी का प्रत्याशी किसका भाई - भतीजा या पुत्र हैं ? भारतीय जनता पार्टी के अलावा यह आरोप एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लगाया जा रहा हैं , जिसका वजूद ही उसके पिता  के कारण हैं --जी हाँ  वाई एस  आर  रेड्डी  जो आंध्र के मुख्य मंत्री थे उनके सुपुत्र जगन रेड्डी ने तेलंगाना के मुद्दे पर कहा की  सोनिया गांधी अपने पुत्र को प्रधान मंत्री  बनाने के लिए तेलुगू  बेटो के भविष्य  से खिलवाड़ कर रही हैं ! हैं न अजीब बात सूप तो सूप चलनी  भी बोले | आलेख का तात्पर्य मोदी जी के तर्क के जवाब मे  हैं | | क्योंकि वे अगर राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के सदस्य हैं जिसमे ''जीवनदानी''' सदस्यो को आजन्म अविवाहित रहना होता हैं , तो यह उनका फैसला हैं |लेकिन यह कोई ध्रुव  सत्य  नहीं हैं , की ऐसे नेता '' आदर्श''' होते हैं  जो अविवाहित होते हैं | |मैं यहा मोदी जी को एडोल्फ हिटलर का उदाहरण देना चाहूँगा , जिनहोने आतंहत्या करने के पहले एवा ब्राउन से शादी रचाई थी | कहने की बात नहीं हैं की दुनिया जानती हैं की वे कितने ''आदर्श''' लीडर साबित हुए की आज भी लोग उन्हे गाली ही देते हैं | इतिफाक से  हिटलर भी अविवाहित नेता थे !  

Oct 25, 2013

बॉम्बे पिंजरपोल धर्मार्थ संस्था ,--जहा कतार लगा कर चंदा देते हैं गौ माता के लिए

                  बॉम्बे  पिंजरपोल  धर्मार्थ  संस्था  ,--जहा कतार लगा कर चंदा देते हैं  गौ माता के लिए
   Bombay Pinjarpol  a parsi institution where  --Hindu  wait in Q to deposit donation
             
                             रीवा के एक ब्लॉक  मे सौ से अधिक गाय भूखी और बीमारी से मर गयी , यह बात बीते 1अठारह  अक्टोबर  की हैं , जो की  अखबारो के माध्यम से  बहुत बाद प्रकाश मे आई | कुछ तो चुनाव और कुछ ऐसी घटनाओ के प्रति ''' सेलेक्टिव""" नकारने का दृष्टि कोण |  फिर भी  यही घटना कुछ एक ''हिंदुवादी संगठनो ''' के लिए उत्तेजना का कारण बनती ---अगर इसमे कोई ''गैर हिन्दू''' संबन्धित होता | अब ट्रक मे कसाई खाने ले जाने वाले गौ को छुड़ाने का ''पुण्य ''' तो कुछ रण-बांकुरे """लेते , परंतु ऐसा हो न सका क्योंकि ''जय  बसामान  मामा गौशाला समिति ,एक नेता की हैं ,वह भी सत्तारूद दल के , बाद मे जब मृत  पशुओ  से बदबू आने लगी और निकट मे बहने वाले नाले मे उनके शवो को पटक दिया गया , तब गाओन वालों ने हँगामा किया | जिस पर बाध्य होकर ज़िला प्रशासन ने  अदूयकश  योगराज सिंह समेत 20 लोगो के वीरुध मुकदमा कायम किया | परंतु किन धाराओ के अंतर्गत यह पुलिस बताने से गुरेज कर रही हैं |

                                                                यह स्वयंसेवी  संस्था  पिछले छह  वर्षो से शासन द्वारा आवंटित भूमि पर गौशाला चला रही हैं | प्रति वर्ष इसे हजारो रुपयो का अनुदान सरकार से मिलता हैं | फिर भी यानहा गौ माता ''भूख और बीमारी --कुपोषण''' से  मरती हैं | क्योंकि अनुदान और चारा  के पैसा  तो ''नेताजी '' के और उनके सहयोगीयो के पेट मे चली जाती हैं |

                                                              इसके मुक़ाबले मुंबई  मे पारसियों  की एक धर्मार्थ  संस्था हैं  कोवास जी रोड पर ''जिसका नाम हैं  बॉम्बे पिंजारपोल'' , यह संस्था  संभवतः एकमात्र हैं जो किसी व्यसायिक  अथवा लाभ के लिए नहीं चलायी जा रही हैं | यहा  गायों को रखा जाता हैं -- उनकी उचित देख भाल की जाती हैं , उनके लिए डॉक्टर हैं और उनसे मिलने वाला दूध को संभवतः  मुंबई मे सबसे मनहंगा  होता हैं | और यानहा का दूध पाने के लिए कार्ड बनते हैं --जो की सीमित संख्या मे होते हैं | परंतु यह आलेख  का उद्देस्य यह नहीं हैं -वरन यानहा पर मारवाड़ी  और गुजराती  सेठो  और उनकी पत्नियों को  पूर्णमासी और अन्य पर्वो पर यहा  लाइन लगा कर  ''चारे के लिए हजारो का चंदा देते हैं """ | सवाल हैं ऐसा किसी  तथा कथित किसी'"""' हिन्दू'''गौशाला मे क्यों नहीं होता ?  शायद यह पारसी  सज्जनों की """ईमानदारी और निष्ठा """ ही हैं जो गौ माता के प्रेमियो को बाध्य करती हैं ---अंशदान  देने के लिए || क्योंकि यंहा के प्रबन्धको  पर लोगो का विश्वास हैं की वे चारे का पैसा """हजम""" नहीं करेंगे |  मैं ऐसे  गैर हिन्दू  संस्था और उसके प्रबन्धको को शीस  झुकाता  हूँ |

















Oct 23, 2013

किसे कहे गौ रक्षक --- वैदिक धर्म की रक्षा के स्वयं भू अलमबरदार या गैर '''हिन्दू'''को ?

      किसे कहे  गौ रक्षक --- वैदिक धर्म की रक्षा के स्वयं भू अलमबरदार या  गैर '''हिन्दू''' को ?
                                                   
                                                          अक्सर ही अकहबरों मे ऐसे बयान पड़ने मे आते हैं की ट्रक भर गायों को कसाई के हवाले होने से बचाया गया ,  फिर किसी वाहिनी या किसी सेना या फिर कोई और संगठन का नाम होगा , जिनहोने गौ माता की जान बचाने का ''पुण्य'' कमाया |  मुक्त कराई गायों को किसी न किसी न किसी गौशाला  के हवाले कर दिया जाता हैं | जो किसी न किसी  ''हिन्दू''' धर्म के  स्वयं भू अलमबरदार  द्वारा चलायी जाती हैं |  और वनहा क्या होता हैं ---------यह कोई ढकी  छुपी  बात नहीं हैं ,  की इन गौ -सदनो मे '''दूध ना देने वाली '''इन जगजननी  का क्या हाल होता हैं ? यह भी तथ्य हैं की  प्रदेश हो या की केंद्र की सरकार हो , सभी ''ऐसी''' संस्थाओ को आर्थिक मदद तो देती हैं | परंतु इन ''गौ माता के रखवालों''' का हाल तो वही हैं  जो लालू प्रसाद का हैं --यानि की सरकारी अनुदान और चारा ''हजम''' |

                                                             इन पंक्तियों  को लिखने का अभिप्राय  समाज और सरकार के पाखंड को उजागर करना हैं | रीवा ज़िले के  सेमरिया के अटेरिया का पुरवा मे   एक समिति हैं   ''जय बसामन मामा  गौशाला समिति , जो विगत छह वर्षो से चल रही हैं | वनहा 17 अक्टोबर  को भयानक दुर्गंध की शिकायत स्थानीय निवासियों द्वारा की गयी |, तब स्थानीय प्रशासन को मौके पर एक सैकड़ा गायों  के शव मिले | गौ शाला के बगल से निकलने वाले  नाले मैं  भी कुछ गाये मारी पड़ी थी | हल्ला - गुल्ला होने पर और भीड़ के उत्तेजित होने के कारण प्रशासन को गौशाला  के अध्यकक्ष योगराज सिंह समेत बीस लोगो के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ किया | परंतु गिरफ्तारी अध्यकक्ष  के बेटे की ही हुई , क्योंकि ''वे तो नेता जी हैं ''''' अब उन्हे कैसे गिरफ्तार करें?

                                  यह एक घटना  साबित करती हैं की की ज़ोर - ज़ोर से चिल्लाने वाले और अपने को स्वयं भू गौ रक्षक घोसित करने वालों का ''सच'' क्या हैं ? अगर हम लालू प्रसाद यादव को ''चारा घोटाला किंग ''' कहने की हिम्मत करते हैं , तब हुमे ऐसे गौ रक्षको  को क्या कहे ? जो चारा तो चारा अनुदान  भी खा जाते हैं | 

Oct 22, 2013

उन परिस्थितियो मे जंहा चुनने का अधिकार हो ही नहीं ऐसी स्थिति को क्या अच्छा या बुरा कहा जा सकता हैं ?


     उन  परिस्थितियो मे जंहा चुनाव का अधिकार हो ही नहीं ऐसी स्थिति को क्या अच्छा या बुरा कहा जा सकता हैं ?

                       देश और काल तथा परिस्थितिया प्रत्येक जीवधारी के जीवन के लिए निर्णायक होते हैं | जैसे कोई क्न्हा जन्म लेता हैं , किस काल मे लेता हैं , उस समय की परिस्थितिया कैसी हैं , इसमें '''जातक'''या जीव का कोई दाखल नहीं होता हैं | लगता होगा की काफी दार्शनिक व्याख्या की गयी हैं ,परंतु यह एक ऐसा कटुसत्यहैं  जिसके लिए सभी उस जीव या मनुष्य को या तो सराहते हैं अथवा उसे ''कलंकित'''करते हैं | जब की उस ''जातक''' की कोई भूमिका नहीं होती | वेदिक धर्म के एक '''सिधान्त ''''के अनुसार  जीव की ''यौनि ''' अर्थात , उसका स्वरूप क्या हैं --कैसा हैं  इसका निर्धारण '''पूर्व जन्म ''''  के ''कर्मो के आधार पर निर्धारित होती हैं | इस का अर्थ यह हुआ की की एक ऐसा समय जिसका '''ज्ञान'' उस ''''जातक ''' को नहीं हैं , वर्तमान काल का आधार ही वे परिस्थितिया हैं |आजकल की भाषा मे कहे तो कहेंगे की जो हमे मालूम नहीं उस पर विश्वास कैसे करें ? चलो यह तर्क भी मान ले तब भी यह तो स्वीकार करना होगा की आखिर वे '''कौन से कारण ''' हैं जिसकी वजह से वह '''वर्तमान''' को ''भोग ''रहा हैं ?अर्थात वह अगर सिंह हैं तो क्यों और हिरण हैं तो क्यों ? क्या हिरण का जन्म सिर्फ सिंह का ''आहार ''' बनने के लिए हुआ हैं ? वे कौन से कारण या वजह हैं जिन से यह     संभव हुआ   ?  
                   चलिये इन कारणो को हम आज के मानव समाज मे दुहराते हैं और उनके '''फलाफल''' को जानने की कोशिस करते हैं | सर्व प्रथम  हम व्यक्ति  के जन्म की स्थितियो  पर गौर करे ------- वह किस माता  पिता की संतान हैं |? स्त्री हैं अथवा पुरुष या की तीसरा ...वर्ण ? जिनके यानहा जन्म हुआ हैं ,उस कुल --गोत्र -जाति स्थान क्या हैं ? स्वाभाविक हैं और सत्य हैं की ''कर्म'''सिधान्त को चलो हम फिर कभी विचार  करेंगे , लेकिन ''इन ''' सवालो के जवाब तो खोजने ही होंगे | इसका मतलब यह हुआ बहस के दो हिस्से हो गए ----एक जन्म के पूर्व का दूसरा '''वर्तमान''' का | अब मौजूदा हालत पर गौर करे , तो यह मानना होगा की आप का लड़का अथवा लड़की के रूप मे पैदा होना '''नर और मादा के संयोग'' का फल हैं | मेडिकल साइन्स की भाषा मे  अंडाणु  और शुक्राणु का मिलना ही हमारे जन्म का कारण हैं | क्रोमोसोम की गणना  स्त्री - पुरुष एवं तीसरे योनि का फलफल हैं |  अब आप के जन्मदाता आप का पालन - पोषण करते हैं या कोई और करता हैं , इसमें भी ''जातक''की भूमिका नहीं हैं |वे किस ''जाति''के हैं '''छेत्र'' के हैं यह भी  ''जातक''' पर थोपा हुआ हैं , जिससे                      वह ''बंधा '' हुआ हैं ||
                         जन्म के समय से आप के भोजन की व्यसथा कौन करेगा यह भी  उस के द्वारा निर्णीत नहीं हैं ||भ्रूण के फेंके जाने जन्म के बाद  कूड़ेदान या सार्वजनिक स्थानो पर जन्म के बाद छोड़ दिये जाने के लिए भी   वह स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं | परंतु उसे इन स्थितियों को """भोगना"" पड़ता हैं | अब वह किस ''''धर्म ''' मे पैदा हुआ हैं , यह भी वह '''इस अवस्था''' मे नहीं चुन सकता | जिस धर्म के '''पालनहार''' के हाथो पद गया , वही उसका  भविष्य  बन जाता हैं |अब अनाथालयों मे पाले जा रहे बालक - बालिकाओ को किस धर्म के ''''जननी --जनक'''' इस धरा पर लाये  उसकी भी जानकारी ----- दूसरों  द्वारा ही ''जातक'' को दी जाती हैं , उसमे भी  सत्या क्या हैं --वह भी विश्वास की वस्तु होती हैं |

                                                                   जातक को अपनी  पहचान उस आयु  मे पता चलती जब या तो उसका नाम विद्यालय  मे लिखाया जाता हैं अथवा  उसे ''अपनी रोटी''' खुद जुगाडनी पड़ती हैं | पहली वाली स्थिति मे ''रोटी'' की समस्या नहीं होती हैं | दूसरी वाली मे उसकी पहचान समाज या फिर पुलिस बनाती  हैं |  इस समय से हम कह सकते की जातक के '''कर्म''' उसके हैं उसका परिणाम भी उसे ही भोगना हैं | यंहा एक सवाल खड़ा होता हैं की   की ''हम यानि समाज''' उसकी पहचान गढते हैं , या वह स्वयं ? हक़ीक़त  यह हैं यंहा भी वह ''निर्णायक '''की भूमिका मे नहीं हैं |, वरन ''मजबूरी''' की भूमिका मे हैं | जिसे हम अक्सर  उन लोगो को जोड़ते हैं जो या तो बाज़ारो मे  ''पाँच से लेकर दस वर्ष की आयु ''' के होकर भीख मांगते हैं अथवा चाय की दूकानों सड़क के किनारो के ढाबो  मे  अपनी सुविधा के अनुसार कभी ''मुनदु'' कभी मोहन '' तो कभी अब्दुल'' के नाम से बुलाते हैं |तब तक उसे ही ''भ्रम'' रहता हैं की उसका ''असली'' नाम क्या हैं | असली से मेरा आशय  उन नामो से होता हैं जो हमारे देश की आबादी के नब्बे फीसदी लोगो को मिले हैं , यानि समाज के सामने माता - पिता [ जनक - जननी ] द्वारा दिये गए हैं |
                                                                      अगर नाबालिग पेट की भूख के लिए काम कर रहा हैं , अथवा पब्लिक स्कूल मे  क ख  ग पद रहा हैं , दोनों ही परिस्थितियो मे उसकी पहचान  बन जाती हैं | उसका धर्म भी '''नियत''' कर दिया गया होता हैं | हाँ कूल -गोत्र तो ''बड़े भाग्य''' के लोगो की पहचान बनता हैं | अब ऐसी स्थिति मे किसी उस लड़के को हम गाली दे और कहे की तू ''मुसलमान'' हैं या ''हिन्दू''' हैं इसलिए तू  हमारी नफरत का कारण हैं |तो क्या हम उचित और सही कर रहे हैं ? सोचने का विषय हैं |
                           

Oct 6, 2013

ऐसा क्यों होता हैं की कुछ लोग ""खुद को ही राष्ट्र ""मान लेते हैं ?


                 ऐसा क्यों होता हैं की कुछ लोग ""खुद को ही राष्ट्र ""मान लेते हैं ?
                 राज्यो मे विधान सभा  चुनावो की घोसणा होने के बाद तो अनेक समस्याए  'राष्ट्रिय''' बन जाती हैं | भले ही वे प्रश्न  स्थानीय अथवा प्रादेशिक स्तर पर समाधान किए जाने की पात्रता वाले हो | परंतु टीवी शो मे भाग ले ने वाले वक्ता ,जो विभिन्न राजनीतिक दलो अथवा संगठनो से आते हैं , अक्सर यह जुमला ज़रूर कहते हैं की"" देश इसका जवाब चाहता हैं ""अथवा"' राष्ट्र को इसका जवाब चाहिए ""? सवाल यह उठता हैं की राष्ट्र ''कुछ व्यक्तियों ''' अथवा किसी '''व्यक्ति'' तक ही सीमित हो गया हैं ?या फिर इन लोगो ने ही राष्ट्र  की ज़िम्मेदारीसम्हालने की ''हैसियत''' पा  ली हैं ? ऐसा एक बार न्यायपालिका के जज साहेबन ने भी किया था ,जब एक मामले मे उन्होने लिख दिया था "" की वे राष्ट्र को बताएं """ जब की वे राष्ट्र के एक प्रदेश के उच्च न्यायालय के जज ही  थे | 

                              राष्ट्र या देश का प्रत्येक नागरिक उसका वैधानिक अंग हैं ,परंतु क्या वह सम्पूर्ण देश की ओर से ''बोलने या पूछने "का वैधानिक रूप से अधिकारी हैं ? ऐसा माना जाता हैं की जहा ' 'देश ''का कोई  वैधानिक रूप से प्रतिनिधि  नहीं  हो वहा  देश का कोई भी ''वयस्क  नागरिक "" ज़रूरत पड़ने पर अत्यंत सीमित दायरे तक ही नुमायान्द्गी कर सकता हैं | ऐसा केवल विदेश मे ही संभव हैं |अथवा ऐसे आयोजनो मे हो सकता हैं जहा देश का कोई अधिक्रत  नुमायान्द्गि नहीं कर रहा हो , और भारतीय नागरिक के रूप मे आप हाथ  उठाए | परंतु इस से अधिक तो कुछ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि ""कुछ करने का ""का अधिकार आप के पास नहीं होता हैं |  अन्तराष्ट्रिय  स्तर पर इसीलिए  देश का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार  वंहा स्थित दूतावास को ही होता हैं |देश की सीमाओ के भीतर तो यह अधिकार तो केंद्र शासन के पास ही हैं |
                        
                                             क्योंकि देश की प्रभुसत्ता केंद्र के निकायो मे निहित हैं | सर्व प्रथम राष्ट्रपति फिर कार्यपालिका मे निहित हैं | क्योंकि वे ही ''राष्ट्र''' की ओर से आधिकारिक रूप से बोल सकते हैं कोई वादा भी कर सकते हैं | जो कोई अन्य व्यक्ति या निकाय नहीं कर सकता |
                                 ऐसे मे जब कोई भी व्यक्ति राष्ट्र की नुमायान्द्गी करता हैं तो , हक़ीक़त मे वह '''पूरे देश या राष्ट्र'''' के लिए नहीं होता हैं |वह तो सिर्फ उस व्यक्ति की निजी रॉय या प्रश्न होता हैं अथवा जिस संगठन या पार्टी का वह प्रतिनिधि हैं उसकी रॉय या सवाल होता हैं | परंतु जिस ज़ोर और ठसके से यह कहा जाता हैं ---तो लगता हैं सारा राष्ट्र या देश उनमे ''उतर ''आया हो | जैसे नवरात्रि मे लोगो को देवी का ''आवेश'' होता हैं वैसा ही कुछ | 
           
                             इस सब को देख समझ कर लगता हैं की क्या राष्ट्र या देश का इतना लघु रूप हो गया हैं की 120 करोड़  मे हर कोई उसका ''चाहे - अनचाहे ''' नुमायान्द्गी कर सकता हैं ? अथवा यह सिर्फ बोलने भर की बात हैं , बाक़ी तो कायदे - कानून से सब होता हैं | सोचिए ............

Sep 30, 2013

आशाराम से ओजस्वी तक की कथा .........

              आशाराम से  ओजस्वी तक  की कथा .........
                              यौन उत्पीड़न के आरोप मे फंसे आशाराम  जब जोधपुर की जेल  मे एकांतवास की सज़ा भुगत रहे तब उनके वारिस और संतान नारायण ''स्वामी'' ने नयी राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया हैं | उधर उनके  आश्रमो  पर सरकार  ने बेदखली की मुहिम चला दिया हैं | इंदौर - देवास और छिंदवाड़ा के आश्रमो के प्र बन्धको  ने जमीनो के दस्तावेज़ दिखाने मे असफल रहे हैं | मजबूरन जिला प्रशासन को तोड़-फोड़ और कब्जे की कारवाई करनी पड़ी | इस कारवाई से एक बात साफ हो गयी की आलीशान आश्रम  सभी सरकारी जमीनो पर गैर कानूनी कब्जा कर के बनाए गए थे | मतलब यह की ''धर्म ''' की दूकान  अधर्म  की जमीन पर बनाई गयी थी |  तब यह साफ हो गया की यह सब एक """पाखंड"" था , कोई धर्म प्रचार नहीं | उनकी असलियत दुनिया के सामने आने के बाद अनेक जगह उनकी फोटो को टोकरी पर सर पर उठा कर उन्हे नदी या नाले मे ''सिरा'' दिया हैं | जैसे शादी के ''मौर '' को जल मे सिधार दिया जाता हैं , बिलकुल वैसे ही | 
                              इन जैसे फर्जी धर्म के ठेकेदारो से ही आज लोगो का विश्वास धर्म पर उठता जा रहा हैं , लेकिन फिर भी बहुत से लोगो की श्रध्दा वास्तविक सिद्धांतों से उठती जा रही हैं , और अंध विश्वासों पर जमती जा रही हैं | जिसको तोड़ने का कोई उपाय हमारे समाज मे नहीं किया जा रहा हैं | इसके खिलाफ ये बाबा लोग कोई भी ऐसा काम नहीं कर रहे हैं जिस से लोगो का अंध विश्वास समाप्त  हो | 
                            पहले ये बाबा लोग पहले  शिष्यो की फौज खड़ी करते हैं --फिर आश्रम  के नाम पर या तो उनकी जमीन लेते हैं अथवा सरकारी जमीन पर कब्जा  जमाते हैं | फिर उस पर निर्माण होता हैं फाइव स्टार आश्रम का ,जिसमे स्विमिंग पूल भी होता हैं , हाल भी होता हैं अनेक कच्छ होते हैं जिनमे  कहने के लिए ध्यान किया जाता हैं परंतु होते हैं शयन के लिए | कही-कही  लड़को -लड़कियो के लिए शिक्षा का प्रबंध भी होता हैं , उनके लिए छात्रावास भी होता हैं | अब उनमे कैसा इंतजाम होता हैं , यह आशाराम के ''किस्से ''' से साफ हो गया हैं |किस प्रकार  वहा के  छात्रो के साथ व्यवहार होता हैं यह सूरत मे और छिंदवाड़ा के आश्रमो मे लड़को की  संदिग्ध  मौतों से साफ हो गया हैं | हालांकि उस समय उन मामलो को राजनीतिक दबाव के चलते दबा दिया गया था | परंतु अब जबकि इन  गाड़मैनो के कर्मो का  ढक्कन  खुल गया हैं तब सब मामले एक - एक करके सामने आ रहे हैं और उन पर कारवाई भी हो रही हैं |

             यह लोग भी रामदेव की तरह राजनीतिक  उम्मीदे  पालते हैं , क्योंकि ''उन नेताओ की '''उपस्थिती  इन्हे वीआईपी का दर्जा दिलाती हैं | जो उनके शिष्यो की तादाद बढाती  हैं ,  उनका रुतबा ब ढाती  हैं |फलस्वरूप उनकी समाज मे हैसियत बनती हैं , बड़े -बड़े लोग पैर छूते हैं | बस यही से पतन की शुरुआत होती हैं | क्योंकि तब वे अपने को समझने लगते हैं  ''स्वयंभू अवतार ''' और भगवान |
                                     ऐसे मे वे सभी सांसरिक सुख पाने के बाद राजसत्ता को प्रभावित करने के मंसूबे बनाने लगते हैं | फिर शुरू होता हैं रामदेव और आशाराम जैसे गुरुओ का खेल , अब इसे धर्म कहे या व्यापार या कोई और नाम दे .......................                                   

Sep 22, 2013

संविधान के संशोधन की पहल समता के मूल अधिकार को खंडित करने वाला प्रयास होगा

 संविधान  के संशोधन  की पहल समता के मूल अधिकार  को खंडित करने वाला प्रयास होगा           
                           सजायाफ्ता और जैल मे निरूढ़  व्यक्तियों  को  चुनाव के लिए अपात्र   घोसित  किए जाने के सूप्रीम कोर्ट के फैसले से आहत राजनीतिक दलो ने  अब संविधान मे संशोधन का मन बनाया हैं |   इस मुहिम मे संसद के सभी राजनीतिक दल  '''एकमत '''' हैं | एक -दूसरे को पानी पी- पी कर  कोसने वाले दल भी सहमत हैं की यह '''ठीक''' नहीं हैं | भले ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी बिल कानून न बन पाये क्योंकि लोकसभा मे लगातार हँगामा होने के कारण  विधायी  काम काज ही नहीं हो पा रहा हैं | परंतु  अपराधियो को चुनाव लड़वाने के लिए भरपूर प्रयास इसलिए हो रहे  चूंकि वे """ जिताऊ""" कैंडिडैट  होते हैं | 

                                         संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार  भारत के सभी नागरिकों को ''विधि '' के  सम्मुख समानता का अधिकार हैं |  परंतु इसको नियन्त्रित करने के लिए संसद कानून बना सकती हैं | सवाल यह हैं  की राजनीति को अपराधी करण से ''मुक्त'' करने की बात सभी दल करते हैं , फिर वो काँग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो  वामपंथी दल हो | छेतरीय दलो मे शिव सेना - समाजवादी - बहुजन समाज -  द्रमुक हो या अन्न द्रमुक - इतेहादुल मुसलमिन - हो या मजलिसे  मुसावरात  सभी मे ''दागी'' यानि सजायाफ्ता  नेताओ की ख़ासी संख्या हैं | सबसे ज्यादा दागी  संसद और विधायक काँग्रेस मे फिर भारतीय जनता पार्टी मे उसके बाद समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी मे  हैं , परंतु प्रतिशत के अनुसार समाजवादी और बहुजन मे इन लोगो की बहुतायत हैं | 

                       प्रस्तावित संशोधन के अनुसार ""अपील  के अंतिम अवसर तक किसी व्यक्ति को चुनावो मे भाग लेने  का अधिकार रहेगा , "" | यदि कोई  सजायाफ्ता  व्यक्ति समय सीमा मे निचली  अदालत के फैसले के खिलाफ अपील दायर नहीं करता हैं , तब वह चुनाव के लिए अपात्र हो जाएगा |आम आदमी अगर सजयाफ़ता हैं तो वह न तो सरकारी नौकरी के लिए योग्य होता हैं ना ही वह पासपोर्ट बनवा सकता हैं | अनेक स्थानो पर आने जाने के अथवा काम पाने के लिए आवेदनो मे भी सज़ा  याफ़्ता होने के कारण काम नहीं मिलता हैं | ऐसा आदमी समाज के लिए उपयोगी नहीं हो पता हैं | भले ही सज़ा के दौरान उसने ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली हो जिस से वह समाज मे अपनी भूमिका निभा सकता हो | 

        अब ऐसी परिस्थित्यों मे एक विधायक या संसद सदस्य का चुनाव लड़ सकते हैं वरन  वे जिम्मेदार पदो पर रह भी सकते हैं सिर्फ मंत्री बनने के |पद  पर नियुक्त नहीं हो सकते क्योंकि  उसमे  शपथ  लेनी होती हैं ''जिसमे कहना होता हैं की बिना राग या द्वेष ......के ''' अपने कर्तव्य का निर्वहन करूंगा | एक अभियुक्त या सजायाफ्ता के लिए यह शर्त निभाना आसान नहीं होगा |    

                        यह प्रस्तावित संशोधन संविधान की मूल भावना को आहत करेगा , परंतु सभी राजनीतिक दल  इस के पक्ष मे हैं क्योंकि उन्हे लगता हैं की ''जनप्रतिनिधि ''' और कॉमन मैन''' मे काफी फर्क हैं | अब इस सोच को क्या कहे जो चुनने वालों को चुने जाने वालों से कमतर मानता हैं | यह स्थिति ही इस मांग को बल प्रदान करती हैं की इन एम एल ए और एम पी को अपने छेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाये | परंतु दिक्कत यह हैं की इस मांग को अमली जमा कैसे पहनाया जाये ? सरकार की ओर से कह दिया जाता हैं की हर बार मतदान कराने का खर्च बहुत ज्यादा हैं | अतः यह  जनप्रतिनिधि को जवाबदेह बनाने का बहुत खर्चीला समाधान हैं | बस बात यही पर थप हो जाती हैं | हालांकि  मध्य प्रदेश मे स्थानीय संस्थाओ  मे प्रतिनिधि को वापस बुलाने  का ''प्रविधान'' हैं और उसका प्रयोग भी कई बार हो चुका हैं | जब ताक़ कोई किफ़ायती और सहज उपाय नहीं खोज लिया जाता हैं तब तक तो हालत को भुगताना  ही मतदाता की मजबूरी हैं |

Sep 20, 2013

क्यों भरोसा नहीं होता हैं अपने राज्य की पुलिस पर ?

क्यों  भरोसा नहीं होता हैं अपने राज्य की पुलिस पर ?
                                                                              माहौल चुनाव का गरमा रहा हैं और हम हैं की परेशान हैं की ""आम आदमी "" को अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं होता | बात कुछ ऐसी हैं की हर खास - ओ - आम के जेहन मे पुलिस का नाम लेते ही एक  कडक  चेहरा और हाथ मे बैटन  तनी मुछे और इन सब का खौफ अगल - बगल के लोगो को ज़रा हट के चलने पर विवश करता हैं | परंतु अखबार मे छपी खबर के अनुसार बीते दिनो  छोटे लाट {[ राज्यपाल का नाम जो बरतनिया हुकूमत के दौर मे चलता था ]} के घर के सामने पुलिस के एक आला अफसर  {[सहायक  पुलिस महानिरीक्षक}] जो अपनी सरकारी गाड़ी से पुलिस मुख्यालय जा रहे थे , उसी समय एक बाइक पर सवर तीन ''नौजवानो''' ने सड़क पर ही स्टंट दिखाना शुरू कर दिया |जिस से चलते यातायात मे रुकावट आई और आला अफसर की भी गाड़ी फंस गयी | जब इनहोने देखा की ''छोकरे'' तो अपनी ज़िद पर आमादा हैं , तब उन्होने जा कर उन्हे समझाया की उनकी हरकत गैर कानूनी हैं और उन्हे ऐसा नहीं करना चाहिए | तब उसमे से एक ''बरखुरदार '' जिनके वालिद {पिता} ने हॉकी  मे नाम किया और ओलिम्पिक पदक हासिल किया था , उन्होने आव न देखा ताव और  अफसर के गिरेबान पर हाथ डाल दिया और हुज्जत करने लगे | कहा जाता हैं की औलादों ने तो यानहा ताक़ कह दिया की '''तू होता कौन हैं हुमे रोकने वाला " | इतना सब कुछ होता रहा और सड़क पर आने - जाने वाले  शहरी {नागरिक}  आते - जाते रहे , एक निगाह डालते और आगे बाद जाते मानो कुछ हुआ ही नहीं | किस्सा - कोताह यह की आला अफसर को पुलिस को फोन करना पड़ा तब पुलिस के दो जवान आए और लड़को को अपने साथ बैठा कर  सब  डिविजनल मैजिस्ट्रेट  की अदालत ले गए | पर चूंकि अफसर ने एफ आई आर  नहीं लिखाई थी , इसलिए मोटर साइकल  पर सवार  'तीनों ' लड़के  गुर्राते हुए नवाब भोपाल  की  रिहाइस {निवास} के बगलगीर हो लिए | जी हाँ वे सभी भोपाल की सबसे मंहगी और पोष  कॉलोनी  कोहे ए फिजा के रहने वाले थे |

                                                                          इस किस्से को यहा बयान करने का आशय सिर्फ इतना हैं की इस घटना से एक तथ्य बहुत ही साफ तरीके से सामने आया  हैं की --- दो - दो लाख की मोटर साइकल पर चलने वाले इन नौजवानो को सिर्फ "" फिल्मी "" कारनामे ही  भाते हैं , और अपने हेरो की नक़ल करने की कोशिस करते हैं | अब यह बात अलग हैं की उनकी इस गलत हरकत मे कानून और भले नागरिकों को कितनी दिक़्क़त यथानी पड़ती हैं | वह उनके लिए कोई  मायने नहीं रखता , क्योंकि  वे तो पैसे वालो जागीरदारों और रसूख वालो की औलाद हैं |  इसीलिए तो पुलिस अफसर पर हाथ उठाने के बावजूद  भी आधे घंटे मे राज़ी - खुसी घर पहुँच गए | जबकि यही भोपाल  पुलिस चौराहो पर किसी अकेले जा रहे  छात्र को ड्राइविंग और गाड़ी कागज़ दिखाने के नाम पर उलझा लेते हैं |

                                  सड़क पर हुए इस कारनामे  के कई दूरगामी परिणाम हुए हैं --पहला तो यह की ''पुलिस''' का रुतबा  खतरे मे पद गया हैं | कहावत हैं की  पुलिस  से बुरे लोगो को खौफ होना चाहिए और भले लोगो को संरक्षण मिलना चाहिए | परंतु  यहा कुछ  उल्टा ही हो रहा हैं | भले लोग तो वर्दी और थाने से डरते हैं और बदमाशो से पुलिस डरती हैं | दूसरा सदको पर चलना कितना  सुरक्शित हैं यह भी पता लगता हैं की , जब एक पुलिस का आला अफसर  अगर बेइज़्ज़त होता हैं इसलिए की वह कुछ सही और कानूनी काम को आंजम देना चाहता था | फिर मध्य प्रदेश सरकार की """ सिटीजेन्स पुलिस """ योजना को भोपाल लागू करने का क्या मतलब हैं ? शायद यही वजह हैं की  दुर्घटनाओ मे  घायलों की  चीख सुनने के बाद भी लोग नज़र बचा कर चले जाते हैं | फिर जब ''निर्भया""जैसी वारदात  होती हैं तब '''समाज और नागरिक ''की ज़िम्मेदारी की बात की जाती हैं |  पर क्या इस घटना को देखने वालों ने और पदने वालों  के तो दिल - दिमाग मे तो यह बस ही गया होगा की ''भैया'' आपण बच के चलो |

                                                        जिस घटना का हवाला ऊपर की  पंक्तियों  मे किया गया हैं  उसका सचित्र हवाला भी भोपाल के सभी अखबारो  ने  सचित्र  छापा  हैं |   सहायक पुलिस महानिरीक्षक  संदीप  दीक्षित  ,जिनके साथ यह घटना हुई , उन्होने '' दया  वश ""  रिपोर्ट लिखना उचित नहीं  समझा , की लड़को का कैरियर[[ {जो की है ही नहीं }}बर्बाद न हो जाये | परंतु भले नागरिक --सहृदय पुरुष --की भूमिका तो निभाई परंतु उन्होने  ''जनता के रक्षक अर्थात पुलिस  के जिम्मेदार अफसर के रोल को निभाने ज़रूर चूक हुई हैं | दूसरी ओर एक महिला पुलिस अधिकारी के पति जो की  उद्योग  विभाग मे समुक्त संचालक  है , जिन पर एक  छात्रा  के साथ दफ्तर मे अश्लील हरकत करने का आरोप हैं , उन्हे मध्य प्रदेश पुलिस 11 ग्यारह डीनो से नहीं पकड़ पा रही हैं | जबकि ऐसे ही आरोप मे तथाकथित   [अ]]संत  आशा राम  जोधपुर की जेल मे आराम फार्म रहे हैं | अब किसे चुस्त - दुरुस्त पुलिस माने राजस्थान की पुलिस को या मध्य प्रदेश की पुलिस को ?

                                 इन बातों का उल्लेख इसलिए समीचीन हैं क्योंकि अगले ही महीने प्रदेश मे राज्य की विधान  सभा के चुनाव होने हैं | ऐसी स्थिति मे इन घटनाओ से लोगो का मॉरल  डाउन होता हैं | उधर हरदा मे सांप्रदायिक  सघर्ष  होने और कर्फ़्यू लगाए जाने के बाद  वातावरण कुछ   गड बड हो गया हैं | उम्मीद तो यह की जा रही थी की चुनाव की पदचाप  सुनकर सरकार और प्रशासन  बेहतर  हालत की ओर अग्रसर होंगे , परंतु यहा  तो मामला उल्टा ही पड़ रहा हैं | कल तक जो उत्तर प्रदेश मे मुजजफ्फरनगर  की घटनाओ के लिए वनहा की सरकार से इस्तीफा मांग रहे थे , आज वे खुद उसी हालत मे हैं | इसे कहते हैं """ खुदरा फजीहत -दीगरा नसीहत """


                                          

Sep 19, 2013

दूकान लगी नहीं की लूटेरो ने मंसूबे बनाने शुरू कर दिये

दूकान लगी नहीं की लूटेरो ने मंसूबे बनाने शुरू कर दिये 

                                                                                   चुनाव का मौसम आया नहीं ,हाँ हफ्ते दस दिन की बात हैं , जब प्रदेश सरकार का सारा काम काज एक तरह से माने तो stand still हो जाएगा | सभी अधिकारी फैसले करने से बचने लगेंगे | उनका जवाब होगा की आचार संहिता  ''लग गयी हैं """ | मानी आचार संहिता न हुई कोई भूत हो गया ,जिसके  डर के मारे  सब काँप रहे हैं | बाबू लोगो की इस मौके पर मौज हो जाती हैं , उन्हे ''वे सब काम करने की आज़ादी मिल जाती हैं ''' जिसे वे "'किनही""कारणो से करना चाहते हैं | वह कारण या तो सगे संबंधी का काम होता हैं अथवा  ''फिर बड़ा माल''लेकर  काम करना होता हैं "" | मतलब यह की सरकारी मोहकमो मे दिन प्रतिदिन के भी काम करने के किए कहे जाने पर  दफ्तरो मे जवाब होगा की  साहब आचार संहिता लग गयी हैं अब तो सब काम चुनाव के बाद ही होंगे | नयी सरकार आएगी तब नए फैसले लिए जाएँगे |वे आपको यह  समझाने  का प्रयास होगा की अब आप वनहा से चलते बनिए , आपका काम ""चुनाव नामक जीव ने रोक दिया हैं ""

                    अगर बाबू लोगो के यह हाल होगा तो  बड़े अधिकारियों का  रुख होगा की साहब क्या करें , हमारे तो हाथ ही बांध दिये हैं इस चुनाव ने , मानो पहले वे खुले हाथो से सब काम निपटाया करते थे | मंत्री के यानहा सिर्फ संतरी ही मिलेंगे क्योंकि साहब तो चुनाव ''लड़ने'' गए हैं का जवाब मिलेगा | भूले - भटके एक आध मंत्री मिला तो , तो पक्का  जानिए की उसे पार्टी ने टिकिट नहीं दिया हैं और ज़िले तथा निर्वाचन छेत्र मे ''न जाने ''' का पार्टी का हुकुम हो गया हैं | वो तो बस आपसे चुनाव की हवा किस ओर बह रही हैं यह जानने की कोशिस करेंगे | एवं अपना ज्ञान बताएँगे की ऐसा क्यों हो रहा -अगर मेरे बताए तरीके से काम करते तो ऐसा नहीं होता , आदि आदि |

               अब बात करे मीडिया की तो एलेक्ट्रोनिक  मीडिया ने तो चुनाव की पूर्वा संध्या मे अपने पैर फैला दिये हैं | अभी हाल मे दो चैनलो  ने तो इसका शुभारंभ भी कर दिया | उन्होने बकायदा एक सर्वे कर के मध्य प्रदेश - राजस्थान और -छतीसगरह  मे भारतीय जनता पार्टी के जीतने भविस्य वाणी भी कर दी हैं |इन दोनों ही चैनलो ने कर्नाटक विधान सभा चुनवो मे भी सर्वे किया था , परंतु वह मतदान के बाद किया गया था | जिसे मत गन्ना के पूर्वा दुनिया के सामने लाया गया था | वैसे निर्वाचन आयोग ने किसी भी प्रकार के सर्वे प्रकाशित  करने पर ''प्रतिबंध '' लगा रखा हैं | परंतु वह बंदिश चुनाव की तारीखों की घोसना के उपरांत लागू होती हैं | फिलवक्त तो चुनाव कार्यक्रम की घोसणा  नहीं हुई हैं |

                                 कर्नाटक चुनाव के परिणामो  की घोसणा के पूर्वा ""कुछ"" संशय तो लोगो के मन मे था की सरकार काँग्रेस की बन पाएगी या भारतीय जनता पार्टी निरदलियों को लेकर  सरकार का गठन करेगी | इनहि चैनलो ने न केवल भारतीय जनता पार्टी को शताधिक  सीट  जीतने की भविस्य वाणी की थी | वनही काँग्रेस को साथ सत्तर सीट पर समेट दिया था |  परंतु जब परिणाम  आए तब तक़ भविस्यवानी  पूरी तरह से चूर - चूर हो चुकी थी | दूसरे दिन जब इन चैनलो पर '''चुनावी मीमांसा''' की जा रही थी तब भी उनमे  कोई छोभ  नहीं था | न ही उन्होने एक बार यह स्पष्ट किया की वे अपनी ''गलती''  पर पशेमान है | इस तर्क के पीछे एक वजह थी की उस सर्वे को एक कंपनी ने किया था -जो ऐसे ही सर्वे किया करती हैं |  हालांकि कितनी उसकी भविस्य वाणि सच हुई यह तो एक शोध  का  विषय हैं | शोध का विषय तो यह भी हैं की बार गलत साबित होने पर भी चैनल  क्यों इन्हे सर्वे का काम देते हैं | यह खेल हैं  टार गेट रेटिंग पॉइंट्स का |

                              लेकिन क्या इसका दूसरा अर्थ नहीं हो सकता ? की यह जानबूझ कर  की गयी कारवाई हो जो किसी गुट द्वारा अपने लाभ के लिए किया गया हो ? क्योंकि इन सर्वे मे न तो यह बताया गया हैं की की किन छेत्रों मे और किस वर्ग के लोगो के कितने व्यक्तियों से बात करके इसे तैयार किया गया हैं ? यद्यपि ऐसे सर्वे मे इस बार कुछ  अकलमनदी करते हुए सत्तारूद दल की होनी  हैं  उतनी ही संख्या  विपक्ष को प्रदान की गयी हैं |  परंतु  सरकार बनेगी भारतीय जनता पार्टी की | यद्यपि ऐसा हो भी सकता हैं और नहीं भी हो सकता हैं  सावल यह भी हैं की क्या इससे  वास्तव मे चुनाव के परिणामो पर या प्रचार पर कोई असर पड़ेगा ? अनुभव यह कहता हैं की  ऐसे  तथ्य  जमीनी हक़ीक़त से दूर ही होते हैं |

                                                         क्योंकि चुनाव मे मतदान के दिन तक़ क्या - क्या घटनाए होती हैं , उनका क्या प्रभाव होगा अथवा किसी स्थानीय  मामला किस पार्टी को अथवा किस उम्मीदवार के हक़ मे जाएँगे यह कहना वह भी लगभग तीस दिन पूर्व  , जब अभी सिर्फ नेताओ  ने  ही दौरे का सिलसिला  शुरू हुआ हैं |अभी पार्टियो ने अपने पत्ते भी नहीं खोले हैं---_मतलब की  किसी भी पार्टी ने अपने उम्मीदवार  घोसीत नहीं किया हैं | हाँ   उन पार्टियो ने जरूर  अपने प्रत्याशी  घोसीत  किए जिनका  वजूद सरकार बनाने की भूमिका मे नहीं हैं | जैसे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी | शायद दो एक दिन मे गोंडवाना पार्टी भी मैदान मे उतरने का ऐलान कर दे | परंतु भले ही इनको  सत्ता मे हिस्सेदारी नहीं मिले , परंतु कई जगह इनकी मौजूदगी दोनों बड़े दल  के लिए  ""वोट काटू"" हो सकते हैं | जिस से परिणाम मे भारी उलट फेर हो सकती हैं | क्या इन तथ्यो को सर्वे मे ध्यान  रखा गया हैं |

                   अब पुनः मूल मुद्दे पर आते हैं की अमरीकी  तरीके से  किए गए  सर्वे  भारत  जैसे   देश मे  कितना सत्य हो सकता हैं ? यह महत्वपूर्ण मुद्दा हैं | फिर आखिर इनका इस्तेमाल  करने का उद्देस्य क्या हो सकता हैं ? केवल राजनीतिक दलो को अपने प्रचार  की लिस्ट मे एक वादा भर दे देने का ,अथवा मीडिया को लिखने और दिखाने  का मसाला  देने के लिए जिस से टीआरपी  मे सुधार किया जा सके ?

 

Sep 18, 2013

Indian Jurisprudence in Question ?

Indian jurisprudence in Question ?
                                                           Andhra   Pradesh  High Court  in a judgment has declared that  there is no legal provision  to award any compensation to ""innocent  people detained by Police "". This decision came in the case of a blast case in which more than twelve Muslim youths were arrested , latter due to the  absence of evidence all those who were implicated in the case were Discharged . Andhra Pradesh Government  announced financial compensation  to all the ''accused'' persons.

                      Latter a petition was filed challenging the Andhra Pradesh Government  decision to award the financial assistance to those who were ""wrongly detained by Police """. The High court observed that their is no Legal Provision to provide financial assistance to those persons who have been arrested by police without sufficient evidence . This judgment has Negated the Very fundamental  edifice of Indian Jurisprudence , which says ""That  let the ten criminal be freed but Even One innocent should not be punished """ . Now this doctrine  has been  totally  proved WRONG !

                   Hope Andhra Pradesh Government will go to Supreme Court and to file  review of the High Court Judgment . Because if the innocent persons will have no  way to get the justice . The question is this judgment will ''encourage the police officials " not to respect the Fundamental Rights of Individuals . After all some remedy has to be provided  to those who are arrested '''on mere suspicion""  , . Even our Criminal Procedure Code  gives the right to any Station Officer to detain  any person   for 24 hours without LAWFUL order . Meaning that Any body can be put behind the HAWALAT , resulting in the damaging the reputation and honor of the detained person . Many of us must have known and witnessed such detention .  

Sep 17, 2013

क्या निर्वाचन आयोग इस प्रचारों पर ध्यान देगा ?

    क्या निर्वाचन आयोग  इस प्रचारों पर ध्यान देगा  ?
                                                                                   निर्वाचन आयोग ने पैड न्यूज़ पर  नज़र रखने के लिए  तो अनेक शिंकंजे कसने शुरू कर दिया हैं , परंतु धर्म की राजनीति की दूकानों पर निगाह के लिए अभी ताक़ कुछ नहीं किया हैं | ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आजकल  चुनावी राजनीति मे जिस प्रकार धर्म का इस्तेमाल किया जा रहा हैं , वह क्या उतना ही ''गैर कानूनी "" नहीं हैं जितना की पैड न्यूज़ ?  योग शिक्षक जो अपने को ''बाबा''' कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं , उनका कहना हैं की  मोदी मे राम जैसी प्रतिभा और बल हैं | इतना ही नहीं , विश्व हिन्दू परिषद  के  आद्यकष  अशोक सिंघल ने तो मोदी को पहले ही राम की शक्ति का प्रतीक कह दिया हैं | मध्य प्रदेश के एक मंत्री कुसमरिया ने तो उन्हे भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार बता दिया हैं | दो दिन पूर्व ही इलाहाबाद  मे कपूर नाम के कलाकार ने """ रेत""" के ऊपर ब्रम्हा -विष्णु- महेश  की त्रिमूर्ति मे मोदी का चेहरा  बनाया हैं |  यह तो हुई कुछ धर्म की राजनीतिक दूकाने जो चुनाव के समय ही सक्रिय हो जाते हैं | अब इनको निर्वाचन आयोग की नज़र मे क्या कहा जाये ? क्या यह जो किया जा रहा हैं उसे """सही""" कहा जा सकता हैं ?  क्या धर्म की भावनाए उभार  कर लोगो की  रॉय  को प्रभावित करना कहा  तक  उचित हैं ?अगर पैसा देकर  अपने  पछ मे खबर छपवाना  तो इन '''हरकतों''' से कनही ज्यादा  अनुचित और ''अवैधानिक'' हैं |

                                 अभी मध्य प्रदेश मे  योग शिक्षक रामदेव  ने मालवा मे अपने '''योग शिक्षा शिविरो ""'मे अध्यात्म अथवा पतंजलि के योग सूत्र की जगह  वे  लोगो को  यह समझा रहे हैं की ""काँग्रेस  तो अंग्रेज़ो की जासूस थे """ अब उनसे कोई यह पूछे की स्वतन्त्रता  संग्राम की किस किताब मे यह सब लिखा गया हैं ? क्योंकि  अभी तक तो अंग्रेज़ो के काल  के दस्तावेज़ो के अनुसार तो सावरकर ने ही  ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी |  यह तो दस्तावेजी सबूत हैं |  दूसरा आरोप उन्होने यह कहा की काँग्रेस '''चरित्रहीन और अपराधियो''' की पार्टी हैं | यह आरोप कोई राजनीतिक दल के नेता  द्वारा लगाया जाता तो , समझ  मे आता हैं , परंतु कोई   भगवा वस्त्र धारी  - तथाकथित सन्यासी  यह '''आरोप'' लगाए जो पूर्णतया ''राजनीतिक'' बयान हो  कितना उचित  हैं ?

                हमे और निर्वाचन आयोग को यह तय करना होगा की क्या इस प्रकार के प्रचार को ''जायज'' कहा ज़ सकता हैं ? चुनाव संहिता मे भी धर्म  से संबन्धित  प्रचार को ''अयोग्यता'' निर्धारित किया गया हैं | यहा तक की  चुनाव के प्रचार बंद हो जाने के बाद   आयोग ने  अखंड रामायण  आदि के नाम पर पार्टी द्वारा  किए जाने वाले कार्यक्रमों पर पूर्णतया रोक लगाने का फरमान जारी किया हैं | जब इस प्रकार के आयोजनो को  ''अवैधानिक'' माना जा रहा है |तब फिर संहिता लगने  के बाद भी क्या इस प्रकार  के """धर्म की पैकिंग  मे किया जा रहा राजनीतिक प्रचार """ जारी रहेगा ? तब  कितना नियमो के अधीन ""स्वतंत्र और निसपक्ष " चुनाव संभव हो पाएंगे ?

चुनावी शाम मे मुसलमा होते नेता और उनका हश्र

 चुनावी  शाम  मे  मुसलमा  होते नेता और उनका  हश्र
                                                                                  वैसे तो हर एक चुनाव मे ही ''नेता '' दल बदलू होते हैं , यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं | परंतु समझ मे यह नहीं आता की सैकड़ो मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करने वाला ''पार्षद'' हो चाहे विधान सभा का चुनाव ही अथवा लोकसभा के  चुनाव हो , यह ''परंपरा'' दुहराई  ही जाती हैं | महत्वाकांचा  राजनीति मे आने वालों की पहली शर्त होती हैं , यह सभी जानते हैं ,परंतु अधिकतर ''नेता'' जो  ""अति महत्वाकांछी "" होते हैं उन्हे सदैव  अपनी पार्टी और उसके कर्र्न्धारों से यह शिकायत रहती हैं की  ''उनकी ''महत्ता को वे लोग पहचान नहीं रह रहे हैं | भले ही ऐसे नेता अक्सर ''बिना दल'' या निर्दलीय हो कर भी अपना भाग्य आज़मा चुके होते हैं , और सौ मे से अस्सी पराजय क्का स्वाद भी चख चुके होते हैं परंतु फिर भी जनहा काही बैठे की नहीं और शुरू हो गए ""परनिंदा""पुराण लेकर और लगे उसका वाचन करने | उनसे जब भी तर्क या तथ्य की बात करो तो वे एक ही बात कहते हैं की ''फला ""फला" ने हरवा दिया अथवा विरोधी पार्टी की ""बयार"" चल रही थी इसलिए जमानत ज़ब्त हो गयी नहीं तो धूल चटा देता "" |

                                            कुछ ऐसा तो नहीं परंतु इसके विपरीत भी इस बार विधान सभा चुनावो के समय लोग काँग्रेस छोड़ कर अथवा निर्दलीय ---सत्तारूद दल मे शामिल हो रहे हैं | ऐसा क्यो हो रहा हैं -इसका जवाब तो वे लोग ही दे पाएंगे , हम तो सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं | भारतीय जनता पार्टी मे जो लोग शामिल हो रहे हैं ज़रूरी सी बात हैं की वे चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के ''प्रत्याशी'' बनना चाहते हैं | परंतु क्या जिस स्थान से वे टिकट चाह रहे हैं उस स्थान की पार्टी इकाई उनके नाम का समर्थन कर रही हैं ? नब्बे फीसदी मामलो मे तो पार्टी इकाइयां  ऐसे दलबदलून के विरोध मे ही रहती हैं | ऐसे मे अगर पार्टी ने उन्हे प्रत्याशी बना भी दिया तो ''विजय श्री ''' की उम्मीद कम ही रहती हैं |  फिर क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव की वेला मे बाहरी व्यक्तियों या लोगो को अपने यहना शरीक करती हैं ?

                                                      शायद ऐसे लोगो को शामिल करने के लिए कुछ ''बड़े नेताओ''' का अहंकार ही कारण होता हैं , जिसके फलस्वरूप ऐसे लोग दल मे आकार """खलबली '' मचा देते हैं | इस श्रेणी मे रींवा राजघराने का नाम लेना समीचीन होगा , क्योंकि जंहा महाराजा  पुष्प राज सिंह  काँग्रेस मे शामिल हुए वनही उनके युवराज  आदित्य राज भारतीय जनता पार्टी मे शामिल हुए | यह घटनाए एक सप्ताह के अंदर हुई | हालांकि पुष्प राज सिंह  काँग्रेस से विधायक एवं मंत्री रह चुके हैं बाद मे वे पार्टी छोड़ कर चले गए थे |   अब कौन सा मोह उन्हे वापस ले आया -कहना मुश्किल होगा | काँग्रेस विधायक दल के उप नेता राकेश सिंह चतुर्वेदी ने भी पार्टी द्वारा लाये गए अविसवास प्रस्ताव पर अपने दल के नेत्रत्व  का विरोध किया | परिणामस्वरूप  उन्हे पार्टी से निलंबित भी किया गया | शायद तकनीकी कारणो से उन्हे पार्टी से '''बर्ख्ख़स्त ""नहीं किया गया | लेकिन जिस स्वागत - सत्कार से उन्हे पार्टी  मुख्यालय मे  लाया गया ,उस से यह तो साफ हो गया की उन्हे भिंड की उनकी ही सीट से बीजेपी प्रत्याशी बनाने का मन बना चुकी हैं | छतरपुर के निर्दलीय विधायक मानवेंद्र सिंह ने भी सत्तारूद दल का दामन थाम लिया हैं , अब पार्टी उन्हे वनहा से   टिकेट दे पाएगी यह कहना मुश्किल हैं | वैसे वे काँग्रेस की सरकार मे मंत्री रह चुके हैं | रीवा  के सीधी ज़िले से निर्दलीय विधायक  के के सिंह  ज़रूर अपने छेत्र मे लोकप्रिय हैं ,इसलिए बीजेपी ने उनका इस्तेमाल नेता प्रति पक्ष अजय सिंह को चुनौती देने के लिए करने की मंशा है | ऐसा इसलिए भी संभव हो पाएगा की भले ही कम परंतु वे भी स्वर्गीय अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत  के भागी दर हैं | जैसे मेनका गांधी और वरुण गांधी  श्रीमती इन्दिरा गांधी की विरासत का दावा करते हैं | महत्वाकांचाओ और  विरासतों  की साझेदारी का क्या परिणाम होगा यह तो चुनाव मे ही सामने आएगा ?

Sep 16, 2013

cमहाकुंभ मे महारथियो की पीठ मिलेगी या मुंह ?

cमहाकुंभ मे महारथियो की पीठ मिलेगी या मुंह ?
आगामी 25 सितंबर को भारतीय जनता पार्टी के कार्य कर्ताओ के प्रदेशव्यापी सम्मेलन की जंगी तैयारियो के साथ एक प्रश्न हवा मे तैर रहा हैं ,की क्या मंच पर लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी तथा शिवराज सिंह के मध्य व्याप्त खटास ‘’कुछ’’दूर होगी ?  हालांकि सत्तारूढ पार्टी के नेताओ का मानना है की तीनों के मुह त्रिमूर्ति की भांति अलग – अलग दिशाओ मे ही रहेंगे | इसके कई कारण हैं , पहला जिस ढग से 13 सितंबर को पार्टी द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसित किया गया , उस से खिन्न आडवाणी जी तो नरेंद्र मोदी से बात भी नहीं करना चाहेंगे |  बीजेपी संसद जेठमलानी की जन्मदिन की पार्टी मे भी आडवाणी और मोदी पहुंचे थे ,परंतु कोई बात नहीं हुई | दूसरे यानहा ‘’मेजबान’’ भी उन्हे ‘’बिन बुलाये’’’ मेहमान की तरह ही मानते हैं | क्योंकि पार्टी नेत्रत्व को बार – बार स्पष्ट किए जाने के बाद ,की मोदी मध्य प्रदेश मे”” वोट बढाने “” वाले  नहीं वरन “”कटाने””वाले सिद्ध होंगे , उनपर गुजरात के मुख्य मंत्री को थोपा जा रहा हैं | तुलनात्मक दृष्टि से शिवराज चुनाव की अपनी लड़ाई ‘’खुद’’ लड़ने मे सक्षम हैं ,परंतु राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के दबाव से शिवराज को इस बिन बुलाये मेहमान को माला पहनने के लिए मजबूर किया ज़ा रहा हैं | यह कोई ‘’प्रिय’’’एवं सुखद स्थिति न तो पार्टी के लिए हैं ना ही उस व्यक्ति के लिए जो चुनावी युद्ध का सेनापति हैं | वैसे ही कुछ शिवराज विरोधियो ने एक नारा तैरा दिया हैं की  ''अगर विधान बभ चुनाव जीते तो मोदी के फैसले पर मोहर लगेगी ,और अगर पराजित हुए तो शिवराज सरकार की हार होगी | 

                     इस स्थिति से काँग्रेस मे होने वाला वाकया याद आता हैं की चुनाव मे जीत हुई तो हाइ कमान  की और हार ही तो मुख्य मंत्री की | इस लिहाज से अब भारतीय जनता पार्टी भी वैसी ही केन्द्रीकरण की पार्टी बन गयी हैं जैसा की वे काँग्रेस के बारे मे आरोप लगते हैं | कुछ अजीब सा लगता हैं ,परन्न्तु सत्य हैं ,की दोनों ही दलो का शीर्ष नेत्रत्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता | अगर काँग्रेस मे गांधी परिवार सर्वोच  शिखर पर हैं तो भारतीय जनता पार्टी मे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के मोहन भगवत , ये लोग जो कह दे वह बिना न - नुकुर के मानना ही होता हैं | एक का काम 10 जनपथ से अगर चलने का दावा किया जाता हैं तब दूसरे की कमान  नागपूर का संघ कार्यालय हैं | अब कोई पूछे की दोनों ही ''व्यक्तियों ''की मनमर्जी पर चलने वाले हैं तो '''अंतर''' कहा हैं ? कुछ तो नारो मे हैं और कुछ सोच मे हैं | वैसे काँग्रेस ने स्वतन्त्रता  के संग्राम की अगुवाई की और भारत को आज़ाद कराया | इस लड़ाई मे जिन वल्लभ भाई पटेल को नरेंद्र मोदी अपना ''आदर्श ''' मानते हैं उन्हे भी सरदार की उपाधि गुजरात  मे ही जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने प्रदान की थी , उसे नरेंद्र मोदी भूल गए जिसे सारी दुनिया ''महात्मा "" के नाम से जानती हैं |  पर मोदी को पटेल पसंद आए गांधी नहीं ,क्योंकि उनको लगता हैं की गांधी को तो कांग्रेस अपना चुकी हैं , और दुनिया भी उन्हे मानती हैं ,ऐसे मे किसी दूसरे को अपना आदर्श बनाया जाये | वैसे यानहा एक बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की मोदी भी उसी वर्ग से आते हैं जिससे पटेल थे | यानि पिछड़े वर्ग से | अब वैसे हमारे शिवराज सिंह भी इसी वर्ग के हैं | अब चुनावी हिसाब से देखे तो इस वर्ग का वोट बैंक सबसे बड़ा हैं |                 अब एक बिन बुलाये मेहमान और एक पार्टी से उपेक्षित नेता तथा तीसरा चुनावी तैयारी मे जूझ रहे हैं , ऐसे मे क्या कार्यकर्ताओ को सही """संदेश""" मिल सकेगा ? कल तक़ जिन आडवाणी जी को सम्पूर्ण पार्टी ""पित्र"" पुरुष मान के सम्मान करती थी क्या वही सम्मान मोदी के सामने प्रदेश के पदाधिकारी दे पाएंगे ?यह भी एक प्रश्न हैं की मोदी भोपाल मे आडवाणी को मिलने वाले सम्मान को क्या ''पचा '' पाएंगे ? क्योंकि नरेंद्र मोदी ऐसे व्यक्ति हैं जो ""तनिक भी असहमति'"" बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं |गुजरात की भारतीय जनता पार्टी और वनहा के संघ के नेता इस बात का ठीक और सही जवाब दे पाएंगे |
                            वैसे नरेंद्र मोदी मे चुनाव की जीतने की संभावना का आंकलन शिवराज सिंह ने जबलपुर की चुनावी सभा मे ही स्पष्ट कर दिया था | जब नरेंद्र मोदी ने विधान सभा आद्यकश  ईस्वर दास रोहानी को  फोन कर के हाल - चाल पूछा | सवाल हैं की उन्हे रोहणी को फोन क्यो किया ? मुख्य मंत्री को क्यो नहीं किया ? क्या इस लिए की उनसे मिलने वाले व्यवहार के बारे मे अंदाज़ था ?  फिर क्यों यह फोन किया ? 
                       
              इस अबोलेपन से यह तो साफ हो गया की मोदी जी मध्य प्रदेश के चुनावो के लिए  सहायक नहीं होंगे फिर आखिर बार - बार यहा  आने की ''ज़िद्द'' क्यो ? क्या इसलिए की यहा  से संगठन मंत्री के रूप मे भारतीय जनता पार्टी की सरकार का पत्ता साफ करने की ज़िम्मेदारी भी उनही के सिर -माथे पर आई थी , और वे बड़े - बे आबरू हो कर यहा  से गए थे | अब वे यहा से """सुर्ख़ृ """ हो कर जाना चाहते हैं की जिस से की उनके ऊपर पटवा जी की सरकार को गिरवाने का कलंक समाप्त हो सके | 
          
             खैर वास्तव मे मोदी के मन मे क्या हैं यह तो वे ही जाने परंतु इतना तो स्पष्ट हैं की ""शुभ -लाभ''' की कामना करना संदेहास्पद होगा | अनचाहे  साथी और सहयोगी कभी भी ''मोर्चे'' पर मददगार नहीं होते हैं | विश्वाश और साहस माफिक वातावरण से मिलती हैं , शिवराज सिंह जी को क्या वह वातावरण मिलेगा ? उम्मीद करनी चाहिए |


     
  
              

Sep 15, 2013

ध्रुवीकरण कितना माफिक होगा शिवराज को ?

ध्रुवीकरण कितना माफिक होगा  शिवराज को ? 
                                                                     नरेंद्र मोदी का राजनीतिक छितिज पर ऐसे समय मे आना जब जब  प्रदेश की सरकार के लिए चुनाव होने जा रहे हैं , भारतीय जनता पार्टी के लिए कितना माकूल होगा यह देखना होगा | क्योंकि संघ की वोटो को '''इकठा""'करने की रणनीति से शिवराज को कितना लाभ या हानि होगी इसका लेखा - जोखा करना होगा |  अभी जल्दी ही भोपाल मे भी मोदी की ''जुंगी'''सभा का ऐलान किया गया हैं , उसका अलपसंखयकों  पर क्या प्रभाव होगा ? अथवा  समाज के सभी वर्गो को लेकर चलने की मुख्य मंत्री शिवराज सिंह की नीति गलत साबित होगी या सही ?

                                                 आगामी विधान सभा चुनावो  मे प्रदेश मे बीस से तीस विधान सभा छेत्रेय ही ऐसे  हैं जंहा मुस्लिम मतदाताओ का समर्थन  ''निर्णायक ''' साबित हो सकता हैं | इत्फाक से  सदन मे बहुमत और  नंबर दो पर आने वाली पार्टी मे भी अनुमानतः  इतनी ही सीटो  का अंतर होने की संभावना बताई जा रही हैं | विगत विधान सभा चुनाओ मे यह फर्क  कही ज्यादा था |  हालांकि अभी चुनवो की विधिवत घोसना नहीं हुई हैं परंतु  रण का शंखनाद  तो हो ही चुका हैं | काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के नेताओ के बीच आरोपो का दौर - ए -दौरा शुरू हो गया हैं | ज्योतिरादित्य  सिंधिया के आने से काँग्रेस को एक खूबसूरत चहरा  मिल गया हैं जो खबरिया  चैनलो  के काफी माफिक हैं , इसलिहाज से सत्तारूद दल को कुछ  कण अहमियल मिलेगी |

                    अक नयी बात सामने आ रही हैं की मुख्य मंत्री पार्टी को पीछे रखकर अपने को आगे कर के चुनाव प्रचार कर रहे हैं | इसलिए अगर चुनाव मे विजय हुई तो उनकी होगी और पराजय भी उनही के खाते मे जाएगी | तुरंत ही मुख्यमंत्री के समर्थको की ओर से इसका  प्रति उत्तर भी आ गया की  अगर चुनाव जीते तो शिवराज और हारे तो उत्तर  प्रदेश के दंगे और मोदी जिम्मेदार | अब इसका अर्थ तो यही हुआ की सत्तारूद दल मे भी  मोदी के ''चुनावी प्रभाव''' को लेकर असमंजस हैं |  यानि की पार्टी मे भी  ''उदारवादियों  और अनुदारवाड़ियों  "" की अलग - अलग रॉय हैं |

                                      एक सवाल यह भी हैं की इस प्रदेश मे 1957 से आज तक  जीतने भी चुनाव हुए  वे ''दो ही पार्टियो''' के मध्य होते रहे हैं | 1967 और 1977 और 2002 के चुनावो मे गैर काँग्रेस और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार बनी है | इसलिए   कुछ लोगो का यह ''अंदाज़''' बिलकुल गलत हैं की प्र्तदेश मे  किसी तीसरी पार्टी के सहयोग से सरकार बनेगी | क्योंकि बहुजन समाज और समाजवादी पार्टी  का प्रभाव कुछ ही छेत्रों मे हैं , और कोई ''चमत्कार हो जाये तभी """ केंद्र की भांति '''मिलीजुली''' सरकार की कल्पना की जा सकती हैं | अन्यथा नहीं |

                         इस माह के अंत तक विधान सभा चुनावो की तिथियो की घोसणा होने की संभावना हैं | उसी के साथ ही ''चुनावी आचार संहिता '''' लग जाएगी | उस परिप्रेक्ष्य  मे मोदी का जय हिन्द के स्थान पर वन्देमातरम और गुजरात के महात्मा गांधी के स्थान पर उनके अनुयाई वल्लभभई पटेल का स्मारक बनाने वह भी नुयोर्क की स्वतन्त्रता की देवी की मूर्ति से दो गुणी बड़ी , काफी महतवाकांछी योजना हैं | इस मूर्ति के निर्माण के लिए देश के सभी ग्रामो से उन्होने ''किसान के हल का का लोहा "" मांगा हैं | उनकी यह मांग अयोध्या मे राम मंदिर के निर्माण के समय  विसवा हिन्दू परिषद द्वारा हर घर से |"| एक - एक ईंट ""' की मांग की गयी थी | लोगो का कहना हैं की राम को तो बारह वर्ष का वनवास हुआ था लेकिन अयोध्या  मंदिर को बीस वर्ष से ज्यादा का वनवास हो गया  परंतु ज़मीन से ऊपर मंदिर के बनने की कोई उम्मीद नहीं हैं | कनही वैसा ही वल्लभ भाई पटेल की इस योजना के साथ न हो ?                                                         

Sep 14, 2013

प्रधानमंत्री घोषित करने की परंपरा -कितनी सच्ची ?

प्रधानमंत्री  घोषित करने  की परंपरा -कितनी सच्ची ?
                                                                               भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय मे शुक्रवार को  हुई प्रैस कान्फ्रेंस मे आद्यकश राजनाथ  सिंह ने कहा की ""पार्टी के संसदीय दल ने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के रूप मे चयन किया हैं """ | उन्होने कहा की पार्टी की """परंपरा"""रही हैं की चुनाव के पूर्वा प्रधान मंत्री पद के लिए व्यक्ति को चुना जाता हैं | जनहा ताक़ मुझे स्मरण हैं की अटल जी जब तेरह दिन की सरकार के प्रधान मंत्री बने तब उन्हे , राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने तब  बुलाया जब काँग्रेस दल के नेता राजीव गांधी ने सरकार बनाने के प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया था | उस समय अटल जी भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल के नेता थे , और इसी हैसियत के कारण उन्हे सरकार बनाने का निमंत्रण भी दिया था | वे तब भी पार्टी द्वारा प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार घोषित  नहीं किए गए थे |

                                                दूसरी बार जब वे प्रधान मंत्री बने तब वे राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार थे , ऐसा नहीं की वे भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार थे | गठबंधन ने उनकी सर्वा स्वीकार्यता को देखते हुए  अपना नेता चुना था | यह कहना सर्वथा गलत होगा की बीजेपी मे चुनाव के पूर्वा प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार चुनने की परंपरा हैं | वस्तुतः यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दबाव ही था की किसी ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए लाया जाये जो ''घोर''' कट्टर वादी रुख अपना सके | क्योंकि अटल जी ने या आडवाणी जी ने कभी भी  सोनिया गांधी जी के लिए कोई ऐसा कथन नहीं किया जिसे '''अमर्यादित''' या  '''आवंचनीय """ कहा जा सके | संघ इस रवैये को क़तई पसंद नहीं करता था | जैसा की महात्मा गांधी के बारे मे उनका रुख था की उनके बारे मे अनाप - शनाप  बाते फैला कर उनकी छवि को धूमिल करने के उसके निरंतर प्रयास सदैव असफल होते रहे हैं |

                        मोदी के आने से सुबरमानियम स्वामी जैसे लोगो को पार्टी मे स्थान मिला जो  अटल - आडवाणी के नेत्रत्व मे कभी भी घुस नहीं सके | क्योंकि वे भी मीडिया की सुर्ख़ियो मे बने रहने के लिए कुप्रसिद्ध हैं | मोदी ने भी""" आक्रामक प्रचार """ को ही प्राथमिकता दी हैं | जिसका अर्थ हैं प्रचार मे दूसरे के प्रति इतना गंदगी फैलाओ की उसका सारा ध्यान उसे हटाने मे ही लगा रहे और वह हमारे मुक़ाबले मे आने मे पिछड़ जाये  सारी समभावनए हैं की सोनिया के इटालियन मूल को लेकर एक बार फिर से उन्हे विदेशी बताने का प्रचार किया जाएगा , क्योंकि वह सही भी हैं , परंतु वे सूप्रीम कोर्ट के उस फैसले का ज़िक्र कभी नहीं करेंगे जिसमे उसने इस मुद्दे को हमेशा के लिए खतम करने का निरण्य दिया था | वे नेहरू - गांधी परिवार की विरासत को बदनाम करने की कोशिस करेंगे , परंतु इस बात का ज़िक्र करना अक्सर भूल जाएँगे की इस परिवार के दो प्रधान मंत्री आतंकवादियो द्वारा मारे गए हैं | यानहा मोदी ने तो सच या झूठ ही आतंकवादी होने के ''''नाम''' पर ही चार लोगो को गोली से भुनवा दिया | देश के लिए प्राण निछावर करने वाले ने ज़रा से शक के आधार पर ही एंकाउंटर करवा दिया |

                      खैर शुक्रवार को हुई इस गलतबयानी पर न तो कोई सफाई पेश होगी नहीं कोई कुछ पूछेगा | जो सुषमा स्वराज  वंशवाद का आरोप लगाती रही हैं दस जनपथ से काँग्रेस को चलाने की बात कहती रही हैं काँग्रेस मे पार्टी स्टार की कारवाई के बजाय हुकुमनामे की बात करती रही हैं , वे सिर्फ ''नेता प्रतिपक्ष''' की अपनी कुर्सी बचाने के लिए संघ के निर्देश के सामने दंडवत हो गयी | हालांकि यह कुर्सी अगली बार उन्हे किसी भी हालत मे नहीं मिलेगी |

                       शूकवार की इस बैठक के बाद  अटलविहारी वाजपायी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओ का युग भारतीय जनता पार्टी से समाप्त हो गया | जनहा दूसरे डालो के नेताओ के लिए आदर और सम्मान हुआ करता था | जब कुछ भी कहने या बोलने के पूर्वा हमेशा ''मर्यादा''' का ध्यान रखा जाता था | अब तो पार्टी ने एक ''  एक बाहुबली ''' को चुन लिया हैं अब वह जिधर भी पार्टी को ले जाये ......................|

Sep 13, 2013

विधान सभा चुनावो के परिणामो की कसौटी से संघ क्यो भाग रहा हैं ?

   विधान सभा चुनावो के  परिणामो  की कसौटी से संघ क्यो भाग रहा हैं ?
                                                                             
                        क्यों  संघ मोदी की ताजपोशी को आनेवाले विधान सभा चुनावो से पहले करना चाहता था? कारण था पुराना अनुभव  मोदी जब गुजरात मे चुनाव जीते तभी हिमाचल मे उनकी सरकार  चुनाव हार गयी | उनका कहना था की वह '''बहुत''' छोटा सा राज्य हैं | परंतु उसके बाद कर्नाटका मे हुए चुनाव मे भी मोदी जी ने किस्मत आज़माई  परंतु वनहा भी बीजेपी की करारी पराजय हुई | सफाई मे उन्होने कहा की ज्यादा वक़्त नहीं मिल पाने के कारण वे पार्टी को सत्ता मे नहीं ला  सके | परंतु इन दो चुनावो से यह तो लाग्ने लगा था की मोदी की का प्रचार ही ज्यादा हैं परंतु वोट  दिलाने लायक उनकी छवि नहीं हैं | इस संदर्भ मे देखे तो लगेगा की मध्य प्रदेश और छतीस गड और राजस्थान तथा दिल्ली मे होने वालों चुनावो मे मोदी के '''जादू''' की उम्मीद बहुत कम हैं | इसी लिए संघ का विचार रहा होगा की अगर काही विधान सभा चुनावो के परिणाम प्रतिकूल  गए , तब मोदी को स्वीकार करने मे लोग अनेक प्रश्न उठाएंगे | फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसीट करने का ''वादा'' नहीं पूरा हो पाएगा



         आखिरकार  भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का  भावी उम्मीदवार घोसीट कर दिया | राष्ट्रिय स्वयंसेवक  संघ के तेवर देखते हुए यह तो पहले ही साफ हो गया था की  ''होगे तो मो दी ही '' प्रधान मंत्री पद पर काबिज हुए  | हुआ भी ऐसा ही हैं |  सवाल यह हैं की आखिर मोदी की उम्मीदवारी का क्या  अर्थ हैं ?  सर्व प्रथम तो  संघ  का   सत्तर साल  पुराना इरादा """"हिन्दू राष्ट्र """ को पूरा करने का मौका हैं | शायद  उन्हे लग रहा हैं की पहले जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी  के माध्यम से  किए गए """मुलायम""" उपाय असफल हो गए | देश मे इस्लामी  आतंकवाद और विभिन्न भागो होते धमाके - छत -विछट लाशे लोगो के मन मे एक नफरत का भाव तो भर ही देते हैं | इसमे  नौजवानो की संख्या  कुछ ज्यादा हैं , क्योंकि वे अधिक  संवेदनशील होते हैं |  अतः  उन पर दाव लगा कर  मोदी को  एक ''मूरत'''  के रूप मे पेश करने का  फैसला  किया हैं |

                                                                   तथ्य यह हैं की संघ को लाग्ने लफ था की 1990 मे पार्टी को काडर आधारित से बादल कर ""जन""आधारित  बनाने का फैसला मनचाहा  परिणाम देने मे असफल रहा हैं | तथा जिस ''हिन्दू राष्ट्र '' की कल्पना  की ओर संघ बीजेपी को ले जाना चाहता था , उस ओर प्रगति नहीं हो रही हैं | चुनाव की राजनीति के कारण हिन्दू राष्ट्र के लिए जिस कट्टरता  की  ज़रूरत  होनी चाहिए | वह भी पार्टी के नेताओ मे  अनुपस्थित हैं | संघ को लाग्ने लगा था की उसका राजनीतिक मुखौटा  अब चुनाव की राजनीति और सत्ता के सुख  मे फंस गया हैं | हिमाचल से लेकर राजस्थान और छतीसगढ तथा मध्य प्रदेश मे दस साल तक सरकारो के सत्तासीन रहने पर भी  '''पावन उद्देस्य''' की ओर कोई प्रगति नहीं हुई | सिवाय इसके की कुछ बयान जनता युवा मोर्चा और विद्यार्थी परिषद के बयान और  जुलूस   के अलावा कोई  बड़ी कारवाई नहीं हुई |

                                               इन असफलताओ के कारण से ही दो वर्ष पूर्व ही संघ ने बीजेपी पर संगठन मंत्रियो के आसरे शिकंजा  कसना शुरू कर दी थी | मंत्रियो और विधायकों को साफ रूप से इशारा कर दिया गया था की वे अब अपने  भविष्य के लिए पार्टी संगठन की नहीं वरन  ''संघ'' के अधिकारियों  की शरण मे जाएँ | परिणाम यह हुआ की ''संघ''के आश्रया स्थलो  मे लाल बाती की गाड़ियो  की कतार  लगने लगी | पार्टी पदाधिकारियों  की हैसियत  शून्य  सी हो गयी |  दबी  ज़बान से पार्टी मे  यह  कहा जाने की अगले  चुनाव का टिकिट  भी ''संघ'' की सिफारिस से ही मिलेगा | मतलब पार्टी का  दांचा चरमराने लगा | पार्टी के उन नेताओ को अपना भविष्य खतरे मे लगने लगा , जो की पार्टी मे ''संघ'''के रास्ते नहीं आए थे | कुछ आशंतोष भी फैलने लगा , जो की राजनीतिक रूप से स्वाभाविक था |  इन सब से पार्टी मे टूटन की प्रक्रिया प्रारम्भ होने आशंका होने लगी थी | ज़रूरत एक नारे की थी जिसका कोई '''आधार'' नहीं हो , इसलिए  ''राष्ट्र'' हिन्दुत्व'' आदि शब्द गाड़े गए | जिनको पूरा करने के लिए मोदी को लाया गया जिनहोने गुजरात मे संघ के अस्तित्व को ही मिटा दिया |
                                                                                                        

Sep 12, 2013

एक यह भी मंत्री हैं --बिना लाल बती वाला

            एक यह भी मंत्री हैं --बिना लाल बती वाला


    प्रदेश काँग्रेस चुनाव अभियान समिति के   अध्यक्ष  ज्योतिरादित्य  सिंधिया   पर भारतीय जनता पार्टी और मुख्य मंत्री शिवराज सिंह का यह आरोप हैं की वे महाराजा हैं सामंतवाद समर्थक हैं |  जब इस बारे मे उनसे पूछा गया की उनका उत्तर क्या हैं --तो उनका कहना था की मेरी दादी साहब  श्रीमति विजया राजे सिंधिया और बुआ वसुंधरा राजे तथा यशोधरा राजे ने भी कभी राजकूल का होने के कारण अपने को जनता से अलग नहीं माना ,|मेरे पिता माधव राव सिंधिया ने कभी सामंतवादी व्यवहार के हामी नहीं  रहे  | गौर करने की बात हैं की बहुत चतुराई से उन्होने  भारतीय जनता पार्टी पर ही इस आरोप का ठीकरा फोड़ दिया , क्योंकि प्रथम तीनों भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं  इसका अर्थ यह हुआ की आप एक ही कूल के वंश के उन लोगो को ''सामंतवादी'' बना देते हो जो आपके विरुद्ध हो और जो आपके साथ हो वे ''पाक - साफ '' हैं यही राजनीतिक पाखंड हैं |

                
                    पत्रकारो से गैर रस्मी मुलाक़ात मे उनहो ने बुधवार को काँग्रेस कार्यालय मे पत्रकारो और फोटोग्राफरो के साथ हुई ''हाथापाई '' पर माफी मांगते हुए कह की आप के पास देरी से पहुचने का कारण ''लोगो'' कांग्रेस  जनो  को  गेट पर रोकने की कोसिस थी | फिर उन्होने कहा की ''आप लोगो के लिए मैं दरबान बन गया " | मैंने माधव राव सिंधिया की भी प्रैस  कान्फ्रेंस मे रहा हूँ , मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ की वे ऐसे शब्द कभी नहीं कहते | क्योंकि उनमे ''राज'' का जलवा  देखा था , जो ज्योतिरादित्य  ने नहीं देखा इसीलिए वे ''आम'' आदमी के ज्यादा करीब हैं |

                                       दूसरी चुटकी उन्होने शिवराज मंत्रिमल के तौर तरीके पर ली | सभी को मालूम हैं की ''लाल  बती"' वाली गाड़ी को लेकर कितना ऊहापोह मचा हुआ हैं | मंत्रिमंडल की मंशा के बाद परिवहन आयुक्त  ने  चार बार सूची निकली की ''कौन - कौन अपनी गाड़ी मे लाल बती '' लगाने के पात्र हैं और कौन ""हुतर""" लगा सकते हैं | परंतु  हर बार कोई न कोई समूह जा कर संगठन अथवा सरकार - विधायको से ज़ोर दबाव दलवा उसमे  पद नाम बड़वा देता  ऐसा पाँच बार हुआ | यह साफ दिखाता है की सत्तरूद दल के लोगो मे ''पद्लिप्सा""
कितनी हैं ? इस के विरुद्ध सिंधिया  अपनी गाड़ी मे ललबती कभी जलते नहीं हैं | उन्होने कहा की  बाती तो लगी हैं पर उसका तार हटा दिया गया हैं | यह छोटी  बात हैं परंतु मानसिकता को दिखाता हैं | उनकी गाड़ी मे बती हटाई नहीं जा सकती क्योंकि वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य हैं |परंतु जलाने या न जलाने का अधिकार उनके पास हैं , जिसका इस्तेमाल उन्होने किया |

                             तीसरी चुटकी उन्होने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा रोज - रोज घोसना किए जाने की आदत पर ली , उनके अनुसार घोसनाए उतनी करो जिनको पूरा का के दिखा सको , मिसाल के तौर पर मैं चुनाव के दौरान वे चार से पाँच ही वादे अपने मतदाताओ से करते हैं ,फिर उन्हे पूरा करने के बाद कुछ अधिक भी करते हैं      \ जिससे की लोगो को और मुझे भी अधिक संतोष होता हैं | रोज -रोल घोसनाए करने से  उनके पूर्ण न होने और अपूर्ण रह जाने से जनता मे उपजने वाले अशन्तोष का भी दर होता हैं |


                      पहली  निगाह मे इन सब बातों को देखने से लगता हैं ये '''कम बोलने वाला नेता '''' हैं , जिसका अर्थ  हुआ की इसकी काही बात पर भरोसा किया जा सकता हैं | दूसरी बात लाल बती वाली इस बात का इशारा हैं की ''हम जो हैं वह बती से नहीं ''' जबकि लोग बती के लिय मरे जा रहे हैं , तभी तो सरकार को बार - बार लिस्ट बदलनी पद रही हैं , क्योंकि भोपाल मे तो विधायक लाल बती तो हैं ही हूटर  भी लगाए शोर मचाते रहता हैं | जबकि न तो उन्हे बती न ही हुटर लगाने की हैसियत या पात्रता हैं | साफ़ हैं की एक वो हैं जो  '''हैसियत नवा हैं पर चुप बैठे हैः दूसरी ओर वे हैं जो कमजर्फ चिल्ला चिल्ला कर एलन कर रहे हैं की हम हैं हम हैं