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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 13, 2017

लोकतन्त्र मे चुनाव सत्ता पाने की प्रतियोगिता है -या युद्ध है ??

यूं तो निर्वाचन की परंपरा हमे महात्मा बुद्ध और चन्द्रगुप्त मौर्य के समय के "”इतिहास '' मे मिलती है | तत्कालीन समय मे लिछवि गणराजय के अधिपति सिद्धार्थ यानि की महात्मा बुद्ध् के पिता थे | अजातशत्रु के समय वैशाली गणराज्य का विवरण 'इतिहास'” मे मिलता है | अधिपति --आमात्य - सेनापति निर्वाचन के पद थे | सिकंदर के समय भी सिंधु नदी के किनारे कई गणराज्यो का विवरण मिलता है -उनमे एक था कठ था , अपुष्ट है परंतु एक ऐसे गणराजय का भी ज़िक्र है जनहा की शासक केवल महिलाए ही होती थी | इसका अर्थ यह हुआ की की ''निर्वाचन की प्रथा "” भारतवर्ष '' मे दो हज़ार वर्ष पूर्व भी थी | स्वाभाविक ही है की इन गणराज्यो मे आम जनता की सहमति से ही शासन किया जाता था | मौर्य साम्राज्य के अंतिम समय मे इन गणराज्यो का अस्तित्व समाप्त हो गया था -----क्योंकि राजतंत्र की सैनिक शक्ति के आगे इन स्वायत संस्थाओ का अंत हो चुका था | अर्थात अब सत्ता सेना के बलबूते पर ली जाती थी | नन्द साम्राज्य का अंत भी युद्ध के परिणाम स्वरूप हुआ | फलस्वरूप नागरिक का स्थान ''प्रजाजन ''' ने ले लिया | राजा को दैवी शक्ति का रूप माना जाने लगा | युद्ध मे पराजित को ''दास '' की स्थिति मिली |
यह स्थिति इंग्लैंड और फ़्रांस मे ''राजा और प्रजा ''' के मध्य हुए ''सशस्त्र '' मुठभेडो से राजा के अनियंत्रित अधिकारो को कतर दिया गया या खतम कर दिया गया [[ फ्रांस मे ]] उसके बाद से ही क्रांति द्वरा राजशाही का तख़्ता पलटने की घटनाओ का सिलसिला जारी है | हालांकि अधिकतर मामलो मे सेना का इस्तेमाल नहीं होता है ||

इन सब संदर्भों के बात अब मुख्य मुद्दे पर आते है की सत्ता प्राप्ति के लिए सेना या -हिन्सा का प्रयोग नहीं होता | बैलेट का प्रयोग होता है -अब ई वीएम का , हाँ चीन या क्यूबा के अलावा दक्षिण अमेरिका के देशो मे जरूर गुरिल्ला युद्ध हो रहे है | इन देशो मे भी चुनाव की प्रक्रिया होती है |
परंतु जिन देशो मे प्रजातन्त्र परिपक्व हो गया है ---वनहा चुनाव एक प्रतियोगिता ही है और रेफरी होता है -””-चुनाव आयोग "” जो यह निश्चित करता है की चुनाव का "”खेल "” निर्धारित नियमो के अंतर्गत हो रहा है या नहीं "” उसका फैसला अंतिम होता है | परंतु संयुक्त राज्य अमेरिका मे रेफरी की भूमिका कुछ असपष्ट है | अब भारत मे भी चुनाव एक प्रतियोगिता ही है--- परंतु कुछ "”अतिवादी अति उत्साही '' तत्व नियमो से खिलवाड़ करते है | वे ही इसे युद्ध की परिभाषा मे तब्दील करते है | जनहा "”विजय "” ही सबसे अधिक ज़रूरी है | अब उसे पाने के लिए धन -बल या साजिश सब का इस्तेमाल किया जाता है | इन सब काम के लिए कभी "”चाणक्य या कौटिल्य "” का नाम भी लिया जाता है |
अब इन उत्साही गणो को यह नहीं भान है की "”युद्ध "” मे विजेता और पराजित होते है --परंतु प्रतियोगिता मे सफल नहीं होने वाले भी प्रतियोगी ही होते है---- पराजित या विजित नहीं '' | इसे आज के राजनीतिक संदर्भों मे देखे --तो पाएंगे की पराजित पार्टी का "”राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक "” मान्यता भी उसको प्रापत मतो के आधार पर ही नियत होता है | यह सही है की सत्ता की दौड़ मे पराजित दल सरकार नहीं बना सकता -परंतु वह विपक्ष मे होता है | अब यह दूसरी बात है की सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल अपने विरोधी को प्रताड़ित या परेशान करने मे किया जाता है तो वह चुनाव का हिस्सा नहीं है | वरन सरकार की कारस्तानी है | इसलिए चुनाव युद्ध नहीं है वरन सरकार बनाने वाले सत्ता मे आने के बाद अपने विरोधी डालो के वीरुध "”युद्ध "” छेड़ते है | इसलिए चुनाव को युद्ध नहीं कहा जा सकता | हा सरकार ज़रूर अपनी सीमा पार करके विजेता के अभिमान से भर जाता है | तब प्रजातन्त्र मे छरण होने लगता है |