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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 6, 2018


पत्रकार का मूल्यांकन उसकी खबर नवीसी से होगा ? अथवा उसकी हैसियत और उसके पद से ??


खबरिया चैनल के तीन पत्रकारो को अचानक हटाये जाने से उपजी |बहस मे जनहा अधिकान्स्तः पत्रकार बिरादरी ने इस घटना के पीछे के कारणो मे सरकार के दावो की पोल खोलने को ही वजह माना है | वही भक्तो ने इनकी नीयत और राजनीतिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए इन तीनों को वामपंथी और हिन्दू धरम विद्रोही तक का खिताब दिया है !! इस बहस मे कुछ मेरे समकालीन और कुछ अनुज पत्रकारो ने भी इनकी बर्खास्तगी को जायज बताया है | यह आलेख उन सभी को समर्पित है |


अनेकों समकालीन पत्रकारो ने इन लोगो को ज़रूरत से ज्यादा महत्व दिये जाने की शिकायत की है | उनके अनुसार ये लोग पर्याप्त पत्रकारिता का अनुभव नहीं रखते | एवं टीवी एंकर होने के नाते अपनी हैसियत का बेज़ा फाइदा उठाते है | है तो यह अजीब तर्क , परंतु फिर भी मै इन्हे बताना चाहता हूँ की चैनल के एंकर जनता मे ज्यादा जल्दी पहचाने जाते है ,क्योंकि उनको हम रोज या अक्सर स्क्रीन पर देखते है | अब वे दर्शनीय है --तो वह उनके पत्रकारिता के दायित्व का भाग है | चैनल मे भी न्यूज़ एडिटर होते है वे कार्यक्रमों मे क्या जाएगा और किस रूप मे जाएगा इसको निर्धारित करते है | परंतु उनके चेहरे स्क्रीन पर नहीं दिखाई पड़ते !! क्योंकि उनका काम स्क्रीन पर आने का नहीं है | खबरों की ऑन लाइन एडिटिंग एक महत्वपूर्ण काम है | जिसले बिना चैनल मे किसी भी कार्यकरम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है | परंतु ना तो उनके नाम आते है ना ही उनकी शकले ! अब इस्न सबकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद इनके दिखाई न देने के कारण से "”इनमे से किसी को यह शिकायत भी हो सकती है हमारा योगदान अनदेखा रह गया ! पर क्या वास्तव मे ऐसा है ? बिलकुल नहीं | एनडीटीवी के मुख्य करता धर्ता प्रणव रॉय है परंतु उन्हे कभी -कभी कुछ खास अवसरो पर ही देखा जाता है | अगर वे चाहे तो रोज अपनी शक्ल अपने चैनल पर किसी न किसी उपाय से दिखा सकते है , परंतु क्या ऐसा करना पत्रकारिता के मूल्यो के अनुसार उचित होगा ?? एक समय था जब दूरदर्शन के अलावा एनडीटीवी का समाचारो का एक कार्यक्रम हुआ करता था | तब वे ही एंकर हुआ करते थे | रोज रात्रि को उनके दर्शन टीवी पर हुआ करते थे | वह समय देश मे टीवी के आगाज का था | तब वे एंकर थे ----आज नहीं है , इसलिए साल मे चार -छ बार कार्यकरमों मे आते है | उन्होने अपने चैनलो को अपने सहयोगीयो के हवाले किया हुआ है | ज़ी टीवी के मालिक भी एक कार्यक्रम अपने चैनल पर करते है जिसमे वे स्वयं दर्शको के प्रबंध संबंधी सवालो के उतर देते है | शेस समय उनके सहयोगी ही काम करते है |

इससे यह समझा जा सकता है की काम के कारण ही एंकोर पत्रकारिता के दायित्व को पूरा करता है | वह शौक से या अपनी शक्ल दिखने के वजह से स्क्रीन पर नहीं अवतरित होता है | उसे इसके लिए काफी मेहनत करनी होती है | जिसे आम तौर पर दर्शक और टीवी पत्रकारिता की बारीकियों से अंजान लोग यह समझने लगते है की वे भी समाचार जगत के हेरो या हेरोइन है | जबकि ऐसा बिलकुल नहीं |

कुछ लोगो ने अपनी आलोचना मे कहा की इन '’’बड़े पत्रकारो '’’ को ज़िलो मे या अखबारो मे काम करने वालो की दिक्कतों और कठिनाइयो का ज्ञान नहीं होता , येलोग बड़े - बड़े लोगो से मिलते है उनके इंटरव्यू करते है | इसलिए खाश बन जाते है | जबकि वे इसके योग्य नहीं होते है | अब पत्रकार आम तौर पर किसी न किसी खबरिया संस्थान मे नौकरी ही करता है | जो भी दायित्व उसे प्रबंधन द्वरा दिया जाता है उसका निर्वाह करने पर ही उसे महीने के अंत मे वेतन मिलने की आवश्यक शर्त होती है | हा दफ्तर के बाहर भी वह अपने हमपेशा लोगो के साथ ही उठता बैठता है | जनहा किसी पत्रकार के दुख या कठिनाई की चर्चा होती है | परंतु निजी तौर पर कुछ आर्थिक मदद करने के लावा उसके पास कोई विकल्प नहीं होता | एक सज्जन ने कहा की एक खबरिया संस्थान के एक पत्रकार की जंतर – मंतर पर हड़ताल करते हुए भूख से मौत हो गयी थी -------तब इन महान पत्रकारो ने उसकी खबर को नहीं चलाया ! नाही उसको वापस नौकरी मे लिए जाने के लिए कोई आंदोलन किया ! अब यानहा दो बाते समझने की है पहली यह की किसी भी खबरिया संस्थान मे चाहे वह चैनल हो अथवा अखबार हो -----समाचारो के चयन की एक प्रक्रिया होती है | समाचार संपादक ही तय करते है की काउन सी खबर किस रूप मे या कितनी बड़ी या छोटी जाएगी | इसमे कोई भी पत्रकार एक सीमा तक ही समाचार संपादक पर दबाव बना सकता है | उस सीमा के बाद उसका आग्रह '’’ज़िद्द या अनुशासनहीनता '’’ मानी जाएगी |

अब मेरे समकालीन बंधु इन बारीकियों को अच्छे से भुगत चुके होंगे ऐसा मेरा मानना है | इस लिए किसी भी पत्रकार से यह उम्मीद करना की वह अपनी नौकरी छोड़ कर यूनियन बाज़ी का झण्डा उठाएगा ---और अपने संस्थान के कोप का भागी होगा | कहावत है की होम करते हाथ जले अब किसी भी पत्रकार से यह उम्मीद करना की वह अपना काम छोडकर पत्रकारो की हालत सुधारने मे लग जाये !!! मुझे नहीं लगता की कोई करेगा | रही बात पत्रकार की भूख से मौत की तो वह दर्दनाक और निंदनीय घटना है | परंतु समाज मे अक्सर ऐसा होता है और बड़े - बड़े समपादकों के साथ भी होता है | नेशनल हेराल्ड के संपादक एम चेलापति राव का शव दिल्ली की सड़क पर पाया गया | वे अविवाहित थे और अकेले रहते थे | इसलिए उनकी शिनाख्त भी काफी देर से हो पायी !! दूसरी घटना देश के बहुत बड़े उद्योगपति घनश्याम दस बिड़ला जी लंदन मे सड़क पर पड़े मिले , जब उन्हे अस्पताल ले जाया गया तब उन्हे म्राट घोषित किया गया ----उनकी भी पहचान मे घंटो बीत गए | अब कोई इन घटनाओ को दुखद सपने की ही तरह देखेगा | क्योंकि वे समाज और देश मे जाने जाते थे ----परंतु विधि के हाथो गुमनामी मे भी रहे ,भले ही थोड़ी देर |

इंडियन फेडरेशेन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के एक पदाधिकारी ने व्हात्सप्प पर एक संदेश लिखा की यूनियन इन पत्रकारो का साथ देने के लिये तैयार है परंतु ये बड़े पत्रकार खुद ही प्रबन्धको से बैर नहीं करना चाहते | इसलिए ये लोग श्रम न्यायालय मे अपना मामला नहीं ले जाना चाहते !! यानहा मै यह बताना ज़रूरी समझता हूँ की आईएफ़डबल्यूजे की स्थापना त्रिवेन्द्रम मे पांचवे दशक मे हुई थी | वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट मे संपादक को पत्रकार नहीं माना गया है | क्योंकि वह प्रबंध से जुड़ा होता है | आज पचास साल बाद अखबारो मे कारी करने का स्वरूप बहुत बादल गया है | अब अधिकतर लोगो को संस्थान "””” सरकारी नौकरी की भांति भर्ती से सेवा निवरती की सहर्ट पर नहीं रखते | वे एक शर्तनामे के तहत काम करते है | जिसमे प्रबंध का हाथ ऊपर रहता है |
नेशनल हेराल्ड के चेलापति राव ऐसे संपादक थे जिनहे ifwj ने सदस्यता दी थी ,यद्यपि कानूना वे पत्रकार की श्रेणी मे नहीं थे | इसी संस्थान मे आर्थिक तंगी और बाद इंतजामी के चलते तीन अखबार -- अंगेजी क्का नेशनल हेराल्ड और हिन्दी का नवजीवन तथा उर्दू का कौमे -आवाज़ बंद हो गए | उनके कर्मचारियो ने श्रम नयायालय मे प्रबन्धको के खिलाफ मुकदमा लडा | परंतु हाथ लगी बेकारी और मुफ़लिसी | कुछ लोगो ने दूसरी जगह नौकरी की परंतु चार - छह लोग इस लड़ाई मे खेत रहे |
मै समझता हूँ की मैंने पुण्य प्रसून वाज़्पेई -अभिसार शर्मा और मिलिंद खांडेकर को लेकर उनकी हैसियत को लेकर जो छिटकशी की जा रही थी ---उस को साफ करने की कोशिस की है | आखिर मैंने भी पचास साल इसी पेसे की रोटी खाई है , इतना तो मेरा कर्तव्य बनता है |