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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Nov 8, 2014

प्रिंट पत्रकारिता मे डिजिटल बदलाव और नए {{{ वर्तमान }}}} समय या आधुनिक वक़्त मे पत्रकारिता का चाव

 कलाम के सिपाही  यानि की पत्रकार  का एक नाम हुआ करता था ,  --हालांकि वह नाम आज भी  मौजू  है पर   अब कलाम की जगह  की बोर्ड  आ गया है |  इसे ही हम प्रिंट पत्रकारिता  मे डिजिटल  युग का प्रारम्भ भी कह सकते है | पहले समाचार पात्रो के दफ्तरो मे   अखबारी  कागज  की ''खुसबू'''' और और बड़ी - बड़ी मेज़ों पर   न्यूज़ प्रिंट के कटे कागज  जिन पर सब एडिटर  न्यूज़ एजन्सि   के रोल्ल निकाल कर खबर बनाते {{{लिखते}}}} थे |  स्याही और न्यूज़ प्रिंट की विशेष सुगंध ही  सभी  छोटे  या बड़े समाचार पत्रो  के दफ्तरो मे  एक सी हुआ करती थी |  नामी - गिरामी पत्र हो या  ज़िले से निकालने वाला '' चौपतिया''' हो   दागतरों मे एक जैसा माहौल हुआ करता था | समाचार संपादक  के फोन का इस्तेमाल  दफ्तरो मे अफसरो से बात करने //या खबर की पुष्टि करने के लिया किया जाता था | थाने- अस्पताल और  स्टेशन  से रात की शिफ्ट  वालो को बात करना ज़रूरी होता था | क्योंकि इन  जगहो  से """''छपते -छपते''' के कालम के लिए अंतिम समाचार  लिए  जाते  थे |  पर अब वैसा नहीं है ||

 क्योंकि  संचार क्रान्ति ने  पत्रकारिता  और समाचार पत्रो  की दुनिया और ''मिजाज''' को  भी बदल दिया है |  अब पत्रो के दफ्तर  अक्सर   छापे खानो से दूर होते है ----तब ये एक साथ होते थे , जैसे  एक घर | पर अब औदोगिक  क्रांति और व्यवसायिकता  ने इस '''घर को बाँट दिया'''' है |  अब पत्रकार और गैर पत्रकार  का भेद है | तब सभी अखबार  के करमचारी हुआ करते थे | संस्थानो  मे अक्सर आर्थिक  दिकक्ते आती थी  -- पर सब मिलजुल कर '''बाँट''' लेते थे | तब सभी '''काम के बंदे थे''''' अब जैसा नहीं  की संपादक  ही कई प्रकार के होते है  हर  संसकरण  के लिए  अलग '' इंचार्ज ''   , समाचार के लिए अलग और ''विचार''' के लिए अलग , पुस्तक समीक्छा के लिए अलग  संपादक | गोया की अब पत्र -पत्रिकाओ का दफ्तर  सनातन धर्म की भांति ही अनेक जातियो और उप जातियो मे विभाजित  है | 

 परंतु तकनीकी रूप से  काम करने की '''गति''' मे तेज़ी तो आई है , परंतु बौद्धिकता --अध्ययन  का दिवला निकाल चुका है | पहले रिपोर्टर  दफ्तर - दफ्तर  खबर के लिए फिरता था --- दूसरे अखबारो  के साथियो से समाचार साझा करते थे | एक   बिरादरी की भावना थी |  अब आपस मे प्रतियोगिता है | खबर लाने मे अव्वल कौन का जमाना आ गया है | खबर   अच्छी  कौन लिखता है --किसका ढंग  प्रस्तुति करण बड़िया है या किसका ''इंटरों''' धानसु है ---तब इस पर चर्चा होती थी | सफलता इन गुणो  पर निर्भर करती थी |  अब तो मोबाइल  पर खबर मिलती है  और लिख दी जाती है |  पहले खबर  को तार्किक और तथ्यो पर तौला जाता था --संपादक जाँचते भी थे | अब तो किसी  बड़े  नेता या अफसर  ने '''उगला ''' और हमने उसे '''निगला'''  और ला कर  खबर बना दी |  
 
अखबार  कागज  पर भले ही छपे पर उसके दफ्तर मे अब ''' पेपर लेस """" काम है । लैपटाप और कम्प्युटर  पर अंगुलिया चलती है  कलाम नहीं चलती | अब  पत्रकारिता  के पेशे का  मतलब '''सत्ता के गलियारो के लोगो के कंधो से कंधा रगड़ना """ हो गया है | नेता और अफसर भी अब उस संवाददाता को  नहीं उसके संस्थान --और उसके मालिक को जानता है | संस्थान  अब  बिजनेस  हाउस  बन गए है ----संपादक की हैसियत भी  एक अदना से करामचरि जैसी हो गयी है | क्योंकि अब अखबार  के दफ्तर मे अब मालिक का कैबिन  है --जो अंतर्यामी की भांति यह नज़र रखता है की कनही उसके """" स्वार्थो"""" पर कुठराघात  तो नहीं हो रहा है , यानि की जिस अफसर से कोई काम  है  उसके खिलाफ कोई खबर तो नहीं जा रही है ?? भले ही वह खबर  या घटना वास्तविक रूप से सत्या हो |   स्वतंत्र  पत्रकारिता  एक मिथक बन कर रह गया है || आज़ादी  समाचार पत्रो  के लिए अर्थात  मालिक के लिए हो गयी है उसमे काम करने वाले '''पत्रकार की नहीं '''''  बस यही परिवर्तन हुआ है की स्पीड  तो बहुत आई लेकिन राह बादल गयी ---  फायदा उद्देस्य हो गया है   सत्य  नहीं |||  इति

पेपर लेस समाचार पत्र के दफ्तर

बीसवी  सदी तक  अखबार  के दफ्तर  का नाम दिमाग मे आते ही  न्यूज़ प्रिंट  और स्याही की  गंध से भरा हुआ  हाल  और उसकी मेज़ों  पर  कागज  के  कटे हुए  पन्ने   तरतीबवार  से रखे हुए --जिन पर  कुछ लोग  लिखते हुए   कुछ लोग उन कटे पन्नो को लेकर  कम्पोजिंग  की ओर जाते हुए ----मुख़तसर  मे यही होता था   माहौल | चाहे वह बड़ा अखबार  हो या छेतरीय  या ज़िले का पत्र  कागज की उपस्थिती  हर जगह  परमात्मा  की तरह व्याप्त  रहता  था | परंतु कम्प्युटर के  आने पर  हालत  बदले ,,  न्यूज़ पेपर  का कार्यालय  अब  पेपर लेस  हो रहा था | और इकीस्वी  सदी के पहले दशक  मे तो  न्यूज़ रूम मे    कम्प्युटर  की भीड़  और उस पर   काम करते हुए सब एडिटर  और न्यूज़ एडिटर  की मेज़  पर भी एक  कम्प्युटर जनहा से   खबरों  का चयन और  उनका स्थान  का निरण्य  होता है |  रिपोर्टर  अपनी -अपनी मेज़ों  पर भी खबरों  को टाइप करते हुए -----बस यही अब का सीन  है समाचार पत्र  के दफ्तर का | 
                                         कहने का मतलब  यह है की अब  समाचार  पत्र के दफ्तरो  का माहौल  तकनीक  के आने से   मशीनी   हो गया है | लोगो मे आत्मीयता  का अभाव हुआ | क्योंकि कलम की जगह अब की बोर्ड  ने ले ली | सभी  लोगो के पास  मोबाइल  आ जाने से  बातचीत  का काम काफी आसान  हो गया | कंही पर भी --कंही से  भी  किसी से भी जाना -पहचाना  हो या   अनजाना  सभी से बात  हो जाती है | मिलने के लिए  भी  कम ही अवसर  पड़ते है | पहले इन मुलाक़ातों  के लिए वक़्त  और जगह  का ख्याल करना पड़ता था | अब तो घर हो या दफ्तर  कंही भी बात करना आसान  हो गया है |  खबरों की पुष्टि  के लिए समय की कोई पाबंदी नहीं है |और  ""पुष्टि"" करने की जरूरत भी नहीं है |क्योंकि  अगर तो खबर जिसको ''चोट'' पहुंचा रही है -- उसे यह इशारा किया जा रहा की  जरा इधर  भी देख कर ख्याल कर के रहो ,,अथवा  ''''होशियार - खबरदार """ करने की नीयत होती है |  सौ मे से अस्सी बार ऐसा होता है की  """निशाने ""'पर आया अफसर या नेता """  इस संकेत को समझ जाता है | बात संस्थान के हितो के संवर्धन की होती है --सो वह पूरी होने लगती है |  लेकिन कुछ अपवाद स्वरूप  ""भयदोहन """ के इस दाव को नकार देते है ,, क्योंकि उन्हे यह मालूम हो जाता है की जिस काम को लेकर  यह ""हरकत ""की जा रही है उसके ऑर्डर  मे अथवा यदि ''भुगतान'' को लेकर तकलीफ है तो  वह उस तकलीफ को  थोड़ा और ""चौड़ा कर देता है | परिणाम स्वरूप मामले को और उलझा कर  नियमो के जाले"" मे डाल देता है |  संपादक जी अथवा संस्थान के ही कोई """स्वयं भू""" जब उस अफसर से मिलने जाते है तब वह ""फ़ाइल और नियमो की किताब '''को मेज़ पर रख कर बात करता है | परिणाम यह होता है की मामला  सचिव और मुख्य सचिव से होता हुआ मंत्री और अंततः  मुख्य मनरी तक पाहुचता है | परंतु स्वार्थी अखबार के मालिको  क यह एहसास हो जाता है  की '''नियमो की मार ''' की ढाल  संबन्धित अफसर ही बन सकता है | तब यकायक  हमलावर  तोपो के मुंह बदल जाते है --- बेईमान  अफसर एकदम  से ''सफल'' और सहयोगी  हो जाता है |  
                                                  बीसवी सदी के सातवे दशक से लेकर  नवे दशक तक   के संस्थान कभी  ""पब्लिक  रिलेसनिंग """ नहीं करते थे ,, क्योंकि वे कोई ''प्रॉडक्ट''' के निर्माता  नहीं थे |  परंतु पत्रकारो के वेतन -भत्तो को लेकर  केंद्र सरकार द्वारा बनये गए  आयोग के सामने देश के सबसे बड़ेने अपने  को '' प्रिंटिंग और  विज्ञापन एजन्सि ""के रूप मे प्रस्तुत  किया | गोया की  ''लाभ कम होने और  पत्रकारो जैसे दोयम दर्जे के प्राणी को विज्ञापन वालो के बराबर  वेतन देने """ की जरूट नहीं पड़े ,,इसलिए उन्होने  अपने -अपने """रूप """" के तीन""" भाग कर दिये | मसलन  छापा खाना -- विज्ञापन  एजन्सि  और तीसरा  अखबार का प्रकाशन ,, इन तीन भागो के कारण लाभ - हानि के पत्रक मे  समाचार पत्र  एक नितांत घाटे का सौदा ''सा'' दिखाया गया | परिणाम यह हुआ की  पहले   संस्थानो मे श्रम  कानूनों  के द्वारा  संस्थान मे काम करने वालों को """ जॉब की सुरक्षा ''' और काम करने के तरीको और """गलत --सही""" के निर्धारण के नियम वैसे ही पालन होते थे --जैसे सरकारी मंत्रालयों मे होते थे | मातहत भी अफसर के आदेश को चुनौती दे सकता था | उस समय अनेक समाचार पात्रो मे अनेक ऐसी घटनाए हुई भी , जिस से मालिको के ""खी ख़्वाह """ संपादकों  को सुनना पड़ा की ''आप अपने"""" नीचे """" के लोगो को क़ाबू मे नहीं रख सकते | इस फटकार नुमा सलाह के बाद  समपादकों का मूड  मिलो  के जेनरल  मैनेजर  जैसा होगया | परिणाम  यह हुआ की ''सहयोगी '' या कॉमरेड  की भावना ककई हत्या हो गयी ,, और एक डंडाधारी  शख्स  एडिटोरियल  मीटिंगों  मे फरमान  सुनाने  लगे की """ मालिक का हुकुम है  की स्कूल  कवर करने वाले  संवाददाता  श्चूलों और कोचिंग संस्थानो से  """नीयत राशि """ के विज्ञापन प्रतिमाह  लाये --जो उनके वेतन  का चार से पाँच गुना होना चाहिए , ऐसा नहीं होने पर पे डे पर कोई पेमेंट  नहीं मिलेगा """" |  तस्वीर साफ थी की  आप खबर  लाने की कोशिस नहीं करे ---पैसा लाने का प्रयास करे || मतलब साफ था  खबर और आलेख का कोई महत्व नहीं --- लिखे हुए शब्दो  का अवमूल्यन हो चुका था |  अब पत्रकार संस्थान के लिए कमाने वाला  ''जीव भर  था''' | 

 ऐसे मे पत्रकारिता संस्थानो - विश्वविद्यालयो  मे जो कुछ पदया -लिखाया जा रहा था  वह """विषय निष्ठ """" न होकर ''प्रद्योगिकी होना """ चाहिए था , परंतु ऐसा नहीं हुआ | परिणाम स्वरूप इन संस्थानो से ""पत्रकारिता """ की डिग्री लेकर निकला युवक  जब नौकरी मांगने जाता था  तब उस से साल भर तो ""अप्रेंटिस""" के नाम पर  एक करामचरि का काम लिया जाता था | और वक़्त वक़्त  पर  निर्देश दिये जाते थे की  लिखने और पड़ने से ज्यादा शासन  मे संबंध बनाओ   विज्ञापन लाओ | ऊंची  उमंगों और देश और समाज को बदल डालने की तमन्ना  लिए हुए युवक  जो ""धड़ाम""" से यथार्थ की ज़मीन पर गिरता था तो  उसे एहसास होता था की  उसने जो कुछ  पदा और सीखा है उन सबकी  यंहा कोई ज़रूरत ही नहीं है |  और जो ""गुण ''' पत्रकार ''' बनने के लिए होने चाहिए  वह तो अपने  ''वरिष्ठों""' से ही सीखना पड़ेगा || मारता ना करता क्या  वह भी किसी  ''सफल "" रिपोर्टर  का चेला बन जाता है --उनके लिए पान - गुटका और सिगरेट  का  बंदोबस्त  करता है ,, क्योंकि इस गुरु दक्षिणा से  ही तो वह उन द्वारो को खोल सकेगा , जिनकी बदौलत  ""गुरुदेव """ ने चार साल काम करकर कार और  बैंक बलेंस  बनाया है | साल डेड साल  के ज्ञानार्जन के उपरांत वह ''ट्रेनी''  मिलने - जुलने  वाले अफसरो मे ''जाती - इलाकाई ''' जान पहचान बनाता है | फिर किसी ''परिचित''' अफसर के लिए  केस  लाने लगता है --क्योंकि तब तक संस्थान अथवा संपादक जी द्वारा पुलिस थाने  या नगर निगम  की भवन अनुज्ञा  शाखा  से कुछ काम करा कर ""प्रकटिकल""" का अनुभव ले चुका होता  है | उसी ज्ञान के बल पर  वह संस्थान के  अलावा  '''निजी'''  लोगो  को थाने से छुड़वाने  या नगर निगम से काम कराकर  कुछ अपना और कुछ  संबन्धित अफसर का भला कर चुका होता है | नौकरी के पाँच सालो मे चार पहिये की गाड़ी  और  फ्लॅट -प्लॉट  का जुगाड़  कर लेता है | फिर वह अफसरो की दारू  पार्टी  और ठेकेदारो और भू माफिया  के गुट या गुटो मे शामिल हो कर '''सक्रिय कार्यकर्ता''' बन जाता है | 

फिर शुरू होती है  संपादक बनने की यात्रा -- इसमे  उसके सहयोगी लोग मदद करते है | वे समाचार पत्र या पत्रिका  के प्रबन्धक को बताते है की कितना """कारगर""" है यह लड़का |  फिर उसकी प्रयोगिक परीक्षा  होती है --जिसमे उसे  विज्ञापन और धंधे से ''माल कमवाना '''' होता है , जिसका अर्थ यह होता है की आप अपने वेतन को ""जस्टीफाई""" कर सकते है की नहीं ?? इस प्रक्रिया मे समझदार हो चुका '''पत्रकार  नुमा """ प्राणी फिर अपने दाम अच्छे लगता है |क्योंकि अब तक उसे समझ मे आ गया होता है की  एक्सक्लूसिव  खबर अथवा चटकता समपादकीय  लिखने से खबरों के इस संसार  मे ''ज़िंदा ''नहीं रहा जा सकता | कुछ एक ईमानदार पत्रकारो को बीमारी से   जुझते और गॅस तथा बच्चो  को सरकारी स्कूल मे पड़ने की मजबूरी  और ठेले पर परिवार  सहित चाट खाते  देख चुका होता है | उनके सम्मान को भी कई अवसरो पर देख चुका  होता है  परंतु  उसको लगता है की    ''''पेपर की इस दुनिया  -पेपर लेस है , क्योंकि यंहा ''लेखनी की जगह  लैपटाप चलता है और ''ज्ञान या जानकारी के लिए अब दो साधन है --गूगल  और विक्किपेडिया , जिनकी गलत जानकारी  एक आध प्रतिशत  लोग ही ''पकड़ते है '''' उनकी परवाह किसे है | संपादक जी को मालिक के आदेश पर एक घंटे मे '''बड़िया आलेख '''' देने का दायित्व यह ''नया उद्द्यमी बखूबी निभा देता है | क्योंकि न तो मालिक और ना ही ''संपादक नामक जीव """ को जानकारी  से ज्यादा मालिक की कृपा की ज़रूरत होती है | 
तो इस प्रकार पेपर मे काम करने की ट्रेनिंग लेकर  आए  युवक को  पत्रकारिता  के चकाचौंध  कर देने वाले  चक्र वुयाह  को भेदने वाला  अभिमन्यु  बन देता है | अब तक उसको यह भी समझ मे आ गया होता है की  """ पत्रकारिता की स्वतन्त्रता  का अर्थ मालिक के हितो पर ''''' नुकसान ना पाहुचने देना ही है | पत्रकारो  की आज़ादी का मतलब लिखने  की आज़ादी थोड़े ही है क्योंकि वह """ तो बहुत पहले गिरवी हो गयी """ क्योंकि गरीब किसान की भांति  वह भी  '''मालिक के मूड के मौसम  का ही फल पाएंगा ---अपनी मेहनत का नहीं | मुख़तसर  मे मेरी समझ से पेपर के पेपर लेस और समाचार पात्रो के दफ्तरो से कॉमरेड की भावना और मूल्यो की रक्षा का मौजूदा मतलब तो यही है | लेकिन मुझसे भी ज्यादा जानने वाले  मुझे मार्गदर्शन डे सकते है | लेकिन एक मिथक  ज़रूर तोड़ना चाहूँगा की ____ पत्रकारिता संविधान का चौथा स्तम्भ  कतई नहीं है  क्योंकि संविधान मे राज्य के तीन ही अंग लिखे गए है सरकार ---विधायिका और न्यायपालिका | इस  व्यापारिक उद्ययम  की कोई कानूनी स्थिति नहीं है | लेकिन ''भरम '' मे ज़िंदगी चल जाती है --बस वैसा ही काम चल रहा है |  इति