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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jun 15, 2016

मोदी उवाच -- मंहगाई पर तीन माह मे क़ाबू न हो तो फांसी पर चढा देना -किस कानून से ?

लात मारना या फांसी देना किस धारा मे किया जा सकता है ??

लोकसभा चुनावो को दौरान सार्वजनिक सभाओ मे नरेंद्र मोदी जी ''मंहगाई डायन"” को तीन महीने मे क़ाबू करने का आश्वासन जनता को देते थे | एवं वादा पूरा ना होने की दशा मे फांसी देने का प्रस्ताव देते थे | आज दो साल बाद जून 2016 मे खुदरा मंहगाई दर विगत वर्षो की तुलना मे सर्वाधिक है | हालांकि कुछ "”भक्त गण "” अभी भी इस तथ्य को "”दुष्प्रचार "”ही निरूपित कर रहे है | परंतु वस्तुओ के दामो के बारे मे वे मौन रहते है | तब मोदी जी ने बुलंद आवाज मे कहा था की अगर मंहगाई पर "”मै काबू ना कर सका तो "”आप "” लोग मुझे फांसी पर चढा देना | पर सवाल है कौन और किस जुर्म मे किस धारा के अंतर्गत उनके कहे को पूरा कर सकता है ??
चुनावो मे जिस प्रकार की बतोलेबाजी और झूठे वादे नेताओ द्वारा किए जाते है उनको अमल मे लाने की उनकी ज़िम्मेदारी कौन निश्चित कर सकता है ?? निर्वाचन आयोग ने एक परिपत्र मे राजनीतिक दलो को आगाह किया था की वे "”ऐसे वादे ना करे जिनहे पूरा करना संभव नहीं हो "” परंतु यह दिशा निर्देश भी संविधान के नीति निर्देशक तत्वो की भांति बन गया ---मतलब सरकार चाहे तो करे अथवा नहीं करे |

फिर दुबारा उन्होने वाराणसी मे भी कुछ ऐसी ही पूरी ना हो सक्ने वाली बात कही | जनहा वे उत्तर प्रदेश मे विधान सभा चुनावो का शंख नाद कर रहे थे | “””उन्होने कहा की आप बीजेपी को प्रदेश मे सत्ता मे लाओ ,और अगर वे प्रदेश की "”दशा"” नहीं सुधारे तो मुझे और पार्टी को लात मार कर उतार देना | पुनः वही प्रश्न की उनके कहे को कौन पूरा करेगा और किस धारा और कानून के तहत ?? अब यानहा दो सवाल है ----प्रथम दशा सुधारने का कौन सा पैमाना उनके पास है " ? क्या वह उनका पुराना गुजरात माडल है -जिसकी बहुत बड़ी -बड़ी बाते हुई थी | परंतु आज तक उस "”माडल "” का विवरण देश के सामने कभी नहीं आया | इसलिए ज़रूरी है की पहले देश के सामने प्रधान मंत्री जी अपने सपने की रूप रेखा ब्योरा पेश करे ---फिर जनता को मौका दे की वह किसका चुनाव करती है |

चुनाव सभाओ मे असंभव वादो को करने और बाद मे जब उनके बारे मे सवाल जवाब हो तो उसे "”अपने सहयोगीयो "” से "” जुमलेबाजी "” करार करा देना – देश की जनता के सामने है | इसलिए 2014 के लोकसभा की चुनावी तकनीक 2016 के विधान सभा निर्वचनों मे कितना काम आएगी --यह तो समय ही बताएगा | परंतु इतना तो प्र्मणित है की मोदी जी की जुमलेबाजी का असर दिल्ली विधान सभा के चुनावो मे ""पैदली मात "” खा चुका है | दूसरी पराजय मोदी जी को बिहार मे मिली जंहा उनकी पार्टी को मात्र दहाई मे सीटे मिली है | वनहा भी दिल्ली की भांति सरकार बनाने के लिए ताल ठोंकी थी | परिणाम पराजय के रूप मे मिली |



मोदी जी ने अपनी प्रथम सफलता को चुनावी जीत का पैमाना मान लिया था | जिसको लेकर उन्होने काँग्रेस को लोकसभा मे प्रतिपक्ष का ओहदा तक देने से इंकार किया |वनही दिल्ली मे अरविंद केजरीवाल ने 70 सदस्यीय विधान सभा मे मात्र 03 सीट पाने वाली भारतीय जनता पार्टी को प्रतिपक्ष का ओहदा भी देने का प्रस्ताव दिया |

सब देख रहे है की कौन सीमा लांघ रहा है -सरकार या न्यायपालिका ?

अपनी हदों मे रहे -कौन न्यायपालिका या सरकार ??

एक समाचार पत्र मे संपादकीय प्रष्ठ पर वारिस्थ पत्रकार शंकर शरण ने लिखा है की न्यायपालिका अपनी हदों मे रहे | उनके आलेख मे जज़ो की नियुक्ति के बाबत प्रश्न उठाया गया है | लिखा गया है की जज खुद ही अपनी नियुक्ति कर लेते है ,,सरकार का उन पर कोई नियंत्रण नहीं है | कालेजियम सिस्टम के पूर्व जजो की नियुक्ति मे सरकार नियुक्ति की सिफ़ारिश किया करती थी | वह आज भी किया जाता है | तब भी सरकार द्वारा सिफ़ारिश पाये अधिवक्ताओ पर सुप्रीम कोर्ट आपति जताता था ,, और सरकार उनकी आपति का सम्मान करती थी | परंतु वित्त मंत्री अरुण जेटली जो खुद भी वकील रहे है और उनके मन मे जजो के प्रति "”आसक्ति और द्वेष "” की भावना है | इसीलिए वे ऐसा तंत्र बनाना चाहते है जिसमे "”केवल सरकार की सिफ़ारिश "”पाये लोग न्यायिक पीठ मे बैठे | एवं ऐसे लोगो को कोई अवसर नहीं दिया जाये जो उनकी विचारधारा अथवा उनके अनुसरणकर्ता ना हो |

सेवा शर्तो आदि के बारे मे भी उन्होने उल्लेख किया है की वे भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वयं ही निर्धारित किए जाते है | इन आपतियों के उत्तर मे केवल कुछ टाठी रखना ही समीचीन होगा | संसद स्वयं ही अपने सदस्यो के वेतन - भत्ते और सुविधाओ का निर्धारण करती है | स्वयं के बारे मे नियम बनाती है | अभी हाल मे जब सांसदो के वेतन भत्ते बड़ाये गए तब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के हवाले से खबर आई थी की उन्होने भी इस प्रयास का पुनरीक्षण करने का सुझाव दिया था | परंतु उस पर संबन्धित लोगो ने शायद ध्यान ही नहीं दिया | उनका कहना था की वेतन व्रधी का कोई पुख्ता आधार होना चाहिए ---बस यू नहीं एक प्रस्ताव लाकर सदस्यो से "”हाँ "”' की जीत करा कर कानून नहीं बनान चाहिए |

न्यायपालिका के सदस्यो और सांसदो द्वारा स्वयम के नियम बनाए जाने मे यह समानता है | अंतर है तो उनकी नियुक्ति को लेकर----- लोकसभा और विधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित होते है | जबकि न्यायपालिका के सदस्य प्रांतीय न्यायिक सेवाओ से तथा अन्य "” बार"” यानि की वकीलो से नियुक्त होते है | सांसदो की पदासीन रहने की अवधि संविधान के अनुच्छेद 83 [2] द्वारा पाँच वर्ष की नियत है | विधानमंडलों की भी अवधि इसी के अनुरूप पाँच वर्ष है |


सर्वोच्च न्यायालय के जजो के वेतन के बारे मे अनुच्छेद 125 मे सपष्ट किया गया है की उनके वेतन भाती संसद दावरा निश्चित किए जाएँगे | पर संविधान ने व्यसथा की थी जब तक नियम नहीं बनते तब तक सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश को 10,000 रुपये प्रतिमाह और अन्य भत्ते तथा सुविधाए प्रपट होंगी | अन्य न्यायाधीशो को 9,000 प्रति माह तथा राज्यो के मुख्य न्यायाधीशो को भी 9,000 प्रति माह तथा अन्य न्यायाधीशो को 8,000रुपये प्रति माह एवं अन्य भत्ते और सुविधाए सुलभ होंगी | बाद मे सातवे संविधान संशोधन द्वारा इन वेतन भटू मे व्रधी की गयी |


प्रथम लोक सभा के सदस्यो को संभवतः पाँच सौ रुपये प्रतिमाह और बैठक होने पर पचास रुपये प्रतिदिन का भत्ता देय था | निशुल्क आवास और सीमित फोन सुविधा के साथ मुफ्त रेल यात्रा की सुविधा भी थी | तत्कालीन संसद सदस्यो के मुक़ाबले उस समय के न्यायाधीशो को बीस गुना वेतन मिलता था आज वह अनुपात कितना रह गया देखा जा सकता है \ इस लिए लेखक महोदय को "”हद मे रहने की सलाह किसे देनी चाहिए वे ही निश्चित करे ?