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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 27, 2020

फरियादी को न्याय अथवा -अदालत का कानूनी फैसला !!!


फरियादी को न्याय अथवा -अदालत का कानूनी फैसला !!!
न्याय के मंदिर कहे जाने वाली इमारतों को आम तौर पर हम अदालत भवन के नाम से ही जानते हैं | जनहा विवादो का निपटारा कानून के सबूतो के आधार पर होता हैं | पर क्या इसे हम न्याय कह सकते हैं ? जिसमें पीड़ित व्यक्ति को राहत और अन्यायी को दंड मिले ! ऐसा आम तौर पर कम ही होता हैं | अगर यही न्याय हैं तब , हमे विक्रमादित्य और -नौशेरवाने आदिल तथा जंहागीर के घंटे की बात करना बेमानी हो जाएगी |जिनहे न्याय के लिए इतिहास में जाना जाता हैं !! पर देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इन नामो को न्याय का पर्याय ही मानता हैं | ग्रामीण छेत्रों में पंचायतों को भी विवादो को निपटने का काम हैं | परंतु मुंशी प्रेमचंद की कहानी के पंच अब कल्पना हो गए हैं | जो मन -मुटाव के बाद भी सच का ही साथ देते हैं | परंतु अब तो इन की जगह "”खाप पंचायतों "” ने काफी कुख्याति पायी हैं --- अपने उल -जलूल फैसलो के लिए | मामला यानहा तक हुआ की सुप्रीम कोर्ट को इन खाप पंचायेतो को ही बेअसर करने का फैसला देना पड़ा | इन खाप पंचायतो के कुछ फैसले तो काफी आपतिजनक हुए हैं , जैसे बलात्कार के मामलो में मुआवजा दिला कर मामले को रफा -दफा करना |लड़कियो के सलवार कमीज या पैंट पहनने और मोबाइल के इस्तेमाल को "”दंडनीय अपराध " बताना !! दलित वर्ग के दूल्हे को घोड़ी पर बैठने पर मार - कुटाई करना , यानहा तक की पुलिस को भी बेबस कर देना ! मेरठ जिले में एक दलित वर्ग के लड़के को पंचाट के इस अन्याय के खिलाफ सालो अदालती लड़ाई करनी पड़ी , तब इलाहाबाद हाइ कोर्ट ने वनहा के ज़िला प्रशासन को अपनी देख - रेख में बारात को गवन से निकलवाना पड़ा ! कुछ ऐसा ही हरियाणा में भी हुआ ---जनहा दलित वर्ग की एक आईएएस लड़की ने गाव से ही शादी करने का फैसला किया , क्योंकि वह गाव के पंचो - सरपंच को सबक देना चाहती थी , जिनहोने उसे और उसके परिवार को बेइज़्ज़त करने और सामाजिक बहिसकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी | इक्कीसवी सदी के बीसवे साल में भी – अदालत से क़ैद की सज़ा पाये अपराधी को उसका समाज और गाव "””हिकारत "” से नहीं वरन इज्ज़त से देखता हैं | लोगो को डर सामाजिक बहिष्कार से लगता हैं ! क्योंकि यह हरकत किसी भी परिवार या व्यक्ति को उसके इलाके में "”असहाय बना देती हैं "! अब इस सामूहिक हरकत को कैसे अपराध साबित किया जाये ? चौधरी को बिना सलाम किए निकाल जाने की सज़ा "”उसके जूते को सर पर रख कर चलने पर मजबूर करना ----सामाजिक अन्याय ही तो हैं ! अब इन हरकतों का असर दलित लोगो को भयभीत करता हैं , क्या इन्हे न्याय आज भी मिला हैं ?
बात शुरू हुई थी न्याय और कानून के अनुसार फैसले की , दीवानी के मामलो में भले ही कानून का नजरिया "” कमजोर के कल्याण "” का हो , परंतु क्रिमिनल या फ़ौजदारी अथवा आपराधिक मामले में तो "फरियादी या प्रभावित "” को न्याय देने के बिलकुल निश्चित नियम ----पहले भी रहे हैं , और आज भी हैं | मसलन हत्या या चोरी अथवा डकैती के लिए मुग़ल काल से ब्रिटिश राज तथा आज़ाद भारत में कमोबेश एक जैसी प्रक्रिया और सज़ा का प्रावधान हैं !! हाँ विक्रमादित्य के समय या जनहगिरी काल में अथवा नौशेरवाने आदिल के समय --तुरत -होता था | तब विवाद का फैसला जानने के लिए अभियुक्त को अपना जुर्म पता होता था , तथा फरियादी को अपने साथ हुए अन्याय का ! हाँ तब राजा ही राष्ट्र था और सरकार भी था तथा न्यायकर्ता भी था ! विक्रमादित्य के सिंहासन बत्तीसी के किस्से तो आम हैं , जिन 32 पुतलियों के सहारे वे दरबार में न्याया करते थे | तब उन्हे अपनी गद्दी जाने का खौफ हमेशा नहीं लगा रहता था जंहागीर ने भी महल में एक घंटा लगवा रखा था ---की कोई भी रिआया कभी भी सुल्तान को शिकायत कर सकता था | किस्सा हैं की एक बार रात में घंटा बजा , फरियादी एक औरत थी , जिसने मालिका पर अपने पति की हत्या का आरोप लगाया |उसे सुबह दरबार में आने का कहकर सुल्तान चले गए | दूसरे दिन दरबार में उस औरत ने बताया की मालिका ने शिकार के दौरान उसके पति पर तीर चलाया , जिससे की उसकी मौत हो गयी | मालिका ने दरबार को बताया की उन के निशाने में चूक के कारण मकतूल को लगा और वह गिर गया | उस वक़्त के कानून के अनुसार हत्या की सज़ा मौत थी | जंहागीर ने दरबारियों से न्याय करने की सलाह मांगी , तब दरबारियों ने मालिका को माफ करने का सुझाव दिया | परंतु जंहागीर ने कहा की वह मालिका को सज़ा नहीं दे पा रहा हैं इसलिए वह चाहे तो अपने पति की मौत का बदला मालिका के पति की जान से ले सकती हैं , यह कहते हुए वह सिंहासन से नीचे उतर आया | तब दरबारियों के समझने पर उस औरत ने पति के कत्ल के जुर्म से मालिका को माफ कर दिया | इसी तरह फारस के शाह अग्निपूजक नौशेरवाने आदिल ने अपने लड़के को एक ईसाई लड़की से अपने धरम के बारे में झूठ बोलने पर सज़ा सुनाई , पर गिरफ्तारी के दौरान राजकुमार की मौत हो गयी | नौशेरवाने आदिल ने गम में अपना राज छोटे भाई को सौप कर चला गया |
इन किस्सो का सार यह हैं --तब झूठ का बोलबाला वैसा नहीं था ---जैसा की आज सरकारो की ओर से झूठे आश्वासन और अहंकार भरे सहायता के भाषण ----तथा समाज में नफरत – ईर्ष्य तथा बेईमानी का हैं | कहावत हैं की "” यथा राजा -तथा प्रजा ----परंतु लोकतन्त्र में इसको उलटना होगा अर्थात "”यथा प्रजा -तथा राजा "” क्योंकि प्रजा जिसे गणतन्त्र में नागरिक कहते हैं , उनका बहुमत जैसा होगा ---उसी के अनुसार उन्हे सरकार मिलेगी | आज सरकार से जुड़े हर काम या फैसले के लिए "” लक्ष्मी जी का चढावा देना आम बात हैं "”| कल्पना करे यदि आप कभी अदालत नहीं गए है --- तब जज की कुर्सी के नीचे बैठे '’पेशकार'’ साहब को इसलिए रिश्वत देनी होगी की आपकी फाइल जज साहब की मेज़ पर चली जाए |फिर चपरासी को पैसे देने होंगे की वह जल्दी केस की आवाज़ लगा दे , इतना कर्मकांड करने के बाद भी आपको न्याय के नाम पर '’’ तारीख ही मिलेगी " न्याय नहीं ! फरियादी फिर अदालत के बाहर बने हुए देवता के मंदिर पर सवा रुपया का चढावा फिर चड़ाता है -इस प्रार्थना के साथ की प्रभु जल्दी न्याय दिलवा दो , तब जगराता कराउंगा - गरीबो को भोजन पंगत जिमौङ्गा | यानि न्याय पाने के लिए रात से तैयारी !!
यह राह और मुश्किल हो जाती हैं जब – सरकार के इशारे पर पुलिस "”एकतरफा डडा चलाती हैं , और अदालत को भी "”हुकुमते -- वक़्त "” की नियत बात दी जाती हैं --डरावने अंदाज़ में , की ""अगर उसने "”जैसा इशारा किया गया हैं ,वैसा नहीं किया तब वह भी ----- न्याय मांगने वालो की भीड़ में खड़ा कर दिया जाएगा !!!
इस परिप्रेक्ष्य में जज लोया की संदेहजनक स्थितियो में मौत के लिए सुप्रीम कोर्ट मे "” एस आई टी " से जांच की मांग ठुकरा दी थी | एवं अभिनेता सुशांत राजपूत की मौत के मामले में ---सीबीआई - ई डी – नरकोटिक्स ---एम्स के डाक्टरों की जांच टीम , लगी हुई हैं ! क्या इसलिए की बिहार के विधान सभा चुनावो में इस घटना को भुनाया जा सके ! भूल जाते हैं की लाखो बिहारी लोगो को मुंबई रोजी -रोटी देती हैं , कनही यह जातिवाद बूमरंग ना कर जाए |
दस दोषी भले छुट जाए -पर एक बेगुनाह पर दाग न लगे :- न्याय शास्त्र कहता हैं की भले ही दोषी सज़ा ना पाये , पर कोई भी निर्दोष को राजकोप न मिले | परंतु आज की हालत में देश की जेलो में आरोपियों की संख्या और अपराधियो की संख्या के अनुपात में ज्यादा अंतर नहीं हैं | बिना जुर्म साबित हुए ये आरोपी अक्सर --गुनाह के लिए मिलने वाली क़ैद की मियाद को सुनवाई पूरी होने से पहले ही "”भुगत चुके होते हैं | “”
कुछ मामलो में पुलिस की जांच -और कारवाई हुकूमत के आँख के इशारे पर काम करती हैं | जैसे दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में पुलिस प्रवेश और एक संगठन के लोगो द्वरा विरोधी संगठन के छत्रों शिक्षको पर हमला मार पीट --- मजे की बात छत्र संघ की अध्यक्ष ने जब पुलिस सहायता की गुहार की , तब उन्हे बताया गया की पुलिस भेज दी गयी हैं
जामिया मिलिया में भी पुलिस बिना अनुमति लिए कैंपस में गयी और मार पीट की | दिल्ली में भड़के दंगो में जिन लोगो के भड़काऊ भासन वीडियो में प्रचारित हुए , पुलिस ने उनको छोडकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो को ही निशाना बनाया | जे एन यू के डॉ कनहिया पर देशद्रोह क मामला दर्ज़ पर सुनवाई नहीं तो फैसला भी नहीं ? अबहिमा -कोरेगाव्न अदालत यह तो कह सकती है की '’’’जांच की रफ्तार इतनी सुस्त क्यू की सालो गुजर गए और मुकदमाँ शुरू ही नहीं | कुछ ऐसा ही भीमा -कोरे गाव में गिरफ्तार प्रोफेसर तुलमुंडे और डॉ बरबरे ऐसे शिक्षको को 6 माह से ज़्यदा हो जाने और स्वास्थ्य खराब होने पर भी जमानत न देना --उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की न्याय देने की प्रणाली पर सवालिया निशान तो लगता हैं |
अब बात अदालत की अवमानना की ;- मामला ताज़ा -ताज़ा हैं की मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने महिला आयोग -बाल आयोग में कमलनाथ सरकार द्वरा की गयी नियुक्तियों को शिवराज सिंह द्वरा '’रद्द' किए जाने पर '’’ अगले आदेश तक रोक '’’ लगा दी | फिर भी शिवराज़ सरकार ने इन संस्थानो के दफ्तरो में ताला लगा दिया !!! अब सवाल है की किसके हुकुम का पालन हो रहा है ? अदालत के अथवा सरकार के ?? क्या यह अदालत की अवमानना नहीं है ?/क्या जब तक न्यायमूर्ति के वीरुध कुछ बोला जाये या लिखा जाये ---तभी अवमानना होगी ? जज तो आते जाते रहेंगे , पर अदालत एक संस्थान है , अगर इसकी पवित्रता पर छींटे पड़े तो वह आम आदमी के विश्वास को डिगा देगा | अभी तक अदालत के फैसलो को जन -जन न्याय पूर्ण मानकर सज़ा देने वाले जजो की भी इज्ज़त करता हैं | उनसे शत्रुता नहीं मानता , ना उनके खिलाफ कोई वारदात करता हैं , यह इसलिए की भले ही आज़ादी के सत्तर साल बाद भी , सरकार आबादी को "”नागरिक "” के रूप में नहीं ,वरन "””वोटर"” के रूप में देखती हैं , जिसका इस्तेमाल चुनावी मशीन के चारे के रूप में किया जाता हैं | जब किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई कार्यक्रम ना हो तो {जो की नहीं हैं } तब वोट मांगने के के लिए "”नफरत "” का नशा सबसे सस्ता और सुलभ होता हैं | उसमें भी धर्म - को राष्ट्रवाद मिला कर और जहरीला बन दिया जाता हैं | जैसे शराब में जलती हुई सिगरेट की राख़ डाली जाए | धर्म ऐसे व्यक्तिगत आस्था को सामाजिक घृणा के रूप में परोसने का काम ,कुछ कट्टर पंथियो का धंधा बन जाता हैं | फिर इस नशे को किसी खास जाति या समुदाय के लोगो को पिलाया जाता हैं , जो उस संगठन का "”आधार अथवा बेस "” बन जाता हैं | फिर ये तत्व ध्रर्म की अलख के नाम पर दूसरे धर्म या जाति के लोगो कोनिशाना बनाते हैं | अंत में सरकार का राजनीतिक एजेंडा आगे चलाने के लिए अदालतों को अपनी पवित्रता दांव पर नहीं लगाना चाहिए |





Aug 24, 2020


अदालत के फैसले की आलोचना – अवमानना नहीं है !


प्रशांत भूषण के दो ट्वीट का स्व सज्ञान ले कर सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने जिस प्रकार "” अवमानना का मामला "” चलाया जा रहा , जिसको लेकर वकीलो और पूर्व जजो ने विरोध व्यक्त किया हैं ,वह विधि की दुनिया में हलचल मचाए हुए हैं | जनहा अभियुक्त प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट पीठ के बार -बार कहने के बावजूद माफी मांगने से इंकार कर दिया हैं | वनही यह सवाल भी आज जागरूक नागरिकों के मध्य चर्चा का विषय हैं , की क्या "”तथ्यात्मक और तर्क पूर्ण " किसी फैसले की आलोचना ,क्या अदालत का अपमान हैं ?
इस संदर्भ में शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में अभिनेत्री स्वरा भास्कर की अयोध्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी को लेकर दायर याचिका पर , अटार्नी जनरल वेणुगोपाल ने याचिका की मांग को खारिज कर दिया हैं | ज्ञात हो की अयोध्या मामले में वेणुगोपाल ने सरकार की ओर से पैरवी की थी | ज्ञातव्य हो की आम तौर पर अटार्नी जनरल देश की ओर से अदालत में पेश होते हैं | जबकि केंद्र सरकार की पैरवी के लिए सोलिसीटर जनरल होते हैं | इसलिए अटार्नी जनरल की "”रॉय "” निर्णायक सीध होती हैं | गौर तलब हैं की प्रशांत भूषण के मामले में भी उन्होने सुप्रीम कोर्ट की पीठ से आग्रह किया था की भूषण के वीरुध मामले को समाप्त किया जाये और सज़ा देने के निश्चय को अमली जमा नहीं पहनाया जाये | परंतु जुस्टिस अरुण मिश्रा ने उनको सुनने से इंकार कर दिया , यह कहते हुए की वे मामले की "” मेरिट " अर्थात अपराध हुआ अथवा नहीं इस पर सुनवाई नहीं कर रहे हैं | इसलिए उस विषय पर वेणुगोपाल को नहीं सुना जाएगा ! संभवतः ऐसा पहली बार हुआ हैं की किसी अदालत ने देश के सर्वोच्च विधि |अधिकारी को सुनने से इंकार कर दिया हो | संविधान के अनुसार अट्टार्नी जनरल का पद सुप्रीम कोर्ट के जज के पद बराबर होता हैं | वे संसद में कानूनी रॉय देने के लिए सदन में नेता सदन के बगल बैठ कर सदन में मामले के विधिक पक्ष को स्पष्ट करते हैं | उनका पद संवैधानिक होता हैं ---जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के जजो का | राष्ट्र की ओर से उनकी रॉय विधि के मामलो में अंतिम होती हैं |
स्वरा भास्कर द्वरा 1 फ़रवरी 2020 को बाम्बे क्ल्लेक्टिव के एक कार्य क्रम में अयोध्या मामले में टिप्पणी को याचिका करता उषा शेट्टी ने आधार बनाया था | जिसमे उन्होने कह था की अब हम ऐसी स्थिति में हैं जनहा हमारी अदालते नही हैं की वे संविधान में विश्वास करती हैं या नहीं ? हम एक देश में रह रहे हैं जनहा हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में कहा की "”बाबरी मस्जिद का ध्वंश गैर कानूनी था "” और फिर उसी फैसले ने उनही लोगो को पुर्स्क्रत किया , जिनहोने मस्जिद को गिराया था "| अब इस टिप्पणी को याचिका कर्ता ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना बताते हुए स्वरा भास्कर को दंडित किए जाने की मांग की थी | जिसे अट्टार्नी जनरल ने ने "”खारिज कर दिया "” |
अवमानना के पेंडिंग मामले और उच्च और सर्वोच्च न्यायालय का रुख :-
यानहा एक सवाल यह भी हैं की देश में विभिन्न अदालतों , उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय समेत 96000 मामले है "” अवमानना के ! इन मामलो में राज्य या केंद्र सरकार या उनके अधिकारियों द्वरा अदालत के फैसलो का अनुपालन नहीं किया गया ! तब प्रभावित पक्ष ने अदालत में फैसले को लागू करने के लिए अदालत से आग्रह किया की "” आपके फैसले के बावजूद "” न्याया नहीं मिल पाया हैं , क्योंकि सरकार अथवा उसके अधिकारी उस फैसले की अवहेलना कर रहे हैं ! परंतु अफसोस हैं की सर्वोच्च अथवा उच्च न्यायालय इन याचिकाओ को निपटारे के लिए वह गति नहीं दिखते हैं ----जो प्रशांत भूषण के मामले में दिखाई पद रही हैं ! सवाल यह हैं की क्या अदालते वास्तव में अपने अधिकारो का पालन वादकारी को न्याया देने के लिए इच्छुक भी हैं | दीवानी मामलो में जनहा --- भूमि -भवन अथवा नौकरी या मुआवजे से संबन्धित मामलो में अंतिम निर्णय के बाद भी सरकार के अफसर --उनका पालन करने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य होने के बावजूद वर्षो तक फैसले में दी गयी "””राहत "” को प्रभावित पक्ष को देने में लटकते हैं | अगर प्रभावित पक्ष अदालत जाकर , उन अफसरो की अदालतों के फैसले के अनुपालन में "”टाल-मटोल "” की शिकायत करता हैं , तब अदालते अनुपालन का समय बड़ा देते हैं ! अर्थात वे अपने फैसले के अनुपालन में इस विलंब को "” अवमानना नहीं मानती " जबकि किसी भी कानूनी निकाय के निर्देश अथवा फैसले को नहीं मानना ---अवमानना और अनुशासनहीनता दोनों ही हैं | शासन में अधिकारी के आदेश को यदि अधीनस्थ द्वरा अनुपालन नहीं किया जाता तब -उसे अनुशासन हीनता माना जाता हैं | फिर अदालतों के फैसले क्यू नहीं इस कारण वे श्रेणी में ? जबकि अदालत होने केकारण वे "””अदालत की अवमानना के अपराधी हैं '’ |
इस संदर्भ में अयोध्या में बाबरी मस्जिद के समय तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह ने भी सुप्रीम कोर्ट को आसवासन दिया था की --सरकार मस्जिद को छती पाहुचने नहीं देगी ! परंतु हुआ क्या ? और सुप्रीम कोर्ट
ने "अदालत से इस वादा खिलाफी को अवमानना "” मान कर क्या सज़ा दी ? इसके उलट सुप्रीम कोर्ट ने खलिस्तान समर्थक द्वरा देश के खिलाफ नारा लगाने और और खलिस्तान के समर्थन में नारा लगाने वाले को पंजाब पुलिस द्वरा देसद्रोह के अपराध में अभियुक्त बनाने को माननीय नयायमूर्ति ने फैसले में कहा "”” की देश का किसी एक या कुछ लोगो के नारा लगाने से कोई अहित नहीं होता "”| एवं नारा लगाना कोई देसद्रोह नहीं हैं , जब तक की उसके कारण कोई हिंसा न हो |
सुप्रीम कोर्ट 96000 अवमानना के दीवानी या सिविल मामलो में जब तक प्रभावी कारवाई नहीं करता तब तक ---किसी जज साहेबन कि आदतों या किसी घटना पर टिप्पणी को अवमानना मानना उचित नहीं होगा | पचास और साथ के दशक में जज लोग वकीलो या आँय लोगो से सामाजिक दूरी बनाकर रखते थे | क्योंकि बाहरी अदालत में अगर किसी वकील ने मेलजोल को आधार बना कर सुनवाई में उनकी "”निस्पक्छ्ता "” पर सवाल उठा दिया तब ------बहुत असमंजस की स्थित बन जाती थी , और मामले को दूसरी अदालत में भेज दिया जाता था | परंतु इस समय सुप्रीम कोर्ट में "” सत्यनिष्ठा "” पर सावल उठाए जाने के बाद भी जज साहेबन अपने को सुनवाई से अलग नहीं करते ! वरन ज़िद्द पकड़ लेते है |जस्टिस कर्णन जिनहे तमिलनाडू से बंगाल हाइ कोर्ट तबादला किया गया था , उनके अजीबोगरीब फैसलो और बयानो के कारण | उन्होने सुप्रीम कोर्ट की इतनी भद्द की थी की उनके अवकाश ग्रहण के बाद उन्हे सज़ा दी गयी | उन्होने भी न्यायपालिका में दलितो के वीरुध रवैये का आरोप लगाया था |आज वे भी प्रशांत भूषण के पच्छ में खड़े हैं , जबकि प्रशांत भूषण ने उनके वीरुध पैरवी की थी |

Aug 21, 2020

न्याय का मंदिर – विरोधाभासों और संदेह के घेरे में हैं क्या


न्याय का मंदिर – विरोधाभासों और संदेह के घेरे में हैं क्या ?
एक कहावत हैं की "”हाकिम का हुकुम रुतबे से चलता हैं -फौज -फाटे से नहीं " मतलब यह की सरकार हो या न्यायपालिका का आदेश नागरिकों के विश्वास से चलता हैं , दंड या भय से नहीं ! एक और उक्ति हैं की सम्मान अर्जित किया जाता हैं , उसको डरा -धमका कर नहीं पाया जा सकता ! आज देश की सर्वोच्च अदालत मान - अपमान के एक मामले से अपने पूर्व के फैसलो पर भी संदेह की छाया का सबब बन गयी हैं | प्रशांत भूषण के दो ट्वीट को लेकर जिस प्रकार अदालत ने – नेचुरल जस्टिस के आधारभूत कसौटी नियमो को अनदेखा किया हैं , वह अचंभित करता हैं ! प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना के मामले को न्यायमूर्तियों ने स्वयं सॅज्ञान लेकर कारवाई की हैं ! जिन दो ट्वीट को लेकर यह विवाद हुआ हैं , उसमें अदालत ने यह साफ नहीं किया की , वास्तव में कौन सी बात अदालत या न्यायपालिका के अपमान का कारण बनी ! क्या जो लिखा गया वह आधारहीन था ? अथवा किसी की व्यक्तिगत छवि को असत्य कारण से धूमिल कर रहा था ! हैरानी की बात यह हैं की देश के अटार्नी जनरल वेणुगोपाल ऐसे नब्बे वर्षीय अधिवक्ता को भी सुनने से इंकार किया गया ! जबकि वे देश के विधिक प्र्वकता हैं , ना की सरकार के --जो सॉलिसीटर जनरल होते हैं | सुप्रीम कोर्ट की तीन जजो की पीठ द्वरा बार बार आरोपी को "”बिना शर्त माफी मांगने "” का हुकुम जिस प्रकार दुहराया गया ---- और इस संदर्भ में आरोपी प्रशांत भूषण का जवाब की वे सज़ा भुगतने को तैयार हैं , चंपारण के नील आंदोलन में गिरफ्तार महात्मा गांधी का वह कथन याद आता हैं --जब उन्होने आंदोलन के लिए माफी मांगने या जमानत के स्थान पर सज़ा भुगतने का प्रण किया था ! क्या यह एक फैसला न्यायपालिका में फैले भ्रस्ताचर के खिलाफ मुहिम साबित होगी ?
वेणुगोपाल जी ने भी भरी अदालत में जब कहा की न्यायपालिका में भ्रस्ताचर की शिकायत सुप्रीम कोर्ट के नौ जजो ने भी उनसे की थी ! तब जस्टिस अरुण मिश्रा ने "” कहा की यानहा हम मामले की मेरिट पर नहीं सुन रहे हैं "” | मतलब यह की हमे इस बात से मतलब नहीं की आरोपी ने अपराध किया हैं अथवा नहीं ?”” कितनी अद्भुत बात हैं ,जो अदालत आरोप और सबूत के आधार पर फैसला देती आई है , वो यह कहे की हमे आरोपी के जुर्म के बारे में कुछ नहीं सुनना, और अपराध का संज्ञान स्व्यस्म लेना --- बहुत कुछ कह जाता हैं ----बिना कुछ कहे -सुने !
जो अदालत जज लोया की संदेह स्थितियो में हुई मौत की जांच के लिए दायर याचिकाओ को यह कह कर खारिज कर दे की "” तीन जजो ने बयान दिया हैं की उनकी मौत अस्वभाविक नहीं थी ! हम उनके बयान को कैसे अनसुना कर दे "” ! इसका मतलब यह हुआ की तीन जजो का बयान "” अन्य नागरिकों के बयान और दावो पर भरी हैं ! सिर्फ इसलिए की वे काला कोट पहन कर लोगो की ज़िंदगी का फैसला सुनाते हैं ! जिनके फैसलो के कारण कभी -कभी बेगुनाह लोग दस से बीस साल ज़िंदगी के सुनहरे पल सलाखों के पीछे काटते हैं | लेकिन आज तक ऐसी "” गल्तियो के लिए कभी भी इन बड़ी अदालतों ने जजो के वीरुध कोई टिप्पणी भी नहीं की !” जबकि हमारा विधि शासर कहता हैं की "” दस मुल्ज़िम {आरोपी} भले छूट जाये परंतु किसी बेगुनाह को सज़ा ना हो !” पर भारतीय न्याय व्ययस्था में तो उल्टा ही हो रहा हैं | रक्षा सौदो में दलाली के आरोप में दिल्ली की सीबीआई की विशेस अदालत ने तत्कालीन रक्षा मंत्री की महिला मित्र जया जेटली और एक मेजर जनरल को दोषी पाया और सज़ा भी सुना दी | परंतु दिल्ली हाइ कोर्ट ने तुरंत जमानत दे दी ! चिदम्बरम को अदालत ने जमानत देने से इंकार कर दिया था , शायद गृह मंत्री के रूप में उनके किसी फैसले ने मौजूदा हुकूमत के किसी पाये को राहत देने से इंकार कर दिया था !
सुशांत की मौत की जांच और सुप्रीम कोर्ट की एकल बेंच का निर्णय :-
संविधान में न्यायपालिका का आधार संयुक्त राज्य अमेरिका का फेडरल कोर्ट ऑफ और हाउस ऑफ लॉर्ड्स को मिला जुला कर लिया गया हैं | इन स्थानो में न्याय की इस अंतिम पायदान में मामलो की सुनवाई हमेशा एक से अधिक जज करते हैं | यानि सिंगल बेंच नहीं होती | आज से एक माह पहले तक सुप्रीम कोर्ट में भी डिवीज़न बेंच यानि की दो जजो द्वरा ही सुनवाई की जाती थी |परंतु एक माह पहले सुप्रीम कोर्ट ने हाइ कोर्ट की भांति एकल जज की पीठ के गठन का फैसला किया | इस तारतम्य में पहला फैसला जुस्टिस ऋषिकेश रॉय द्वरा सुशांत सिंह की संदेहजनक स्थितियो में हुई मौत की जांच सीबीआई को करने का आदेश दिया | इस फैसले में कहा गया की "”अब दिवंगत भी चैन की नींद सो सकेगा "” ! हमारे यानहा म्र्त्यु को चिरनिद्रा भी कहते हैं , फिर भी न्यायमूर्ति ने "चैन " की बात कही ! यानहा समीचीन होगा की क्या जज लोया भी कहीं चैन की की नींद सो सकेंगे ? तब कान्हा हैं "”सत्यमेव जयते "” ? इस उद्घोष को याद करें तो --- प्रवासी मजदूरो की घर वापसी पर सरकार के हस्तक़्छेप की याचिका पर नागरिकों के कष्ट को अनदेखा किया गया | संविधान में न्यायपालिका को नागरिकों के मूल अधिकारो की रक्षा का अलमबरदार बताया गया हैं , तब क्या यह बेरुखी सत्य थी ? फिर दिल्ली में जे एन यू और जामिया में पुलिस द्वरा आंदोलन कर रहे छत्रों के साथ बर्बरता की याचिकाओ को नामंज़ूर करना क्या सत्य की विजय था ? क्या दिल्ली के चुनावो में हाइ कोर्ट के एक जज द्वरा जब भड़काऊ भासण के आरोपियो { जिनमें केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेताओ } के वीरुध पुलिस को कारवाई करने का आदेश दिया ----तब दो दिन में उनका तबादला पंजाब हाइ कोर्ट में कर दिया गया ! क्या यह सत्यमेव जयते था !
इस फैसले से अपराध प्रक्रिया संहिता --- के नियमो का भी ख्याल नहीं रखा गया | कानून हैं की जिस स्थान में अपराध होता हैं , उस छेत्र का पुलिस थाना ही उसकी जांच करता हैं | हाँ रेल्वे या हवाई जहाज़ से सफर कर रहे यात्री के साथ अगर कोई हादसा होता हैं ,जो अपराध की श्रेणी में आता हैं , तब उसे पीड़ित व्यक्ति किसी भी नजदीकी थाने में अपनी रिपोर्ट लिखा सकता हैं | इसमें प्रक्रिया यह हैं की उक्त थाना शून्य पर उस शिकायत को दर्ज़ कर ---- अपराध स्थल के ठाणे को अग्रसारित कर देता हैं | अब सुशांत के मामले में मौत हुई मुंबई में , पर अपराध की प्राथमिकी रिपोर्ट पटना में लिखी गयी , जिसे मरने वाले के पिता ने लिखाया | प्रक्रिया के अनुसार पटना पुलिस को इस शिकायत को मुंबई पुलिस को भेज देना था | परंतु जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने पटना की प्राथमिकी को कानून को विधि सम्मत पाया ! हालांकि उन्होने फैसले में उन कारणो का खुलाषा नहीं क्या जिनके आधार पर अपराध के स्थान के पुलिस छेत्राधिकार को अमान्य करते हुए , पिता की शिकायत को अपराध की प्राथमिकी करार दिया ? ज़्यदासे ज़्यदा उसे शिकायत के रूप में दर्ज कर मुंबई पुलिस को अग्रसारित करना ही परंपरागत होता ! परंतु ऐसा न कर के बिहार सरकार के आग्रह को मानकर मामले की जांच सीबीआई को दे दी | जबकि सीबीआई किसी भी प्रदेश में तभी जांच कर सकती हैं जब "”राज्य सरकार उससे आग्रह करे "” | चूंकि महाराष्ट्र सरकार अपनी पुलिस की जांच से संतुष्ट थी और वह किसी केंद्रीय एजेंसी से जांच के वीरुध थी | सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से राजी सरकार की सहमति का अधिकार छीन लिया गया ! ज़्यादातर लोगो के दिमाग में इसका कारण राजनीतिक है | क्योंकि जिस प्रकार केंद्र सरकार ने मालेगाव मामले में शिव सेना सरकार की इच्छा के वीरुध केंद्र ने इस घटना को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ कर एन आई ए को दिया , वह राज्य सरकार के फैसले को उलटने जैसा था , जो इस मम्म्ले में बंदी बनाए गए शिक्षको - लेखक और सार्वजनिक कार्यकर्ताओ के खिलाफ देवेन्द्र फदनविस सरकार के फैसले को रद्द करने का सार्वजनिक बयान दे चुकी थी | उस बन के तुरंत बाद केंद्रीय जांच एजेंसी को मामला देना ---राज्य सरकार के का अधिकारो का हनन ही तो हैं | यही सुशांत मामले में हुआ , राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब अदालत के फैसले का इस्तेमाल , बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव में सत्ता धारी पार्टी द्वरा किए जाने की आशंका हैं | बाकी भविष्य के गर्भ में |