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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jun 5, 2013

वैदिक सभ्यता का आधार प्र कृति और पर्यावरण आरण्यक

   वैदिक  सभ्यता  का आधार  प्र कृति और  पर्यावरण 
                व्रहदारण्यक  उपनिषद  मे याज्ञवलृक्य ने   जंगलो  को  ज्ञान का   विशाल   वन  निरूपित किया हैं | उन्होने उपदेश दिया की मानव को प्रकृति  से सौहर्द्र  बना कर रखना चाहिए |   अथृरवेद  के तीसरे कांड के 30वे  सूक्त मे जो मंत्र हैं उसके देवता चंद्रमा हैं , इसी प्रकार सूक्त 24 मे के देवता वनस्पति को समर्पित हैं | बृहदकाररण्य  के सूक्त 1.5.2 मे स्पस्त उल्लेख किया गया हैं की खाद्य पदार्थ पृथ्वी  पर अपार हैं क्योंकि भोग करने वाला स्वयं ही भोज्य पदार्थ  का निर्माण करता हैं | यद्यपि यह बात सुक्षम रूप से समझने वाली हैं , क्योंकि  मानव और - पशुओ की विशृटा अर्थात माल से से अनेक छुदृ जीवो    का पेट भरता हैं जो कालांतर मे भोज्य पदार्थो के  उगाने //निर्माण मे सहायक होता हैं | 

                                                                   हमारे 108 उपनिषदों मे वन की महिमा अनेक स्थानो मे गायी  गयी हैं  | यानहा तक की मानव के लिए जिन  चार आश्रमो का वर्णन किया गया हैं उनमे  अंतिम दो के लिए व्यक्ति को वन की शरण लेनी पड़ती थी | वे थे वानप्रस्थ  और सन्यास | दोनों ही आश्रमो के लोगो से अपेक्षा    की गयी थी की वे अपना जीवन यापन  वन की सम्पदा से ही करेंगे , अतीव  कष्ट मे ही वे नगर मे जा कर भिक्षा  मांग सकते हैं | हमारे वैदिक वांज्ञमय मे अनेक चक्रवर्ती  सम्राटों ने भी वानप्रस्थ  और सन्यास आश्रम का पालन किया हैं | 

                        वस्तुतः वेदिक ज्ञान की गंगा का उद्भव और आविर्भाव  वनो से ही हुआ यथा  शौनक  ऋषि नैमिषारणय मे रहे हो  जनहा ऋषियों की महती सभा हुई | शायद ऐसा इसलिए भी हुआ हो की वन मे रहने और निस्तार के लिए पर्याप्त स्थान रहता था | आज जिस आता का घर- घर वचन किया जाता हैं  वह सत्यनारायान  की कथा  ही शौनक ऋषि ने सभी को सुनाई थी | 
                     अथर्ववेद  मे वनस्पति को जिस प्रकार ''देवता'' मान कर सूक्त लिखा गया , उसका तात्पर्य  हैं की हमारे ऋषि -मुनि  प्रकृति  से तदात्म्य बनाए रखने   पक्षधर थे , उनके अनुसार वनो और उसमे रहने वाले पशु -पक्षिपो और वनस्पतियों  से ही हमारा वातावरण  शुद्ध रहता हैं | इतना ही नहीं मानव सभ्यता  और प्रकृति  से संतुलन बना रहना ही सभ्यता के श्रेयसकर  हैं | आज हम देखते हैं की नदियो के किनारे तक आबादी की बसाहट हैं तालाबो और झीलों के किनारे भी अछूते नहीं हैं  जंहा तट बांधो पर मानव की दखलंदाजी हैं | फलस्वरूप जब कभी  पानी बदता हैं --तब तब मानव घटता  हैं | अपर संपाती की हानी के साथ ही जन हानी भी होती हैं | वनो का  आक्षादन घटने से हम महसूस करते हैं की  आस पास के इलाको  मे गर्मी का प्रकोप अधिक होता हैं | पर्वतो मे कंक्रीट  के भवनो और अन्य निर्माण से वंहा के वातावरण  मे काफी फर्क पड़ता हैं | टिहरी मे बांध बनाया गया तो गंगा और उसकी सहायक नदियो के जल श्रोतों  पर प्रभाव पड़ा | 
                 जिस पुण्य सलिला गंगा का जल सदा सर्वदा  शुद्ध रहता  था आज वही   रुड़की के आगे  फैले हुए प्रदूषण से  अपनी पवित्रता खोटी जा रही हैं | कानपुर - इलाहाबाद -बनारस -पटना आदि  बड़े  शहरो का  गंदा पानी और कूड़ा कर्कट  माँ गंगे ढ़ो रही हैं | जब -जब समाज और देश इन प्राकृतिक  साधनो के प्रति लापरवाह हो जाता  हैः तब दीर्घकाल मे उसे भरी कीमत चुकनी पड़ती हैं |                                                








                                                               वैदिक धर्म  का आधार  प्रकृति ही रहा हैं ,  ऋगवेद हो या  अथवा अन्य तीन वेद सभी मे वनस्पति और जल श्रोतों   नदी - नालो , पर्वत , उपत्यका  आदि की उपयोगिता एवं उनकी महत्ता मे ऋचाये गायी गयी हैं | आरण्यक  मे प्रकृति मे  व्याप्त चैतन्यता  और वनस्पतियों  के गुण और दोष  तथा उनके प्रयोग के बारे मे विस्तार से समझाया गया हैं | वस्तुतः  आयुर्वेद  ,जो की एक उपवेद हैं उसका    भी  आधार  पर्यावरण और वनस्पतियाँ हैं |  यह  पद्धती मानव की चिकित्सा के लिए  सम्पूर्ण हैं | इसलिए की  आयुर्वेद  मे सभी कुछ  वनस्पति एवं वातावरण आधारित हैं , कुछ भी  ऐसी  वस्तु का प्रयोग नहीं किया जाता  जो अपने  प्राकृतिक स्वरूप  मे न हो |  भले ही वह वनस्पति हो या धातु  हो अथवा  रत्न  हो | आयुर्वेद  मे लता -पते - जड़ - फल -कलियाँ एवं  यहा  तक की भिन्न - भिन्न स्थानो की मिट्टी अथवा पत्थर  के उपयोग के लिए उनके गुणो और दोषो का वणॅन समय - समय पर धन्वन्तरी - चरक  आदि जैसे विद्वानो  ने अपने अनुभवो  मे  सँजोया हैं | 
                                         आरण्यक मे मूल रूप से यह अवधारणा प्रतिपादित की गयी हैं  की प्रकृति  ने वनस्पतियों  को चेतनता  प्रदान  की हैं  , जिसे  जगदीश चन्द्र बोसे ने अपने  प्रयोगो से  सिदृध किया | फोटो स्येंथेसिस  की अवधारना    द्वारा  भी  उन्होने बताया की पेड़ - पौधो मे भी जीवन चक्र होता हैं | वे भी दुख और सुख की अनुभूति रखते हैं | यह तथ्य हमारे आरण्यकों मे और उपनिषदों मे  बताई गया  हैं , की इनमे जीवन होता हैं | चकित  करने  वाली बात हैं की जिस  सिधान्त को वैज्ञानिको ने अनेक  यंत्रो के सहारे  सिधृद किया ,उसी ज्ञान को हमारे   मनीषियो  ने  हजारो वर्ष पूर्व किस प्रकार  हासिल किया होगा ||

      एक कथा  है की सम्राट  बिंबसार को पेट मैं तकलीफ रहती थी काफी दवा की गयी परंतु  फायदा नहीं हुआ और दर्द बदस्तूर रहा | तब  वैद्यराज चरक को बुलाया गया उन्होने निदान के लिए  एक विधि बताई | उन्होने कहा की सम्राट प्रातः एक घड़े  मे मल त्याग करे | वैद्य के बताए हुए अनुसार ही  किया गया |  जब चरक ने घड़े का मुआइना किया तब उन्होने देखा की   मल पानी के ऊपर  तैर रहा था | उन्होने  बताया की सम्राट के पेट मे कृमि हैं | आज हम कृमि को  अमीबा  कहते हैं | इसको ही बक्टीरिया भी कहा जाता हैं |  आज भी डॉक्टर  अमोबियसिस  के लिए जांच कराते हैं , उनका भी मानना  हैं की प्रदूषित मल  का वजन कम होता हैं और इसलिए वह नीचे की ओर पानी मे नहीं जाता | यह तथ्य दो हज़ार वर्ष पूर्व जिस प्रकार  सामने आया वह हमारी वैदिक सभ्यता  के गहन अध्ययन एवं वस्तुओ को ध्यान से समझने की पदृति को ही सीध करता हैं | 
               वेदिक धर्म  मे पेड़ - पौधो और जीव - जन्तुओ मे जिस  ईश्वर के वास की अवधारणा  की गयी हैं वह वास्तव मे चेतना ही हैं | वस्तुतः  चेतना अर्थात महसूस करने की छमता ही   प्र कृति मे उस  '' सत्ता '' के विद्यमान होने का   सबूत  हैं जिसे  सब लोग  परमात्मा  अथवा  परम शक्ति  कहते हैं | पर्यावरण  अथवा वातावरण  से संतुलन  ही  मानव  के लिए उसके लक्ष्य --  धरम - अर्थ --काम --मोक्ष  का एकमात्र  रास्ता हैं | 

            आरण्यको  मे प्रकृति  के शासवत नियमो के बारे मे  ज्ञान हैं , जिसके द्वारा वैदिक सभ्यता ने वनस्पति   शास्त्र   और जीव विज्ञान तथा आयुर्वेद  के लिए  आवस्यक जानकारी सुलभ कराई | जिसके कारण ही  जीवन के विभिन्न छेत्रों मे इस जान करी को उपयोग मे लाया गया | एक बात का ख्याल  हमारे ऋषियों और मुनियो ने हमेशा रखा ,  उनके  अनुसार  मानव और पर्यावरण मे  स्वस्थ्य  संतुलन बहुत ज़रूरी हैं | अगर यह संतुलन बिगड़ा तब मानव  सभ्यता का विनाश हुआ |  नदी  का ख्याल उचित रूप से नहीं रखने  के कारण ही सिंधु  घाटी की सभ्यता का विनाश हुआ | दुनिया  मे कई  सभ्यताओ का आस्तित्व इसलिए समाप्त हो गया चूंकि उन्होने   प्र कृति  के नियमो की परवाह नहीं की | फलस्वरूप वे इतिहास के पन्नो मे दफन हो गए | 
                                                   विश्व  की सबसे पुरातन सभयताओ मे मिश्र की सभयता का भी शुमार किया जाता हैं , ,  अपर नील  और लोअर नील  नदियो के विशाल  जल राशि न केवल  खेती वरन नौका परिचालन के भी काम आती थी |  पिरामिडो  के देश मे  उस समय की सबसे  सशक्त  नौ सेना थी , यंहा तक की रोमन साम्राज्य की नौ सेना भी  उसकी भव्यता के आगे फीकी थी | परंतु सतत  युद्ध और बीमारियो ने उस सभयता को रेट के नीचे दफन कर दिया | कारण  प्रकृति  की अवहेलना | 
  
                       हमारे ंउपनीषदों  मे यही सीख दी गयी हैं की मानव की प्रगति को पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए , अन्यथा आज की ग्लोबल वार्मिंग ,   बाढ  और सूखा  और अब तो पेय जल का संकट सारे विश्व पर मंडरा रहा हैं | ऐसा नहीं की हमारी प्रकृति  के पास मानव की प्यास बुझाने के लिए  पर्याप्त जल नहीं हैं | परंतु औद्योगिक कारखानो  मे करोड़ो लोटर पानी का उपयोग कर उसे जानवर और वनस्पति के लिए जहरीला बनाने के बाद जब वह भूमि पर फैला दिया जाता हैं तब वह भी  अपना धरम खो देती हैं --बंजर हो जाती हैं न तो उसमे चारा उगता हैं नहीं कोई वनस्पति | 

                 पर्यावरण को शुद्ध और यथावत  बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उन सभी की हैं जो उसके किनारे  बसते हैं हम अगर प्रकृति के साधनो का उपयोग और उपभोग करते हैं तो हमारा दायित्व हैं की उसे बनाए रखे | वरना सरस्वती नदी की भांति गंगा भी लुप्त हो सकती हैं | वैसे ही हमारे देश मे 100 से अधिक छोटी -छोटी  नदिया सुख गयी हैं अथवा वे नाला समान हो गयी हैं |