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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jan 13, 2023

  संविधान की रक्षा या चुनौती  है  उप राष्ट्रपति की टिप्पणी ?

 

  मान्यवरों  आपने संविधान की  ही शपथ  ली है फिर  उस पर  प्रश्न कैसे कर रहे हैं ?




                जयपुर  में हुए दो दिनी   विधान सभा  अध्यक्षों  और संसद  के अदूयक्ष  के सम्मेलन में जिस प्रकार की टिप्पणी उप राष्ट्रपति  जगदीश धनखड और लोक सभा के आद्यक्ष  बिरला  ने  जैसी टिप्पणिया की हैं वे नितांत  चिंतनीय है | वे  विधायनी द्वरा  न्यायपालिका  के अधिकारो  और दायित्वों  पर कुठराघात ही हैं !    लोकसभा और राज्य सभा  के पीठासीन अधिकारियों द्वरा  जिस प्रकार न्यायपालिका  को  अपनी सीमा  पहचानने  की सलाह दी हैं  वह एक ठकराव  की ओर इशारा कर रही हैं | जो भारत  के लोकतान्त्रिक संविधान और स्वतंत्र  न्यायपालिका   पर चोट ही हैं | इतना ही नहीं  यह भी कहा गया की विधायिका  द्वरा पारित कानूनों  पर  अंकुश लगाने  का काम अदालते  न करे ! 

                अफसोस यह हैं की जिन अधिकारियों ने  भारत के संविधान की कसं लेकर  पद भार  लिया  , वे आज उसी संविधान की व्यवस्था  को “”  गैर जरूरी “” बता रहे हैं |  इतना ही नहीं  संविधान  में  अधिकारो और कर्तव्यो  की जो विभाजन रेखा खिची  गयी थी , हमारे संविधान निर्माताओ  द्वारा  उसको ही लांघने की  कोशिस  विधायिका द्वरा की जा रही हैं |  अगर हम देखे तो  पाएंगे की  राज्य अथवा केंद्र की विधायिका  अपने – अपने कार्यपालिका  द्वारा नियंत्रित होती हैं |  विधायिका  में बहुमत  का  संख्यासुर  ही सरकार या कार्यपालिका  का आधार होता हैं |  अब सरकार में  प्रधान मंत्री और राज्यो में मुख्यमंत्री  को मंत्रि मण्डल  के समस्त अधिकार  होते है |  इस प्रकार से  कार्यपालिका ही विधायिका  का नियन्त्त्रन  करती हैं | कहने को विधायिका स्वतंत्र  और “” सार्वभौम “” होती हैं , परंतु वास्तविकता  इसके धूर विपरीत हैं |  आज़ादी के बाद  से कुछ ही ऐसे अवसर  लोक सभा या विधान सभा में आए है  ----- जब सत्तारूड दल के सदस्यो  ने कार्यपालिका  के प्रस्ताव अथवा  विधेयक  का विरोध किया हो | इतना ही नहीं  राजनीतिक दलो में  “”व्हिप “ की  नियम  के  कारण  सदस्य  को  दलीय  अनुशासन की  चाबुक  से  सरकार के सामने झुकने को मजबूर किया जाता हैं |   अब ऐसे में सदन की सार्व भौमिकता  का अर्थ  एक मखौल  बन जाता हैं |  एवं  सरकार के निर्णयो और कानूनों  की “” न्यायिक जांच “” का एक ही  स्थान बचता हैं --- अदालत !  अब  राजनीतिक  और सत्ता  को बनाए रखने के लिए  सरकारो को  अपनी दंडात्मक  नीति  में अदालतों का चाबुक  बहुत ही नागवार गुजरता हैं |

                                              जिस प्रकार के तेवर  विधायिका  की ओर से विगत सात सालो में  दिखाये पड़े हैं ---वे भारत के लोकतन्त्र  और स्वतंत्र  न्यायपालिका  पर आघात  हैं | जो  वर्तमान केंद्रीय  सरकार और सत्तारूद  दल की बेचैनी को उजागर करते हैं |  सुप्रीम कोर्ट और हाइ कोर्ट  के जजो की नियुक्ति के मशले पर जिस प्रकार की  भाषा और चुनौतिया  मोदी सरकार के विधि मंत्री किरण ऋजुजु  और  अन्य मंत्रियो द्वरा सार्वजनिक  रूप से व्यक्त की गयी  ---वे  निहायत ही

आलोकतांत्रिक और संविधान की मर्यादा का उल्ल्ङ्घन करने वाली थी | भारत के प्रधान न्यायधीश  चंद्रचूड़ ने  उप राष्ट्रपति द्वरा  राज्य सभा में  सुप्रीम कोर्ट में जजो की नियुक्ति की प्रक्रिया को  लेकर जब  इसे पारदर्शी  नहीं होने की टिप्पणी की –तब उन्होने कहा था  “” संवैधानिक पदो पर बैठे लोग  अदालतों के बारे  में ऐसी टिप्पणिया करने से बचे  जो न्यायपालिका के सम्मान के विपरीत हो |  परंतु लगता हैं की प्रधान न्यायाधीश  की सलाह  धनखड़  जी के कान तक नहीं पहुंची -अथवा  उन्होने राजनीतिक कारणो  से  इसे “”अनसुना “” कर दिया है |

                                                भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  काफी समय से  मौजूदा संविधान को देश की हालातो  के अनुरूप  नहीं होने की आवाज़ बहुत वर्षो से कभी दबे रूप में और कभी मुखर रूप से उठाते रहे हैं |  उनका असली मकसद हैं की  चुनाव में जीत कर आई पार्टी के कामो और निर्णयो पर किसी प्रकार अंकुश या पुनरीक्षण  नहीं किया जाए | वे सरकार के फैसलो पर विधायिका के बहुमत  को देश और प्रदेश के लिए अंतिम फैसला  मानते हैं | यह सोच   गैर लोकतान्त्रिक  राष्ट्रो जैसे चीन और रूस  की भांति हैं | जनहा अदालते  सरकार द्वारा नियुक्त और नियंत्रित होती हैं | उन्हे राज्य के फैसलो  के निरीक्षण का हक़ नहीं होता | वे स्वतंत्र न्यायपालिका  के पक्षधार  नहीं हैं |  यह मोदी सरकार की सोच अधिनायकवादी  प्र्व्रती  को दर्शाता हैं |

                                               संसद  बड़ी की न्यायपालिका :-   मोदी सरकार के समर्थक और पत्रकार  डॉ वेद प्रताप वेदिक जी ने एक आलेख  में  संसद को बड़ा बताया  ,क्यूंकी  वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं | अब सवाल यह हैं की  अगर  उनकी बात को सही माना जाए तब संविधान  में सुप्रीम कोर्ट और हाइघ कोर्ट को  विधि के पुनरीक्षण का अधिकार क्यू दिया गया ? वे कहते हैं की  क्या संविधान  जजो ने बनाया था ?  वेदिक जी  वारिस्थ  है उन्हे यह तो भली भांति  मालूम होगा की संविधान सभा  के सदस्य भी जन प्रतिनिधि भी थे और कानूनविद  भी थे | बाबा साहब अंबेडकर  स्वयं  कानूनविद थे , पंडित जवाहर लाल नेहरू  तो  बैरिस्टर  थे उनकी भाति  बहुत से सदस्य  कानून के जानकार और वकील थे | वह  पार्टी के आधार पर चुने लोगो की सभा नहीं थी |

 अब अगर उन्होने  सत्ता के समर्थन के लिए यह तर्क दिया है तो वह बहुत ठोस  नहीं हैं |

   बॉक्स

                       संविधान  के अनुछेद  131  में  सुप्रीम कोर्ट की आरंभिक अधिकारिता   का उल्लेख हैं | जिसके अनुसार  सुप्रीम कोर्ट  का अधिकार छेत्र  उन मामलो में होगा जिनमे  एक ओर भारत सरकार और दूसरी ओर एक राज्य या एक से अधिक राज्य हो |  अथवा दो से अधिक राज्यो के बीच का कोई विवाद जैसे नदी से जल का बंटवारा |  इस प्रविधान से साफ हैं की भारत सरकार की किसी विधि या फैसले को लेकर  अगर कोई राज्य अथवा राज्यो को एतराज हैं तो उन्हे सीधे सुप्रीम कोर्ट आना होगा | अब यह क्या दर्शाता  है की  संसद या सरकार के किसी भी फैसले का निरीक्षण  सुप्रीम करने में  सक्छ्म हैं | फिर किस आधार पर उप राष्ट्रपति  और लोकसभा के स्पीकर  सुप्रीम कोर्ट की छमता पर सवाल उठा सकते हैं |

               संविधान के अनुच्छेद 140 के अनुसार  यदि कोई विधि  संविधान के उपबंधो  के विपरीत  है तब सुप्रीम कोर्ट ऐसी मामलो में  अपने अधिकारो का प्रयोग करेगी |

                      141 अनुच्छेद  के अनुसार  उच्चतम न्यायालय द्वरा   घोषित कानुन  भारत के सभी न्यायालयों   आबद्धकारी होगी |  

                    अनुच्छेद  143 में  साफ -साफ लिखा हैं की राष्ट्रपति  किसी ऐसे मामले में  जिसमे किसी विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ हैं  या उत्पन्न होने की संभावना है  जो ऐसी प्र्क्रती का हैं  ऐसे व्यापक महत्व का है  की उसपर सुप्रीम किउर्ट की  रोया प्रापत  करना समीचीन हो   तब वह ऐसे मामले को  नयायलाय को निर्देशित कर सकेगा  , और न्यायालय ऐसी सुनवाई के पश्चात  राष्ट्रपति को अपनी रॉय प्रेषित कर सकेगा |

                             अब इन उपबंधो की नजर में अगर  भारत सरकार के खिलाफ  सुनवाई का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को हैं  ,तब संसद  कैसे सर्वोपरि हुई ??  अगर राज्य  आपस में विवाद हैं , तब भी सुप्रीम कोर्ट ही फैसला देगा |  फिर कान्हा से विधायिका या कार्यपालिका  सर्वोच हुई ?