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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jul 17, 2016

खुशी और मज़ा मे फंसे लोगो के सुख और आनंद का अर्थ ?

खुशी और मज़ा मे फंसे लोगो के सुख और आनंद का अर्थ ?

1964 की बात है इंटरमीडियेट की परीक्षा के बाद अपने नाना के साथ ऋषिकेश गए हुए थे | लक्ष्मन झूला के गीता भवन मे स्वामी शर्णानन्द का प्रवचन सुना ,वे दिव्यानन्ध थे | उन्होने बाते की कलकते की एक महिला ने उनसे कहा की स्वामी जी आज के प्रवचन मे तो बस मज़ा आ गया | तब उन्होने कहा की बेटी प्रवचन मे कैसा मजा ? उसने कहा की आप ने जो उपदेश परिवार के दायित्वों के बारे मे बताया , उसे सुन कर मन गदगद हो गया | उनका उस दिन का प्रवचन खुशी और मज़ा तथा सुख और आनंद की व्याख्या करने पर केन्द्रित रहा |

जब प्रदेश शासन ने "”आनंद '' मंत्रलाय बनाए जाने की घोसणा की तब मुझे उनका प्रवचन याद आ गया | शिवराज सिंह जी का उद्देश्य आनंद को उसके आध्यात्मिक अर्थ मे व्यक्ति को सुलभ कराने की कोशिस हो सकती है | परंतु इस प्रयास को '''राजसत्ता'' द्वारा प्रायोजित किया जाना क्या राजधर्म और सर्वधर्म समभाव होगा ??

राज्य नागरिकों को सुरक्षा - स्वास्थ्य - शिक्षा -रोजगार सुलभ कराये , वनहा तक तो बात तर्क संगत है | परंतु आध्यात्मिक पहलू पर प्रयास से पूर्व भूख --बेरोजगारी और बेईमानी से नागरिकों को मुक्ति दिलाना ज़रूरी है | जब राज्य की एक चौथाई जनता गरीबी की रेखा के नीचे हो , जब हम चालीस फीसदी जनसंख्या को शुद्ध पेय जल सुलभ करने मे असफल रहे --तब आनंद की बात करना नाइंसाफी ही है |

हर नागरिक के आनंद का केंद्र फर्क - फर्क होता है , मसलन मदिरा के प्रेमियो को तो बोतल मे ही सब कुछ दिखाई देता है | भोजन भट्ट को मुर्गा आदि मे सुख मिलता है | स्वामी शरणानन्द जी के शब्दो मे "” मज़ा ""शारीरिक होता है | जैसे स्वादिस्ट भोजन करते समय होता है | उसके उपरांत व्यक्ति को खुशी मिलती है | परंतु सुख और दुख का संबंध "”भावनाओ "” से होता है | जैसे विवाह - संतान की प्राप्ति आदि के पश्चात की अनुभूति को सुख की परिधि मे रखा जा सकता है | परंतु "”आनद"” तो व्यक्ति को योग - समाधि आदि जैसी क्रियाओ के पश्चात ही प्राप्त होता है | क्या ऐसा आनंद कोई सरकारी प्रयास सुलभ करा सकता है ? क्योंकि आनंद के लिए व्यक्ति को खुद को ही तपाना पड़ता है --वह किसी अन्य के प्रयासो से संभव नहीं सरकार के प्रयासो से भी नहीं

संविधान और आरक्षण व्यवस्था क्या डॉ अंबेडकर की देन है या यह एक मिथक भर है ?

संविधान और आरक्षण व्यवस्था क्या डॉ आंबेडकर की देन है या यह एक मिथक है ?? कुछ तथ्य जो प्रश्न करते है

आम धारणा है की देश का संविधान बाबा साहब आंबेडकर ने बनाया है और आरक्षण की व्यवस्था भी उनही की देन है | यह प्रचार चुनावी माहौल मे कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाता है | खासकर राजनीतिक दल तो सभी उन्हे "””अपना - अपना "”” बताने लगते है | ऐसे मे उनकी विरासत के अनेकों हकदार सामने आते है | अपने अधिकारो के वे तरह तरह के कारण देते है |

ऐसे माहौल मे मे आम नागरिक और खासकर युवा वर्ग सहज मे ही राजनीतिक उद्देस्य से किए गए प्रचार को "'तथ्य"” मान कर बहस के लिए तैयार रहते है | उनके पास तर्क भी वही होते है जो प्रचार मे दिये जाते है | भले ही उन तर्को का कोई आधार या प्रमाण भले ही न हो |

भारत के संविधान मे अनुछेद 330 से लेकर 342 तक विभिन्न वर्गो और स्थानो के लिए विशेष उपबंध और आरक्षण है | परंतु यह समझना की आरक्षण का प्रारम्भ 1950 मे संविधान के लागू होने के उपरांत हुआ – पूर्णतया गलत होगा | वस्तुतः पड़े लिखे और जानकार राजनेताओ ने भी अपने संविधान को नहीं पढा, वरना वे इस बात का दावा कभी नहीं करते की संविधान के निर्माण मे और खासकर आरक्षण के उपबंध उनके प्रयासो का प्रतिफल है |
हक़ीक़त मे संविधान के लागू होने के पूर्व देश का शासन "'Government Of India Act 1935 “”' के अधीन किया जाता था | वस्तुतः संविधान के संघीय रूप का आधार भी यही कानून है | जिसमे देश की न्यायपालिका को फेडरल कौर्ट ऑफ इंडिया कहा गया है | और तत्कालीन समय मे ब्रिटिश इंडिया को 11 प्रांतो मे बंता गया था , और 6 चीफ कमिसनर द्वारा शासित छेत्र थे | यानहा यह स्मरण रखना होगा की उस समय लगभग 400 से अधिक राजे - रजवाड़े भी थे , जिनहे अपने छेत्र मे शासन करने का अधिकार था |

इसी कानून द्वारा प्रांतो को सीमित स्वशासन का अधिकार मिला था | इन प्रांतो मे कुछ दो सदन वाले थे जैसे मद्रास - बंबई - बंगाल - बिहार और संयुक्त प्रांत --आसाम | सेंट्रल प्रोविंन्सेस अँड बरार --पंजाब - उड़ीसा --सिंध एवं सीमा प्रांत |
इन प्रांतो मे Legislativ Assembaly मे जिस पार्टी को बहुमत मिलता था उसके नेता को प्रिमियर या चीफ़ मिनिस्टर कहते थे |

अब आते है असली मुद्दे पर की आरक्षण किसका था और उनका निर्वाचन कैसे होता था | कानून की अनुसूची पाँच के अनुसार

हरिजन --- महिलाए --- विश्व विद्यालय – जमींदार ---व्यापारी वर्ग - -पिछड़ी जतिया -- श्रमजीवी वर्ग और योरोपियन समुदाय तथा एंग्लो इंडियन एवं देशी इससाइयों के लिए सभी राज्यो मिस्टर स्थान आरक्षित थे | उदाहरण के लिए 1935 की मध्य प्रांत और बरार की विधान सभा मे की सदस्य संख्या 112 थी | इसमे 20 स्थान हरिजन के लिए और 3 स्थान महिलाओ के लिए 1 विश्व विद्यालय के लिए 3 सीट जमींदारो के लिए 2 स्थान व्यापारी वर्ग के लिए 1 सीट पिछड़ी जातियो के लिए आरक्षित थी | एक - एक सीट यूरोपियन और एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए आरक्षित थी | इस प्रकार 112 मे 34 सस्थान आरक्षित थे | यह संख्या लगभग एक तिहाई होती है | इसलिए यह कहना उचित होगा की आरक्षण की व्यवस्था संविधान सभा के गठित होने के भी पूर्व भी थी | अतः इस के लिए किसी को भी श्रेय देना हो तो वह ब्रिटिश शासन के उदारवादी ड्राष्टिकोण को देना होगा ना की की किसी अन्य को |