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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 13, 2014

आखिरकार न्यायिक आयोग के गठन का कानून बन ही गया ........


क्या संयोग है की 13 अगस्त को हाई कोर्ट और सूप्रीम कोर्ट के जजो नियुक्ति
का कानून संसद से पारित हुआ , और दो दिन बाद स्वतन्त्रता दिवस है, वह आज़ादी भी राजनीतिक मिली थी
इस कानून से भी ""राजनीतिक "" हाथ ने संवैधानिक आज़ादी और राज्य के तीनों अंगो मे संतुलन को एकतरफा
कर दिया है | संविधान के अनुसार विधायिका -कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने मे सम्पूर्ण स्वतन्त्र है , अभी तक
थे भी , पर इस कानून से अदालतों पर अंकुश लग जाएगा वह भी संविधान के नाम पर कार्यपालिका का |संविधान के
तीन निकायो मे नियुक्ति - निर्वाचन के स्पष्ट प्रविधान है |नियमतः सरकार या कार्यपालिका विधायिका को जवाबदेह
होती है | परंतु व्यवहार मे ऐसा नहीं है, हाइ कोर्ट और सूप्रीम कोर्ट मे न्यायाधीश की नियुक्ति और कार्य संचालन
के उसे स्वायतता प्रपट है | जैसे विधायिका सदन चलाने के नियम को बनाने के लिए आज़ाद है , वह स्वानुशासित
होती है , उसी तर्ज़ पर इन दोनों अदालतों को भी अपने नियम बनाकर स्वानुशासित रहने का अधिकार संविधान ने
दिया है | अभी तक जजो की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश एवं चार वरिष्ठ जुजो की समिति करती थी ,
वे सूची बनाकर विधि मंत्रलाया को भेज दी जाती , जंहा से राष्ट्रपति कार्यालय जाती थी |फिर नियुक्ति का वारंट
जारी होता था |

मोदी सरकार के राज्यारोहण के बाद सरकार और न्यायपालिका मे टकराव शुरू हो गया

प्रधान न्यायाधीश द्वारा भेजे गए चार नामो मे गोपाल सुबरमानियम का नाम सरकार ने मंजूर नहीं किया | क्योंकि
उन्होने नरेंद्र मोदी के वीरुध दंगो के मुकदमे मे पैरवी की थी | प्रधान न्यायाधीश ने सख्त रुख व्यक्त किया परंतु
गांठ पद चुकी थी , जिसकी परिनीति इस कानून के रूप मे आई | नए विधान के अनुसार छह सदस्यीय समिति
जजो की नियुक्ति पर विचार करेगी | इसका गठन प्रधान न्यायाधीश की आद्यक्षता मे होगा , इसमे सूप्रीम कोर्ट के
दो सीनियर जज होंगे , तथा विधि मंत्री तथा दो सदस्य ऐसे होंगे जिंका चयन प्रधान मंत्री और नेता प्रतिपक्ष और विधि
मंत्री करेंगे वे लोग दो गणमान्य नागरिकों का चुनाव करेंगे जो जजो की नियुक्ति की समिति के सदस्य होंगे | अब
इस समिति मे न्यायिक और गैर न्यायिक सदस्य बराबर संख्या मे है, नियुक्ति के लिए जिन नामो पर विचार किया
जाएगा --उस मे यदि दो चयनकर्ता ने आपति कर दी तो वह व्यक्ति चयन प्रक्रिया से बाहर हो जाएगा | सरकार द्वारा
मनोनीत दो सदस्यो का प्रयोग सरकार ऐसे लोगो को जज बनने से रोकेगी ""जो उसकी विचार धारा के विरुद्ध है |"'
सूप्रीम कोर्ट मे सीधी भर्ती का पहला अवसर था जब जस्टिस फली नारिमान को सूप्रीम कोर्ट मे लाया गया |


नियुक्ति मे न्यायपालिका और सरकार के बीच रस्साकशी और ""पारदर्शिता'' के सिधान्त
की अवहेलना का पूरा खतरा है | क्योंकि सरकार अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाकर
संभावित लोगो के चरित्र हत्या का हथियार अपना कर , केवल अपने """पिछलगूओ """ को बेंच मे पाहुचाने का प्रयास
करेगी | विरोधी को """संदिग्ध "" बनाने का प्रयास गोपाल सुबरमानियम के मामले मे स्पष्ट है | क्योंकि वे नरेंद्र
मोदी के खिलाफ मुकदमा लड़े थे | सत्तारूद दल के नेताओ का विरोध अथवा उनके खिलाफ मुकदमा लड़ना अब
अब गुनाह हो जाएगा |
आज सदन मे काँग्रेस पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी आदि ने भी इस विधेयक का समर्थन
किया है , परंतु वे इस बात से आहात है की अदालत मे बैठ कर जज कुछ भी टिप्पणी करदेते है , जिसका कोई
कानूनी महत्व नहीं होता , परंतु प्रचार माध्यमों के जरिये उसे मिर्च -मसाला लगाकर फैला दिया जाता है | प्रभावित
पार्टी न तो इसके खिलाफ कोई अपील कर सकती है क्योंकि टिप्पणी कोई कानूनी आदेश नहीं होती | इस प्रकार राजनेता
बदनाम तो हो जाता है , परंतु जवाब मे कुछ कर नहीं पाता | इस काशमसाहट की अभिव्यक्ति आज सदन मे हुई |
बस एक खतरा है की अदालतों से भी अब '''प्रशासनिक इंसाफ'''' न मिलने लगे ? तब एक दिन ये राज नेता भी
ही त्राहि --त्राहि करेंगे , जब फैसले से पहले निरण्य सड़क पर चर्चित होने लगे क्योंकि तब जज साहब तथ्य या तर्क
अथवा गवाही की बात नहीं करेंगे , वे तो """अपने """और """दूसरे""" के आधार पर फैसला सुनाएँगे |










Aug 8, 2014

ज्योति हत्याकांड मे सामाजिक और विधिक न्याय की छवि


कानपुर मे करोड़पति बिसकुट व्यापारी दासनी के चिरंजीव पीयूष द्वारा अपनी पत्नी ज्योति की साजिश कर के क़तल करने
के आरोप मे गिरफ्तारी के बाद पुलिस उप अधीक्षक राकेश नायक द्वारा खुले आम माथा चूम कर निर्दोष बताना , फिर जन
आक्रोश के चलते उन्हे निलंबित किया जाना , और अदालत मे वकीलो द्वारा अभियुक्त को पुलिस हिरासत से छुड़ाकर पिटाई
करना और बाद मे उसकी पैरवी नहीं करने के फैसले के घटना क्रम ने यह तो साबित कर दिया की समाज मे अभी भी "" संवेदना'"
बची हुई है | साथ यह भी की उत्तर प्रदेश का प्रशासन भी उतना ""नाकारा""" नहीं जितना कुछ राजनीतिक दलो द्वारा चित्रित किया
जा रहा है | वरना समाज का ही दबाव था जो चौबीस घंटे ने एक पुलिस अधिकारी का निलंबन फिर उन्हे कानपुर से दूर अटैच
करना ""जन मानस """ की आकांछा की पूर्ति ही तो है , वरना इंदौर मे एक दारोगा के दुर्व्यहर पर आकृषित वकीलो को तो
एक पखवारे से ज्यादा तक ""काम बंद करके आंदोलन करना पड़ा | जैसा सामाजिक दबाव एक धनपती के अभियुक्त पुत्र की
पैरवी नहीं करना वकीलो द्वारा सामाजिक समस्याओ पर विरोध प्रकट करने का अंतिम हथियार है |

एक ओर पीयूष के पिता ने अपने पुत्र को हत्या का गुनहगार मानते हुए उसकी पैरवी नहीं करने का इरादा
जताया है वंही हत्या की सह - अभियुक्त मनीषा माखिजा के पिता हरीश माखिजा ने पीयूष पर आरोप लगाया है की उसी ने
उनकी लड़की को ज़बरदस्ती फंसाया है | पुलिस के अनुसार पीयूष और मनीषा के मध्य संबंधो को साबित करने के
लिए मोबाइल फोन से भेजे गए सैकड़ो एसएमएस का विवरण निकाला है जो लगभग 700 पेजो का है | अभियुक्तों ने
संदेशो को डिलीट कर दिया था | यह दर्शाता है की जंहा पीयूष के पिता ने घटना के सत्या को स्वीकार करते हुए पुत्र के दोष
को मंजूर किया वंही गुटखा व्यापारी हरीश माखिजा ने सत्य को झुठलाने के लिए पैसे और रसूख की मदद लेने का अहंकार
दिखाया है | जबकि अभी तकके घटना चक्र से स्पष्ट है की प्रथम द्रष्ट्या दोनों ही दोषी है | यह दो पैसे वालो की मनःस्थिति
को रेखांकित करता है , जनहा एक ने सच को मान कर "अपराधी"" की मदद नहीं करने का फैसला किया वंही दूसरे ने
""संतान मोह "" को सामाजिक - कानूनी दायरे को नकारने की कोशिस की है | यह समाज मे पैसेवालों की मनःस्थिति
को दर्शाता है | व्यक्ति और समाज की इस लड़ाई मे कौन जीतेगा यह भविष्य के गर्भ मे है |

इस घटना एक और पहलू है की समाज के लोग इस घटना के द्वारा यह सीध करने की कोशिस मे है की ""पैसे""
से न्याय नहीं खरीदा जाये ---जबकि वास्तविक जीवन मे "" न्याय "" मिलना असंभव सा ही है | अदालतों के चक्कर
और सालो चलने वाली सुनवाई - अपील आदि मे दासियो साल लग जाते है | डाकू फूलन देवी की हत्या मे हाइ कोर्ट ने
सत्रह साल बाद अभियुक्त शेर सिंह राणा को दोषी करार दिया है | इस हाइ प्रोफ़ाइल मामले मे एक तो डाकू दूसरे हत्या के
समय वे संसद सदस्य थी और राणा से उन्होने शादी की थी | इसलिए जब ऐसे मामले दासियो साल बाद निर्णीत हो तो
सहज ही लगता है की पैसा और समय ही अपराधियो को अदालत के चंगुल से दूर रखते है |परंतु मध्य प्रदेश के उपभोक्ता मंच
ने उप पुलिस अधीक्षक द्वारा जिस प्रकार से सरे -आम पीयूष से प्यार दर्शाया उस से जिले की पुलिस की ""ईमानदारी ""
पर प्रश्न चिन्ह लगाया है | इसीलिए स्थानीय वकीलो के सहयोग से उन्होने इस मामले की जांच स्पेशल टास्क फोर्स
से करने की मांग करते हुए उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री को पत्र लिखा है | ज्योति जबलपुर की निवासी थी और उसके पिता
व्यापारी है और उनकी सामाजिक - राजनीतिक प्रतिस्था है | जबलपुर के नागरिक शहर की ""लड़की"" की इस प्रकार हत्या
किए जाने से चुब्ध है |


हालांकि यह मामला भी हत्या के अपराध का है ,जिसकी जांच कानून के अनुसार ही होगी , सबूत झुटाए जाएँगे
गवाह खोजे जाएँगे | लेकिन कानून की किताब मे दो प्रकार के अपराध बताए गए है एक वे जो ""समाज के प्रति किए गए """
और दूसरा वह जो ""व्यक्ति के विरुद्ध हो """ , हत्या -डकैती जैसे अपराध समाज के विरुद्ध की श्रेणी मे है | परंतु
निर्भया बलात्कार के बाद यह दूसरी घटना है जब देश या प्रदेश तो नहीं परंतु कानपुर शहर मे ज़रूर ""गुस्सा"" है | यही
संवेदना अपराध और अपराधियो के हौसले पस्त करने के लिए बहुत है |








Aug 7, 2014

वैदिक राष्ट्रियता किसी विश्व विजेता या सम्राट की विजय का परिणाम नहीं वरन हमारे धरम का प्रभाव है


ब्रहतर भारत की कल्पना किसी सम्राट की दिग्विजय यात्रा का परिणाम नहीं है जिससे यह कहा जा सके की
अफगानिस्तान से लेकर जावा -सुमात्रा तक जिस "'संसक्राति """की छाप दिखाई पड़ती है वह हमारे ऋषियों का योग दान है
जिनहोने हुमे समस्त विधाओ का ज्ञान दिया | एक गलतफहमी अक्सर लोगो के विचार मे रहती है जैसे की किसी समय हमारे
देश का राज्य इन सभी स्थानो पर था| परंतु ऐसा नहीं है , वस्तुतः जिस प्रकार सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए
अपनी संतनी को श्री लंका भेज दिया था , वह कोई पहली बार नहीं हुआ था | कंबोडिया और म्यांमार मे भी आज बौद्ध धर्म
के मानने वाले ही बहुसंख्यक है | परंतु कंबोडिया के सम्राट के नाम मे ""राम ""का उपयोग आवश्यक रूप से होता है ,
वंहा एक परंपरा है की बीस से पचीस वर्ष तक बौद्ध मठ मे रह कर शिक्षा प्रपट करते है | वैदिक धर्म की आश्रम व्यवस्था
मे भी बालक को प्रथम पाचीस वर्ष तक गुरु के आश्रम मे रह कर शीशा प्रपट करनी होती थी | यह परंपरा जारी होना ही
प्रमाण है की वैदिक धर्म का प्रसार वंहा था | इसका एक कारण हो सकता है की उनकी सभ्यता मे वैज्ञानिकता का अभाव
रहा होगा जो हमारे धर्म मे थी |

पिछले आलेख मे मैंने जंबू द्वीप के बारे मे बात की थी वस्तुतः यह समस्त छेत्र ही जंबू द्वीप है ,
जिसका विस्तार अफगानिस्तान से लेकर समस्त भारत होते हुए श्री लंका और वर्तमान इंडोनेशिया -कंबोडिया आदि तक फैली
हुई थी | भरत ख्ण्डे से मंत्र मे तात्पर्य वर्तमान भारत की वर्तमान सीमा सहित पाकिस्तान -बर्मा -भी शामिल रहे होंगे |
क्योंकि हिंदुकुश -हिमालय -विंध्या -पर्वत श्रंखलाओ के विस्तार के छेत्र शामिल है क्योंकि इन इलाको मे भी भरत खंडे के
ही मंत्र का जाप होता है | इसी प्रकार आर्यवेर्ते का तात्पर्य गंगा -यमुना के मैदान का इलाका है | दिल्ली और राजस्थान
के इलाके को ब्र्म्हवर्त कहा गया है | इसकी निशानी बताई गयी है की जनहा काले हिरण नहीं होते वह छेत्र ही ब्र्म्हवर्त
है |काफी समय तक यानहा तक की महाभारत के भी कुरुछेत्र को इसी इलाके मे बताया गया था |

इस संकल्प मंत्र की विवेचना करके यह तो लगभग निश्चित हो गया की वैदिक भारत की ""परम्पराओ ""
को गंगा -यमुना के मैदानो से दूर तक प्रसार हुआ | यह सब कम से कम दो से तीन हज़ार वर्षो पूर्वा का है ,क्योंकि
बौद्ध धर्म का प्रसार करने निकले भिक्क्षुओ ने इन सभी इलाको मे अपने धर्म का प्रसार किया | लेकिन उन्होने पुरानी
परम्पराओ को बरकरार रखा | यही कारण है की कंबोडिया या लाओस मे बौद्ध धर्म राज्य का धर्म तो है परंतु परंपराए
आज भी वैदिक है | इंडोनेशिया इस्लामिक राज्य है परंतु वंहा के जावा द्वीप पर इस्लाम धर्म कए मानने वाले बहुसंख्यक
है सिर्फ थोड़े से लोग आज भी सनातन परंपरा के वैदिक धर्म को मानने वाले है | जो सदियो पुराने मंदिरो की देख -रेख
कर रहे है वे अपने पर्व और त्योहार भी मानते है | यंहा की रामलीला भरत मे भी सराही जाती है , अब यह विचित्र
लगेगा की रामलीला मे राम कोई मुस्लिम बने ! हमारे देश मे अगर ऐसा हो जाये तो सांप्रदायिक दंगे हो जाये , जंहा
मंदिर पर लाउड स्पीकर लगाने को लेकर हिन्दू - मुस्लिम दंगा हो जाये वंहा ऐसी बात भी कल्पना लगती है |

इन तथ्यो के अनुसार हम अपनी परम्पराओ पर गर्व तो कर सकते परंतु हम इसे अपनी "विश्व विजय ""
क़तई नहीं कह सकते , हम इस पर न तो यह कह सकते है की यह हमारी """विजय""नहीं है | इसलिए हम इसका
अध्ययन ही कर सकते है , इसे अपने गौरव पूर्ण इतिहास की एक उपलब्धि तो मान सकते है , परंतु इसको
अपना नशा नहीं बना सकते | जैसे की चीन अपने """इतिहास मे चंगेज़ खान की विजय """ को शामिल कर के
तिब्बत और भारत के हिस्सो अरुनञ्चल पर अपना हक़ जता रहा है | कुछ तबको मे जंबू द्वीप की अवधारणा
को हमारी विश्व विजय के रूप मे पेश करने कोशिस की जा रही है जो बिलकुल सही नहीं है |






Aug 6, 2014

राष्ट्रियता एक वेदिक अवधारणा है , राजसत्ता से जुड़ी नहीं है



अभी हाल मे भोपाल मे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और उनके 21 आनुषंगिक संगठनो की त्रि दिवसीय बैठक मे
सर संघ संचालक मोहन भागवत ने एक भासण मे कहा था की राष्ट्रियता की अवधारणा 1947 से नहीं वरन उसके पूर्वा से है |
उन्होने कहा की हमारे देश की ऋषि परंपरा ने यह अवधारणा बनाए रखी है | इसका देश की आज़ादी से कोई लेना -देना नहीं है |
लेकिन वे इस बात का खुलाषा नहीं किया की आखिर व्रहतर भारत और राष्ट्रियता की विरासत का प्रारम्भिक काल कौन सा था?
वैसे राष्ट्रियता की अवधारणा राजनीतिक नहीं है | क्योंकि हमारे इतिहास मे किसी भी सम्राट ने वर्तमान भारत को आधिपत्य नहीं
पाया था , अधिकतर या तो उत्तर भारत के अधिनायक थे या दक्षणी राज्यो के उसी समय कोई अन्य राजवंश का शासन हुआ
करता था | इसलिए सम्राटों का इलाका इस अवधारणा का जन्मदाता नहीं हो सकता | इसलिए भगवत जी का यह कथन सही है
की यह अवधारणा स्वतन्त्रता के बाद नहीं बनी | लेकिन यह भी एक तथ्य है की वर्तमान देश का नक्शा अंग्रेज़ो द्वारा सौपा
गया है |
अगर हम नन्द साम्राज्य से प्रारम्भ करे तो मौर्य फिर गुप्ता समराजों का इतिहास भी गोदावरी के ऊपर तक ही रहा
है , दक्षिण मे दूसरे राजे _ महाराजे राज्य करते थे जो उत्तर से अलग थे | आसाम भी काफी समय तक स्वतंत्र रहा |
उधर पंजाब और अफगानिस्तान सिंध कभी उत्तर के राज्यो की अधीनता मे रहा लेकिन मौका मिलते ही आज़ादी का ऐलान करता
रहा | ऐतिहासिक रूप से इन तथ्यो को रखने का तात्पर्य था की राजनीतिक सीमाए कभी ""भारत"" को राष्ट्र का रूप नहीं दे
सकी | सिकंदर का मुक़ाबला भी पंजाब के एक राजा द्वारा किया गया था , नन्द साम्राज्य उसकी मदद को नहीं आया था | अर्थ
यह है की उस समय राजाओ वतन उनका राज्य ही था उन्हे देश और राष्ट्रियता की अवधारणा का ज्ञान नहीं था , |

परंतु यह कहना की उन्हे अपनी सान्स्क्रतिक --धार्मिक विरासत का ज्ञान नहीं था , गलत होगा | क्योंकि इस धरा
पर अगर अफगानिस्तान से लेकर काश्मीर से केरल तक या यू कहे की देश से बाहर श्री लंका और बर्मा और इंडोनेशिया
तक हमारी सशन्स्क्रती को फैलाने """"धर्म """ का स्थान रहा है | एवं यह अत्यंत प्राचीन अवधारणा है ---इसका प्रमाण
वेदिक धर्म मे किसी भी अनुष्ठान को करने के पूर्वा व्यक्ति को जिसे "यजमान" की संज्ञा दी गयी है | हमारे धर्मशास्त्रों के
अनुसार कोई भी "संकल्प" ""स्थान और समय ""के विवरण के बगैर सम्पन्न नहीं हो सकता | अध्यात्म मे भी कहा गया है
"" समस्त चराचर का मूल काल और आकाश है """ योग मे कहा गया है की महायोगी समय की सीमाओ को विजय कर
लेते है | इसीलिए ऐसे महान योगियो के कथन अटल सिद्ध होते है | इस बारे मे फिर कभी विस्तार से बात होगी | हम अपने
असल मुद्दे पर आते है |

वेदिक धर्म ना कि हिन्दू , क्योंकि अब मई जो लिखने जा रहा है वह मुझे अपने करमकांडो कि
जानकारी से मिला है | आसान पर बैठने के पश्चात ही संकल्प लेते ही कहा जाता है """ जम्बूद्विपे भारत खंडे आर्यावरते
अमुक छेत्रे अमुक नदी तीरे अमुक नाम समवतसरे अमुक मासे अमुक तिथौ तत्पश्चात अपने गोत्र का उच्चारण करके अपने
मन्तव्य को बोलते हुए जल को भूमि पर छोड़ा जाता है | अब इस संकल्प कि विवहना करे तो पाएंगे कि जंबू द्वीप कि
अवधारणा मे अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर से केरल और बर्मा तथा बाली द्वीप समूह तक वेदिक धर्म कि सनातन परंपरा
प्रवाहित हुई थी |राष्ट्रियता कि अवधारणा का प्रारम्भ किस समय से हुआ ,यह तय करना मेरे लिए संभव नहीं , क्योंकि
ये समय किन ग्रंथो मे उद्धरत है यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना तो पक्का है कि हमारी परंपरा प्राचीन है और उसी के
अनुरूप राष्ट्रियता कि अवधारणा भी |

अब रही ब्रहतर भारत कि बात तो यह संकल्प ही इसका सबूत है कि जिन स्थानो को इस
अवधारणा मे शामिल किया गया है वे राजनीतिक रूप से भले ही किसी एक सिंहासन के अधीन भले ही ना रहे हो परंतु
""धर्म और परंपरा """ के कारण इन छेत्रों के लोग एक सूत्र मे बंधे थे ,जिसका प्रमाण संकल्प कि शब्दावली ही है |