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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 28, 2021

 

विरोधी दलो से चुनाव लड़ने के बजाय आपस में ही भिड़ गए

कॉंग्रेस के धुरंधर क्यू और क्या सफल होंगे ?

आज 69 वर्ष बाद फिर से काँग्रेस में विभाजन की चुनौती दी है | अगर हम पार्टी का इतिहास देखे तो एक बात स्पष्ट नजर आती हैं की राजीव गांधी के अवसान के बाद भी हुए संसदीय चुनाव मैं काँग्रेस को काफी नुकसान हुआ था | विपक्षी सरकार दिल्ली में आसीन हुई | आखिर में 1994 के लोकसभा चुनावो में सोनिया गांधी के नेत्रत्व में काँग्रेस चुनाव में उतरी | परिणाम सब के सामने है की मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री बने | 1999 में हुए चुनावो में पुनः कुछ झटका खाकर भी काँग्रेस को सोनिया गांधी की सदारत में ही चुनाव लड़ा ,और सफल हुई ----सहयोगी दलो के साथ फिर मनमोहन सिंह प्रधान मंत्री बने

सवाल हैं की इन दोनों चुनावो में मतदाताओ ने किसके चेहरे को देख कर काँग्रेस का समर्थन किया था ? निश्चय ही इन नेताओ का कोई सीधा योगदान नहीं रहा हैं |

अब 2014 में नरेंद्र दामोदर दास मोदी बीजेपी की सरकार के प्रधान मंत्री बने | यह चुनाव काँग्रेस के लिए बड़ा झटका था | क्योंकि एक सौ पचास साल पुरानी पार्टी को तीन अंको में सांसद नहीं चुनवा पायी | हालत यह हो गयी की – लोकसभा में विपक्षी दल का वैधानिक स्थान नहीं मिला ----क्योंकि उनके पास पर्याप्त संख्या नहीं थी !!!!

तब इन नेताओ के योगदान का आंकलन नहीं किया गया | ना ही इन नेताओ को भान हुआ ???

इन नेताओ को क्या यह सच्चाई मालूम हैं ! अथवा इन नेताओ ने किसी जन आंदोलन का नेत्रत्व किया हैं ? कभी भी सरकार के वीरुध बयान देने में अथवा नेत्रत्व के फैसले का समर्थन कर जनता के मध्य ले जाने का काम किया हैं ? इन आशंतुष्ट नेताओ द्वरा भगवा साफा बांध कर प्रैस कोन्फ्रेंस करना --आखिर क्या संकेत देता हैं ? क्या मानसिक तौर पर इन लोगो ने संघ की हिन्दुत्व विचार धारा को स्वीकार कर लिया हैं ?

एक सवाल यह भी हैं की काँग्रेस में वह कौन सा अधिवेशन था जिसमें कार्यकारिणी ---चुनाव समिति का सीधा चुनाव डेलीगेटों द्वरा हुआ था ? जनहा तक मेरी स्म्रती जाती हैं -, वह कलकत्ता में हुए अधिवेशन था | जिसमे ममता बनर्जी ने काँग्रेस से विद्रोह कर त्राणमूल काँग्रेस की स्थापना की घोसना की थी | साल था 1996 का और पार्टी आद्यक्ष थे सीताराम केसरी !

उसके बाद पार्टी के अधिवेशन तो हुए परंतु ज़िलो और -राज्यो से आए पार्टी के डेलीगेटो ने चुनाव नहीं किया -------वरन अध्यक्ष को कार्यकारिणी सदस्यो को नामांकित करने का अधिकार दिया | तब से अब तक वही चला आ रहा हैं | जम्मू में केसरिया पाग पहन कर जिन नेताओ ने “”” आंतरिक चुनाव --लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की मांग “” को मुद्दा बनाया हैं -------उसमें अधिकतर पार्टी कार्यकारिणी के “””नामित सदस्य वर्षो तक रहे हैं ! राज्य सभा में भेजे जाने के मुद्दे पर भी “”प्रत्याशी चयन “”का कोई लोकतान्त्रिक तरीका टो नहीं रहा हैं !सिर्फ एक ही तथ्य “”निर्णायक रहा हैं “” नेरत्व की निकटता !

अर्थात जब तक नेत्रत्व इन लोगो के लिए लाभकारी रहा ---तब तक इन नेताओ को इन बातो का ख्याल नहीं था | अब विधान सभाओ में काँग्रेस की कम होती सदस्य संख्या होने के कारण राज्य सभा में भेजे जाने की संभावना ध्मिल होती जा रही हैं | हाल ही में मध्य प्रदेश में राज्य सभा में जाने के लिए -हुए अंत्र्द्वंद से हुए विस्फोट के कारण ना केवल काँग्रेस विधायकों ने समूहिक दल बादल किया ,जिसके फलस्वरूप काँग्रेस को सरकार भी गवानी पड़ी |

देखना होगा की कांग्रेस् के ये नेता क्यू ‘’मौसमी नेता बने “” ? क्या यह सिर्फ इस कारण हुआ की पार्टीमें आंतरिक लोकतन्त्र का अभाव हैं अथवा इन लोगो को “””पद की लालसा”” ने ही यह कदम उठाने पर मजबूर किया ?






जम्मू में कांग्रेस के जी -23 नामक गुट के कुछ नेताओ ने बैठक कर के काँग्रेस में नेत्रत्व को लेकर बैठक कर के – गांधी परिवार या पर हाइ कमान पर सवालिया निशान लगा दिया हैं | यह कोई पहली बार नहीं हुआ हैं | पहली बार भी दिल्ली में इन नेताओ ने ऐसे ही सवाल उठाए थे |

इनकी मांग हैं की पार्टी में स्वतंत्र चुनाव कराये जाये , जिससे की दल की गिरती हुई साख को रोका जा सके | परंतु यानहा एक सवाल हैं की ---क्या ये सभी नेता जनता से चुन कर आए हैं , अथवा पार्टी द्वरा नामित हो कर राज्य सभा के सदस्य बने ! सवाल यह हैं की जब इन नेताओ ने मतदाता का सामना नहीं किया हैं | तब किस आधार पर पार्टी को "”जमीनी स्तर " पर मजबूत कर सकते हैं ?

यानहा कुछ सवाल हैं --- 1--- क्या इन नेताओ ने जनहा -जनहा इन लोगो को संगठन की ज़िम्मेदारी दी गयी --वनहा पार्टी को कितनी सफलता दिलाई ? अब इन नेताओ में से एक राज बब्बर उत्तर परदेश में पार्टी मुखिया रहते हुए कुछ भी नहीं कर सके | यानहा तक की छेत्रों का दौरा |

2- कपिल सिब्बल – का ध्यान अपनी वकालत पर ज्यादा हैं , उनके आफिस में पार्टी कार्यकर्ताओ की शिकायतों के लिए ना तो कोई अमला हैं ना ही व्यसथा |

3 - विवेक तंखा-- जी मध्य प्रदेश के बारे में गाहे - बगाहे बयान देकर सुर्ख़ियो मेन आ जाते हैं , बस |

4- मनीष तिवारी और आनंद शर्मा ---भी एकला चलो है ,जनहा तक पार्टी के कार्यकरम और सरकार के वीरुध जनमत बनाने का हैं |

5--गुलाम नबी आज़ाद --- की जमीन काश्मीर में हैं , वे वनहा मुख्य मंत्री रह चुके हैं | परंतु अभी ब्लॉक स्तर पर हुए चुनावो में --उनके समर्थको को ज्यादा स्थान नहीं मिले |

अब जमीनी हालत तो इन नेताओ की कमोबेश ऐसी हैं , तो किस आधार पर पार्टी तोड़ेंगे ? अगर तोड़ा तो तो ये भी निजलिंगगप्पा की सिंडीकेट काँग्रेस बन के रह जाएंगे |