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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 25, 2024

 

मस्जिद -मंदिर खुदाई विवाद तथा खाकी और भगवा की भिड़ंत !!



हाल ही मे आरएसएस के सरसंघचालक भागवत जी ने उत्तर प्रदेश

मे जगह - जगह मंदिरों की खोज खोज कर उनका उद्धहर कर वणः पूजा -अरचना शुरू

किए जाने की प्रव्रती को उचित नहीं माना है | उन्होंने एक बयान देकर यह भी कहा की

मस्जिदों मे विवाद और मंदिरों को खोद -खोद कर जो मुहिम चल रही हैं , वह अनुचित हैं |

अब इस बयान के बाद बीजेपी के कुछ भक्तों ने इस पर आपती जताई उन्होंने कहा की हमारे धरम के इन प्रतीकों को हजारों साल पहले आक्ररणताओ ने तोड़ा था , उनको हम वापस वैसा ही बनाएंगे !!!! भागवत जी का बयान उत्तर प्रदेश के सत्ता पक्ष के कुछ लोगों को नागवार गुजरा |

उन्होंने बयान दिया की धर्म रक्षा जरूरी है | अब जिस प्रकार योगी जी कुम्भ मेले के इंतज़ामों

का विज्ञापन मे प्रचार कर रहे हैं ----उसे भी उनकी "”हिन्दू ह्रदय सम्राट "” बनने की महत्वाकांचा

के रूप मे ही देखा जा रहा है |


भागवत जी ने भी इसी हरकत पर चोट करते हुए कहा की "”मंदिरों और मस्जिदों को खोद कर हिन्दू ह्रदय सम्राट बनने की कोशिस नहीं करे | जिसका विरोध प्रधान मंत्री को मित्र बताने वाले राम भड्रा चार्य , बाबा राम देव और बद्रीनाथ के शंकराचार्य विमुक्तआनंद ने भी किया | भद्राचार्य ने तो चुनौती दे दी की आरएसएस हमारा शासक नहीं है हम उसके शासक हो सकते हैं | विमुक्तनन्द ने कहा की जब सरकार बनाना था तो मंदिर -मंदिर करते थे , अब क्यू रोक रहे हैं ! मतलब यह की यह पहला मौका है जब भगवा ब्रिगेड संघ के खिलाफ खुल कर आ गई है | पर यह तो साफ है की योगी जी के कार्यों से देश के दूसरे भागों मे अशान्ति फ़ाइल सकती है | हिन्दू ---मुस्लिम फाड़ इस राष्ट्र की अस्मिता को खतरा हैं | और आरएसएस कुछ भी हो देश को विभाजन की ओर ले जाने वाली किसी भी कोशिस को स्वीकार नहीं करेंगे , कम से कम नरेंद्र मोदी की सरकार के रहते हुए | अब परिणाम तो भविष्य के गर्भ मे हैं |






यूं तो स्वतंत्रता के संघर्ष से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भगवा धारी संगठनों

में वैचारिक साम्य था - हिन्दू धर्म और उसकी परम्पराये | आजादी से पूर्व रामराज्य

परिषद हो या हिन्दू माह सभा दोनों ही हालांकि अपनी अलग "”लाइन "” चलते थे परंतु

एक बात इनके सोच में कामन थी -- पुरातन परम्पराओ को जारी रखना ! इसलिए जब संविधान सभा में हिन्दू कोड बिल का प्रस्ताव आया तो इन संगठनों ने मुखर विरोध किया , और इसे

देश की बहुसंख्यक जनता के विश्वास के विपरीत बताया | जबकि संविधान सभा मे अधिकंश

या यूं कहे बहुमत का सोचना था की हिन्दू धरम की कुछ परम्पराये महिलाओ और समाज

के लिए वांछित नहीं हैं | सभा में वक्ताओ ने सती प्रथा - और विवाह के आठ प्रकारों में कुछ

तो अत्यंत ही गलत थे | उदाहरण के लिए राक्षस और पैसाच विवाह ! इनमे स्त्री को जबरदस्ती

और बलात्कार करने के बाद को विवाह की संज्ञा दी गई थी | कानून से यह प्रथा अपराध की श्रेणी आती थी | फिर विवाद पिता की संपाती में कन्या के अधिकार पर भी हिन्दू संगठनों को

आपती थी |और भी की मुद्दे थे जो सभ्य समाज मे स्वीकार्य नहीं थे | जबकि इन हिन्दू धार्मिक संगठनों का कहना था की हजारों साल की हमारी परम्पराओ को सरकार ऐसे नहीं बदल सकती |

बस यही मुद्दे थे जो टकराव का कारण बने थे | एक और मुद्दा था गऊ हत्या का | देश के दक्षणी राज्यों में अतिपे संप्रदायों द्वरा , जो आस्था से थे तो हिन्दू , परंतु गाय का माँस

को कहते थे | इन संघठनों की मांग थी की गाय की हत्या पर समस्त देश मे "”प्रतिबंध"”

लगाया जाए ! आज आजादी के सत्तर साल बाद और विगत दस सालों मे आरएसएस के राजनीतिक संगठन बीजेपी की सरकार होने के बावजूद भी :””प्रतिबंध "” नहीं लगाया जा सका |

उत्तर पूर्व के राज्यों मे आज भी खुले आम गाय का वाढ होता हैं | मोदी सरकार के एक मंत्री

किरण रिजूजू ने तो लोकसभा मे स्वीकार किया वे बीफ खाते है |जबकि नेहरू मंत्रिमंडल द्वरा

इस मांग को नामंजूर कर दिया गया | तब सफेद वस्त्र धारी प्रभु दत्त ब्रमहचारी ने दिल्ली मे

बाद आंदोलन किया था | ये वही साधु थे जिन्होंने जवाहर लाल नेहरु के खिलाफ फूलपुर से

लोकसभा का चुनाव लड़ा था |उस समय सफेद और भगवा वस्त्रधारी साधु या सन्यासी

हिन्दू धरम की अच्छी बुरी सभी परम्पराओ को "”यथावत "” रखे जाने के हामी थे |

संघ भी इन मांगों से सहमत था |


अयोध्या मंदिर के विवाद मे भी आडवाणी जी की रथ यात्रा के समय

संघ और बीजेपी के अलावा भगवधारियों ने भी पूर्ण समर्थन दिया था | परंतु मंदिर निर्माण

मे जब भगवा सागठनों को मनचाहा भूमिका नहीं मिली --तब विरोध शुरू हुआ | आरएसएस सिर्फ अयोध्या के राम मंदिर को एक प्रतीक मान कर बहुसंख्यकों को अपनी ओर करना

चाहता था | वैसा हुआ भी | सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आड़ मे मोदी सरकार ने मंदिर निर्माण और

उसके रख - रखाव का जिम्मेदारी विहिप के हाथों मे दे दी | जो आरएसएस से ही जुड़ा एक संगठन हैं | अब इस सफलता को देख कर अनेक "”मठाधीश "’ और सन्यासी संगठनों को लगा की मंदिर के नाम पर "””जनता का समर्थन और भक्तों के दान "” को प्रपात किया जा सकता हैं | आखिर अयोध्या के मंनदिर निर्माण के लिए अरबों रुपये के दान { वह भी बिना हिसाब दिए } का मालिक बना जा सकता है | बस यंहा से विभिन्न महंतों और साधु संगठनों ने मंदिरो के

जीर्णोंधार के लिए तरकीब लगानी शुरू की | इस उद्देश्य मे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी

आदित्यनाथ ने हवा देना शुरू किया | वे खुद गोरखनाथ पीठ के महंत है , जो सैकड़ों साल पुराना हैं | इस पीठ को देश की बहुत सी रियासतों से गुरु पूर्णिमा के अवसर पर चडावा आता था जो करोड़ों मे होता था | यंहा तक की नेपाल की राजशाही के समय मे वनहा से भी भेंट आती थी , जो अब बंद कर दी गई |


 

मनोज पाठक -- एक संस्मरण



बहुत काम ऐसा होता हैं जब आप कारोबारी रिश्तों में अपनापन पाते हैं , मनोज पाठक ऐसे ही व्यक्तित्व थे | उनसे परिचय के पूर्व मैं उनके पिता स्वर्गीय राज बहादुर पाठक से परिचय हुआ , वे भी देश के समाजवादी आंदोलन से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ता थे , और मैं भी लखनऊ में छात्र जीवन में समाजवादी युवजन सभा से जुड़ा हुआ था | यूं तो लजब मैं 1982 की जनवरी को भोपाल की धरती पर पैर रखा तो समाजवादी विचारों के मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह से मुलाकात हुई | यूं तो मेरा परिचय तत्कालीन उतर प्रदेश के मुख्य मंत्री विश्वनाथ परताप सिंह ने उरई में अंतर राज्यीय पुलिस बैठक मे ही करवाया था | नवभारत टाइम्स के संवाददाता के रूप मे पाठक जी से जन संपर्क निदेशालय में हुई थी | बाद में मनोज जी के अग्रज और तूफ़ानी रिपोर्टर स्वर्गीय जगत पाठक से भी परिचय हुआ | जगत पाठक जी अपने में ही एक किंवदंती बन गये थे | तब शायद मनोज जी भी किसी समाचार पत्र में रिपोर्टर थे |


कुछ समय बाद शायद उनका चयन जनसंपर्क में एक अधिकारी के रूप मे हो गया था | उसके बाद मनोज जी से बहुत मुलाकात होती रहती थी | इन मुलाकातों का आशय विभागीय जानकारी लेना होता था , जो मेरे समाचार लेखन में काम आती थी | धीरे - धीरे उनके व्यवहार और जानकारी का निखार देखने को मिला | वैसे उनको किसी ना किसी विभागीय मंत्री से सम्बद्ध किया जाता था , जैसा की विभाग की परंपरा थी | परंतु उनके सोच और जानकारी की बार हम संवाददाताओ को बड़ी मदद करती थी , अगर उन्हे कोई तथ्य की जानकारी नहीं होती तब वे , उस सूत्र के बारे बात देते जान्ह से जानकारी मिल सकती थी | बाद मे वे दिग्विजय सिंह के मुख्य मंत्री के कार्यकाल में ,उनसे सम्बद्ध कर दिए गये थे |


इस काल में उनका परिचाय लगभग राजधानी के सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक अखबारों के प्रतिनिधियों से हो गए था | हम सब भी उन्हे एक "”सोर्स "’ मैटीरियल मानने लगे थे | इसी दौरान उनका काफी हाउस मे आना जाना काफी हो गया था , क्यूंकी अधिकतर पत्रकार वनही सुबह अथवा शाम को बैठकी करते थे | इन बैठकों मे खबरों की चर्चा के दौरान ,अगर किसी प्रकार के सरकारी आँकड़े की जरूरत होती --तब मनोज पाठक को याद किया जाता | और उन्होंने कभी हम लोगों को निराश नहीं किया | या तो वांछित तथ्य सुलभ कर दिए अथवा यह बताया दिया की कौन अफसर या मंत्री यह जानकारी देगा | उनकी विनम्रता उनके पिता से मिली थी | हम पत्रकारों मे सभी के पास मनोज से , कोई न कोई जानकारी की लिस्ट उनके पास रहती थी , | अगर कोई खास लेखन करना हो तब भी मदद हो जाती थी |



वैसे मनोज थे तो शासकीय अधिकारी थे , उनके विभाग के अफसरों को उन पर जितना भरोसा था --उतना ही विश्वास पत्रकारों को उनकी सत्यता और ईमानदारी के प्रति था | वे सही मानो मे शासन { जनसंपर्क } और अखबार नवीसों के बीच एक सेतु की भांति थे |

वे पत्रकारों के निजी मामलों मे भी भरपूर मदद करते थे | क्यूंकी वे भोपाली थे , इसलिए उन्हे यंहा के बारे मे अच्छी वाक़फ़ियत थी | अगर कुछ उन्हे नहीं मालूम होता तब वे उस सोर्स के बारे मे भी बता देते जो हम लोगों को जानकारी उपलब्ध कर सकता था | बाद मे उनका विवाह भी देशबंधु के सीनियर पत्रकार स्वर्गीय राज भारद्वाज की कन्या से हुआ | और वे पत्रकार के पुत्र और पत्रकार के भाई होने के साथ पत्रकार के दामाद भी बने | दिग्विजय सिंह जी के मुख्यमंत्रित्व काल मे तो हालत यह था की अगर मुख्य मंत्री से समय चाहिए तो उसके लिए मनोज पाठक

ही पर्याप्त थे | उनका अवसान इतना अचानक हुआ की - उनके चाहने वाले भी उनका शोक भी नहीं माना पाए | हालांकि उनके निधन से जो स्थान पत्रकार जगत और जन संपर्क मे रिक्त हुआ उसकी भरपाई तो आज तक नहीं हुई | सबसे बड़ा कारण जो उनके जाने के बाद हुआ की पत्रकारों और शासन के मध्य आत्मीय संबंध और खुलापन हुआ करता था , वह समाप्त हो गया | अब नया तो शासन और ना ही जन संपर्क का कोई संबंध काफी हाउस जैसी जगह से रह गया | फलस्वरूप शासन और पत्रकारों की दूरिया बड़ती गई जो आज भी कायम है | मनोज एक जीवंत शासन और पत्रकारों के बीच का पुल हुआ करते थे | दोनों का ही विश्वास उन्हे अर्जित था |