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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 14, 2019


आंदोलन और अशांति क्या न्याय में अड़ंगा बनेंगे ?

सबरीमाला में महिला प्रवेश -और सुप्रीम कोर्ट का हिंसा का भय क्या न्याय हैं ?

केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओ के प्रवेश पर मंदिर प्रशासन द्वरा पाबंदी लगाए जाने को ,यूं तो सर्वोच्च न्यायालय 28 सितंबर 2018 को फैसला दे चुका हैं की राज्य सरकार समानता के संवैधानिक मूल अधिकार के तहत सभी आयु की महिलाओ को प्रवेश दे | पाँच न्यायाधीशो की पीठ का यह बहुमत का फैसला था | इस फैसले के तहत कुछ नारी आंदोलन की करायकर्ताओ को मंदिर में प्रवेश भी देना पड़ा था | परंतु इस फैसले पर कट्टर पंथियो की जमात ने इसे '’आस्था '’ से छेड़छाड़ बाते था ,और प्रदर्शन भी हुआ था |
परंतु इस वर्ष केरल सरकार ने महिलाओ को मंदिर जाने के लिए "”पुलिस की सुरक्षा नहीं सुलभ कराई "” काँग्रेस के नेत्रत्व वाली विजयन सरकार आम लोगो "सनातनी " को नाराज नहीं करने के लिए –यह फैसला लिया | जब राज्य सरकार की इस कारवाई के वीरुध इस सप्ताह प्रधान न्यायाधीश शरद बोवड़े की तीन सदस्यीय पीठ में महिला संगठनो ने अदालत द्वारा प्रदेश सरकार को उचित निदेश ईईए जाने की मांग की -तब प्रधान न्यायाधीश बोवड़े ने माना पुराने फैसले पर कोई रोक नहीं हैं – वह फैसला अंतिम भी नहीं हैं !! उन्होने यह भी कहा की कानून आपके पक्ष में हैं -यदि इसके पालन हुआ या उल्लंघन किया गया तब हम लोगो को जेल भेज देंगे ! परंतु हम किसी तरह की हिंसा नहीं चाहते !! अब इस फैसले को क्या माना जाए ? अदालत का निर्देश अथवा उनकी बेबसी ? अगर संविधान प्रदत अधिकारो का पालन कराने में सर्वोच्च न्यायालय मदद नहीं कर सकता तब अनुच्छेद 32 के अंतर्गत तीनों न्यायिक उपचार --- रिट ऑफ मानडामेस या {परमादेश का प्रादेश } का क्या अर्थ रहेगा ?
कुछ ऐसी ही आशंका सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को अयोध्या विवाद पर फैसला देने के पूर्व भी हुआ था ----जब उन्होने खुली अदालत में सम्पूर्ण पीठ का फैसला सुनाने के पहले रात्रि में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महा निदेशक को तलब किया था , और उनसे बात की थी | यद्यपि ना तो प्रधान न्यायधीश गोगोई ने अथवा यू पी के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक ने रात की बैठक में क्या हुआ इसका खुयशा नहीं किया !! अनुमान यही लगे जाता है की फैसले के मद्दे नज़र राज्य में शांति - व्यवस्था का जायजा ही लिया होगा |
इन दो हालातो के संदर्भ में अगर हम कानूनी हक़ अथवा सामाजिक सुधारो की बात करे तो राजा राम मोहन रॉय द्वरा सती प्रथा की मांग जब उठाई थी – तब भी समाज के बहुसंख्यक लोग जो "”लकीर के फकीर "” बने चली आ रही प्रथा को बदले जाने के खिलाफ थे ! वह समय था जब भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था | परंतु तब लॉर्ड विलियम बेंटिक जनरल थे , उनहो ने सती प्रथा पर प्रतिबंध -मानवीय आधार पर लगाया | तब ना तो संविधान था और नाही नागरिक अधिकार थे "”लोग कंपनी की प्रजा थे ! उसी काल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह पर रोक और विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा का जब बीड़ा उठाया तब भी ईस्ट इंडिया कंपनी का ही राज़ था | आज़ादी के पहले देश की 600 से अधिक रियासतो में जाति प्रथा के आधार छूयाछुत भी सामाजिक और शासकीय रूप से मान्य हिनहि थी वरन उल्ल्ङ्घन दंडनीय भी था !
संविधान के प्रवर्तन के बाद मंदिरो के द्वार सभी जाति के नर -नारियो के लिए खुल गए थे ! आज भी जाति के आधार पर भेदभाव और प्रताड़ना के किस्से सुने जाते और पढे भी जाते हैं ! जबकि अनुसूचित जातियो के साथ भेदभाव और प्रताड़ना कानुनन "”अपराध "” हैं ! तब सुप्रीम कोर्ट की बेबसी देश के जागरूक नागरिक को परेशान करती हैं -जिनमे मै भी हूँ |
आज देश में में नागरिकता संशोधन विधि को लेकर देश के 12 से अधिक राज्यो में प्रदर्शन हो रहे हैं – पूर्वोतर के सभी आठो राज्य आंदोलनरत हैं | छत्रों और युवको का रोष कभी कनही कनही आगजनी और पथराव का भी रूप ले चुका है | केंद्र सरकार ने पूर्वोतर के राज्यो में सेना की भारी -भरकम तैनाती की हैं | दो प्रदर्शनकारियो की सुरक्षा बालो की गोल से मौत भी हो गयी हैं | सरकार ने सभी अशांत छेत्रों में संचार माध्यम इंटरनेट --एसएमएस की सेवाओ को बंद कर दिया हैं | आंदोलन तीसरे दिन भी जारी हैं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का शांति का आवाहन भी '’’अनसुना हैं '’
नागरिकता संशोधन विधि के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में अनेक याचिकाए दाखिल हैं | अब क्या इस हालत में इन याचिकाओ पर "”गुण -दोष "” के आधार पर न्याय हो सकेगा ---अथवा इन छेत्रों में शांति - व्यवस्था को ध्यान में रख कर सर्वोच्च न्यायालय --भी बेबसी व्यक्त करेगा |