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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jul 20, 2016

पड़ोसी की चूक अब आप पर भारी पद सकती है --की आपकी भी बत्ती गुल हो जाये

बिल पड़ोसी ने नहीं भरा तो , आपकी भी बत्ती गुल होगी

कहावत है की दुर्घटना मे घायल होने के लिए ज़रूरी नहीं की आप का दोष हो ,,बस वनहा होना ही दंडकारी है | आप बहुत कुछ चुन सकते है पर पड़ोसी नहीं – और अब उसकी गलती /कमी की सज़ा तो आपको भी भुगतना होगा ----यह कारनामा मध्य प्रदेश विद्युत बोर्ड का है | ऐसा एक -दो जगह पर नहीं वरन राज्य मे थोक भाव मे हो रहा है |
भारतीय जनता पार्टी के विधायक जो पटवा मंत्रि
मंडल मे मंत्री भी रहे है -उन कैलाश चावला ने अपनी ही सरकार के इस तुगलकी फरमान की बखिया उधेड़ी | विद्युत मंत्री पारस दास ने विधान सभा मे स्वीकार किया की ऐसा किया जा रहा है | ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस् के राम निवास रावत ने भी ग्वालियर छेत्र मे गावों मे विद्युत उपभोक्ताओ द्वारा बिजली का बिल चुकता किए जाने के बाद भी ना तो उनके कनेकसन जोड़े गए वरन पड़ोसी के बकाया बिल का पचास प्रतिशत भी चुकाने की सामूहिक ज़िम्मेदारी भी दाल दी |

सरकार ने मंजूर किया की बकाया राशि का पचास प्रतिशत जमा होने के बाद ही संभन्धित इलाके मे बिजली प्रदाय की जाती है | डीपी यानि की बिजली देने का खंभा मे लगा डिब्बा को विद्युत आपूर्ति बंद किए जाने से सभी उपभोक्ता प्रभावित होते है | वे भी जो ईमानदार है और वे भी जो ''जो ईमानदार नहीं है ''' विधान सभा मे बहुत से सत्ता और -विपक्ष के विधायकों ने डिफालटरों की सज़ा ईमानदारों को देने की इस नीति को जज़िया बताया |


Jul 17, 2016

खुशी और मज़ा मे फंसे लोगो के सुख और आनंद का अर्थ ?

खुशी और मज़ा मे फंसे लोगो के सुख और आनंद का अर्थ ?

1964 की बात है इंटरमीडियेट की परीक्षा के बाद अपने नाना के साथ ऋषिकेश गए हुए थे | लक्ष्मन झूला के गीता भवन मे स्वामी शर्णानन्द का प्रवचन सुना ,वे दिव्यानन्ध थे | उन्होने बाते की कलकते की एक महिला ने उनसे कहा की स्वामी जी आज के प्रवचन मे तो बस मज़ा आ गया | तब उन्होने कहा की बेटी प्रवचन मे कैसा मजा ? उसने कहा की आप ने जो उपदेश परिवार के दायित्वों के बारे मे बताया , उसे सुन कर मन गदगद हो गया | उनका उस दिन का प्रवचन खुशी और मज़ा तथा सुख और आनंद की व्याख्या करने पर केन्द्रित रहा |

जब प्रदेश शासन ने "”आनंद '' मंत्रलाय बनाए जाने की घोसणा की तब मुझे उनका प्रवचन याद आ गया | शिवराज सिंह जी का उद्देश्य आनंद को उसके आध्यात्मिक अर्थ मे व्यक्ति को सुलभ कराने की कोशिस हो सकती है | परंतु इस प्रयास को '''राजसत्ता'' द्वारा प्रायोजित किया जाना क्या राजधर्म और सर्वधर्म समभाव होगा ??

राज्य नागरिकों को सुरक्षा - स्वास्थ्य - शिक्षा -रोजगार सुलभ कराये , वनहा तक तो बात तर्क संगत है | परंतु आध्यात्मिक पहलू पर प्रयास से पूर्व भूख --बेरोजगारी और बेईमानी से नागरिकों को मुक्ति दिलाना ज़रूरी है | जब राज्य की एक चौथाई जनता गरीबी की रेखा के नीचे हो , जब हम चालीस फीसदी जनसंख्या को शुद्ध पेय जल सुलभ करने मे असफल रहे --तब आनंद की बात करना नाइंसाफी ही है |

हर नागरिक के आनंद का केंद्र फर्क - फर्क होता है , मसलन मदिरा के प्रेमियो को तो बोतल मे ही सब कुछ दिखाई देता है | भोजन भट्ट को मुर्गा आदि मे सुख मिलता है | स्वामी शरणानन्द जी के शब्दो मे "” मज़ा ""शारीरिक होता है | जैसे स्वादिस्ट भोजन करते समय होता है | उसके उपरांत व्यक्ति को खुशी मिलती है | परंतु सुख और दुख का संबंध "”भावनाओ "” से होता है | जैसे विवाह - संतान की प्राप्ति आदि के पश्चात की अनुभूति को सुख की परिधि मे रखा जा सकता है | परंतु "”आनद"” तो व्यक्ति को योग - समाधि आदि जैसी क्रियाओ के पश्चात ही प्राप्त होता है | क्या ऐसा आनंद कोई सरकारी प्रयास सुलभ करा सकता है ? क्योंकि आनंद के लिए व्यक्ति को खुद को ही तपाना पड़ता है --वह किसी अन्य के प्रयासो से संभव नहीं सरकार के प्रयासो से भी नहीं

संविधान और आरक्षण व्यवस्था क्या डॉ अंबेडकर की देन है या यह एक मिथक भर है ?

संविधान और आरक्षण व्यवस्था क्या डॉ आंबेडकर की देन है या यह एक मिथक है ?? कुछ तथ्य जो प्रश्न करते है

आम धारणा है की देश का संविधान बाबा साहब आंबेडकर ने बनाया है और आरक्षण की व्यवस्था भी उनही की देन है | यह प्रचार चुनावी माहौल मे कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाता है | खासकर राजनीतिक दल तो सभी उन्हे "””अपना - अपना "”” बताने लगते है | ऐसे मे उनकी विरासत के अनेकों हकदार सामने आते है | अपने अधिकारो के वे तरह तरह के कारण देते है |

ऐसे माहौल मे मे आम नागरिक और खासकर युवा वर्ग सहज मे ही राजनीतिक उद्देस्य से किए गए प्रचार को "'तथ्य"” मान कर बहस के लिए तैयार रहते है | उनके पास तर्क भी वही होते है जो प्रचार मे दिये जाते है | भले ही उन तर्को का कोई आधार या प्रमाण भले ही न हो |

भारत के संविधान मे अनुछेद 330 से लेकर 342 तक विभिन्न वर्गो और स्थानो के लिए विशेष उपबंध और आरक्षण है | परंतु यह समझना की आरक्षण का प्रारम्भ 1950 मे संविधान के लागू होने के उपरांत हुआ – पूर्णतया गलत होगा | वस्तुतः पड़े लिखे और जानकार राजनेताओ ने भी अपने संविधान को नहीं पढा, वरना वे इस बात का दावा कभी नहीं करते की संविधान के निर्माण मे और खासकर आरक्षण के उपबंध उनके प्रयासो का प्रतिफल है |
हक़ीक़त मे संविधान के लागू होने के पूर्व देश का शासन "'Government Of India Act 1935 “”' के अधीन किया जाता था | वस्तुतः संविधान के संघीय रूप का आधार भी यही कानून है | जिसमे देश की न्यायपालिका को फेडरल कौर्ट ऑफ इंडिया कहा गया है | और तत्कालीन समय मे ब्रिटिश इंडिया को 11 प्रांतो मे बंता गया था , और 6 चीफ कमिसनर द्वारा शासित छेत्र थे | यानहा यह स्मरण रखना होगा की उस समय लगभग 400 से अधिक राजे - रजवाड़े भी थे , जिनहे अपने छेत्र मे शासन करने का अधिकार था |

इसी कानून द्वारा प्रांतो को सीमित स्वशासन का अधिकार मिला था | इन प्रांतो मे कुछ दो सदन वाले थे जैसे मद्रास - बंबई - बंगाल - बिहार और संयुक्त प्रांत --आसाम | सेंट्रल प्रोविंन्सेस अँड बरार --पंजाब - उड़ीसा --सिंध एवं सीमा प्रांत |
इन प्रांतो मे Legislativ Assembaly मे जिस पार्टी को बहुमत मिलता था उसके नेता को प्रिमियर या चीफ़ मिनिस्टर कहते थे |

अब आते है असली मुद्दे पर की आरक्षण किसका था और उनका निर्वाचन कैसे होता था | कानून की अनुसूची पाँच के अनुसार

हरिजन --- महिलाए --- विश्व विद्यालय – जमींदार ---व्यापारी वर्ग - -पिछड़ी जतिया -- श्रमजीवी वर्ग और योरोपियन समुदाय तथा एंग्लो इंडियन एवं देशी इससाइयों के लिए सभी राज्यो मिस्टर स्थान आरक्षित थे | उदाहरण के लिए 1935 की मध्य प्रांत और बरार की विधान सभा मे की सदस्य संख्या 112 थी | इसमे 20 स्थान हरिजन के लिए और 3 स्थान महिलाओ के लिए 1 विश्व विद्यालय के लिए 3 सीट जमींदारो के लिए 2 स्थान व्यापारी वर्ग के लिए 1 सीट पिछड़ी जातियो के लिए आरक्षित थी | एक - एक सीट यूरोपियन और एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए आरक्षित थी | इस प्रकार 112 मे 34 सस्थान आरक्षित थे | यह संख्या लगभग एक तिहाई होती है | इसलिए यह कहना उचित होगा की आरक्षण की व्यवस्था संविधान सभा के गठित होने के भी पूर्व भी थी | अतः इस के लिए किसी को भी श्रेय देना हो तो वह ब्रिटिश शासन के उदारवादी ड्राष्टिकोण को देना होगा ना की की किसी अन्य को |  

Jul 15, 2016

भारतीय जनता पार्टी को पुन जनसंघ मे बदलने की कसरत शुरू आज़ादी के पहले देश मे कई राजनीतिक दल मौजूद थे , जिनहोने 1935 के चुनावो मे भाग लिया था |हिन्दू महासभा और राम राज्य परिषद जैसे छेतरीय संगठन भी थे | परंतु आज़ादी के बाद स्वाधीन भारत मे हुए वयस्क मताधिकार के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रिय काँग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के बाद मे गठित भारतीय जनसंघ देश के चुनावी अखाड़े का तीसरा बड़ा दल था | 1950 मे गठित इस दल का चुनाव चिन्ह तब जलता दीपक हुआ करता था | 1977 मे गैर कांग्रेसी दलो के गठबंधन मे शामिल होने के लिए जनसंघ का विलय जनता पार्टी मे कर दिया गया |परंतु काड़र आधारित जनसंघ द्वारा अपने सदस्यो को जनता पार्टी मे अलग पहचान बनाए रखने के कारण ही सत्तासीन जनता दल टूटा | तब बंबई मे 6 अप्रैल 1980 को एक अधिवेशन मे लाल क्रष्ण आडवाणी को अध्यक्ष चुना और भारतीय जनता पार्टी के रूप मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक ''प्रोफाइल ''' का उदय हुआ | ब्रिटिश इंडिया के ग्यारह प्रांतो मे 1935 मे हुए चुनावो मे मतदान का अधिकार भूमि स्वामी - शिक्षित – टैक्स अदा करने वालों को ही था | अचरज का तथ्य यह है की इन चुनावो मे भी दस वर्गो के लिए स्थान आरक्षित हुआ करते थे | इन वर्गो मे महिलाए - हरिजन – विश्वविद्यालय-- जमींदार - व्यापारी – पिछड़ी हुई जतिया --श्रमजीवी वर्ग – यूरोपियन - एंग्लो इंडियन और अंत मे देशी ईसाई | अतः यह कहना की आरक्षण को संविधान मे स्थान बाबा साहब अंबेडकर ने दिलाया सर्वथा मिथ्या सिद्ध होता है | 1952 की प्रथम लोक सभा मे भारतीय जनसंघ को तीन स्थान प्राप्त हुए थे | हिन्दू महासभा को चार और रामराज्य परिषद को तीन सीट मिली थी | चूंकि वैचारिक धरातल पर जनसंघ राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ से जुड़ा हुआ था ,जिसका आधार ''हिन्दुत्व'' था | कमोबेश हिन्दू महा सभा और राम राज्य परिषद का सोच भी यही था | अतः तीनों ने मिलकर एक गुट बनाया और लोक सभा की कारवाई मे भाग लेते थे | परंतु उद्देस्यों की समानता के बावजूद जनसंघ को सबसे बड़ा लाभ संघ के स्वयंसेवको का था | जो हिन्दू महा सभा और राम राज्य परिषद को नहीं था | उनका जन आधार '''आम आदमी ''' ही था | इन दोनों संगठनो के पास नेता तो थे परंतु कार्य करता नहीं | जबकि जनसंघ के पास प्रशिक्षित स्वयं सेवाको की फौज थी | इसीलिए 1957 के चुनाव मे इन दोनों ही पार्टियो का सफाया हो गया | चुनावी राजनीति मे झटका खाने के बाद भाजपा ने नब्बे के दशक मे कांग्रेस की भांति "” जन आधारित "” पार्टी गठित करने का निर्णय लिया | परंतु इस ''जन'' को नियंत्रित करने के लिए संघ ने जिला स्तर से लेकर केंद्र तक संगठन मंत्रियो का जाल बनाया | जो आज भी है | लेकिन विगत बीस वर्षो के अनुभव से यह तथ्य सामने आया की भाजपा मे संगठन और सरकारो के स्तर पर "”स्वयं सेवाको "” की संख्या अल्प्मत मे है | यद्यपि संगठन मंत्री के ''चाबुक '''से इन लोगो को ''अनुशासन ''' मे रखा जाता है | परंतु सत्ता के समीप रहने के कारण अनेक "”संगठन मंत्रियो "” के कार्य -कलापों से संगठन की बहुत बदनामी भी हुई है | अब इस लिए कानपुर मे हुई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारको की बैठक मे यह निर्णय लिया गया है की अब पुनः पार्टी को काडार आधारित बनाने की दिशा मे आयोजन किए जाएँगे | जनहा इन्हे "”'संघ ''की विचारधारा से अवगत कराया जाएगा | इस प्रकार अब 36 वर्ष बाद भारतीय जनता पार्टी को भारतीय जन संघ के अवतार मे लाने की कोशिस शुरू हो गयी है | परिणाम तो वक़्त ही बताएगा |

Jul 7, 2016

आ से आपातकाल तो बा से बाबरी मस्जिद क्यू नहीं ?

   आ से अब आपातकाल तो बा से बाबरी मस्जिद क्यो नहीं ?
जिस प्रकार केन्द्रीय सरकार शहरो और संस्थाओ तथा स्थानो के और योजनाओ के नाम परिवर्तन कर के "” अपने परिवर्तन और विकास की "चुनावी ''घोसणा को अमली जामा पहना रही है ,उसी श्रख्ला मे देश के इतिहास को मनमाफ़िक "बनाने ''की भी कोशिस जारी है| हर सरकार को बदलाव का अधिकार है | परंतु वास्तविकता और तथ्यपरक्ता के साथ | इतिहास को विरुदावली या तबरा [[ इस्लाम के एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग को बुरा-भला कहने का रिवाज ]]] केंद्र सरकार द्वारा विपक्षी दलो को खलनायक और स्वयम को नायक के रूप मे पेश करने का यह प्रयास आज भले लिखा जा सकता है | परंतु इतिहास के पाठ्यक्रम मे तो सभी की भूमिका की विवेचना तो होगी | क्योंकि तथ्य या सच कभी झुठलाया नहीं जा सकता |
इसी तारतम्य मे नव नियुक्त मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर के पदभार लेते ही "”अंदर के सूत्रो ""से खबर आई की अब दस्वी और बारहवी कक्षा के पाठ्यक्रम मे आपातकाल कैसे लगा - क्या क्या अत्याचार कुछ संगठनो के सदस्यो के साथ हुए | इस असंवैधानिक स्थिति मे कैसे कैसे "””लोकतन्त्र के सेनानियो "” ने कष्ट सहे | तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी ने संविधान का ''दुरुपयोग"” किया | 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 की अवधि को कुछ संगठनो ने ''देश के इतिहास मे काला अध्याय बताया है "''
परंतु आपात काल को काला अध्याय बताने वाले संगठनो ने ही 6 दिसम्बर 1992 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद ज़िले मे अयोध्या स्थित सैकड़ो साल पुरानी एक मस्जिद को विश्व हिन्दू परिषद -बजरंग दल- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ - भारतीय जनता पार्टी और अनेक
"””सेनाओ "” के लोगो ने मुसलमानो के उपासना गृह को तोड़ डाला | यह तब हुआ जब तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट मे पेश होकर शपथ पत्र देकर कहा था की ''''उनकी सरकार '''' इस धार्मिक स्थल को सुरक्शित रखने के लिए सभी उपाय करेगी "”” | परंतु उनकी क़सम झूठी निकली – उनके अफसरो ने तोड़ फोड़ करने वालों को ना तो रोका और ना ही मस्जिद की रक्षा
नहीं कर पाये और उस घटना का मुकदमा अभी भी सुप्रीम कोर्ट मे लंबित है | जिस पर फैसला "”टलता जा रहा है "”” | क्यो ऐसा हो रहा है ---इसका अनुमान सहज ही लगे जा सकता है |


दोनों ही घटनाये देश के इतिहास मे दर्ज़ होनी चाहिए "” वास्तविक रूप मे "” | अगर आपात कल के लिए इन्दिरा गांधी दोषी थी तो मस्जिद गिराने के जिम्मेदार लोगो //अभियुक्तों मे एक तो मोदी मंत्रिमंडल की सदस्य भी है | 24 वर्ष पूर्व हुई इस शरमनाक घटना को अब "””हिन्दू अभिमान "”” की घटना बताने का प्रयास भी बहुत से संगठनो द्वारा किया जा रहा है | परंतु यह भी तथ्य है की उस घटना के बाद विश्व भर मे भारत की निंदा हुई | एवं इस्लामिक देशो ने तो काफी "”'सख्त"” रुख अपनाया | कुछ सिरफिरे लोगो ने मस्जिद को गिराए जाने को लेकर देश मे अनेक स्थानो पर सांप्रदायिक दंगे हुए | हजारो जाने गयी अरबों रुपये की संपति { राष्ट्रीय और निजी ]] का नुकसान हुआ |


गोधरा अग्निकांड भी इसी घटना का परिणाम था ---जिसके कारण अहमदाबाद मे कई दिनो तक मुस्लिम बस्तियो मे हमले हुए और एक सांसद को भी आग के हवाले कर दिया गया | अब इतिहास मे यह सब भी लिखा जाएगा तब वह वास्तविक होगा नहीं तो प्र्थवी राज रासो की तरह यह भी एक विरुदावली ही होगी --इतिहास तो क़तई नहीं |




Jul 2, 2016

गूजर -- जाट लड़ रहे और सुप्रीम कोर्ट ने दिया ओबीसी दर्जा

गूजर -- जाट लड़ रहे और सुप्रीम कोर्ट ने दिया ओबीसी दर्जा
राजस्थान मे गुज़रो द्वरा कई वर्षो से पिछड़े वर्ग मे आरक्षण की मांग के बाद राहत की आश मिली | वनही हरियाणा मे ज़ाट आंदोलन मे अरबों रुपये की संपाती नष्ट हुई पर अभी कोई परिणाम नहीं निकला | परंतु इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक वर्ग को बिन मांगे ही पिछड़े वर्ग का दर्जा दिये जाने का निर्देश केंद्र सरकार को दिया है |

केंद्र सरकार द्वरा ने एक रिट द्वारा अदालत के अप्रैल 2014 के उस फैसले पर स्पष्टीकरण चाहा था जिसमे कहा गया था की गे -लेसबियन और बाइसेक्सुअल को थर्ड जेंडर मे रखा गया था | न्यायमूर्तियों ने केंद्र सरकार से कहा की अदालत के फैसले मे पूरी स्पष्टता है | उन्होने कहा की स्त्री - पुरुष के बाद तीसरे श्रेणी मे किन्नर आते है | सरकार को चाहिए की वह "”फार्म"” मे संशोधन कर के तीसरी श्रेणी को भी शामिल करे |

इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया की "”इन्हे पिछड़े वर्ग "””'की आरक्षण की श्रेणी मे रखे | इनको शिक्षा और सरकारी सेवाओ मे वही हक़ मिलना चाहिए जो पीएचडी जातियो को मिलता है | इतना ही नहीं शिक्षा या नौकरी के छेत्र मे इनकी पहचान भी इसी श्रेणी मे की जानी चाहिए | आरक्षण की लड़ाई मे इस वर्ग को तो बिन मांगे ही यह सुविधा अदालत ने दिला दी जिसके लिए गूजर और ज़ाट अभी संघर्ष कर रहे है |

इसी बीच पाकिस्तान मे मौलवियों ने वनहा के किन्नरो को शादी करने का भी ''हक़ ' दे दिया है | फतवे के हिसाब से "”” जिस किन्नर मे नारी केलक्षण हो वह ऐसे किन्नर से विवाह कर सकती है जिसको बाहरी तौर पर मर्द के लक्षण हो | उन्होने स्पष्ट किया की इनमे भी ""नर और मादा "” होते है अतः वे शादी कर सकते है | परंतु कुछ किन्नर ऐसे भी होते है जिनमे "”””दोनों "” ही वर्ग के लक्षण होते है ऐसे लोगो को शादी की इज़्ज़जात नहीं है | उन्हे अकेले ही रहना होगा | फतवे मे साफ किया गया की इस श्रेणी मे वे लोग आएंगे "”जिनके वक्ष भी है और लिंग भी "”” ऐसे उभय लिंगी पाकिस्तान की परिभाषा के अनुसार किन्नरो की श्रेणी मे नहीं आते है |