खुशी
और मज़ा मे फंसे लोगो के सुख
और आनंद का अर्थ ?
1964
की बात
है इंटरमीडियेट की परीक्षा
के बाद अपने नाना के साथ ऋषिकेश
गए हुए थे | लक्ष्मन
झूला के गीता भवन मे स्वामी
शर्णानन्द का प्रवचन सुना
,वे
दिव्यानन्ध थे |
उन्होने
बाते की कलकते की एक महिला ने
उनसे कहा की स्वामी जी आज के
प्रवचन मे तो बस मज़ा आ गया |
तब
उन्होने कहा की बेटी प्रवचन
मे कैसा मजा ?
उसने
कहा की आप ने जो उपदेश परिवार
के दायित्वों के बारे मे बताया
, उसे
सुन कर मन गदगद हो गया |
उनका
उस दिन का प्रवचन खुशी और मज़ा
तथा सुख और आनंद की व्याख्या
करने पर केन्द्रित रहा |
जब
प्रदेश शासन ने "”आनंद
'' मंत्रलाय
बनाए जाने की घोसणा की तब मुझे
उनका प्रवचन याद आ गया |
शिवराज
सिंह जी का उद्देश्य आनंद को
उसके आध्यात्मिक अर्थ मे
व्यक्ति को सुलभ कराने की
कोशिस हो सकती है |
परंतु
इस प्रयास को '''राजसत्ता''
द्वारा
प्रायोजित किया जाना क्या
राजधर्म और सर्वधर्म समभाव
होगा ??
राज्य
नागरिकों को सुरक्षा -
स्वास्थ्य
- शिक्षा
-रोजगार
सुलभ कराये , वनहा
तक तो बात तर्क संगत है |
परंतु
आध्यात्मिक पहलू पर प्रयास
से पूर्व भूख --बेरोजगारी
और बेईमानी से नागरिकों को
मुक्ति दिलाना ज़रूरी है |
जब
राज्य की एक चौथाई जनता गरीबी
की रेखा के नीचे हो ,
जब हम
चालीस फीसदी जनसंख्या को शुद्ध
पेय जल सुलभ करने मे असफल रहे
--तब
आनंद की बात करना नाइंसाफी
ही है |
हर
नागरिक के आनंद का केंद्र फर्क
- फर्क
होता है , मसलन
मदिरा के प्रेमियो को तो बोतल
मे ही सब कुछ दिखाई देता है |
भोजन
भट्ट को मुर्गा आदि मे सुख
मिलता है | स्वामी
शरणानन्द जी के शब्दो मे "”
मज़ा
""शारीरिक
होता है | जैसे
स्वादिस्ट भोजन करते समय होता
है | उसके
उपरांत व्यक्ति को खुशी मिलती
है | परंतु
सुख और दुख का संबंध "”भावनाओ
"” से
होता है | जैसे
विवाह - संतान
की प्राप्ति आदि के पश्चात
की अनुभूति को सुख की परिधि
मे रखा जा सकता है |
परंतु
"”आनद"”
तो
व्यक्ति को योग -
समाधि
आदि जैसी क्रियाओ के पश्चात
ही प्राप्त होता है |
क्या
ऐसा आनंद कोई सरकारी प्रयास
सुलभ करा सकता है ?
क्योंकि
आनंद के लिए व्यक्ति को खुद
को ही तपाना पड़ता है --वह
किसी अन्य के प्रयासो से संभव
नहीं सरकार के प्रयासो से भी
नहीं |
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