यह कहावत खुदरा छेत्र में विदेशी निवेस के मामलें में पूरी तरह से फिट ,बैठती हैं ।यह इसलिए लिख रहा हुईं की इस मुद्दे पर राजनैतिक दलों का ""पाखंड ""स्पस्ट रूप से सिद्ध होता हैं ।हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में विरोधी दल के नेता के रूप में भी ""इस प्रस्ताव ""का मुखर विरोध किया था , जिसका वे आज जी -जान से न केवल समर्थन करते हैं वरन इस मुद्दे को उन्होने अपनी और पार्टी की प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया हैं ।अब यह जग जाहिर हो गया हैं की जब तक राजनैतिक दल विरोध में रहते हैं तो जिन मुद्दों को वे देश के लिए ""नुकसानदेह '''मानते हैं ,वे ही देश की जनता के लिये ''अमृत '' बन जाते हैं जब वे ''सत्ता की कुर्सी पर काबिज'' हो जाते हैं .।इस तथ्य को हम आज की परिस्थिति में पूर्ण रूप से सही पाते हैं ।1998---2004 में जब वे राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी के नेता के रूप में कार्यरत थे तब उन्हे फुटकर व्यापार में विदेसी निवेस खतरनाक लगता था , आज वही देश की ''आर्थिक ''उन्नति के लिए अपरिहार्य लगता हैं !हैं न अचरज की बात ,,दूसरी और भारतीय जनता पार्टी जो आज इस विषय को करोडो व्यापारियो के धंधे के लिए खतरा बताता हैं ,,उसकी सरकार ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 2002 में इस छेत्र में 100% विदेसी निवेश की सिफारिस की थी ।सवाल देश की जनता का यह हैं की वाजपेयी सरकार का प्रस्ताव किस अर्थ में आज के मसौदे से भिन्न था ?
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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari
Sep 26, 2012
खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का भद्दा सच
खुदरा व्यापर में विदेशी निवेश की मनमोहन सिंह की नीति का सबसे बड़ा राज यह हैं की विरोध में बैठे हुए उन्होने राज्य सभा में इसी प्रस्ताव को भारत के लिए नुकसानदेह बताया था । वंही आज जब वे प्रधान मंत्री बन गए तब उन्हे वही प्रस्ताव देश की आर्थिक उन्नति के लिए सबसे फायदेमंद बता रहे हैं ।लेकिन केवल कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री ही इस पाखंड के लिए जिम्मेदार हो ऐसा नहीं हैं , भारतीय जनता पार्टी और nda के उसके सहयोगी दलों ने भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी इस प्रस्ताव पर शत -प्रतिशत विदेशी निवेश का प्रस्ताव लाये थे ।कम से कम कांग्रेस सरकार ने शत -प्रतिशत विदेशी निवेश की जगह मात्र सत्तर प्रतिशत की ही भागीदारी की अनुमति दी हैं ।
यह हैं भारत के राजनैतिक दलों का चारित्र ---यानि विरोध केवल इसलिए करना चूँकि सम्बंधित '''मुद्दा'''' उन्होने नहीं उठाया हैं , इस तथ्य से कोई मतलब नहीं की कोई नीति या मुद्दा देश या यंहा की जनता के लिए लाभप्रद हैं .,अथवा हानिकारक ? यह इस एक तथ्य से स्पष्ट हैं की वही राजनैतिक दल जो एक समय फुटकर व्यापार में विदेशी निवेश के समर्थक थे वे आज पाला बदल जाने से अपने रुख से बदल गए ।क्या इसे राजनैतिक ""ईमानदारी ""कह सकते हैं ? या राजनैतिक दलों की "अवसरवादिता ""अथवा हठ धर्मिता कहा जाए ? इस से एक बात तो साफ़ होती हैं की इन दलों या इनके नेताओ को आम जनता की कोई परवाह नहीं हैं ।बस येन -केन प्रकारेण उनके लिए जरूरी हैं बस '''सत्ता '' ! इस एक उदा हरण से यह बात साफ़ हो जाती हैं ।
अब बात की जाए झगडे की जड़ की --यानी ''वालमार्ट ''जैसी अनेक बड़ी कंपनियों के खुदरा व्यापार में भागीदारी की । यंहा यह भी जानना जरूरी हैं की ये वही कंपनी हैं जो न्यू योर्क और वाशिंग टन में ''अछूत '' मानी जाती हैं यही कारन हैं की दुनिया के इन दो बड़े महानगरो में वालमार्ट के एक भी '''माल ''' नहीं हैं ., हैं न अचरज की बात ! इतना ही नहीं यूरोप के अनेक देशो में भी वालमार्ट के विरुद्ध आन्दोलन हुए हैं ।जिसके फलस्वरूप इस मल्टी नेशनल को अपना बोरिया --बिस्तर लेकर वापस अमेरिका जाना पड़ा ।आखिर ऐसा क्या हैं जिस के कारन इनको जनता का ""कोपभाजन '''बनना पड़ा ?वास्तव में जो दावा किया जाता हैं की इनके आने से लाखो लोगो को नौकरियां मिलेगी और उपभोक्ता को सस्ता सामान मिलेगा , वह एक मिथक भर हैं सचाई नहीं . ।उदहारण के लिए आज मुंबई और दिल्ली के जो बड़े -बड़े ''माल '' हैं उनमें कितने लोगो को नौकरियां मिली हैं .? उसे अगर देखा जाए तो अमूमन एक औसत दर्जे के माल में ''सेल्स ''के छेत्र में सिक्यूरिटी आदि मिला कर भी एक हज़ार आदमियों को काम नहीं मिलता ।फिर किस प्रकार '''लाखो ''नौकरियों और काम के अवसरों का दावा किया जाता हैं ।यंही कारन हैं की वालमार्ट आपने ही देश में अछूत बना हुआ हैं ,क्योंकि आप सब को धोखा दे सकते हैं पर जन्हा आप पले और बड़े हुए हैं वंहा के लोगो से सच नहीं छुपा सकते हैं । अमेरिका के उन राज्यों में जंहा आबादी कम हैं और वंहा की ''सिटी कौंसिल '''को बस में किया जा सकता हैं उन्ही स्थानों में इनकी दाल गली हैं ,बाकी जगह नहीं ।ऐसी स्थिति में क्या केंद्र की इस नीति का समर्थन करना चहिये ?एक सवाल हैं जिस पर हम सभी को सोचना चहिये ।
यह हैं भारत के राजनैतिक दलों का चारित्र ---यानि विरोध केवल इसलिए करना चूँकि सम्बंधित '''मुद्दा'''' उन्होने नहीं उठाया हैं , इस तथ्य से कोई मतलब नहीं की कोई नीति या मुद्दा देश या यंहा की जनता के लिए लाभप्रद हैं .,अथवा हानिकारक ? यह इस एक तथ्य से स्पष्ट हैं की वही राजनैतिक दल जो एक समय फुटकर व्यापार में विदेशी निवेश के समर्थक थे वे आज पाला बदल जाने से अपने रुख से बदल गए ।क्या इसे राजनैतिक ""ईमानदारी ""कह सकते हैं ? या राजनैतिक दलों की "अवसरवादिता ""अथवा हठ धर्मिता कहा जाए ? इस से एक बात तो साफ़ होती हैं की इन दलों या इनके नेताओ को आम जनता की कोई परवाह नहीं हैं ।बस येन -केन प्रकारेण उनके लिए जरूरी हैं बस '''सत्ता '' ! इस एक उदा हरण से यह बात साफ़ हो जाती हैं ।
अब बात की जाए झगडे की जड़ की --यानी ''वालमार्ट ''जैसी अनेक बड़ी कंपनियों के खुदरा व्यापार में भागीदारी की । यंहा यह भी जानना जरूरी हैं की ये वही कंपनी हैं जो न्यू योर्क और वाशिंग टन में ''अछूत '' मानी जाती हैं यही कारन हैं की दुनिया के इन दो बड़े महानगरो में वालमार्ट के एक भी '''माल ''' नहीं हैं ., हैं न अचरज की बात ! इतना ही नहीं यूरोप के अनेक देशो में भी वालमार्ट के विरुद्ध आन्दोलन हुए हैं ।जिसके फलस्वरूप इस मल्टी नेशनल को अपना बोरिया --बिस्तर लेकर वापस अमेरिका जाना पड़ा ।आखिर ऐसा क्या हैं जिस के कारन इनको जनता का ""कोपभाजन '''बनना पड़ा ?वास्तव में जो दावा किया जाता हैं की इनके आने से लाखो लोगो को नौकरियां मिलेगी और उपभोक्ता को सस्ता सामान मिलेगा , वह एक मिथक भर हैं सचाई नहीं . ।उदहारण के लिए आज मुंबई और दिल्ली के जो बड़े -बड़े ''माल '' हैं उनमें कितने लोगो को नौकरियां मिली हैं .? उसे अगर देखा जाए तो अमूमन एक औसत दर्जे के माल में ''सेल्स ''के छेत्र में सिक्यूरिटी आदि मिला कर भी एक हज़ार आदमियों को काम नहीं मिलता ।फिर किस प्रकार '''लाखो ''नौकरियों और काम के अवसरों का दावा किया जाता हैं ।यंही कारन हैं की वालमार्ट आपने ही देश में अछूत बना हुआ हैं ,क्योंकि आप सब को धोखा दे सकते हैं पर जन्हा आप पले और बड़े हुए हैं वंहा के लोगो से सच नहीं छुपा सकते हैं । अमेरिका के उन राज्यों में जंहा आबादी कम हैं और वंहा की ''सिटी कौंसिल '''को बस में किया जा सकता हैं उन्ही स्थानों में इनकी दाल गली हैं ,बाकी जगह नहीं ।ऐसी स्थिति में क्या केंद्र की इस नीति का समर्थन करना चहिये ?एक सवाल हैं जिस पर हम सभी को सोचना चहिये ।
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