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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 11, 2015

कोचिंग आईआईटी और आईआईएम के छात्रो मे शोध की सोच समाप्त कर देती है

  आईआईटी और आईआईएम की कोचिंग छात्रो को शोध  की सोच समाप्त कर देती है---

                  इन्फोसिस  के जनक   नारायण मूर्ति  ने एक बयान मे  देश के कोचिंग संस्थानो पर हमला करते हुए कहा की आईआईटी और आईआईएम  की प्रतियोगिता  के लिए इन संस्थानो  द्वारा जिन तरक़ीबों  का प्रयोग किया जाता है ,, उनसे बच्चो  ने पूछने और सोचने की तार्किक  बुद्धि समाप्त हो जाती है | फलस्वरूप वे जब  अपने संस्थानो मे अध्ययन  के लिए आते है ,,तब उनमे कुछ नया सोचने या करने की छमता नहीं बचती | परिणाम यह होता है की वे  कुछ भी नया करने का सोच ही नहीं पाते | इसीलिए कुछ नया शोध  नहीं हो पा रहा है | इसीलिए  ये संस्थान  अब कुछ भी नया  देश या समाज को नहीं दे पा रहे है | यह सही है की  सरकार इन संस्थानो के छात्रो पर करोड़ो रुपये खर्च करती है | परंतु  यहा से पास हुए छात्र  या तो मल्टी  नेशनल कंपनी मे  चले जाते है और प्रतिभावन  लोग विदेश मे जा कर बस जाते है |
                  प्रोफ  यशपाल  ने भी कुछ समय पहले कहा था की हमारे संस्थानो मे कुछ भी नया  नहीं हो रहा है | इसका कारण ‘’रट्टन्त””  है अर्थात  वे रट कर विषय  पढते है | समझ कर नहीं | जिसके कारण उनकी पूछने की छमता  खतम हो रही है | जिसके कारण कुछ भी नया हमारे कैम्पस  से नहीं निकल रहा है ,, सिर्फ डिग्री धारी  ही निकल रहे है | जो उतना ही जानते है जितन उनको पढाया गया है | जबकि अपेक्षा थी की इन संस्थानो मे  पड़ने वाले  कुछ नया करने की सोच रखेंगे | परंतु  कोचिंग से  प्रतियोगिता मे सफल होने के बाद उनका  सारा ध्यान कैम्पस सेलेक्सन  की ओर रहता है | उनके सीनियर्स  या पीयर्स  भी उनकी प्लेसमेंट की महत्वकाँछा को ही हवा –पानी  देते है |
           वैसे  छात्रो के माता-पिता  अपने बच्चो पर  इन संस्थानो की प्रतियोगिता मे सफल होने के लिए इतना ‘’’’मानसिक दबाव ‘’’’ बना देते है की वह अपनी ओर से कोई निरण्य नहीं ले पता |  बिलकुल ‘’थ्री ईडियट ‘’’ फिल्म के पात्रो की भांति |  अगर इस कोचिंग की बुराई के जड़ मे जाये तो अभिभावक  ही बच्चो को कोचिंग मे भेजने के जिम्मेदार है | वे अपने सहकर्मी – मित्रा –या संबंधी से सुन कर किसी कोचिंग के बारे रॉय बनाते है |  इस मामले मे  ‘’’कहा सुना प्रचार ‘’’ ही ज्यादा काम आता है | शत –प्रतिशत  अभिभावक  स्वयं इतने विषय  पारंगत नहीं होते की वे कोचिंग की ‘’फ़ैकल्टी ‘’ की योग्यता को परख सके | अधिकतर  जो लोग इन्हे पढाते है वे “””ज्ञान “”” नहीं देते वरन सफल होने की टिप देते है | कुछ कोचिंग वाले तो अपनी   दूकान चलाने  के लिए  ‘’’पतियोगिता का प्रश्न पत्र “”” तक  लीक कराते है –जिस से की उनके यहा के छात्रो  का सफलता प्रतिशत  अन्य कोचिंग की तुलना मे अधिक हो || जिस से की परिणाम आने के बाद  वे समाचार पात्रो  मे फूल पेज  विज्ञापन देते है जिसमे सफल हुए लोगो की रैक और चित्र छापते है |  सौ मे से अगर सात –आठ भी सफल हो गए तो  वे फिर  क्रैश  कोर्स  – तीन माह का और एक साल का या दो साल के कोर्स भी बताते है | जीतने कम समय  का कोर्स  उतन्नी ज्यादा  रकम फीस के रूप मे ली जाती है |
       एक कोचिंग वाले ने स्वीकार किया की  हम कोर्स  नहीं पढाते हम तो  प्रतियोगिता के  संभावित  प्रश्नो  के ‘’’उचित’’’ उत्तर  बताते  है | जिस से की वह  अधिक से अधिक  नंबर लाकर  मेरिट मे स्थान पा जाए |  किसी भी विषय मे सैकड़ो प्रश्न  पूछे जा सकते है ---परंतु  ओब्जेक्टिव  प्रणाली ने परीक्षक  का काम आसान कर दिया है | विज्ञान आय प्रबंधन मे  इस प्रणाली से “”” केवल सही और गलत “”” का उत्तर होता है | जबकि काले –सफ़ेद के अलावा ज्ञान के छेत्र मे ग्रे  एरिया भी होता जिसके बारे उसे कुछ भी नहीं पट होता | क्योंकि उस ओर उसे देखने ही नहीं दिया जाता है | जबकि प्रश्न करने पर ही छात्र उनके उत्तर का प्रयास करेगा ---तभी तो वह ---इस लीक से हट कर सोचेगा और कुछ नया करे की कोशिस करेगा |
  परंतु अरबों रुपये वाले इस धंधे को चलाने वाले  जब –जब कोचिंग पर रोक का सरकार मन बंता है तब सरकार एक बयान देकर चुप हो जाती है | यही बात हमारे पूर्व राष्ट्रपति  भी अपने दीक्षांत  भासन मे कह चुके है की ---छात्रो को संभोधित करते हुए उन्होने कहा था की “””” आप लोगो को समझना चाहिए की  सरकार और समाज का बहुत क़र्ज़  आप पर है | जिसे आपको चुकाना है |  शिलांग से पूर्व अपने एक भासन मे कहा था की हमे अगल – बगल की तस्वीर बदलने के लिए अर्जित ज्ञान का उपयोग करना चाहिए | तभी हम देश क़र्ज़ चुका पाएंगे |       कोचिंग की यह बीमारी हुमे झूठी दिलासा देती है –प्रथम स्थान के सपने दिखाकर  वे सौ मे से सात बचो की सफलता भुनाते है वह  उनके दावो की पोल खोलता है | परंतु सेकंड चान्स की मानसिकता माता –पिता की जीवन भर की पूंजी खा जाती है | सरकार निजी कालेजो की फीस पर तो नियंत्रण तो कर नहीं प रही –क्योंकि उनमे अनेक ‘’’राजनीतिक नेताओ ‘’’का पैसा लगा है | कर्नाटका –महाराष्ट्र  मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश  शामिल है|जबकि  इंका सेंटर आजकल राजस्थान का ‘’कोटा’’ है | जनहा सभी दौड़े चले जा रहे है | कोई भी कोचिंग स्थायी फकल्टी नहीं रखता है प्रति लेक्चार महनतना दिया जाता है | उनकी योग्यता भी नहीं बताई जाती जब ब्रौचर दिया जाता है ||

आज व्यापम और डी मैट जैसे प्रतियोगिताओ मे किस प्रकार की धधली हुई है की चालीस से ज्यादा लोगो की मौत हो चुकी है और अब सुप्रीम कोर्ट  ने सीबीआई को सारे मामले की जांच को कहा है |शिक्षा  को ‘’धंधा’;’’’ बनाने वाले इन संस्थानो की भी जांच होनी चाहिए || हा इस बदबोदर कीचड़ मे भी एक फूल है  वह है पटना का टी 30 जिसमे पैसे के बल मे कोई भर्ती नहीं हो सकता | सामाजिक स्थिति ही वह निर्णायक है |

सती प्रथा के पश्चात संथारा को गैर कानूनी

 सती प्रथा  के पश्चात संथारा को गैर कानूनी बनाना उचित ?

   विलियम  बेनटिक ने ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर गेनरल के रूप मे 19वी सदी के प्रथम भाग मे “”” सती प्रथा “”” को गैर कानूनी घोषित किया था | राजा राम मोहन रॉय  ने 1820 मे कलकत्ता मे ब्रामहो समाज की स्थापना की थी | जिसका उद्देस्य  वेदिक धर्म मे पनपी कुरीतियो  को समाप्त करना था | उस समय जाति को लेकर ज्झूठी  शान और –अहंकार  से वहा  का ब्रामहण समाज  ओत – प्रोत था | ऊंची जाति मे पहचान बनाने के लिए  लोग बच्चियो की शादी उनके बाबा के उम्र वाले लोगो के साथ कर देते थे | जिसका परिणाम होता था की एक बुढऊ के परलोक गमन से तीन –चार स्तरीय विधवा हो जाती थी | परिवार वाले उन्हे ‘’अपशकुन ‘’’’मानने के कारण उन्हे काली घाट या बेनारस अथवा मथुरा ले जाकर छोड़ आते थे |  परिणाम यह होता था की इन धार्मिक स्थानो के पंडे - – पुजारी  इन महिलाओ का शोसन किया करते थे | अधिकान्स्तः  या तो भीख मांगने  अथवा वेश्यव्रती करने पर मजबूर होती थी |
                   अनेक स्थानो पर उच्च कुल के ब्रम्हाणो के साथ नयी पत्नी को सती भी करने की प्रथा थी | इस प्रथा का विरोध करने पर तत्कालीन पंडे-पुजारी  लोगो की धार्मिक भावना भड़काते थे |सुधार वादी लोग मारे पीते जाते थे और अधिकतर घटनाओ मे मौते भी हुई | विधवा स्त्री को ''भांग ''''पिलाकर""" सबके सामने सर हिला कर सती होने के लिए उसकी ''सहमति''' का प्रचार किया जाता | यद्यपि वेदिक धर्म मे सती परंपरा का कोई उल्लेख नहीं है  ना ही कोई प्रमाण |  हा मध्य काल मे  राजपूतो की महिलाओ ने  मुगलो से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए  अग्नि मे समा कर जान देना अधिक उचित माना | पुराणो मे भी ''' अग्नि मे प्राण देने का उल्लेख नहीं है |महाभारत मे माद्री द्वारा  महाराज पांडु के देहावसान  पर सती होने का उल्लेख है | परंतु युद्ध मे वीरगति प्राप्त कौरव वीरों की पत्नियों द्वारा अग्नि  प्रवेश का उल्लेख नहीं मिलता |विदेशी हमलावरो से इज्ज़त की रक्षा सनातन धर्म मे अत्यंत महत्वपूर्ण कहा गया है | यही घुट्टी कन्याओ को पीटीआई की ज्यादतिया सहने पर मजबूर करती थी | फिर विधवा को असगुन और कलंक मानकर घर से बाहर करदेना सनातन धर्म मे मानने वालों मे आम धारणा थी |  परंतु क्या सती प्रथा ''धार्मिक'''' है ? इस पर आज 21वी सदी मे कोई भी सहमत नहीं होगा | सिवाय उनके जो आज भी ""धर्म """ के नाम पर दक़ियानूसी  रिवाजो को चलना छाते है |

            संथारा भी  जैन मत की एक परंपरा है जिसमे  आयु एवं रोग के कारण जर्जर  शरीर को उपवास करके छोड़ने की प्रक्रिया करता है | वैसे यह प्रत्येक व्यक्ति का निर्णय है की वह जीवन कैसे जिये ---परंतु जीवन को '''अंत'' करने की अनुमति  राज्य नहीं देता है | वह उसे ''अपराध की श्रेणी मे रखता है |  राजस्थान उच्च न्यायालय  द्वारा  के मुख्य न्यायाधीश  अंबवानी और जज  अजित सिंह द्वारा इस प्रथा को  भारतीय दंड संहिता  की धारा 306 के अंतर्गत ''आत्महत्या के लिए उकसाना माना है | चूंकि  इस फैसले से जैन समाज मे रोष है और वे इसे धार्मिक पारम्पराओ मे हस्तछेप मानते है | परंतु चाहे हिन्दू कोड बिल हो या --शहबानों  प्रकरण हो अथवा मौजूदा मामला हो  सुप्रीम कोर्ट  मे ही निपटारा होता है || इसलिए नहीं की ''वह सही होता है '''''''वरन इसलिए की सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अपील नहीं कोटी """|