सती प्रथा के पश्चात संथारा को गैर कानूनी बनाना उचित ?
विलियम बेनटिक ने ईस्ट
इंडिया कंपनी के गवर्नर गेनरल के रूप मे 19वी सदी के प्रथम भाग मे “”” सती प्रथा “””
को गैर कानूनी घोषित किया था | राजा राम
मोहन रॉय ने 1820 मे कलकत्ता मे ब्रामहो समाज
की स्थापना की थी | जिसका उद्देस्य वेदिक धर्म मे पनपी कुरीतियो को समाप्त करना था | उस समय
जाति को लेकर ज्झूठी शान और –अहंकार से वहा का
ब्रामहण समाज ओत – प्रोत था | ऊंची जाति मे पहचान बनाने के लिए लोग बच्चियो की शादी उनके बाबा के उम्र वाले लोगो
के साथ कर देते थे | जिसका परिणाम होता था की एक बुढऊ के परलोक
गमन से तीन –चार स्तरीय विधवा हो जाती थी | परिवार वाले उन्हे
‘’अपशकुन ‘’’’मानने के कारण उन्हे काली
घाट या बेनारस अथवा मथुरा ले जाकर छोड़ आते थे | परिणाम यह होता था की इन धार्मिक स्थानो के पंडे
- – पुजारी इन महिलाओ का शोसन किया करते थे
| अधिकान्स्तः या तो
भीख मांगने अथवा वेश्यव्रती करने पर मजबूर
होती थी |
अनेक स्थानो पर उच्च कुल के ब्रम्हाणो
के साथ नयी पत्नी को सती भी करने की प्रथा थी | इस प्रथा का विरोध करने पर तत्कालीन पंडे-पुजारी लोगो की धार्मिक भावना भड़काते थे |सुधार वादी लोग मारे पीते जाते थे और अधिकतर घटनाओ मे मौते भी हुई | विधवा स्त्री को ''भांग ''''पिलाकर"""
सबके सामने सर हिला कर सती होने के लिए उसकी ''सहमति''' का प्रचार किया जाता | यद्यपि वेदिक धर्म मे सती परंपरा
का कोई उल्लेख नहीं है ना ही कोई प्रमाण | हा मध्य काल मे राजपूतो की महिलाओ ने मुगलो से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए अग्नि मे समा कर जान देना अधिक उचित माना | पुराणो मे भी ''' अग्नि मे प्राण देने का उल्लेख नहीं
है |महाभारत मे माद्री द्वारा महाराज पांडु के देहावसान पर सती होने का उल्लेख है | परंतु युद्ध मे वीरगति प्राप्त कौरव वीरों की पत्नियों द्वारा अग्नि प्रवेश का उल्लेख नहीं मिलता |विदेशी हमलावरो से इज्ज़त की रक्षा सनातन धर्म मे अत्यंत महत्वपूर्ण कहा गया
है | यही घुट्टी कन्याओ को पीटीआई की ज्यादतिया सहने पर मजबूर
करती थी | फिर विधवा को असगुन और कलंक मानकर घर से बाहर करदेना
सनातन धर्म मे मानने वालों मे आम धारणा थी | परंतु क्या सती प्रथा ''धार्मिक'''' है ? इस पर आज 21वी सदी मे कोई भी सहमत नहीं होगा | सिवाय उनके जो आज भी ""धर्म """ के नाम पर दक़ियानूसी
रिवाजो को चलना छाते है |
संथारा भी जैन मत की एक परंपरा है जिसमे आयु एवं रोग के कारण जर्जर शरीर को उपवास करके छोड़ने की प्रक्रिया करता है | वैसे यह प्रत्येक व्यक्ति का निर्णय है की वह
जीवन कैसे जिये ---परंतु जीवन को '''अंत'' करने की अनुमति राज्य नहीं देता है
| वह उसे ''अपराध की श्रेणी मे रखता है
| राजस्थान उच्च न्यायालय
द्वारा के मुख्य न्यायाधीश अंबवानी और जज अजित सिंह द्वारा इस प्रथा को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत ''आत्महत्या
के लिए उकसाना माना है | चूंकि इस फैसले से जैन समाज मे रोष है और वे इसे धार्मिक
पारम्पराओ मे हस्तछेप मानते है | परंतु चाहे हिन्दू कोड बिल हो
या --शहबानों प्रकरण हो अथवा मौजूदा मामला
हो सुप्रीम कोर्ट मे ही निपटारा होता है || इसलिए
नहीं की ''वह सही होता है '''''''वरन इसलिए
की सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अपील नहीं कोटी """|
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