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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Nov 29, 2017

आखिरकार प्रधानमंत्री के मन की बात सुप्रीम कोर्ट मे केंद्र की दलील के रूप मे
आ ही गयी !
दिल्ली विधान सभा के चुनावो मे --''देश विजेता को मिली पैदली मात "”ही
अरविंद केजरीवाल सरकार को ''बिजूका ''बना कर रख देना चाहती है
दिल्ली सरकार को कार्यकारी शाक्तिया देना राष्ट्रीय हित मे नहीं !!
अर्थात दिल्ली सरकार सिर्फ एक बिजूका भर ही है --राज़ तो केंद्र ही करेगा ??
जबकि केंद्र को '''सीधे शासन ''' करने का अधिकार ही नहीं है ???



कहावत है की '''खैर --खून – खांसी --खुशी ''' कभी छिपती नहीं है | 2014 मे हुए लोकसभा चुनावो मे "”दिग्विजयी "” परचम फहराने के बाद – ही दिल्ली विधान सभा के सम्पन्न चुनावो मे भारतीय जनता पार्टी के अश्वमेघ घोड़े को दिल्ली विधान सभा चुनावो मे आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने ना केवल रोका --वरन बांध भी लिया | नरेंद्र मोदी को अपने "”प्रचार तंत्र और साधनो की प्रचुरता "” पर पूरा भरोसा था --- की इस पिद्दी से इलाके को तो मुट्ठी मे करना कोई चुनौती नहीं है | हालांकि इस सोच के बाद भी उन्होने "”धुआधार "” प्रचार और रोड शो तथा रैली मे भीड़ जुटाकर लोगो को ''यह एहसास दिलाने मे सफल रहे की मैदान -उनका ही है | परंतु मतदान की पेटी से निकले परिणाम ने उनके गुरूर को चूर -चूर कर दिया | यहा तक की बीजेपी को मात्र तीन सीट ही मिली !! जो की सदन नेता प्रतिपक्ष के लिए भी नाकाफी था | उसके लिए उन्हे 9 सीट ज़रूरी थी !! जिससे बीजेपी 6 सीट कम थी | बस उस दिन इस भयंकर पराजय ने ना केवल उनके '''दिग्विजयी ''' होने के भ्रम को तोड़ दिया -वरन पार्टी मे यह कहा जाने लगा -की लोकसभा की जीत '''संघ और बीजेपी ''' की सम्मिलित परसो का परिणाम है -----नरेंद्र मोदी का "”अकेले का नहीं "” |

बस उसी दिन से अरविंद केजरीवाल की सरकार को गिराने के लिए "”कानूनी और राजनीतिक शिकंजो "” की शुरुआत हो गयी |
जो इस सीमा तक जी गयी की देश को लगने लगा की दिल्ली मे जनता की चुनी हुई सरकार नहीं है | बल्कि वह केंद्र शासित एक "”परगना ''मात्र भर है | जनहा जनता की चुनी हुई सरकार का "”हुकुम ''' नहीं लेफ्टिनेंट गवेर्नर का राज़ है !!!!
आखिरकार दिल्ली सरकार ने अपने अधिकारो की लड़ाई के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया |
सुप्रीम कोर्ट मे जब लेफ्टिनेंट गवर्नर और निर्वाचित सरकार के अधिकारो की सीमा रेखा पर सरकार से जवाब मांगा गया --तब अतिरिक्त सलिसीटर जनरल मानिंदर सिंह ने अदालत को बताया दिल्ली सरकार के पास विशिष्ट कार्यकारी शाक्तिया नहीं है !! उन्होने लेफ़्टि गवर्नर को राज्यपाल समान नहीं हो सकते | उन्होने दलील दी की "”ओहदे से दर्जे मे बदलाव नहीं हो जाता है "” ||संघ शासित छेत्र राष्ट्रपति के अधीन होता है !! इन शक्तियों को दिल्ली के संदर्भ मे कम नहीं किया जा सकता !! दिल्ली सरकार के पास विशिष्ट कार्यकारी शक्तिया नहीं है --- इस तरह की शक्तिया प्रदान करना राष्ट्रिय हित मे नहीं है !!!

केंद्र की इस दलील मे एक बड़ी खामी है ---की दिल्ली की विधान सभा को संवैधानिक दर्जा प्राप्त है | दिल्ली को विधान सभा का दर्जा देते समय "””केंद्र और राज्य "”के अधिकारो मे बंटवारा हुआ था | जिसके अनुसार ---दिल्ली पुलिस --दिल्ली के राजस्व मामले पर विधान सभा कानून नहीं बना सकेगी | शेष मामलो मे राजय सरकार स्वतंत्र होगी | केंद्र के इशारो पर एलजी ने केजरीवाल सरकार के फैसलो पर अड़ंगे लगाना शुरू कर दिया | हालत इतनी बिगड़ी की जो अधिकार शीला दीक्षित या सुषमा स्वराज अथवा बीजेपी सरकारो को थी वे भी केजरीवाल सरकार को नहीं दी गयी | यहा तक शिक्षा और स्वास्थ्य तथा पेयजल के मामले भी एलजी लटकाने लगे |
तब इस विवाद को सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजो वाली संवैधानिक पीठ मे पहुंचा | जनहा मोदी सरकार ने अपना पुराना कवच "””राष्ट्रीय हित"”” का नारा बुलंद किया |

Nov 19, 2017

अर्श से फर्श तक पहुंचे --- राष्ट्र नायक बने खलनायक
इन्डोनेशिया के सुकर्णो और जिम्बावे के रोबर्ट मुगाबे

अपने देश को विदेशी दासता से मुकि दिलाने वाले सुकर्णो और मुगाबे की कहानी
लगभग एक जैसी ही है | वे स्वतन्त्रता संघर्ष के अगुआ और पराधीन देश वासियो के लिए आशा की किरण थे | परंतु सत्ता ने उनके सारी कुर्बानियों को धूमिल कर दिया | सत्ता के माध्यम से से विरोधियो को समाप्त करने की उनकी कोशिस ने धीरे -धीरे उन्हे राष्ट्र नायक से खलनायक बना दिया |

वर्तमान इन्डोनेसिया के जावा प्रांत मे स्कूल अध्यापक के यानहा सुकर्णो का जन्म 1901 मे हुआ था | उस समय उनका देश डच {{नीदरलैंड}} की गुलामी मे था | सुकर्णो ने उनके विरुद्ध लड़ाई छेड़ी हुई थी | डच सरकार ने उनको जेल मे ड़ाल दिया था | दूसरे महायुद्ध मे जापानियों ने इन्दोनेसिआ पर क़ब्ज़े के बाद सुकर्णो को जेल से मुक्ति दिलाई 1944 मे | उन्होने 17 अगस्त 1945 को देश की बागडोर सम्हाली | संसदीय लोकतन्त्र मे उन्होने वामपंथियो की हत्या करवाना शुरू किया था |और 1957 मे उन्होने संसदीय लोकतन्त्र को एक प्रकार से समाप्त ही कर दिया | परंतु देश की आर्थिक और ---वित्तीय स्थिति बदतर होती गयी | अंततः फौज ने जनरल सुहारतों के नेत्रत्व मे सत्ता सम्हाल ली | एवं अपने ही राष्ट्र नायक को राष्ट्रपति निवास मे नज़रबंद कर दिया | 1967 मे उन्होने अंतिम सांस ली | 22 साल सत्ता के शीर्ष पर रहने के बाद भी उन्हे देशवासियों ने ठुकरा दिया |

कुछ ऐसा ही जिम्बावे के रोबर्ट मुगाबे के साथ हुआ उनका जनम 1924 |को हुआ था | गोरो की गुलामी से देश को आज़ादी दिलाने के वे अगुआ थे | 1980 से 1987 तक वे प्रधान मंत्री रहे | बाद मे वे संविधान बदल कर राष्ट्रपति दो बार राष्ट्रपति बने | उन्होने ने भी अपने विरोधियो को फ़िफ्थ ब्रिगेड से लगभग हजारो लोगो की हत्या करवाई | 2018 के चुनाव मे वे अपनी तीसरी पत्नी ग्रेस को राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे | जिसका देश मे बहुत विरोध था |
फलस्वरूप 16 नवंबर को फौज ने उन्हे भी राष्ट्रपति आवास मे नज़रबंद कर दिया | ज़िम्बावे अफ्रीकन नेशनल यूनियन पार्टी --जिसके वे नेता थे ,,उसने भी दो दिन बाद बैठक कर के उनके विरुद्ध ''अविश्वास प्रस्ताव "” पारित कर,, उन्हे पदमुक्त कर दिया | ऐसा ही प्रस्ताव अन्य प्रांतो की भी इकाइयो ने पास कर दिया | अब फौज उनसे शांति से पद छोडने का आग्रह कर रही है | इसके बदले उनके खिलाफ गबन और अव्यवस्था के आरोप मे मुकदमे नहीं नहीं क्नलने की गारंटी देने का सुझाव दिया है | उन्होने भी चुनाव के नाम पर धांधली कर के निर्वाचित हुए थे | संसदीय लोकतन्त्र मे उन्होने विपक्षी दलो को सत्ता के सूत्रो और हत्या के जरिये समाप्त करने का कारी किया | जिसके आरोप उनके विरुद्ध लगते रहे है |

इसी लाइन मे कंबोडिया के प्रधान मंत्री हूँ सेन भी आ रहे है | उन्होने प्रमुख विपक्षी दल के नेताओ को पहले तो आरोप लगा कर जेल मे ड़ाल दिया | अब सुप्रीम कोर्ट द्वरा पूरी पार्टी को ही "”देश द्रोही "” करार दिला कर प्रतिबंध लगवा दिया | इस प्रकार उन्होने लोकतन्त्र के स्थान पर चीन के समान "”एकल पार्टी "” शासन कर दिया है | जिसका अंतर्राष्ट्रीय जगत मे बहुत विरोध हो रहा है | अमेरिका की सीनेट ने त्वरित रूप से कंबोडिया पर प्रतिबंध लगाने की सिफ़ारिश की है | गौर तलब है की कंबोडिया का सर्वाधिक निर्यात टेक्सटाइल है --जो की यूरोपियन यूनियन के देशो को होता है | हालांकि चीन ने कंबोडिया सरकार के निर्णय का समर्थन किया है | परंतु यूरोप द्वरा प्रतिबंध लगाने से देश की आर्थिक स्थिति बदतर होने की आशा है | हौंसें भी विगत 30 वर्षो से "”निर्वाचित"” होने का नाटक करते आ रहे है | उनके भी खलनायक बनने की उल्टी गिनती शुरू होने की आशंका है |

Nov 18, 2017

नौकरी के अवसरो पर अवकाश पाये लोगो को अवसर देना ----क्या नौजवान पीढी के साथ अन्याय नहीं ?? सरकारी विभागो के होते हुए उनके काम को ठेकेदारो को देना क्या सरकार की निष्क्रियता नहीं है ? और उसकी प्रशासनिक छमता पर सवालिया चिन्ह नहीं है

नौकरी के अवसरो पर अवकाश पाये लोगो को अवसर देना ----क्या नौजवान पीढी के साथ अन्याय नहीं ?? सरकारी विभागो के होते हुए उनके काम को ठेकेदारो को देना क्या सरकार की निष्क्रियता नहीं है ? और उसकी प्रशासनिक छमता पर सवालिया चिन्ह नहीं है ?

सात हज़ार शिक्षक , और तीन हज़ार डाक्टर , आठ हज़ार पटवारी , नौ सौ नायब तहसीलदार और पुलिस मे तीन हज़ार जवान ----- इतने पद सरकार के खाली होने के बाद भी शासन अगर लंगड़ा नहीं चलेगा तो और क्या होगा ? दूसरी ओर नए आदेश के अनूसार ज़िलो के उपभोक्ता फोरम मे आद्यक्षों के पद रिक्त है , शासन की नयी खनन नीति के अनूसार अब रेत के खनन का अधिकार भी ग्राम पंचायतों को देने का फैसला हुआ है | अब 54 हज़ार गावों के लिए खान विभाग की तकनीकी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी काम करने वालो की आवश्यस्कता है |

अब इस स्थिति की प्रष्ठभूमि मे हम जमीनी हक़ीक़त को देखे ---- पुलिस आरछ्क़ की
और पटवारी सेवा के लिए पोस्ट ग्रेजुएट - बी टेक , एम टेक , एमबीए , और पीएचडी धारक लोगो ने फार्म भरा है | अब यह देखना होगा की स्नातक डिग्री के साथ कम्प्युटर का प्रारम्भिक ज्ञान ही इन पदो की अनिवार्य अहर्ता है | पुलिस की सिपाही के लिए भी इतनी अधिक शिक्षा वाले अभ्यर्थी है | नायाब तहसीलदार के पदो के लिए भी यही हाल होने की उम्मीद है |

आखिर ऐसा क्यो ?? एक तो विश्वविद्यालयो का एकेडमिक कलेंडर बिलकुल भी निश्चित नहीं है | कब परिक्षए होगी ---और कब परीक्षा परिणाम घोषित होगा – यह निश्चित नहीं है | उधर सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन के साथ अंकप्रति देने की अनिवार्यता हजारो छात्रों को आवेदन लायक ही नहीं रखती -----क्योंकि रिज़ल्ट भले ही घोषित हो चुका हो -परंतु अंकप्रति बनने मे माह लग जाते है | सनद {{याने की डिग्री }} पाने मे तो सालो लग जाते है | फिर परीक्षा भी "”योग्य "” छात्रों का भविष्य बर्बाद करने मे लगी है | इसी प्रकार "””प्रतियोगिताए "” भी अब अपनी शुचिता और निसपक्षता खो चुकी है | व्यापाम कांड इसका उदाहरण है | मेडिकल कालेजो मे एमबीबीएस कोर्स मे भर्ती के लिए किस प्रकार माँ सरस्वती {{मेधा -बुद्धि} का अपमान हुआ और माँ लक्ष्मी के सहारे '''अयोग्य'' भी सफल घोषित हुए -और काबिल बच्चे टापते रह गए | क्योंकि उनके माता-पिता 50 लाख या 80 लाख देकर "”भर्ती"” का टिकट नहीं हासिल कर सके |

यद्यपि प्राक्रतिक न्याय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे 60 डाक्टरों की सनद को गैर कानूनी घोषित कर दिया | सुना अब उनके अभिभावक जबलपुर मेडिकल विश्व विद्यालय मे गुहार लगा रहे है |

एक तरफ प्राद्योगिकी संस्थान {{मेडिकल कालेज छोड़कर } सिर्फ छात्रों को भर्ती कर के उन्हे डिग्री के योग्य नहीं बनाते | वरन उन्हे डिग्री के ज्ञान के नाम पर कागज का टुकड़ा थमा देते है | परिणाम एसोचेम या चैम्बर ऑफ कामर्स ने सदैव कहा है की डिग्री पाये हुए लोगो मे मात्र एक से दो प्रतिशत ही उद्योग मे काम करने लायक होते है !! इसका क्या तात्पर्य है ??

शिक्षा ---परीक्षा और प्रतियोगिता के दूषित होने से एक ओर धन पशुओ द्वारा 'डिग्री ' हथिया ली जाती है | ऐसे "”काबिल "” लोगो के अभिभावक उन्हे ''सिलैक्ट '' करने की ही तरकीब से सरकारी नौकरी मे भी लगवा देते है | इसके लिए सिफ़ारिश और धन दोनों का ही प्रयोग होता है | तभी छ माह पूर्व मुख्य मंत्री द्वरा जिस नहर का उदघाटन किया गया हो -----वह ध्वस्त हो जाये !!! पर मज़े की बात यह है की - विभाग और राजनीतिक नेत्रत्व भी इस ''इस दुर्घटना '' को लेकर चिंतित नहीं है | उधर जिस ठेकेदार ने यह निर्माण किया --वह भी डरने की जगह आश्वस्त है की "”भाई हमने तो जैसा कहा गया -वैसा वैसा कर दिया | अब ऊपर वाले जाने | “””

अंत मे निष्कर्ष यह है की --- अवकाश पाये हुए अधिकारियों को -उपभोक्ता फोरम मे खनिज विभाग मे सेवाए ली जा रही है | उधर बेकार नौजवानो की फौज बदती जाये | शिक्षा ---परीक्षा और प्रतियोगिता अब योग्यता नापने का पैमाना नहीं रही | फिर कौन सा रास्ता नौजवान अपनाए ???

Nov 17, 2017

राष्ट्रियता -नागरिकता - जाति {Race } – धर्म अलग अलग है गिरिराज सिंह जी -क़ौमियत राष्ट्रियता नहीं है और ना ही वंशानुकरण

राष्ट्रवाद के संकल्प की गोष्ठी को संभोधित करते हुए केन्द्रीय "”सूक्ष्म ---लघु --उद्यम "” राज्यमंत्री जिनहोने ''मुसलमानो को और उनकी विचारधारा के आलोचको को पाकिस्तान चले जाने '' के बयान से ख्याति पायी थी | वे एक बार फिर ''वेदिक [हिन्दू] और इस्लाम के संदर्भ मे '' कहा की इस्लाम मे राष्ट्रवाद होता ही नहीं है | उनके अनुसार अङ्ग्रेज़ी मे नेशनलइज़्म और उर्दू मे क़ौमियत कहा जाता है | उनके अनुसार क़ौमियत का मतलब वंशानुकरण होता है | उन्होने कहा की साफ है इस्लाम मे राष्ट्रवाद की कल्पना की ही नहीं जा सकती !! राजनीति शास्त्र के अनुसार नेशन या राष्ट्र '' सान्स्क्रतिक और समान आस्था {धर्म नहीं }'' के लोगो को क़ौम या राष्ट्रियता माना जाता है |
अब इसे परंपरा की त्रुटि माने या अथवा कुछ और – की "जाति" से साधारण अर्थ लिया जाता वह सही नहीं है | जिस प्रकार '' वेदिक धर्म की सनातन परंपरा ''को विदेशियों द्वरा दिये गए सम्बोधन "”हिन्दू "” से जाना जाता है | जो सही नहीं वरन गलत है | क्योंकि हिन्दू धर्म के पैरोकार आजतक एक भी ''ऐसा प्रमाणिक ग्रंथ नहीं बता पाये है -जो वेदिक धर्म का नहीं हो | शायद उच्चारण की कठिनाई से उन्होने हिन्दू शब्द को सहज अपना लिया !!

उदाहरण के लिए अरब एक रेस या जाति है ----जिसमे अनेक देश है |और इन देशो मे भी भिन्न भिन्न आस्थाओ वाले धर्म के लोग भी रहते है | जैसे मिश्र और सीरिया मे ईसाई [क्रोट] भी बसे है | सऊदी अरब -जोरडन- यमन सीरिया - मिश्र भी अरब राष्ट्रियता के है ----परंतु अलग - अलग है | इसी संदर्भ मे एक उदाहरण ''कुर्दो " का है | जो ईरान -इराक और लेबनान तथा तुर्की मे बसे हुए है | यह सभी "”एक ही क़ौम के है जो व्भिन्न राष्ट्रो मे बसे है | इसलिए क़ौम को "”देश"” से जोड़ना गलत है |

परंतु गिरिराज सिंह जी को इस अंतर का ज्ञान नहीं होगा ,,अन्यथा भारत सरकार के मंत्री के रूप मे वे ऐसी भयंकर भूल नहीं करते | ऐसा प्रतीत होता है की उनकी सोच और नज़र मे धर्म --राष्ट्रियता है | दूसरी गलत बयानी उन्होने की मुस्लिम बहुल ज़िलो के बारे मे बोल कर | उन्होने कहा की पापुलेशन डेमोग्राफी का संदर्भ देते हुए कहा की देश के विभिन्न प्रांतो के 54 ज़िले मे मुसलमान बहुल है ? परंतु जब उन्होने आंकड़े दिये तब उत्तर प्रदेश के 17 और बंगाल के 9 तथा असम के 11 एवं केरल के 5 तथा झारखंड के 4 ज़िले गिनाए | इन सभी ज़िलो का योग 48 ही होता है ! लगता है 6 ज़िलो के नाम वे भूल गए !!
उनका दावा था की जब पाकिस्तान बना तब 22 प्रतिशत हिन्दू भारत छोड़ कर पाकिस्तान गए थे !! जो अब केवल 1 प्रतिशत ही बचे है ! क्या यह बात विश्वास करने योग्य है ?? भारत से मुसलमान गए थे |

गिरिराज जी देश मे 640 ज़िले है हालांकि आप के आंकड़े सत्य नहीं है | क्योंकि बहुल का अर्थ आबादी मे 50 प्रतिशत या उस से अधिक भाग होना | जो कनही नहीं है | कम से कम सरकारी दस्तावेज़ो के अनुसार | यह सुझाव देना //या मांग करना की जनसंख्या नियंत्रण करना | आबादी पर नियंत्रण एक स्वागत योग्य सुझाव है ---परंतु केवल यह नियंत्रण मुस्लिमो पर नहीं वर्ण आबादी के सभी भागो पर लागू होना चाहिए |

गिरिराज सिंह जी को शायद नहीं मालूम की सम्राट अकबर की जनम स्थली अमरकोट की रियासत आज भी पाकिस्तान मे है | वनहा के राणा का विवाह हाल ही मे राजस्थान के एक ठिकाने मे हुए था | भारत सरकार ने सभी बरतियों को वीसा भी दिया था | उसमे आधे से ज्यादा हिन्दू और शेष मुसलमान थे !!!

Nov 16, 2017

इतिहास और आस्था तथा विश्वास को लेकर होती सामाजिक अशांति
धर्म और इतिहास अक्सर मेल नहीं रखते --पर लोग तो दोनों को मानते है
आजकल"” इतिहास"” और ग्रंथ मे बताई गयी पद्मिनी की एक कथा को लेकर राजपूत समाज मे बहुत आक्रोश है | जगह जगह पर प्रदर्शन और सरकार तथा शासन
को फिल्म पद्मावती के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए करनी सेना के श्री कालवी ने यह भी कहा मांग के पूरा नहीं होने पर भारत बंद किया जाएगा और सारा देश जल उठेगा !
जातीय स्वाभिमान होना चाहिए --परंतु बात बात पर तलवार निकालने की रजपूती जल्दबाज़ी भी अब संभव नहीं है | आखिर बिना फिल्म देखे ही उसका विरोध करना की "” जातीय भावना को ठेस पहुंचाई गयी है "” बिलकुल अतार्किक ही नहीं न्याय संगत भी नहीं है | वैसे राजस्थान के दो "”इतिहास जानने वालो "”ने चितौड मे रानी पद्मावती के अस्तित्व को ही नकार दिया है | उनके अनुसार "” किसी पद्मिनी या पद्मावती के रानी होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है "” --परंतु अजमेर और दिल्ली के शासक प्रथ्वीराज चौहान की पराजय के उपरांत गुलाम वंश से प्रारम्भ हुए इतिहास के घटना क्रम मे खिलजी वंश मे अलाउद्दिन खिलजी के युद्ध और विजय के घटना क्रम मे चितौड से युद्ध ऐतिहासिक घटना है | और क़िले की महिलाओ द्वारा राणा रत्न सिंह की पराजय के बाद '''जौहर ''किए जाने का भी ज़िक्र है | जायसी के पद्मावत मे इसी घटना या युद्ध का वर्णन है | जैसे चंद बरदाई के ''रासो'' मे "” मत चुके चौहान "” के बारे मे प्रचलित है --कुछ कुछ वैसा ही हो सकता है | अब इसे इतिहास माने या लोक कथा ? जैसे आलहा - उदल के बारे मे बुंदेल खंड मे उनकी वीरता मे काफी कुछ ऐसा लिखा है --जिसे आज के समय मे वास्तविक नहीं माना जा सकता | परंतु उनका समय और और उपस्थिती भी इतिहास मे है | परंतु जगनिक के वर्णन के अनुसार शायद बिलकुल नहीं |

अब लोक कथाओ को इतिहास मानना तो असंभव है ---जैसे यह मान लेना की एशिया मे "”सिर्फ एक ही राम कथा है --और वह भी तुलसीदास की लिखी जबकि रामायण महर्षि बाल्मीकी द्वारा रचित है | ज़ो समकालीन थे | इंडोनेशिया --थाइलैंड – लाओस आदि मे राम कथा के पात्र रामचरित मानस या रामायण से भिन्न ''भूमिकाओ मे है '' | अब अति विश्वासी ज़न शताब्दियों पूर्व रची गयी इन कथाओ को '''अपमांन जनक मान सकते है ? क्योकि उनकी आस्था के आधार के चरित्र भिन्न है ? अब इसमे किसे दोष दिया जाये ? अथवा किसको गलत या सही माना जाये ? क्योंकि आस्था या विश्वास इन सभी स्थानो मे वैसा ही है जैसा भारत वर्ष मे है ??
अब इन देशो मे भी राम कथाओ को रंगमंच और फिल्मों भी चित्रित किया गया है – जो हमारे देश से भिन्न है | धारावाहिक रामायण--- जो की बेहद ही सराहा गया --उसके निर्माण मे रामानन्द सागर ने भी बाल्मीकी रामायण तथा तुलसीदास की रामचरित मानस के अलावा तमिलनाडु की कम्ब की रामायण और बंगाल मे रचित चरित का भी समावेश किया था | अब उसमे कई ऐसे प्रसंग भी थे वे किसी एक मे थे तो दूसरे मे भिन्न प्रकार से दर्शाये गए थे | परंतु वे सभी ''कालजयी ''रचनाए है | आज के समय मे इन ''भिन्नता ''को लेकर अगर "”कुछ लोग महाभारत छेडने लगे तो वह ''निरर्थक ही होगा '' क्योंकि उनके प्रयासो से ना तो इन महाकाव्यो को बदला जाएगा और ना ही उनमे परिवर्तन इन इलाके के लोगो को मंजूर होगा | तब क्या किया जाये ?

कुछ ऐसी ही स्थिति जायसी के पद्मावत की है ---जिसे हिन्दी साहित्य से खारिज नहीं किया जा सकता --केवल इसलिए की कुछ लोगो को एक प्रकरण "”अपमांजनक '' महसूस होता है | गजनवी - मुहम्मद गोरी के आक्रमण से उत्तर भारत मे मुगलो का ज़ो शासन शुरू हुआ -वह तो 1857 मे बहादुर शाह जफर तक चला | यह एक ऐतिहासिक सत्य है -इसे नकारा नहीं जा सकता | हा हर आदमी को छूट है की वह "”अपने ज्ञान और बुद्धि के अनुरूप व्याख्या करे | परंतु वह अपना विश्वास दूसरों पर थोपने का प्रयास मत करे | क्योंकि फिर यह आस्था और विश्वास का युद्ध बन जाएगा | जैसा की करनी सेना द्वरा किया जा रहा है | राजस्थान के बाहर तो इतिहास -और साहित्य के रूप मे ही पद्मिनी का जौहर पढा और समझा जाता है | हो सकता कुछ सौ लोग इस बात को लेकर राजस्थान के बाहर ''जातीय स्वाभिमान "” का मुद्दा बनाए | परंतु यह विषय किसी भी प्रकार से वेदिक धर्म के सनातनी लोगो को उकसा नहीं पाएगा |