Bhartiyam Logo

All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 15, 2022

 

अहले वक़्त में मीडिया कैसा है और होना कैसा चाहिए --प्रभाव ?

हम शायद उन चंद खुश् नसीबों वाले है -जिनके जनक भी

अखबारनवीसी करते हुए कूच कर गए , और हम हैं की उनकी राहो पे चलने की कोशिस डगमगाते हुए कर ही रहे हैं | कुछ यार दोस्तो ने कहा की हम भी हिमाकत कर दे की यह बताने की ,गए वक़्त अखबार नवीसी कैसी होती थी और आज कैसी है ? हालांकि यह दोनों वक्तों में मुकाबला अव्वल तो हो नहीं सकता ---क्यूंकी तब मीडिया के नाम पर सिर्फ "प्रैस"” या पत्रकार ही हुआ करते थे और आज प्रैस को मीडिया कहा जाता हैं | जिसमें कल्म्घिस्सू अखबार के मुलाज़िम जिनहे सरकार से सनद हैं की वे बाकायदा खबर लिखने की नौकरी किसी अखबार में करते हैं | उसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया हैं --जिसमें ओहदेदारी वैसे तो अखबार की जैसी ही है मसलन रिपोर्टर - एडिटर -- कैमरा परसन --ऐंकर फिर कंटेन्ट एडिटर और एयक -आध चैनल में रिसर्च करने वाले भी मिडियकर्मी ही है |

तब अखबार में संपादक -संवाददाता और सब एडिटर कमरे में होते थे बाक़ी प्रोडकसन का काम अलग था | वह प्रिंटिंग प्रैस था | संपादक वह शख्स होता था जिससे मालिक भी कभी -कभार ही बात करते थे | सरकारी अफ़सरान और पॉलिटिकल लीडरान भी बड़े अदब से पेश आते थे | उनके नाम का सिक्का शहर में चलता था | हमारी भी गर्दन अकड़ जाया करती थी , रिपोर्टर की हैसियत से नाम लेते वक़्त ! इस जलवे जलाल के बाद भी सिगरेट मांग के और चाय के लिए बंदे खोजे जाते थे | क्यूंकी माहवारी तंख्वाह सिर्फ "”तन "” को बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती थी | पर पेशे के जलवे के कारण अपना रोना किसी के आगे रो भी नहीं सकते थे | आज की मंहगाई के मुक़ाबले तब बाजार सस्ता था पर लोग मंहगे हुआ करते थे | तब अखबारनवीसी यानि की आज की पत्रकारिता में उतना ही फर्क हैं जितना की एक इंसान और एक "”ममी "” में हैं | खास तौर पर गए सात सालो में तो मुल्क का इतिहास से लेकर ज़िंदगी और नौजवानो के मुस्तकबिल ही 180 डिग्री बदल गया हैं |

तब पत्रकारिता में लोग सैकड़े की तंख्वाह में भी इसलिए टिके रहते थे क्यूंकी अधिकतर में राजनीतिक सोच और जुनून हुआ करता था | उनमें अधिकतर राजनीतिक मुद्दो की हक़ीक़त और उनके परिणामो पर बहस में ही उनकी शामे गुजरती थी | और जोड़ -जमा कर कबाब और शराब की महफिल किसी टीचर या लेखक { जिनकी घर की माली हालत मजबूत हुआ करती थी } जमती थी | तरह -तरह के मुद्दे मसलन कोई ऐसी घटना जो आम लोगो की नजरों में नहीं आती | या किसी बड़े आदमी की ज़िंदगी की गोपनीय घटना जिसको उजागर ना करने की ताकीद हुआ करती थी | कुछ आम बातो की भी चीर फाड़ हुआ करती थी | बस यूं ही दिन गुजर जाता था , फिर एक नयी सुबह के लिए |

आज की पत्रकारिता :- आज कल पत्रकारिता दो तरह की होती हैं , एक अखबार के लिए दूसरी चैनल के लिए | पर आज नजरिया बिलकुल बदल गया हैं | अब सुबह देर से होती हैं , और दो चार फोन पत्रकार मित्रो को और सौर्स को लगाया , की खबर की मोहकमें में क्या सुन -गुन रही और यार दोस्तो की खबरों की तारीफ और कुछ नुक़्ताची कीगई | फिर झटपट अखबार के दफ्तर में हाज़िरी लगाने और संपादक जी के हुकुम नामे को सुना , कुछ झाड सुनी ,बस मीटिंग बर्खाष्त | निकल लिए अपने छोड़े हुए मुद्दो की खोज परख के लिए | इस बीच घर जा कर खाना खाने की उम्मीद भी नहीं करना | हाँ कुछ खलीफा पत्रकार जिनकी अखबार के मालिकान से अच्छी पकड़ होती थी -वे "लंच " के लिए घर जाते है | बाकी सड़क छाप कुछ कचौरी - पोहा आदि खा कर भूख मिटा लेते

फिर वे अपनी अपनी "बीट " पर निकाल जाते , गोया की सिपाही अपने एरिया की गश्त पर निकल गए !! तब बीट नहीं बोलते थे | नगर निगम - फलां पार्टी के आफिस याकि सेक्रेटेरियट अथवा किसी मुहकमे में जाते थे | लोग सवालो के जवाब दे दिया करते थे | जिनसे खबर बनाई जाती थी | अब ऐसा नहीं होता , अब तो अफसर आप का परिचित नहीं हैं तो वह आप का विजिटिंग कार्ड वापस भी भिजवा देगा !! यह हैं अंतर तब और अब में | इसी कारण रिपोर्टर महकमे में कुछ लोगो से कुछ ज्यादा ही रब्त जब्त रखता हैं क्यूंकी "”अंदर की बाते "” उसे बताते हैं | जो दूसरे दिन अखबार में विस्फोट बन कर आती हैं | तब शाबासी या धौल ढप्प मिलने का कारण होता हैं की अमुक महकमा मालिक के कितने नजदीक हैं या नहीं हैं | तब रिपोर्टर पर नुक्ताचीनी उसकी खबर की सच्चाई पर होती थी , और संपादक उनसे रोज बात किया करते थे | तब मालिक नामक व्यक्ति दफ्तर से दूर ही रहता था , आजकल वह दफ्तर में ही विराजता हैं | क्यूंकी अब अखबार एक व्ययसाय नहीं व्यापार बन गया हैं | जनहा संपादक से लेकर चपरासी तक "” उसके मुलाज़िम"” हैं !!!! तब ऐसा नहीं था | आज दफ्तर के बाहर अकड़ से चलने वाला पत्रकार ,बिल में आकार सीधा हो जाता हैं | तब ऐसा नहीं होता था | खबर के प्रस्तुति करन को लेकर समाचार संपादक कुछ बाते पूछ लेते थे ,बस | आज अपनी खबर को लेकर पत्रकार को बाकायदा सफाई देनी होती हैं | जो पत्रकार मालिक के लिए फायदेमंद "” हुआ करता हैं उसका रुतबा दफ़्तर में हमेशा झलकता हैं | बात विज्ञापन की होती है और मालिको के अन्य व्यापार संबंधो को लाभ पाहुचने के सरकारी फैसलो की | इसलिए अब पत्रकार "”हक़ीक़त "” नहीं उजागर कर सकता , वरन उसे अपना व्ययसाय छोडकर मालिक के व्यावसायिक हितो की रक्षा का चौकीदार बनना पड़ता हैं | बस यही अंतर हैं की अखबारो में अब "” पूंजी "” का दबदबा हैं | इसीलिए भवन निर्माता या अन्य कारोबारी जिनहे सरकारी मोहकमो से ज्यदा "खतरा " रहता हैं , वे लोकतन्त्र की "”लाठी "” को अपने हितो की रक्षा के लिए इसे "”छाता "” बना देते हैं ! अब आप समझ सकते हैं की उस अखबार में आम जानो की तकलीफ या सरकार के अफसरो के भ्रष्टाचार की खबर कैसे लिखेगा ? वह तो उपलबधिया लिखेगा क्यूंकी उसे तो नौकरी बचानी है | जिससे की उसका घर चल सके |

चैनलो में पत्रकारिता "” बहुत आसान भी है और बहुत श्रम साध्य भी है "” यू ट्यूब और आकाशी चैनलो में की भीड़ में लोकल चैनल गुम से हो गए हैं | आम आदमी का सारोकार शहर की उलझ्नो के सुलझाने में होता हैं | अब विज्ञापन का खेल यानहा भी बहुत तगड़ा हैं | और आकाशी चैनलो में नब्बे फीसद तो मोदी सरकार के गुणगान या काँग्रेस की खामियो अथवा हिन्दू -मुसलमान और भारत का छुपाया गया इतिहास और नए मंदिरो से बनता देश ही उनके लिए मुख्या है | एक अमेरिकी पत्रकार ने कहा था की "”खबर वह नहीं हैं ,जिसे दिखाये जाने की कोशिस है , खबर वह हैं जिसे छुपाए जाने की कोशिस की जाये "” अब इस कसौटी पर तो खरा उतरना देश के 99 फीसदी चैनलो के लिए संभव नहीं हैं | क्यूंकी वे सरकार के बयानो और उनके लोगो के इंटरव्यू दिखाने में ही लगे रहते हैं | आप देश की घटनाओ की हक़ीक़त को जानने के लिए बीबीसी या सीएनएन अथवा अल जज़ीरा देखना पड़ता हैं | अब जिनहे सरकारी बयानो को ही मानना हैं , उन्हे कोई खास मेहनत नहीं करनी होती | पर कोरोना के पहले लहर के लाक डाउन में लाखो लोगो के पैदल -साइकल और ऑटो आदि ट्रक से उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर "””मार्च "” को कितने चैनलो ने दिखाया ,आप उत्तर खोजे | और कितने अखबारो में ऑक्सीज़न की कमी से होने वाली मौतों को दिखाया ? कितनों ने गंगा में बहती हुई हजारो लाशों को भारत की जनता को दिखाया ? जो अखबारनवीसी सत्ता का साथ दे वह "”नौकरी "” हैं व्यवसाय नहीं | आखिर में अपने पिता जी का कहा लिखना चाहूँगा , जो उन्होने पत्रकार और सरकार के संबंधो के बारे में कहा था "”’’ पत्रकार को सरकार की आंखो में एक किरकिरी बन के रहना चाहिए ,जिसे वह जनता के दुख दर्द की असलियत सामने ला सके | वनही सरकार भी दुश्मन नहीं जो खतम कर दिया जाये | {समाप्त }

लेखक --विजय कुमार तिवारी

-43 , 45 बंगले ,भोपाल

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया

जवाहर चौक , भोपाल 30387

आईएफ़एस कोड एसबीआई एन 0030387 स्विफ्ट

अकाउंट नंबर 53000760570

------------------------------------------------------------------------------------------