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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jan 28, 2018

प्रधान मंत्री की मन की बात – दस बेटो से एक बेटी अच्छी योगी आदित्यनाथ – लड़के और लड़कियो मे भेदभाव नहीं हो
विद्यार्थी परिषद – महिलाए शक्तिशाली पर पब और डिस्को मे जाने की आज़ादी की मांग वामपंथ की सोच है

एक ही दिन मे इन तीन खबरों को पढने से संघ समर्थित भारतीय जनता पार्टी और विद्यार्थी परिषद के सोच मे नितांत अंतर झलकता है | एक ओर जंहा देश और प्रदेश के नेता समाज मे लैंगिक भेद भाव को समाप्त कर स्त्री - पुरुष की बराबरी का संदेश दे रहे है ,वनही युवक शक्ति इस बराबरी को ''वामपंथ '' का संदेश मान रही है | भोपाल मे सम्पन्न 50 वे मध्य प्रांत के सम्मेलन मे आए दक्षिणा गडवाल ने लड़कियो द्वारा लड़को साथ ''पब या डिस्को ''' मे जाने की आज़ादी को अनुचित माना !! उन्होने इसे वामपंथ की देन बताया | उनका यह सोच नितांत ''कूप - मंडूकता '' का प्रतीक ही है | क्योंकि पश्चिम के पूंजीवादी देशो मे स्त्री - पुरुष को बराबरी है -क्या वह भी ''वामपंथ प्रभावित है "” ?? सम्मेलन मे निकली रैली मे सभी को ''भगवा पगड़ी पहना कर भारतीयता का उजगर करने की कोशिस की गयी थी | आश्चर्य की बात लड़कियो ने भी "”लड़को के समान पगड़ी सर पर रखी हुई थी " यानि बराबरी केवल इतनी -बस |
लड़कियो के आने - जाने पर पाबंदी का सुझाव अपने आप मे "””संविधान की आत्मा के वीरुध है "” आज जब सभी सरकारी नौकरियों मे कोई लैंगिक भेदभाव नहीं किया जा रहा है -तब इस तरह की बात सार्वजनिक मंच से करना --- देश की विधि और व्यवस्था के प्रतिकूल ही नहीं गैर कानूनी भी है | अनेक हिंदुवादी सेनाओ ने अनेक परदेशो मे विगत समय लड़कियो के ''कपड़ो और उनके क्लब और पब आदि मे जाने को लेकर कई बार अशोभनीय और ज़ोर ज़बरदस्ती भी की गयी | कोई लड़की किसी भी लड़के साथ सार्वजनिक स्थल पर घूमने जाना आदि भी ''' इन सेनाओ और उन जैसे विचारो वाले लोगो को आपतिजनक लगता है | उत्तर प्रदेश मे और हिमाचल मे कई बार पुलिस ने भी पार्क मे घूमते हुए लड़के - लड़कियो को परेशान किया | अकारण ही उनको अपनी पहचान बताने को मजबूर किया गया | लड़कियो को धमकाया गया और उनके अभिभावकों को बताने की धम्की भी दी गयी | कानून मे वयस्क लड़के -लड्की स्वत्रता पूर्वक विचरण का अधिकार है | उसे अकारण ही नहीं छेड़ा जाना चाहिए | परंतु बीजेपी शासित राज्यो मे ऐसी घटनाए अक्सर देखने मे आती है ||
आज जब विश्व मे लैंगिक भेदभाव समाप्त हो रहा है ऐसे मे हम इन विचारो से पिछड़ जाएँगे | आज सेना के तीनों अंगो मे महिलाए काम कर रही है | शासकीय सेवाओ मे उनकी उपस्थिती भी प्रभावशाली है | व्यापार हो या यूद्योग - अन्तरिक्ष विज्ञान हो सभी छेत्रों मे उनकी उपस्थिती देखि जा रही है | राजनीति मे भी उनका दखल है | प्रधान मंत्री के रूप मे देश आज भी इन्दिरा गांधी को स्मरण करता है | लोकसभा की पूर्व और वर्तमान स्पीकर भी महिलाए रही है | ऐसे मे विद्यार्थी परिषद द्वरा ऐसी मांग या सुझाव \\\पुरातन कट्टर वाद को जन्म देगा "” जो अशांति ही पैदा करेगा |
अपेक्षा है की संघ और बीजेपी के नेता इस सोच को नियंत्रित करेंगे |
और अब देश की राजनीति मे भी पंक्ति पावन ब्रांहण हो गए – जो दूसरों को साथ बैठने लायक भी नहीं मानते ---छूआ छूत की नयी परंपरा !!

गणतन्त्र दिवस की सालाना परेड कहे अथवा आशियान
सम्मेलन के अतिथियो के सम्मान मे किया गया आयोजन --परंतु देश के
69 वे गणतन्त्र की वर्षगांठ पर इस वर्ष "” राष्ट्रद्यक्षों "”के साथ "” शासनद्यक्षों "” को भी परेड का अवलोकन करने का सौभाग्य दिया गया था | परंपरा से 26 जनवरी का आयोजन देश के राष्ट्रपति के सम्मान मे किया जाता है | जो भारतीय संविधान का पहरूआ है | इसीलिए आज से पूर्व सलामी लेने के लिए डायस पर एक ही कुर्सी होती थी | जिस पर राष्ट्रपति का चिन्ह होता था | आयोजन के लिए आमंत्रित विषेश अतिथि के लिए "”बगल मे परंतु अलग से व्यवस्था होती थी | लोगो को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का "” आसान "” कनहा था यह स्मरण होगा |

परंतु 69 गणतन्त्र दिवस परेड कई मानो मे "”याद रखी जाएगी "” क्योंकि जिस प्रकार से ऐसे महत्वपूर्ण आयोजन मे "”राष्ट्रपति"” को प्रधान मंत्रियो की "””भीड़ "” के साथ बैठना पड़ा वह भी "””इस सरकार के बहुत से प्रथम "” मे स्थान पाएगी |हाँ कूटनीतिक रूप से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के प्रोटोकाल मे अंतर होता है | नरेंद्र मोदी सरकार ने प्रोटोकाल के इस छूआछूत का इस गणतन्त्र दिवस परेड मे समाप्त कर दिया | एक अच्छी शुरुआत है |
परंतु अंतरराष्ट्रीय जगत मे यह जारी रहेगी ---विदेश मंत्रालय भी जारी रखेगा |
परंतु इसी आयोजन मे छूआछूत उस समय ''उभर आई ''' जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यछ सांसद अमित शाह तो वीवीआईपी एरिया मे प्रथम पंक्ति मे सपत्नी बैठे वही ----देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के नव निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी को छठी पंक्ति मे आसान दिया गया ?? जब इस विषय पर विवाद हुआ तब बीजेपी की ओर से बयान दिया गया की वे "”वीवीआईपी एरिया"” मे बैठने लायक नहीं है ?
अब प्रश्न यह है की विगत वर्षो तक नरेंद्र मोदी सरकार काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को वीवीआईपी एरिया मे प्रथम पंक्ति मे स्थान देता था ---फिर इस वर्ष क्यो नहीं ?? एक अवकाश प्राप्त आईएएस अधिकारी का कथन था की उन्हे पूर्व राष्ट्रपति की विधवा होने के कारण 'प्रथम पंक्ति मे स्थान दिया जाता था ' ? जब मैंने उनसे प्रश्न किया की ऑर्डर ऑफ प्रीसिडेंस मे वे "इस कारण किस स्थान की पात्र है '' तब वे कोई उत्तर नहीं दे सके |
अब इसी तर्क को आगे बढाये-- तो सरकारी पार्टी लोकसभा स्पीकर द्वरा बुलाई बैठक मे ''उनके साथ '' कैसे बैठेंगे ? क्योंकि संसद का परिसर भी
वीवीआईपी अथवा वीआईपी एरिया तो है ही ? वैसे संसदीय लोकतन्त्र मे किसी राजनीतिक दल द्वरा अपने विरोधी दलो के प्रति यह व्यवहार नितांत निम्न है | राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई के साथ समाज से छूयाछूत के 'कलंक' को समाप्त करने मे सारी शक्ति लगा दी थी |विधि मे भी 'सार्वजनिक रूप से ' छूयाछूत'' का व्यवहार करने पर जेल की सज़ा है | क्या बीजेपी का पंक्ति पावन रूप उसे राजनीतिक पंगत मे क्या '''अलग पत्तल के साथ बैठने पर मजबूर करेगा "” ??

Jan 23, 2018

क्या विधान सभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की मांग
सत्ताधारी दल द्वरा जनता का सामना करने का भय तो नहीं है
अथवा चुनावी तंत्र द्वरा सतत रूप से काम करने की थकान तो नहीं
क्यो यह मांग की जा रही है
जबकि संसदीय प्रक्रिया इसकी इजाजत नहीं देती
प्रशासनिक खर्च और बंदोबस्त के नाम पर –पिछडते विकास के नाम पर
क्या यह मांग अथवा सुझाव '' लोक ""अर्थात जनता को मूर्ख बनाने का
उपक्रम तो नहीं ??????

विश्व मे लोकतन्त्र की दो ही विधाए प्रचलित है --- संसदीय एवं राश्त्र्पतीय प्रणाली | दोनों ही व्यस्थाओ मे "”चुनाव "” ही एकमात्र जनता की आकांछा या निश्चय की अभिव्यक्ति मानी गयी है | अमेरीकन प्रणाली मे राष्ट्रपति का चुनाव सम्पूर्ण देश मे होता है | वनहा जनता भी अपनी पसंद को अभिव्यक्त करती है | परंतु यदि नियमानुसार वांछित प्रतिशत मे जब किसी भी प्रत्याशी को '''मत समर्थन ''नहीं मिलता तब विशिष्ट प्रक्रिया द्वरा '''निर्वाचक मण्डल ''''का गठन किया जाता है ||जो चुनाव परिणाम घोषित करता है | अमेरिका मे डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को पापुलर वोट अर्थात जनता से मिले मत उनके विरोधी और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से अधिक मिले थे | परंतु दोनों को कूल मतदाताओ का पचास प्रतिशत से अधिक नहीं मिला था | तब मामला निर्वाचक मण्डल मे मतदान द्वरा नियत किया गया | जिसमे ट्रम्प विजयी घोषित किए गए | अनेक देशो मे यह परंपरा है की की विजयी उम्मीदवार को मतदाताओ के पचास प्रतिशत से अधिक समर्थन मिलना आवयश्यक है | भले ही उसके लिए दो बार चुनाव करना पड़े | अफ्रीका के कई देशो मे भी यह व्यसथा है |
तंत्र --लोक के लिए है , जनता तंत्र के लिए नहीं है | राजनीति शस्त्र मे जब '''तंत्र''' लोकहित पर हावी होने लगता है --तब उसे भ्रष्ट तंत्र कहते है | चुनावो को सरकार या तंत्र की सुविधा के लिए नहीं है | वे जन अभिव्यक्ति है | यह कहना की लगातार चुनाव होने से सरकार का काम रुकता है ,, बेमानी दलील है | आखिर क्यो सरकार के मंत्री चुनावो मे '''सारे काम छोड़कर बैठ जाते है "” ? चुनाव आचार संहिता भी चल रही योजनाओ और कामो पर कोई प्रभाव नहीं डालते | हाँ मतदाताओ के लिए नए वादे करने पर रोक लगता है | अगर सरकार मे ''आत्म विष्वास'' है तो मतदाताओ को छन करने देना चाहिए | पार्टी अपने कार्यकर्ताओ को चुनाव प्रबंध करने दे | परंतु ऐसा सत्ताधारी दल करते नहीं है | चुनाव छेत्र मे मनमाफिक अफसरो की तैनाती – योजनाओ की घोषणाये की जाती है | यह सब तो उप चुनावो मे दिखाई पड़ता है | आम चुनावो मे तो क्या हो -मालूम नहीं |

2014 के बाद दिल्ली के विधान सभा चुनावो मे भारतीय जनता पार्टी की करारी पराजय के उपरांत ऐसी आवाज़े आने लगी की ;-
1-- संविधान मे परिवर्तन कर इसे राष्ट्र पति व्यवस्था मे
बदला जाये --संसदीय प्रणाली खर्चीली और अनिश्चयकारी
है – इसमे सदैव चुनाव की तैयारी मे लगे रहना पड़ता है |
2- राष्ट्रपति प्रणाली के समर्थको नहीं मालूम की अमेरिका
की संघीय प्रणाली मे नगरो मे हर वर्ष शेरिफ़ और मेयर
का चुनाव दो वर्ष मे राज्य की प्रतिनिधि सभा और चार
वर्ष मे राज्य सीनेट और राष्ट्रपति का चुनाव हर छ
वर्ष मे संघ की सीनेट और संघ की प्रतिनिधि सभा के
लिए भी चार वर्ष मे चुनाव होते रहते है |
अमेरिका के चुनाव अभिकरण ने आज तक विकास के अवरुद्ध होने अथवा धन के अपव्यव की शिकायत नहीं की ??


इन हालातो मे नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ओम प्रकाश रावत द्वारा पहले ही सम्बोधन मे "”” विधान सभा और लोक सभा चुनाव एक साथ ''' कराये जाने की टेक संदेह उत्पन्न करती है ,,””क्या संवैधानिक व्यवस्थाओ को तोड़ने - मरोड़ने का प्रयास तो नहीं है "” चुनाव प्रकरीय पर गठित संसदीय समिति ने उनके पद ग्रहण के पूर्व ही अपनी सिफ़ारिश मे राज्यो और केंद्र के लिए एक साथ चुनाव करने के प्रस्ताव को "”विचार"” उपरांत खारिज कर दिया था | संसदीय समिति ने भी नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त द्वरा एक साथ चुनाव करने के लिए कानून बनाए जाने का सुझाव दिया जाने पर घोर आपति व्यक्त की है |

संविधान के साथ छेद – छाड की आशंका गैर भाजपा डालो द्वरा काफी समय से व्यक्त की जा रही है | इस संदर्भ मे मुख्य चुनाव आयुक्त द्वरा पदग्रहण करते ही "”एक साथ चुनाव का राग अलापना "”” संदेह उत्पन्न करता है |

निश्पक्ष निर्वाचन लोकतन्त्र के शरीर की धमनी है जो उसे प्राणवान बनाए रखती है | सरकार और उसका तंत्र " लोक" अर्थात जनता -जनार्दन की इच्छा की अभिव्यक्ति है | जब कोई सरकार इस ''मूल' “ की इच्छा को ही "””नियंत्रित "”” करने प्रयास करता है ----तब उस देश मे अशांति फैलती है | बहुमत का शासन ही प्रजातन्त्र है | निश्चित अवधि के लिए शासन चलाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है | संसदीय परम्पराओ मे ''''सदन मे बहुमत ही सर्वोपरि होता है "”” भले ही वह अनुचित अथवा अन्य पूर्ण हो |

एक साथ चुनाव का '''जुमला ''' कहना आसान है परंतु जमीनी धरातल पर इसको उतारा जाना न केवल असंभव है वरन प्रजातन्त्र के लिए "”” गलघोंटू"” होगा | मौजूदा व्यव्स्था मे '' दल " की नहीं अक्सर मोर्चो की सरकार बनती है | अनेक बार ऐसा हुआ है की मोर्चे के एक घटक द्वरा सरकार से अलग होने से सरकार का सदन मे बहुमत नहीं रह जाता | काफी षड्यंत्र और चाले चली जाती है | उत्ताराखंड का मामला उदाहरन है | तब उच्च न्यायालय राष्ट्रपति शासन को खारिज कर सदन मे बहुमत सिद्ध करने का फैसला दिया था | अदालत के फैसले को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने काफी आलोचना करते हुए कहा था की "””” अदालत को राष्ट्रपति के आदेश को खारिज करने का हक़ नहीं है "”” | जबकि इन नेताओ को सुचारु रूप से ज्ञात है की संविधान के अनुछेद 77 के अनुसार भारत सरकार की समस्त कार्यपालिक कारवाई राष्ट्रपति के नाम की हुई काही जाएगी "”” | अनेक राज्यो मे राजनीतिक दल - बदल से सरकरे अलापमात मे आती है | ऐसे मे दो ही उपाय क्यी जा सकते है
1-
सरकार को तब तक चलने दिया जाये जो सदन की
निर्धारित अवधि तक हो
2-- राज्य मे राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाये

राष्ट्रपति शासन को छह माह मे लोकसभा से अनुमति लेनी होती है | और इसे दो या तीन बार से अधिक दुहराये जाने पर '''केंद्र सरकार की मंशा का कलुष माना जाता है "”
फिर क्या हो ?? वस्तुतःजिस प्रकार से आजकल राजनीतिक दलो ने चुनाव प्रचार और प्रबंधन को व्यवसायिक हाथो मे दिया है ''उसका मूल्य बहुत ज्यादा होता है "” जो पार्टी के चंदे से एकत्रित धन राशि से कभी भी पूरा नहीं हो सकता | इसलिए भिक्षा अथवा दान मांगते है | चूंकि '''साधन और सुविधा "” सरकार मे रहते मिलती है --जिसका भरपूर उपयोग नियमो को "” तोड़ मोड ''' कर की जाती है | इसीलिए सत्ताधारी दल चाहता है की एक साथ चुनाव हो | परंतु पार्टी मे टूट और सरकार के अल्पमत होने अथवा प्रदेश या केंद्र मे सविधानिक व्यवस्था के असफल होने पर क्या होगा ??? संसदीय समिति इन सब स्थितियो पर गौर करके ही कहा की यह संभव नहीं है | एवं मुख्य चुनाव आयुक्त के बयान पर नाराजगी भी व्यक्त की है |

Jan 22, 2018

एक बार फिर शिवराज सरकार ने सादे तीन लाख अध्यापको की संविलयन की मांग स्वीकार कर के ----क्या दो विधान सभा उप चुनावो को प्रभावित नहीं किया ??

चुनाव आयोग द्वरा मूंगावली और कोलारस विधान सभा सीटो पर चुनाव घोषित किए जाने के बाद आचार संहिता लागू हो जाने से सरकार के इस फैसले को '''प्रभावित करने वाला नहीं माना जाना चाहिए ?'' तथ्य के अनुसार निर्वाचन आयोग ने शुक्रवार 17 जनवरी को दोनों विधान सभाओ के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की थी |जिसके अनुसार 24 फरवरी को मतदान और 28 फरवरी को मतगणना होनी है |

लगभग एकमाह से अध्यापक अपनी मांगो को लेकर उद्वलित थे --- सरकार की बेरुखी के विरोध मे दस अध्यापको ने सर का मुंडन सार्वजनिक रूप से कराया था | जिसके उपरांत मीडिया मे सरकार की काफी भद्द पिटी थी | अफसरो ने झल्ला कर फैसला किया था की जिन अध्यापको और अध्यापिकाओ ने अपना मुंडन कराया है -----उनके वीरुध अनुशासनात्मक कारवाई की जाएगी | जिस्मव उनको निलंबिल करने और बर्खास्त करने की कारवाई की जाएगी | परंतु मुख्य मंत्री शिवराज सिंह ने इसको संवेदन शील मुद्दा मानते हुए -----उनकी मांगो को स्वीकार करने का फैसला किया |

अभी तक शिक्षको की भर्ती तीन स्तर // पर की जाती थी | शिक्षा विभाग मे सीधी भर्ती के अलावा स्थानीय निकायो द्वरा संचालित स्कूलो के अध्यापक और आदिम जाति कल्याण विभाग द्वरा की जाती थी | अब 2.75 हज़ार अध्यापको का एक ''संवर्ग'' होगा , तथा उन्हे समान पे स्केल मिलेगा | साथ ही उन्हे राज्य स्तरीय अध्यापको के समान बीमा - अनुकंपा नियुक्ति – बीमा -मेडिकल -पेन्सन की सुविधा मिलेगी | इस फैसले से गुरुजी -शिक्षाकर्मी - शिक्षक आदि सभी पद अब '''अध्यापक '' वर्ग मे विलीन हो जाएंगे | इस फैसले से प्रत्येक अध्यपक को तीन से पाँच हज़ार रुपए प्रतिमाह का लाभ होगा | 1998 मे शिक्षा कर्मियों की भर्ती हुई थी - फिर 2001 मे संविदा शिक्षको की तथा 1 अप्रैल 2007 को अध्यापक संवर्ग बनाया गया | इस फैसले से सरकार के खजाने पर चार अरब रुपये का भार राजकोष पर पड़ेगा |अब शिक्षको का तबादला उनके सुविधानूसार राज्य मे कही भी किया जा सकेगा | सरकार द्वरा माडल स्कूल बनाए जाने की प्रक्रिया मे यह फैसला सहायक होगा |

यह सर्व ज्ञात है की ग्रामीण छेत्रों मे अध्यापको का काफी सम्मान होता है - लोग उनकी बातो को ''ज्ञान '' समझ कर मानते है | अब यही ''संतुष्ट '' वर्ग चुनाव छेत्रों मे सरकार के समर्थन की अपपील करेगा ---ऐसा लोगो का अनुमान है | नगरीय चुनावो तथा चित्रकूट मे सत्ता दल की पराजय सरकार के लिए काफी कष्टकारी थी | राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी के कार्यकर्ताओ की असफलता इन चुनावो मे ड्राष्टिगोचर हुई है | जमीनी स्तरपर पकड़ बनाए रखने के लिए अब सरकार ने मास्टरों का सहारा लिया है |
परंतु सवाल वही है की क्या चुनावो की घोसना के उपरांत इतना बाद फैसला करना क्या आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है ? इसका जवाब सार्थक रूप से चुनाव आयोग अथवा अदालत ही दे सकती है ? तबतक इंतज़ार


Jan 20, 2018

आनंदीबेन के मध्यप्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किए जाने के निहितार्थ ?

मुद्दतों बाद प्रदेश को स्थायी राज्यपाल मिला है – रामनरेश यादव के सितंबर 2016 मे कार्यकाल समाप्त होने के बाद से, गुजरात के राज्यपाल ओ पी कोहली ही कार्यवाहक राज्यपाल थे अब गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री राज्य की लाट साहब होगी | यू तो इस नियुक्ति मे कोई राजनीतिक महत्व की बात सतही तौर पर नहीं दिखे देती | परंतु प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली के वाक़िफ़ों का मानना है की यह पदस्थापना प्रदेश के लिए '''हलचलकारी'' होने को संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता | क्योंकि 2014 के पूर्व एक आध राज्यपालों ने राज्य की राजनीति मे दखल दिया था | परंतु मोदी काल मे यह ''मान्य और सिद्ध "” है की राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद के पर्यंत तक नहीं नरेंद्र मोदी की क्रपा तक ही पदासीन रहेंगे | दूसरे गैर भाजपा राज्यो मे तो राज्यपालों के कथन और क्र्त्या काफी 'विवदासप्ड ' रहे है | दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर और केजरीवाल की चुनी सरकार का उदाहरण सामने है |
समझा जाता है की जिस प्रकार विगत डीनो मे केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय विभाग द्वरा प्रदेश के आईएएस अफसरो की संपति का ब्यौरा और उनके ऊपर तथा उनके परिवारजनों के इलाज़ पर किए गए खर्च का विवरण देने से मुख्य सचिव बी पी सिंह ने तो टूक इंकार कर दिया है उस से भी केंद्र की नौकरशाही आशंतुष्ट है | यह तो सर्व विदित है की मोदी जी ''फीड बॅक ''' अधिकतर आईएएस अफसर ही होते है | इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता की नयी राज्यपाल अफसरो और मंत्रियो से जवाब तलब करे | क्योंकि वे नरेंद्र मोदी की विश्व्स्त सहयोगी है | इसलिए आने वाले समय मे कुछ धमाके भी हो सकते है |

2014 के पहले राज्यपाल का पद राजनीतिक रूप से उन महानुभावों के लिए होता था जिनहे सक्रिय और दलीय राजनीति से अवकाश देना होता था | कुछ ऐसे भी उदाहरण है जनहा नौकरशाहो को भी इस पद से नवाजा गया | परंतु कूल मिलकर यह पद "” शांत और निष्क्रिय "” भरा होता था | स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस को भाषण देने का होता था | जिसे सरकार का “””रबर स्टैम्प””माना जाता था |उनकी पंद्रह दिनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को परंपरागत रूप से भेजना ही केंद्र के प्रति कर्तव्य की इति श्री होती थी | पर अब अनेक प्रकार केंद्र को सूचित करना पड़ता है |


समझा जाता है की राजय की योजनाओ और कार्यक्रमों की सफलता की कहानी विज्ञापनो के माध्यम से काफी विस्तारित हुई है | परंतु जमीनी रिपोर्ट मे उन दावो को झुठला दिया है | बीजेपी के एक वारिस्ठ नेता का कहना है की ''काम शुरू बहुत हुए -परंतु वे कितने दिन चले इसका ख्याल शासन द्वारा नहीं रखा गया | परिणाम स्वरूप नर्मदा के किनारे के पौधरोपन के ''करोड़ो पौधे सूख गए '' | राज्य की अफसरशाही की मनमानी की कहानी भी अक्सर छपती रही है | इन विरोधा भाषों के चलते पार्टी की पकड़ ढीली हुई है | विधान सभा उप चुनावो मे धुनवाधार प्रचार के बाद चित्रकूट मे पराजय का अंतर बढा है स्थानीय चुनावो मे भी कहुदाह सालो से सत्ता से बाहर रहने के बाद भी सत्तासीन पार्टी की बराबरी भी जमीनी हक़ीक़त बयान करती है |

Jan 17, 2018

धर्म निरपेछता की ओर एक ''छोटा '' प्रयास हज सबसिडी खतम किया जाना ,,पर त्रिवांकुर देवस्थम न्यास को करोड़ो रुपये की राशि मंदिरो की देख -रेख के लिए केरल और तमिलनाडू की ''संचित राशि ''' का दान भी क्या बंद होगा ??
शायद मोदी सरकार इस संवैधानिक व्यव्स्था को ''ठीक नहीं करेगी ''
इसी कारण यह धर्म निरपेक्षता "लंगड़ी " ही रहेगी --जो एकतरफा है


केंद्र सरकार द्वरा 16 जनवरी को किए गए इस फैसले दावा किया गया है की 2017 तक भारत सरकार ने 636 करोड़ रुपये से अधिक की बचत की थी | यदि पूर्व योजना 2012 के अनुसार इस राशि को हरसाल घटते जाना था --जिस से साल 2022 तक 5970 करोड़ रुपये बचते | सरकार के अनुसार सबसिडी खतम करने से 700 करोड़ की बची राशि ''अल्प संख्यकों " की महिलाओ और कन्यों की शिक्षा पर व्यय किए जाएँगे !! धर्मनिरपेक्षता की ओर यह कदम लंगड़ा इसलिए है की संविधान के अनुछेद 290-अ मे यह व्यवस्था की गयी थी की त्रिवांकुर देवस्थानम को केरल सरकार की संचित निधि से 46 लाख 50 हज़ार तथा तमिलनाडू स्थित देवस्थानम के मठ -मंदिरो के लिए वनहा की संकित निधि से 13 लाख 50 हज़ार की राशि प्रति वर्ष प्रदाय की जाएगी | अब यंहा ''संचित निधि ''' का अर्थ समझना होगा | राज्य या केंद्र के बजट मे दो प्रकार के खर्चो का विवरण होता है |एक वे खर्चे है जिन पर सदन मे मतदान होता है --तब मंजूर राशि का आहरण शासन करता है | इस मद मे सरकार के सभी खर्चे होते है | दूसरी मद होती है 'संचित निधि ' से किए जाने वाले खर्चो की -जिनपर मतदान नहीं किया जा सकता ,इनमे राज्यपाल और उच्च न्यायालय के जजो के वेतन भत्ते तथा कुछ अन्य मद शामिल होती है | वे ऐसे व्यय होते है जो किसी भी शासक के लिए अपरिहार्य होते है | वे सदन की मंजूरी के अधीन नहीं होते | वरन ये बाध्य होते है | वस्तुतः बजट के लिए मंजूर राशि भी इसी संचित निधि से निकालने के लिए "विनियोग विधेयक ' की मंजूरी लेनी होती है |