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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jan 31, 2020


ज्ञान अर्जन की हिन्दू और वेदिक परंपरा का अंतर

शिक्षा में रामायणी प्रवचन पद्धति-या- वेदिक शंका का समाधान हेतु विमर्श पद्धति ?

आजकल शिक्षा संस्थानो में एक बहस चलाने की कोशिस हो रही हैं की – विद्यालयो में किसी भी प्रकार के विमर्श की बजाय जो बताया जाये {{ प्रवचन }} उसे ही इतिश्री करे | शंका का समाधान अथवा विमर्श पूरी तरहा प्रतिबंधित है | ऐसे ही तत्वो की विचार धारा का नारा हैं की शिक्षा संस्थान पूरी तरह गैर राजनैतिक बने -किसी भी प्रकार की घटना अथवा विचार धारा के प्रभाव से अछूती रहे | जो कहा जाये "”बस उतना ही सत्य "” समस्या अथवा शंका छात्र नहीं उठा सकते | कूल मिलाकर टोटल पॉज़िटिव एट्टीट्यूड | यह हैं हिन्दू शिक्षा पद्धति जिसके प्रवर्तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हैं | संघ की छोटी सी शाखा का बौद्धिक हो अथवा शिविर {सम्मेलन}} में भी प्रश्न पूछने की इजाजत नहीं हैं | इनके यानहा सिर्फ संबोधन और श्रवण हैं | जैसा रामायनी किरतनिया अथवा रामलीला अथवा रासलीला के "” संबोधनकरता - चाहे वे गुरु हो अथवा स्वामी या भगवाधारी हो अथवा रामायनी हो रामलीला या रासलीला के प्रसंगो पर प्रवचन या उपदेश देना हो -----इन सब में एक बात कामन हैं की वे एक तरफा होते हैं | अर्थात ज्ञान का प्रवाह मंच पर बैठी मूर्ति की ओर से ही श्रद्धा से हाथ जोड़े बैठी भीड़ की ओर बहता हैं -----जो आरती के समय अपनी पूरी श्रद्धा – धन के रूप में थाली में उड़ेल देती हैं | किसी श्रोता के मन में अगर कोई शंका हो तो उसे "”व्यासपीठ "” से नहीं पूछ सकता !!!

कुछ ऐसा ही वातावरण ज्ञान और अनुशासन तथा परंपरा के नाम पर आईआईटी मुंबई और शांति निकेतन कलकत्ता में करने की कोशिस की जा रही हैं !!उपरोक्त शिक्षा अथवा ज्ञान प्रदान करने की "”हिन्दू धर्मपद्धति "”” ही क्या वेदिक आर्य परंपरा है ज्ञान प्रदान करने की ??? बिलकुल नहीं | वर्तमान में वेदिक धरम को जैसा हम पाते हैं वह केरल में जन्मे आदिगुरु शंकराचार्य की कृपा से मिला हैं | जिनहोने ही बौद्ध धरम के भारत में प्रसार को रोका | इसके लिए उन्होने काश्मीर से लेकर आसाम तक तथा समस्त भारत में वाद - विवाद अर्थात शास्त्रार्थ के जरिये ही किया ,मंडन मिश्र से उनका शास्त्रार्थ आज भी उदाहरण बना हुआ हैं | वाद - विवाद में जनहा किसी घटना या विषय के पक्ष या विरोध के लोग अपना - अपना तर्क और प्रमाण रखते हैं | निर्णायक ही घोषित करता हैं की कौन विजेता और कौन नहीं , जैसा मंडन मिश्रा और आदिगुरु के मामले में मंडन मिश्रा की पत्नी ही निर्णायक बनी थी | !!!! श्रोताओ पर निर्भर करता हैं की वे किसे स्वीकार करते हैं | उन्हे शंका का समाधान करने के लिए सवाल करने का अधिकार होता था |

यही पद्धति आश्रमो में भी थी --प्रत्येक उपवेशन के उपरांत शिक्षक ----बटुक /ब्रहमचारी से शंका पूछते थे | इस परंपरा का निर्वहन भारतीय सेना में आज भी किया जाता हैं | वनहा कोई ऑर्डर अथवा ड्रिल करने के समय अफसर समस्त परिस्थितियो से -सैनिको को अवगत कराते हैं , हमले के साथ बचाव और साधन की संभावनाओ आदि समस्त जानकारी देने के बाद कमांडर कहता हैं की ---””” कोई शक या सवाल "”” | बस यही अनुभव से ज्ञान पाने का तरीका हैं |

परंतु आईआईटी मुंबई में वनहा संस्थान के प्रभारी ने 15 नियम जारी करके छात्रावासों में किसी भी प्रकार के वाद - विवाद अथवा नाट्य मंचन या कविता पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया हैं | बतया जाता हैं की ऐसा इसलिए प्रबन्धको ने किया , क्योंकि इस माह में वनहा के छात्रों और - शिक्षको ने राष्ट्रीय झण्डा लेकर विवादित नागरिकता संशोधन विधि औरकानो में बोल गयी की राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध में रैली निकली थी | चूंकि आईआईटी प्रबंधन केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत आता हैं ---- इसलिए कोई चिड़िया प्रभारी के कानो में बोल गयी की , प्रदर्शन नहीं चलेगा !! बस नए नियम बन गए | ना छत्रों से कोई विमर्श हुआ नाही शिक्षको की संस्था से कोई मशवरा किया गया !! बस हो गया ---और शिक्षा संस्थान की स्वायत्ता समपट हो गयी !!
कुछ ऐसा ही दुर्ज्ञान रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वरा स्थापित शांति निकेतन के कुलपति महोदय ने किया | वनहा के छात्रों ने जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालया तथा जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालया नई दिल्ली के छात्रों की पुलिस द्वरा पिटाई किए जाने और नागरिकता कानून के विरोध में सार्वजनिक रूप से रैली निकाल कर प्र्दराशन किया था | उन्होने 28 जनवारी को छात्रो को बुला कर कहा की संसद देश की सर्वोपरि संस्था हैं --उसके द्वरा बनाए गए नियम का विरोध करना गैर कानूनी हैं !! संसद यदि चाहे तो संविधान की प्रस्तावना भी बदल सकती हैं ! हमारा संविधान अल्प मत से संविधान सभा से पारित हुआ था , अतएव इसकी महता संसद ही तय करेगी !! एक प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान का प्रभारी ऐसी "”असंवैधानिक बात "” छात्रों से कहे इससे ज्यड़ा गलत और क्या हो सकता हैं ! जबकि संविधान के प्रत्येक अनुछेद पर बहसा हो कर उसे सदस्यो की रॉय के अनुरूप बनाकर ही पारित किया जाता था | 14 अगुस्त 1947 को संविहान सभा की पहली बैठक हुई | इस सभा में ब्रिटिश इंडिया के 16 परदेशो के अलावा रियसती भारत के 90 लोगो को भी इस सभा में भाग लिया | 389 सदस्योकी सभा में देश के हर छेत्र और वर्ग के लोगो को शामिल किया गया था | संविधान सभा की नवंबर1949 की हुई बैठक में इसे देश के लिए अंगीकार किया गया | संविधान ध्वनि मत से पारित किया गया था | किसी भी सदस्य ने इसके किसी उपबंध पर तब कोई असहमति नहीं जताई |
अब सवाल यह उठता हैं की शांतिनिकेतन के कुलपति महोदय को यह ज्ञान कान्हा से मिला की हमारा संविधान "””अल्प मत से पारित हुआ ?? “” कोई भी विधि विधान सभा हो या संसद हो कभी अल्प मत से पारित हो ही नहीं सकती | यही नियम हैं -----सदन का बहुमत अत्यंत आवश्यक हैं |
उधर आईआईटी कानपुर ने मशहूर शायर फैज अहमद फैज की नज़्म "” हम देखेंगे ...........”” की इस बात की जांच करा रहा हैं की कनही यह "”देशद्रोह"” अथवा गैर हिन्दू {{ आर्य एवं वेदिक धर्म में निराकार की उपासना होती हैं }} तो नहीं ? शासक के ज़ुल्मो क खिलाफ जनता की आवाज को बुलंद करने वाली नज़्म की जांच करने वाले का "”ज्ञान"” क्या होगा ?? इसी तर्ज़ पर अमेरिकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग की कविता "”” हम होंगे कामयाब "” की भी जांच की जा सकती हैं , क्योंकि उन्होने ने भी अपने देश के "”रंगभेद "” कानून के खिलाफ आंदोलन चलाया था |

अंत में बस यही कहना हैं की सत्तर साल के लोकतन्त्र में अब "”पहनावा – खानपान --और व्यवहार "”” क्या सभी सरकार ही तय करेगी ?? जैसा हिटलर ने जर्मनी में और स्टेलिन ने सोवियत यूनियन में किया था ? क्या सरकार के काम का विरोध देशद्रोह हैं ? जबकि सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार अपने फैसलो में दुहरा चुका हैं की --- सरकार का विरोध राष्ट्र द्रोह नहीं हैं -----क्योंकि सरकार ही राष्ट्र नहीं हैं | सरकार जनता की प्रतिनिधि हैं -जबकि राष्ट्र में समस्त निवासी और सरकार भी शामिल हैं |