सत्ता
में बने रहने की ज़िद ---महाभारत
और अभिमन्यु तथा अश्वथामा
!!!
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सनातन
धरम में राम और कृष्ण को पूर्ण
अवतार माना गया हैं |
परंतु
अगर हम काश्मीर से कन्याकुमारी
तक का सर्वेक्षन करे तो देखेंगे
की --सर्वाधिक
मंदिर शिव और उनके परिवार के
पाये जाते हैं |
उसके
बाद कृष्ण के तथा मर्यादा
पुरुषोतम राम के मंदिर कम ही है | |
यद्यपि
विष्णु के मंदिर दक्षिण भारत
में बहुतायत से हैं |
उनमें
सर्वाधिक प्रसिद्ध -तिरुयनतपुरम
का स्वामी पद्मनाभ का प्राचीनतम
मंदिर हैं |
वास्तव
में हजारो साल तक केरल की
त्रिवंकुर और कोचीन रियासतो
का शासक ----लिखत
-पडत
में इन्हे राजा मानते थे | |
इनके
विग्रह की अनुमति के बिना कोई
राजकीय कार्य नहीं संपादित
होता था |
इसी
कारण केरल को "”
भगवान
का अपना प्रदेश "”
कह
जाता हैं -और
आज भी कहा जाता हैं !
यानहा
के राजा को दीवान कह जाता था
| क्योंकि
वे ही स्वामी की ओर से राज -काज
चलाते थे |
इष्ट
के प्रति ऐसी निस्ठा शायद ओरछा
के रामराजा मंदिर में भी हैं
| परंतु
यानहा के राजा स्वयं को राजा
कहते थे |
राजसत्ता
का असली स्वरूप {
दोनों
ही रूपो में }महाभारत
में देखने को मिलता हैं |
क्योंकि
आज के युग में राम और लक्ष्मण
जैसे चरित्र तो नहीं दिखाई
पड़ते ,
परंतु
महाभारत के चरित्र अपने आस
- पास
गार्डन मैं घूमते ही मिल जाएँगे
! हाँ
श्री कृष्ण जैसा तो कोई नहीं
ही मिलेगा ,
हाँ
पौंड्र वसुदेव तो मिल जाएंगे
| जिनहे
नकली वासुदेव भी कहा गया था
|
महाभारत
की कहानी तो टीवी पर सभी ने
देखि होगी ,
उसे
दोहराने का मतलब नहीं |
इस
आलेख के बिन्दु हैं ---
सत्ता
में सतत बने रहने की येन केन
प्रकारेंन कोशिस ,
तथा
धरम और नीति का संघराश |
इस
कथा में जितना दैविक हस्तक्छेप
बतया गया हैं उतना रामकथा में
नहीं हैं |
उत्तर
प्रदेश में अगर राम -राम
या जय सिया राम अभिवादन था तो
, गुजरात
-सौराष्ट्र
में जय श्री कृष्ण ही अभिवादन
हैं |
परंतु
जिस प्रकार "”बाहुबलियो
और हिंदुवादियों "”द्वरा
जय श्री राम के उद्घोष को वार
क्राइ अथवा "”युद्धघोष
"
बना
दिया |
वैसा
जय श्री कृष्ण के साथ नहीं हो
सका ?
सवाल
हैं की जिस विराट व्यक्तित्व
ने ,
महाभारत
युद्ध को 18
दिन
अपने अनुसार चलाया,
उसे
भारतीय सेना की कोई भी पलटन
{
रेजीमेंट}
ने
युद्धघोष
क्यू नहीं बनाया ?
खैर
, अब
बात करे युद्ध के चरित्रों
की |
जिनको
हमे हमे आज के युग /समय
में खोजना हैं |
सबसे
पहले नाम ले सकते हैं महानायक
गंगा पुत्र देवव्रत जिन्हे
हम भीष्म पितामह के रूप मे
जानते हैं |
उस
काल में "”असत्य
भाषण "”
दंडनीय
था ,
सामाजिक
और कानूनी रूप से भी |उन्हे
उनकी भीषण प्रतिज्ञा केआजीवन
पालन कारण ही आज भी सनातनी
अपना पूर्वज मान कर चारो वर्ण
के लोग ,
उनका
तर्पण करते है
| जो
सम्मान अथवा श्रद्धा परमात्मा
के पूर्ण और आंशिक अवतारो को
नहीं दिया गया हैं |
कितनी
विचित्र है हमारे ऋषियों की
व्यवस्था हैं ,
की
जो स्थान वेदिक कर्मकांड में
शांतनु पुत्र देवव्रत को है
वह स्वयं अवतारो को नहीं हैं
! भीष्म
का कोई मंदिर नहीं हैं ,
पर
वे वेदिक देवताओ ब्रह्मा
-विष्णु
और शिव से भी ऊंचे स्थान पाते
हैं |
एक
पूर्वज की भांति !!
परंतु
पिता को दिये वचन की "”
सिंहासन
"”
के
प्रति उनकी प्रतिबाध्यता ने
उन्हे "”
चीर
हरण – द्यूत क्रिणा "”
जैसे
अधरम का मूक दर्शक बनने पर
मजबूर हुए |
सत्य
के प्रति सन्नध रहने वाले देव
व्रत को ध्रथराष्ट्र की अंधी
सत्ता लिप्सा का जिम्मेदार
बनना पड़ा |
ना
केवल अन्याय के लिए युद्ध
करना पड़ा वरन अपने पौत्र और
प्रपौत्र पर प्रहार करना पड़ा
|यह
सब उस दुर्योधन के के कारण
-----
जिसे
वे स्वयं भी "
अन्याय
और अधरम का साथी मानते थे "”|
कुछ
ऐसा ही आज की सत्तारुड पार्टी
के वारिसठों द्वारा "”
स्वस्थ्य
राजनीति के स्थान पर -----
भय
और सत्ता के दुरुपयोग के सहारे
सरकार की
कुर्सी तक पाहुचने की तरकीब
को बढने दिया "”
|
धर्म
को राजनीति में जोड़ने का
इतिहास बहुत ही अन्यायपूर्ण
रहा हैं |
पश्चिम
में मध्यकाल में पोप का राजतंत्र
में दाखल ने ही ब्रिटेन में
एलीज़ाबेथ {प्रथम}
को
प्रोटेस्टेंट {
अर्थात
विरोध करने वाले }
धरम
शुरू करना पड़ा |
खैर
बात करते हैं अभिमन्यु और
अश्वथामा की ,
एक
ने प्राण देकर अमरता पायी
----- तो
दूसरी ओर अश्व्थ्मा अमर हो
कर भी भयानक पाप के भागी
बने ----
एक
पिसाच के रूप में गलित कुष्ठ
लेकर श्रष्टि के अंत तक जीवित
रहने का श्राप भोग रहे हैं |
गौर
करने वाली बात हैं की अमरता
प्रापत करने के लिए मानव -
दानव
और राक्षस लोगो ने हजारो वर्ष
तपस्या की परंतु नहीं पा सके
| और
जिसे जनम से यह प्रसाद मिला
उसको यह श्राप सिद्ध हुआ !!
क्या
दैविक न्याय हैं !
हर
युग में ऐसा ही होता हैं ,
कम
से कम सनातनी धर्म के मानने
वाले तो विश्वास करते हैं |
जब
मणिधारी अश्वथामा को उसके
अन्याया का इस युग में दंड
मिलेगा ,
जिस
पर विश्वास हैं |
तो
अभिमन्यु मर कर भी लोगो की
यादों में अमर है,,,,
और
पातकी अमर ब्रांहण ,
आज
भी पिसचो की भांति कनही भटक
रहा होगा !
क्या
आज ऐसा नहीं हो रहा हैं ?
क्या
महाभारत नहीं हो रहा ?
भूख
- बीमारी
-बेरोजगारी
भोग रही जनता को शासक क्या
धैर्य बंधा रही हैं ?
अथवा
फिर वही वादे जिनहे जुमले
में बदलते हुए समय नहीं लगता
? क्या
आज भारत राष्ट्र की जनता
सचमुच सुखी हैं ?
समय
ही इसका जवाब देगा !
इस
युद्ध में – एक ओर सम्पूर्ण
कुरु राष्ट्र की सेना ,सहयोगीयो
के साथ थी ,
तो
मुक़ाबले में अपने अधिकार के
लिए लड़ रहे पांडवो के रिश्तेदार
सेना सहित थे |
कृष्ण
की चतुरंगिणी सेना भी दुर्योधन
के अधीन थी |
और
स्वयं क्रष्ण ,
युद्ध
में हथियार न उठाने की प्रतिज्ञ
के साथ ,
अर्जुन
के सारथी बने हुए थे !
संख्या
और साधन में वही अंतर था जो सौ
कौरव और पाँच पांडव के अनुपात
में था |
कौरवो
की ओर दैवी शक्ति सम्पन्न लोग
अधिक थे ,
भीष्म
---कर्ण
--जयधरथ
--तथा
अश्वत्थामा |
इन
सभी को मानव समान मौत नहीं
होने की शक्ति थी |
संख्या
बल और मौत के ऊपर भी नियंत्रण
की शक्ति भी इन लोगो को कुरुछेत्र
में "”
रक्षा
नहीं कर सकी "'!
इन
सब चरित्रों में अश्वथामा
---और
अभिमन्यु की तुलना देश की
वर्तमान राजनीतिक माहौल से
की जा सकती हैं |
खोजा
जा सकता हैं कारण और साम्य को
|
अठारह
वर्ष का युवक अभिमन्यु का
चक्रयवूह में जिस प्रकार पाँच
-
पाँच
महारथियो ने मिलकर "”
अनीति
पूर्वक "”
हत्या
की ,
वह
18
दिन
के युद्ध में "”प्रथम
मर्यादा भंग थी "”
| आखिर
बलशाली कौरव सेना के महरथियों
को क्यू दुर्योधन की ज़िद {
जो
नियम वीरुध थी }
के
सामने झुकना पड़ा ?
क्या
इसलिए की वह सम्राट के अधिकारो
का प्रयोग कर रहे थे ?
इसलिए
किसी ने विरोध नहीं किया की
---
वे
"”राष्ट्र
द्रोही '’’
कहलाएँगे
?
जैसा
आज हो रहा हैं !
नीति
और नागरिक अधिकारो की अवहेलना
हो रही हैं |
और
न्याय चुपचाप मूक दर्शक बना
हुआ है !
शकुनि
के छल -प्रपंच
का उत्तर क जनता कैसे दे ?
क्योंकि
जब जनता के सुख और रक्षा के
लिए नियम सिंहासन की प्रस्न्न्ता
-अप्रसन्नता
को ध्यान में रख कर दायित्व
का निर्वहन करे ?
जब
गणतन्त्र के चुनावो पर शंका
की छाया हो ,
जब
चुनावी पंच -फरियादी
को राहत के बजाय सरकार की
भ्रकुटी को देखता रहे !
क्या
जब न्याय की कुर्सी पर बैठा
व्यक्ति अपने सुख के खातिर
जनता के अधिकारो को अनदेखा
कर दे ?
जब
प्रक्रिया का हवाला देकर ---
उद्देश्य
को निर्जीव बना दिया जाये ?
कर्मकांड
या प्रक्रिया ,उद्देश्यपरक
होती हैं |
परंतु
उद्देश्य की अवहेलना हो तब
व्यर्थ हैं !
अदालते
हो या अन्य संवैधानिक निकाय
हो ,
सभी
सरकार के मुखापेक्षी हो गए
हैं !
स्मरण
करो क्या यही सब महाभारत का
कारण नहीं बना था !
महानगरो
और उद्योग नागरियों से जब
उतार प्रदेश और बिहार -उड़ीसा
आदि के मजदूर ट्रको से बसो से
और सायकीलों से रिक्शो से
यानहा तक सैकड़ो मील की यात्रा
पर सपरिवार पैदल निकल पड़े थे
, तब
शासन सिर्फ उन्हे रोकता रहा
! जिन
लोगो के पास खाने का पैसा नहीं
उनसे पुलिस डंडे मारकर "घर
जाने को कहती थी ,
जनहा
से उन्हे किराया नहीं दे पाने
के कारण निकाल दिया गया था !
परंतु
राजनीतिक नेत्रत्व और नौकरशाही
इनके कष्टो से "”बेफिक्र
थी "”
| प्रवासी
मजदूरो [लगभग
14 करोड़
} के
लिए एक ही हाथ आगे आया था
-----अभिनेता
सोनू सूद का !
जिसको
लेकर राजनीतिक पार्टिया और
महाराष्ट्र सरकार भी प्रश्न्न
नहीं थी ?
क्यू
की उसका प्रयास जनता को राहत
देने वाला था !
जो
सरकार बनाने वाली पार्टियो
का उद्देश्य नहीं होता |
वे
तो सिर्फ सारी ताकत -नैतिक
– अनैतिक रूप से पाँच साल में
होने वाले चुनावो होता है |
मतदाता
के सामने नाग नाथ और सांपनाथ
में से चुनने की आज़ादी होती
हैं |
जो
सौ के एक नोट -या
शराब अथवा खाने पर बिक जाता
हैं !
ऐसे
लोग सरकार बनाते हैं |
तो
उन्हे सोनू सूद के निस्वार्थ
सेवा भाव में संदेह होता हैं
|
नौकरशाही
पूछती हैं ---क्यू
परेशान ह इन नंगे -भूखों
को इनके घर बेचने के लिए अपना
पैसा बर्बाद कर रहे हो !
वे
भूल जाते हैं की 700
से
अधिक मेडिकल छत्रों को किरगिस्तान
से भारत हवाई जहाज से भी वही
लाया |
मीडिया
भी उसके प्रयासो को दिखने से
परहेज करता रहा ,,क्यूंकी
प्रदेश की और केंद्र की सरकार
नाखुश थी |क्यूंकी
आपदा राहत कार्य से वह लोकप्रिय
हो रहा था |
ऐसा
है आज का राष्ट्र !
जिस
कुरु राष्ट्र में वर्ण व्यवस्था
के कारण सूतपुत्र कर्ण को
अपना सामर्थ्य दिखने का अवसर
बार -बार
खोना पड़ा ,
जनहा
ब्रांहण ही उच्च वर्ण का था
|
महान
ऋषि भारद्वाज के पुत्र
द्रोणाचार्य का पुत्र अस्वाथामा
जन्म से माथे पर मणि लेकर पैदा
हुआ था |
जो
उसे व्याधि -और
म्रत्यु से मुक्त करता था
|जैसे
कर्ण जनम से अभेद्य कवच और
कुंडल लेकर पैदा हुआ था |
जो
उसे अविजित बनाता था |
परंतु
इन दोनों व्यक्तियों में दैविक
शक्तियों के बावजूद कर्ण के
अन्तर्मन में धर्म का द्वंद
था |
परंतु
वह सूत पुत्र की पहचान वाला
,
अनमने
ढंग से दुर्योधन की अनीति का
साथी था |
वनही
ब्रांहण अश्वथामा गुरुकुल
में राजपुत्रो की शिक्षा के
दौरान ही ---
लालची
था |
दुर्योधन
ने उसकी कमजोरी का लाभ लिया
|
सत्ता
की ज़िद और पराजित होने के बाद
भी पांडवो के वीरुध उसका द्वेष
बना रहा |
जैसा
आज की राजनीति में हो रहा हैं
|
सही
ढंग से पराजित योद्धा दल बदल
करा कर सत्ता हथियाना चाहते
हैं |
कभी
सफल होते हैं ---तो
कभी असफल |
जैसा
की कर्नाटका और मध्य प्रदेश
में मणिपुर में हुआ |
परंतु
दिल्ली और राजस्थान में "”
मणिधारी
सत्तारुड दल "”
को
पराजित होना पड़ा |
चुनावो
की संवैधानिक संस्था निर्वाचन
आयोग को भी "”
सत्ता
ने मौन होकर अन्य को देखते
रहने पर मजबूर किया <
जैसा
की कौरव और पांडवो की गुरुकुल
शिक्षा क बाद सम्राट के सामने
शौर्य प्रदर्शन के समय अश्वत्थामा
ने अनीति की !
जो
बाद में बदती ही गयी |
अंततः
दुर्योधन की अंतिम समय के कथन
को पूरा करने के लिए ,
पांडवो
के पांचों पुत्रो की सोते समय
"”हत्या
की "”
| इतना
ही नहीं अपनी मणि के प्रभाव
से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा
के गर्भ में पल रहे ,
शिशु
को ब्रह्मास्त्र से मार दिया
|
तब
श्री कृष्ण ने उसकी मणि को
निकाल कर """मानव
बना दिया "””फिर
पिसाच हो कर जीवित रहने का
श्राप दिया |
“”” क्या
भारतीय गणतन्त्र अभिमन्यु
बन कर जिएगा अथवा अश्वाथामा
बन कर पिसाच की भांति अंधेरे
में भटकेगा ?
चलते
चलते – चंद लाइने :-
नहीं
गयी हैं सती प्रथा ,
ना
ही खतम हुआ हैं सूट पुत्र और
छत्रीय का अंतर |
लगता
हैं एक और महाभारत करना होगा
|
इंका
अंत करने को ,
खोलने
होंगे सभी मंदिरो के पट ,
प्रवेश
के लिए कुंवा-बावड़ी
-तालाब
और शमशान -मानवो
के लिए |
पर
कौन होगा वह कृष्ण ,
जो
करेगा जरासंध -कंस
का वध,
कौन
छलेगा--शकुनि
जैसों से जिनका उद्देश्य ही
अधरम को धर्म से ढकने का है ,
दुर्योधन
के लिए बस राजसत्ता का सूख ही
श्रेय हैं |
हैं
कोई भीष्म -
जो
मूल्यो की रक्षा के लिए बाणो
की शैय्या पर लेटे?
प्रजा
के लिए ,और
सत्य तथा धरम के लिए ?
यक्ष
प्रश्न हैं |