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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Aug 15, 2020


सत्ता में बने रहने की ज़िद ---महाभारत और अभिमन्यु तथा अश्वथामा !!!
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सनातन धरम में राम और कृष्ण को पूर्ण अवतार माना गया हैं | परंतु अगर हम काश्मीर से कन्याकुमारी तक का सर्वेक्षन करे तो देखेंगे की --सर्वाधिक मंदिर शिव और उनके परिवार के पाये जाते हैं | उसके बाद कृष्ण के तथा मर्यादा पुरुषोतम राम के मंदिर कम ही है | | यद्यपि विष्णु के मंदिर दक्षिण भारत में बहुतायत से हैं | उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध -तिरुयनतपुरम का स्वामी पद्मनाभ का प्राचीनतम मंदिर हैं | वास्तव में हजारो साल तक केरल की त्रिवंकुर और कोचीन रियासतो का शासक ----लिखत -पडत में इन्हे राजा मानते थे | | इनके विग्रह की अनुमति के बिना कोई राजकीय कार्य नहीं संपादित होता था | इसी कारण केरल को "” भगवान का अपना प्रदेश "” कह जाता हैं -और आज भी कहा जाता हैं ! यानहा के राजा को दीवान कह जाता था | क्योंकि वे ही स्वामी की ओर से राज -काज चलाते थे | इष्ट के प्रति ऐसी निस्ठा शायद ओरछा के रामराजा मंदिर में भी हैं | परंतु यानहा के राजा स्वयं को राजा कहते थे |
राजसत्ता का असली स्वरूप { दोनों ही रूपो में }महाभारत में देखने को मिलता हैं | क्योंकि आज के युग में राम और लक्ष्मण जैसे चरित्र तो नहीं दिखाई पड़ते , परंतु महाभारत के चरित्र अपने आस - पास गार्डन मैं घूमते ही मिल जाएँगे ! हाँ श्री कृष्ण जैसा तो कोई नहीं ही मिलेगा , हाँ पौंड्र वसुदेव तो मिल जाएंगे | जिनहे नकली वासुदेव भी कहा गया था | महाभारत की कहानी तो टीवी पर सभी ने देखि होगी , उसे दोहराने का मतलब नहीं | इस आलेख के बिन्दु हैं --- सत्ता में सतत बने रहने की येन केन प्रकारेंन कोशिस , तथा धरम और नीति का संघराश | इस कथा में जितना दैविक हस्तक्छेप बतया गया हैं उतना रामकथा में नहीं हैं | उत्तर प्रदेश में अगर राम -राम या जय सिया राम अभिवादन था तो , गुजरात -सौराष्ट्र में जय श्री कृष्ण ही अभिवादन हैं | परंतु जिस प्रकार "”बाहुबलियो और हिंदुवादियों "”द्वरा जय श्री राम के उद्घोष को वार क्राइ अथवा "”युद्धघोष " बना दिया | वैसा जय श्री कृष्ण के साथ नहीं हो सका ? सवाल हैं की जिस विराट व्यक्तित्व ने , महाभारत युद्ध को 18 दिन अपने अनुसार चलाया, उसे भारतीय सेना की कोई भी पलटन { रेजीमेंट} ने युद्धघोष क्यू नहीं बनाया ? खैर , अब बात करे युद्ध के चरित्रों की | जिनको हमे हमे आज के युग /समय में खोजना हैं |
सबसे पहले नाम ले सकते हैं महानायक गंगा पुत्र देवव्रत जिन्हे हम भीष्म पितामह के रूप मे जानते हैं | उस काल में "”असत्य भाषण "” दंडनीय था , सामाजिक और कानूनी रूप से भी |उन्हे उनकी भीषण प्रतिज्ञा केआजीवन पालन कारण ही आज भी सनातनी अपना पूर्वज मान कर चारो वर्ण के लोग , उनका तर्पण करते है | जो सम्मान अथवा श्रद्धा परमात्मा के पूर्ण और आंशिक अवतारो को नहीं दिया गया हैं | कितनी विचित्र है हमारे ऋषियों की व्यवस्था हैं , की जो स्थान वेदिक कर्मकांड में शांतनु पुत्र देवव्रत को है वह स्वयं अवतारो को नहीं हैं ! भीष्म का कोई मंदिर नहीं हैं , पर वे वेदिक देवताओ ब्रह्मा -विष्णु और शिव से भी ऊंचे स्थान पाते हैं | एक पूर्वज की भांति !! परंतु पिता को दिये वचन की "” सिंहासन "” के प्रति उनकी प्रतिबाध्यता ने उन्हे "” चीर हरण – द्यूत क्रिणा "” जैसे अधरम का मूक दर्शक बनने पर मजबूर हुए | सत्य के प्रति सन्नध रहने वाले देव व्रत को ध्रथराष्ट्र की अंधी सत्ता लिप्सा का जिम्मेदार बनना पड़ा | ना केवल अन्याय के लिए युद्ध करना पड़ा वरन अपने पौत्र और प्रपौत्र पर प्रहार करना पड़ा |यह सब उस दुर्योधन के के कारण ----- जिसे वे स्वयं भी " अन्याय और अधरम का साथी मानते थे "”| कुछ ऐसा ही आज की सत्तारुड पार्टी के वारिसठों द्वारा "” स्वस्थ्य राजनीति के स्थान पर ----- भय और सत्ता के दुरुपयोग के सहारे सरकार की कुर्सी तक पाहुचने की तरकीब को बढने दिया "” |
धर्म को राजनीति में जोड़ने का इतिहास बहुत ही अन्यायपूर्ण रहा हैं | पश्चिम में मध्यकाल में पोप का राजतंत्र में दाखल ने ही ब्रिटेन में एलीज़ाबेथ {प्रथम} को प्रोटेस्टेंट { अर्थात विरोध करने वाले } धरम शुरू करना पड़ा |
खैर बात करते हैं अभिमन्यु और अश्वथामा की , एक ने प्राण देकर अमरता पायी ----- तो दूसरी ओर अश्व्थ्मा अमर हो कर भी भयानक  पाप के भागी बने ---- एक पिसाच के रूप में गलित कुष्ठ लेकर श्रष्टि के अंत तक जीवित रहने का श्राप भोग रहे हैं | गौर करने वाली बात हैं की अमरता प्रापत करने के लिए मानव - दानव और राक्षस लोगो ने हजारो वर्ष तपस्या की परंतु नहीं पा सके | और जिसे जनम से यह प्रसाद मिला उसको यह श्राप सिद्ध हुआ !! क्या दैविक न्याय हैं ! हर युग में ऐसा ही होता हैं , कम से कम सनातनी धर्म के मानने वाले तो विश्वास करते हैं | जब मणिधारी अश्वथामा को उसके अन्याया का इस युग में दंड मिलेगा , जिस पर विश्वास हैं | तो अभिमन्यु मर कर भी लोगो की यादों में अमर है,,,, और पातकी अमर ब्रांहण , आज भी पिसचो की भांति कनही भटक रहा होगा ! क्या आज ऐसा नहीं हो रहा हैं ? क्या महाभारत नहीं हो रहा ? भूख - बीमारी -बेरोजगारी भोग रही जनता को शासक क्या धैर्य बंधा रही हैं ? अथवा फिर वही वादे जिनहे जुमले में बदलते हुए समय नहीं लगता ? क्या आज भारत राष्ट्र की जनता सचमुच सुखी हैं ? समय ही इसका जवाब देगा !
इस युद्ध में – एक ओर सम्पूर्ण कुरु राष्ट्र की सेना ,सहयोगीयो के साथ थी , तो मुक़ाबले में अपने अधिकार के लिए लड़ रहे पांडवो के रिश्तेदार सेना सहित थे | कृष्ण की चतुरंगिणी सेना भी दुर्योधन के अधीन थी | और स्वयं क्रष्ण , युद्ध में हथियार न उठाने की प्रतिज्ञ के साथ , अर्जुन के सारथी बने हुए थे ! संख्या और साधन में वही अंतर था जो सौ कौरव और पाँच पांडव के अनुपात में था | कौरवो की ओर दैवी शक्ति सम्पन्न लोग अधिक थे , भीष्म ---कर्ण --जयधरथ --तथा अश्वत्थामा | इन सभी को मानव समान मौत नहीं होने की शक्ति थी | संख्या बल और मौत के ऊपर भी नियंत्रण की शक्ति भी इन लोगो को कुरुछेत्र में "” रक्षा नहीं कर सकी "'! इन सब चरित्रों में अश्वथामा ---और अभिमन्यु की तुलना देश की वर्तमान राजनीतिक माहौल से की जा सकती हैं | खोजा जा सकता हैं कारण और साम्य को |
अठारह वर्ष का युवक अभिमन्यु का चक्रयवूह में जिस प्रकार पाँच - पाँच महारथियो ने मिलकर "” अनीति पूर्वक "” हत्या की , वह 18 दिन के युद्ध में "”प्रथम मर्यादा भंग थी "” | आखिर बलशाली कौरव सेना के महरथियों को क्यू दुर्योधन की ज़िद { जो नियम वीरुध थी } के सामने झुकना पड़ा ? क्या इसलिए की वह सम्राट के अधिकारो का प्रयोग कर रहे थे ? इसलिए किसी ने विरोध नहीं किया की --- वे "”राष्ट्र द्रोही '’’ कहलाएँगे ? जैसा आज हो रहा हैं ! नीति और नागरिक अधिकारो की अवहेलना हो रही हैं | और न्याय चुपचाप मूक दर्शक बना हुआ है ! शकुनि के छल -प्रपंच का उत्तर क जनता कैसे दे ? क्योंकि जब जनता के सुख और रक्षा के लिए नियम सिंहासन की प्रस्न्न्ता -अप्रसन्नता को ध्यान में रख कर दायित्व का निर्वहन करे ? जब गणतन्त्र के चुनावो पर शंका की छाया हो , जब चुनावी पंच -फरियादी को राहत के बजाय सरकार की भ्रकुटी को देखता रहे ! क्या जब न्याय की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने सुख के खातिर जनता के अधिकारो को अनदेखा कर दे ? जब प्रक्रिया का हवाला देकर --- उद्देश्य को निर्जीव बना दिया जाये ? कर्मकांड या प्रक्रिया ,उद्देश्यपरक होती हैं | परंतु उद्देश्य की अवहेलना हो तब व्यर्थ हैं ! अदालते हो या अन्य संवैधानिक निकाय हो , सभी सरकार के मुखापेक्षी हो गए हैं ! स्मरण करो क्या यही सब महाभारत का कारण नहीं बना था !
महानगरो और उद्योग नागरियों से जब उतार प्रदेश और बिहार -उड़ीसा आदि के मजदूर ट्रको से बसो से और सायकीलों से रिक्शो से यानहा तक सैकड़ो मील की यात्रा पर सपरिवार पैदल निकल पड़े थे , तब शासन सिर्फ उन्हे रोकता रहा ! जिन लोगो के पास खाने का पैसा नहीं उनसे पुलिस डंडे मारकर "घर जाने को कहती थी , जनहा से उन्हे किराया नहीं दे पाने के कारण निकाल दिया गया था ! परंतु राजनीतिक नेत्रत्व और नौकरशाही इनके कष्टो से "”बेफिक्र थी "” | प्रवासी मजदूरो [लगभग 14 करोड़ } के लिए एक ही हाथ आगे आया था -----अभिनेता सोनू सूद का ! जिसको लेकर राजनीतिक पार्टिया और महाराष्ट्र सरकार भी प्रश्न्न नहीं थी ? क्यू की उसका प्रयास जनता को राहत देने वाला था ! जो सरकार बनाने वाली पार्टियो का उद्देश्य नहीं होता | वे तो सिर्फ सारी ताकत -नैतिक – अनैतिक रूप से पाँच साल में होने वाले चुनावो होता है | मतदाता के सामने नाग नाथ और सांपनाथ में से चुनने की आज़ादी होती हैं | जो सौ के एक नोट -या शराब अथवा खाने पर बिक जाता हैं ! ऐसे लोग सरकार बनाते हैं | तो उन्हे सोनू सूद के निस्वार्थ सेवा भाव में संदेह होता हैं | नौकरशाही पूछती हैं ---क्यू परेशान ह इन नंगे -भूखों को इनके घर बेचने के लिए अपना पैसा बर्बाद कर रहे हो ! वे भूल जाते हैं की 700 से अधिक मेडिकल छत्रों को किरगिस्तान से भारत हवाई जहाज से भी वही लाया | मीडिया भी उसके प्रयासो को दिखने से परहेज करता रहा ,,क्यूंकी प्रदेश की और केंद्र की सरकार नाखुश थी |क्यूंकी आपदा राहत कार्य से वह लोकप्रिय हो रहा था | ऐसा है आज का राष्ट्र !

जिस कुरु राष्ट्र में वर्ण व्यवस्था के कारण सूतपुत्र कर्ण को अपना सामर्थ्य दिखने का अवसर बार -बार खोना पड़ा , जनहा ब्रांहण ही उच्च वर्ण का था | महान ऋषि भारद्वाज के पुत्र द्रोणाचार्य का पुत्र अस्वाथामा जन्म से माथे पर मणि लेकर पैदा हुआ था | जो उसे व्याधि -और म्रत्यु से मुक्त करता था |जैसे कर्ण जनम से अभेद्य कवच और कुंडल लेकर पैदा हुआ था | जो उसे अविजित बनाता था | परंतु इन दोनों व्यक्तियों में दैविक शक्तियों के बावजूद कर्ण के अन्तर्मन में धर्म का द्वंद था | परंतु वह सूत पुत्र की पहचान वाला , अनमने ढंग से दुर्योधन की अनीति का साथी था | वनही ब्रांहण अश्वथामा गुरुकुल में राजपुत्रो की शिक्षा के दौरान ही --- लालची था | दुर्योधन ने उसकी कमजोरी का लाभ लिया | सत्ता की ज़िद और पराजित होने के बाद भी पांडवो के वीरुध उसका द्वेष बना रहा | जैसा आज की राजनीति में हो रहा हैं | सही ढंग से पराजित योद्धा दल बदल करा कर सत्ता हथियाना चाहते हैं | कभी सफल होते हैं ---तो कभी असफल | जैसा की कर्नाटका और मध्य प्रदेश में मणिपुर में हुआ | परंतु दिल्ली और राजस्थान में "” मणिधारी सत्तारुड दल "” को पराजित होना पड़ा | चुनावो की संवैधानिक संस्था निर्वाचन आयोग को भी "” सत्ता ने मौन होकर अन्य को देखते रहने पर मजबूर किया < जैसा की कौरव और पांडवो की गुरुकुल शिक्षा क बाद सम्राट के सामने शौर्य प्रदर्शन के समय अश्वत्थामा ने अनीति की ! जो बाद में बदती ही गयी | अंततः दुर्योधन की अंतिम समय के कथन को पूरा करने के लिए , पांडवो के पांचों पुत्रो की सोते समय "”हत्या की "” | इतना ही नहीं अपनी मणि के प्रभाव से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे , शिशु को ब्रह्मास्त्र से मार दिया | तब श्री कृष्ण ने उसकी मणि को निकाल कर """मानव बना दिया "””फिर पिसाच हो कर जीवित रहने का श्राप दिया | “”” क्या भारतीय गणतन्त्र अभिमन्यु बन कर जिएगा अथवा अश्वाथामा बन कर पिसाच की भांति अंधेरे में भटकेगा ?
चलते चलते – चंद लाइने :-
नहीं गयी हैं सती प्रथा , ना ही खतम हुआ हैं सूट पुत्र और छत्रीय का अंतर | लगता हैं एक और महाभारत करना होगा |
इंका अंत करने को , खोलने होंगे सभी मंदिरो के पट ,
प्रवेश के लिए कुंवा-बावड़ी -तालाब और शमशान -मानवो के लिए |
पर कौन होगा वह कृष्ण , जो करेगा जरासंध -कंस का वध,
कौन छलेगा--शकुनि जैसों से जिनका उद्देश्य ही अधरम को धर्म से ढकने का है , दुर्योधन के लिए बस राजसत्ता का सूख ही श्रेय हैं |
हैं कोई भीष्म - जो मूल्यो की रक्षा के लिए बाणो की शैय्या पर लेटे?
प्रजा के लिए ,और सत्य तथा धरम के लिए ?
यक्ष प्रश्न हैं |