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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Apr 5, 2017

पराजय की भगदड़ मे शहीद होती सपा और बसपा पार्टी

यद्यपि युद्ध के उपरांत बहुत कुछ बिखरा होता है - विजेता का भी और विजित का भी | बस दोनों पक्षो के प्रयासो मे अंतर इतना होता है की --एक गौरव गाथा की तैयारी मे लगा होता है ,तो दूसरा विरासत के टूटे टुकड़ो को बटोरने मे लगा होता है | ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश मे भी हो रहा है | इतिहास पल -पल बनता है -मुस्त्कबिल हर पल चुनौती मे रहता है | विधान सभा चुनावो मे पराजय के बाद कांग्रेस्स से अधिक ताकतवर दल--समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी मे दरकन तो चुनाव के पहले ही शुरू हो गयी थी ||गयाराम संसक्राति से अनेक "”अशंतुष्ट नेताओ की बड़ी बड़ी मांगो को पार्टी नेत्रत्व की "”बेरुखी "”से निराशा मिली }बस तभी से "”कामिटमेंट ''' नाम की चीज़ का दिवाला निकल गया था |और नेता दूसरा दर खोजने लगे थे | समाजवादी पार्टी मे तो परिवार के रिश्ते ही तार तार हो गए थे| पहले तो लगा था की क्या सुलह -सफाई इन्हे एक करे रहेगा ? यह भी संभावना हुई की शायद यह सब फ्री मे टीवी पर प्रचार का रूपक हो ? परंतु प्रोफेसर साहब के निष्कासन के बाद लगा इतना गहरे मुलायम तो सोच भी नहीं सकते |फिर परिवार को एक दिखने की कोशिस हुई | उधर बहुजन समाज पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे सौ से अधिक मुस्लिम लोगो को "””उम्मीदवार "”” बना दिया | इस उम्मीद मे की कुछ तो बाज़ी हाथ आएगी | परंतु दोनों के जहाज़ हार की सूराख से डूब गए | अब जैसा होता है डूबते जहाज़ से चूहे निकल निकल कर भाग रहे है |

इस समय एक तथ्य साफ हो गया की अलपसंख्यक और दलित वोटो की एकजुटता अब बिखर चुकी है | नाही यादव वोट समाजवादी के मौरूसी समर्थक है और ना ही दलित वोट मायावती के क़ब्ज़े मे है --जैसा की वे मास्टर कानसीरम के जमाने मे हुआ करते थे | लेखक खुद एक घटना का गवाह रहा है जब कासीराम का वोट समर्थन पाने के लिए एक उम्मीदवार ने "”बड़ी भेंट "” प्रस्तुत की थी | और वे नेता जी अपने छेत्र मे दलितो के मत पाकर विजयी हुए | अपने समर्थको पर इस स्तर का नियंत्रण अथवा समर्थको का नेता के प्रति विश्वास बिरला ही दिखाई पड़ता है उसी पार्टी के जातीय समर्थको ने इस बात बहन मायावती की बात नहीं सुनी | हालांकि बसपा सुप्रीमो इसे ईवीएम मशीनों की कारस्तानी बता रही है | सत्य क्या है भविष्य के गर्भ मे है | परंतु फिलहाल तो "”जातीय समर्थन "”' से राजनीति करने वाली परतीय "”धर्म "” की राजनीति करने वाली पार्टी से परास्त हो चुकी है | शीराज़ा बिखर चुका है | अब कोई कोई नया "”आधार "” ही इन पार्टियो को चुनावी धरातल पर खड़े रहने मे मदद कर सकता है ---- अभी तक के नुस्खे तो नाकाम सिद्ध हुए | बची काँग्रेस तो उसकी हातात तो पहले के मुक़ाबले मे और दयनीय हो चुकी है |

आज़ादी की लड़ाई से लेकर इन्दिरा गांधी तक इलाहाबाद का आनद भवन ही काँग्रेस का प्रेरणा बिन्दु रहा है | आज उसी प्रदेश मे काँग्रेस के मात्र 7 विधायक है | 2014 मे हुए लोकसभा चुनावो ने पार्टी को सैकड़े की संख्या से दहाई मे पहुंचा दिया | हालत इतने बुरे हुए की लोकसभा की संख्या का डसवा हिस्सा भी पाने मे असमर्थ काँग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद भी नहीं मिला !!!

अब इस चुनावो से दो ही निष्कर्ष निकले जाते है की ------जनता दोनों पार्टियो के ''राज़'' से खुश नहीं रही | इसलिए उसने दासियो साल बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को बागडोर दी है | पर अगर आशा की डोर टूटी तब क्या होगा ??? लाखटके का यह सवाल अभी तो नहीं भविष्य की कसौटी साबित होगा | अभी तो योगी जी का ही टीवी पर राज़ है ---पर कितने दिन तक ?? भय -भूख और शांति -व्यवस्था तथा किसानो को पानी और उपज का उचित मूल्य नहीं दिला पाने पर कनही फिर कोई टिकैत नहीं पैदा होगा --इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता |