विधान सभा चुनावो के परिणामो की कसौटी से संघ क्यो भाग रहा हैं ?
क्यों संघ मोदी की ताजपोशी को आनेवाले विधान सभा चुनावो से पहले करना चाहता था? कारण था पुराना अनुभव मोदी जब गुजरात मे चुनाव जीते तभी हिमाचल मे उनकी सरकार चुनाव हार गयी | उनका कहना था की वह '''बहुत''' छोटा सा राज्य हैं | परंतु उसके बाद कर्नाटका मे हुए चुनाव मे भी मोदी जी ने किस्मत आज़माई परंतु वनहा भी बीजेपी की करारी पराजय हुई | सफाई मे उन्होने कहा की ज्यादा वक़्त नहीं मिल पाने के कारण वे पार्टी को सत्ता मे नहीं ला सके | परंतु इन दो चुनावो से यह तो लाग्ने लगा था की मोदी की का प्रचार ही ज्यादा हैं परंतु वोट दिलाने लायक उनकी छवि नहीं हैं | इस संदर्भ मे देखे तो लगेगा की मध्य प्रदेश और छतीस गड और राजस्थान तथा दिल्ली मे होने वालों चुनावो मे मोदी के '''जादू''' की उम्मीद बहुत कम हैं | इसी लिए संघ का विचार रहा होगा की अगर काही विधान सभा चुनावो के परिणाम प्रतिकूल गए , तब मोदी को स्वीकार करने मे लोग अनेक प्रश्न उठाएंगे | फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसीट करने का ''वादा'' नहीं पूरा हो पाएगा
आखिरकार भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का भावी उम्मीदवार घोसीट कर दिया | राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के तेवर देखते हुए यह तो पहले ही साफ हो गया था की ''होगे तो मो दी ही '' प्रधान मंत्री पद पर काबिज हुए | हुआ भी ऐसा ही हैं | सवाल यह हैं की आखिर मोदी की उम्मीदवारी का क्या अर्थ हैं ? सर्व प्रथम तो संघ का सत्तर साल पुराना इरादा """"हिन्दू राष्ट्र """ को पूरा करने का मौका हैं | शायद उन्हे लग रहा हैं की पहले जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से किए गए """मुलायम""" उपाय असफल हो गए | देश मे इस्लामी आतंकवाद और विभिन्न भागो होते धमाके - छत -विछट लाशे लोगो के मन मे एक नफरत का भाव तो भर ही देते हैं | इसमे नौजवानो की संख्या कुछ ज्यादा हैं , क्योंकि वे अधिक संवेदनशील होते हैं | अतः उन पर दाव लगा कर मोदी को एक ''मूरत''' के रूप मे पेश करने का फैसला किया हैं |
तथ्य यह हैं की संघ को लाग्ने लफ था की 1990 मे पार्टी को काडर आधारित से बादल कर ""जन""आधारित बनाने का फैसला मनचाहा परिणाम देने मे असफल रहा हैं | तथा जिस ''हिन्दू राष्ट्र '' की कल्पना की ओर संघ बीजेपी को ले जाना चाहता था , उस ओर प्रगति नहीं हो रही हैं | चुनाव की राजनीति के कारण हिन्दू राष्ट्र के लिए जिस कट्टरता की ज़रूरत होनी चाहिए | वह भी पार्टी के नेताओ मे अनुपस्थित हैं | संघ को लाग्ने लगा था की उसका राजनीतिक मुखौटा अब चुनाव की राजनीति और सत्ता के सुख मे फंस गया हैं | हिमाचल से लेकर राजस्थान और छतीसगढ तथा मध्य प्रदेश मे दस साल तक सरकारो के सत्तासीन रहने पर भी '''पावन उद्देस्य''' की ओर कोई प्रगति नहीं हुई | सिवाय इसके की कुछ बयान जनता युवा मोर्चा और विद्यार्थी परिषद के बयान और जुलूस के अलावा कोई बड़ी कारवाई नहीं हुई |
इन असफलताओ के कारण से ही दो वर्ष पूर्व ही संघ ने बीजेपी पर संगठन मंत्रियो के आसरे शिकंजा कसना शुरू कर दी थी | मंत्रियो और विधायकों को साफ रूप से इशारा कर दिया गया था की वे अब अपने भविष्य के लिए पार्टी संगठन की नहीं वरन ''संघ'' के अधिकारियों की शरण मे जाएँ | परिणाम यह हुआ की ''संघ''के आश्रया स्थलो मे लाल बाती की गाड़ियो की कतार लगने लगी | पार्टी पदाधिकारियों की हैसियत शून्य सी हो गयी | दबी ज़बान से पार्टी मे यह कहा जाने की अगले चुनाव का टिकिट भी ''संघ'' की सिफारिस से ही मिलेगा | मतलब पार्टी का दांचा चरमराने लगा | पार्टी के उन नेताओ को अपना भविष्य खतरे मे लगने लगा , जो की पार्टी मे ''संघ'''के रास्ते नहीं आए थे | कुछ आशंतोष भी फैलने लगा , जो की राजनीतिक रूप से स्वाभाविक था | इन सब से पार्टी मे टूटन की प्रक्रिया प्रारम्भ होने आशंका होने लगी थी | ज़रूरत एक नारे की थी जिसका कोई '''आधार'' नहीं हो , इसलिए ''राष्ट्र'' हिन्दुत्व'' आदि शब्द गाड़े गए | जिनको पूरा करने के लिए मोदी को लाया गया जिनहोने गुजरात मे संघ के अस्तित्व को ही मिटा दिया |
क्यों संघ मोदी की ताजपोशी को आनेवाले विधान सभा चुनावो से पहले करना चाहता था? कारण था पुराना अनुभव मोदी जब गुजरात मे चुनाव जीते तभी हिमाचल मे उनकी सरकार चुनाव हार गयी | उनका कहना था की वह '''बहुत''' छोटा सा राज्य हैं | परंतु उसके बाद कर्नाटका मे हुए चुनाव मे भी मोदी जी ने किस्मत आज़माई परंतु वनहा भी बीजेपी की करारी पराजय हुई | सफाई मे उन्होने कहा की ज्यादा वक़्त नहीं मिल पाने के कारण वे पार्टी को सत्ता मे नहीं ला सके | परंतु इन दो चुनावो से यह तो लाग्ने लगा था की मोदी की का प्रचार ही ज्यादा हैं परंतु वोट दिलाने लायक उनकी छवि नहीं हैं | इस संदर्भ मे देखे तो लगेगा की मध्य प्रदेश और छतीस गड और राजस्थान तथा दिल्ली मे होने वालों चुनावो मे मोदी के '''जादू''' की उम्मीद बहुत कम हैं | इसी लिए संघ का विचार रहा होगा की अगर काही विधान सभा चुनावो के परिणाम प्रतिकूल गए , तब मोदी को स्वीकार करने मे लोग अनेक प्रश्न उठाएंगे | फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसीट करने का ''वादा'' नहीं पूरा हो पाएगा
आखिरकार भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का भावी उम्मीदवार घोसीट कर दिया | राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के तेवर देखते हुए यह तो पहले ही साफ हो गया था की ''होगे तो मो दी ही '' प्रधान मंत्री पद पर काबिज हुए | हुआ भी ऐसा ही हैं | सवाल यह हैं की आखिर मोदी की उम्मीदवारी का क्या अर्थ हैं ? सर्व प्रथम तो संघ का सत्तर साल पुराना इरादा """"हिन्दू राष्ट्र """ को पूरा करने का मौका हैं | शायद उन्हे लग रहा हैं की पहले जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से किए गए """मुलायम""" उपाय असफल हो गए | देश मे इस्लामी आतंकवाद और विभिन्न भागो होते धमाके - छत -विछट लाशे लोगो के मन मे एक नफरत का भाव तो भर ही देते हैं | इसमे नौजवानो की संख्या कुछ ज्यादा हैं , क्योंकि वे अधिक संवेदनशील होते हैं | अतः उन पर दाव लगा कर मोदी को एक ''मूरत''' के रूप मे पेश करने का फैसला किया हैं |
तथ्य यह हैं की संघ को लाग्ने लफ था की 1990 मे पार्टी को काडर आधारित से बादल कर ""जन""आधारित बनाने का फैसला मनचाहा परिणाम देने मे असफल रहा हैं | तथा जिस ''हिन्दू राष्ट्र '' की कल्पना की ओर संघ बीजेपी को ले जाना चाहता था , उस ओर प्रगति नहीं हो रही हैं | चुनाव की राजनीति के कारण हिन्दू राष्ट्र के लिए जिस कट्टरता की ज़रूरत होनी चाहिए | वह भी पार्टी के नेताओ मे अनुपस्थित हैं | संघ को लाग्ने लगा था की उसका राजनीतिक मुखौटा अब चुनाव की राजनीति और सत्ता के सुख मे फंस गया हैं | हिमाचल से लेकर राजस्थान और छतीसगढ तथा मध्य प्रदेश मे दस साल तक सरकारो के सत्तासीन रहने पर भी '''पावन उद्देस्य''' की ओर कोई प्रगति नहीं हुई | सिवाय इसके की कुछ बयान जनता युवा मोर्चा और विद्यार्थी परिषद के बयान और जुलूस के अलावा कोई बड़ी कारवाई नहीं हुई |
इन असफलताओ के कारण से ही दो वर्ष पूर्व ही संघ ने बीजेपी पर संगठन मंत्रियो के आसरे शिकंजा कसना शुरू कर दी थी | मंत्रियो और विधायकों को साफ रूप से इशारा कर दिया गया था की वे अब अपने भविष्य के लिए पार्टी संगठन की नहीं वरन ''संघ'' के अधिकारियों की शरण मे जाएँ | परिणाम यह हुआ की ''संघ''के आश्रया स्थलो मे लाल बाती की गाड़ियो की कतार लगने लगी | पार्टी पदाधिकारियों की हैसियत शून्य सी हो गयी | दबी ज़बान से पार्टी मे यह कहा जाने की अगले चुनाव का टिकिट भी ''संघ'' की सिफारिस से ही मिलेगा | मतलब पार्टी का दांचा चरमराने लगा | पार्टी के उन नेताओ को अपना भविष्य खतरे मे लगने लगा , जो की पार्टी मे ''संघ'''के रास्ते नहीं आए थे | कुछ आशंतोष भी फैलने लगा , जो की राजनीतिक रूप से स्वाभाविक था | इन सब से पार्टी मे टूटन की प्रक्रिया प्रारम्भ होने आशंका होने लगी थी | ज़रूरत एक नारे की थी जिसका कोई '''आधार'' नहीं हो , इसलिए ''राष्ट्र'' हिन्दुत्व'' आदि शब्द गाड़े गए | जिनको पूरा करने के लिए मोदी को लाया गया जिनहोने गुजरात मे संघ के अस्तित्व को ही मिटा दिया |