नाबालिग दुराचार अथवा नाबालिगो का दुराचार ?
दामिनी बलात्कार कांड के बाद केंद्र ने जस्टिस वर्मा को घटना के समस्त पहलुओ पर रिपोर्ट देने के लिय अधिकृत किया । महीनो में रिपोर्ट देने की चुनौती अगर समिति ने पूरी की ,तो केंद्र ने भी तुरत -फुरत में अध्यादेश ल कर अपने कहे को पूरा किया । उधर वेंकाया नायडू की संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को दे दी हैं । अपनी रिपोर्ट में समिति ने न तो बलात्कारियो के लिए फांसी की सजा की सिफारिश की ,और ना ही"किशोर " अवस्था को कम करके सोलह साल साल किये जाने की सिफारिश की । हाँ एक बात उन्होने सन्दर्भ से बाहर जा कर यह कहा हें की बलात्कार के मामले में दया याचिका को मंज़ूर नहीं किया जाए । दया याचिका के बारे में यह भी सिफारिश की हैं की राष्ट्रपति के यंहा कोई भी याचिका तीन माह से ज्यादा लंबित नहीं रहना चाहिए । अब यह सिफारिश राष्ट्रपति के विवेकधिकारो पर पाबंदी जैसी हैं । अगर अदालतों में मुक़दमें के फैसले में सालो लग जाते हैं तो याचिका के निपटारे के लिए सिर्फ तीन माह कोई उचित समय नहीं हैं ।
हालांकि संसदीय समिति ने यह माना हैं की ५ ४ % बलात्कार के अपराधी दुबारा फिर जुर्म करते हैं । अब ऐसे अपराधियों के लिए यह कहना की इन्हे सजाए मौत ना दिया जाए , कुछ समझ में आने वाली बात नहीं हैं । जब जब ऐसे अपराधी दुबारा यही जुर्म करते हैं तो उसमें भुक्तभोगी की हत्या कर दी जाती हैं । सवाल यह उठता हैं की यह कहना की ''बिरले मामले में ही '' सजाए मौत दी जानी चाहिये ।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में कहा हैं की ''बिरले मामलो ही फांसी की सजा दी जानी चाहिए , इसी को समिति ने शायद आधार माना हैं । लेकिन यंहा प्रश्न हैं की किशोर या नाबालिग क्या बलात्कार ऐसा जघन्य अपराध कर सकता हैं ?अगर ऐसा कर सकता हैं तो क्या उसे ''किशोर '' कहा जा सकता हैं ? यही सवाल आज के आलेख का भी हैं ।
समिति की रिपोर्ट में कहा गया की पति - पत्नी के संबंधो में ''बलात्कार ''को इसलिए नहीं माना जा सकता की पत्नी की सहमति नहीं हैं । हालाँकि महिला संगठन इस सिफारिश से नाराज़ हैं । लेकिन असली मुद्दा की ''क्या नाबालिग '' को गंभीर अपराधो में संलिप्तता को छोटा या माफ़ी देने लायक ''कृत्य'' हैं ?