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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 5, 2013

धर्म का डर कब तक सरकारों को सताएगा ?

 धर्म के नाम पर मनमानी का सिलसिला शायद  तब शुरू हुआ होगा जब किसी ने अपने को परमेश्वर समझा होगा । क्योंकि उसे  इस संसार में उस शक्ति के रचित  स्त्री - पुरुषो  को अपनी लाठी से हांकने का गुमान हुआ होगा । अन्यथा उसी के संसार में उसी की रचनाओ से नफरत की सीख  तो, तो कोई उस शक्ति को मानने  वाला नहीं दे सकता । अपने  को दूसरो से श्रेष्ठ समझने का अहंकार  ही मानव समाज में भेदभाव और ऊँच  नीच का  सिधान्त  लोगो को समझाएगा ।सभी धर्मो में यह बुराई  रही हैं और हैं , उम्मीद करना होगा की आगे यह खत्म हो जाए                                                                              अभी हाल में हुई कुछ घटनाओ ने ऐसा ऐसा  संकेत दिया मानो सरकार ने  समाज और धर्म के ठेकेदारों को  धर्म और  रीति -रिवाजो के नाम पर देश के कानून का मजाक  बनाने का परवाना दे  दिया हैं ।एक मसला  मध्य प्रदेश के धार  जिले का हैं दूसरा कश्मीर के ग्रैंड मुफ़्ती  बशिरुदीन  के  फतवे का हैं ।स्वामी नरेन्द्रानंद ने  प्रयाग में एक पत्रकार वार्ता में धमकी दी हैं की भोजशाला में बसंत पंचमी को अगर पूजा करने से रोक गया तो वे ''संत समाज ''को लेकर धार की और कूच करेंगे ।वंही मुफ़्ती ने लडकियों के एक बैंड को  गैर इस्लामी बताते हुए कहा की इस्लाम में संगीत की इज़ाज़त नहीं हैं । हैरत की बात हैं की श्री नगर में नब्बे फीसदी घरो में टी वी  हैं , तो क्या  वे लोग सिर्फ खबरे ही सुनते हैं ? क्या  संगीत या डांस के कार्यक्रम के समय सेट को बंद कर दिया जाता हैं ? वंही  स्वामी नरेन्द्रानंद  को सिर्फ अपने धर्म की याद हैं -राजधर्म की परवाह नहीं हैं ? जिसके अनुसार राज्य अपने सभी नागरिको को  कानून के दायरे में रह कर अपने ढंग से जीने की आज़ादी देगा । अब वे कह सकते हैं की हम भी अपने  तरीके से पूजा करना चाहते हैं । पर वह स्थान मुसलमान  भाइयो के नमाज़ की जगह हैं ।क्या मुस्लिम आक्रंताओ  द्वारा जिस प्रकार मंदिरों को गिराया गया उसी के बदले में हम उनके पूजा स्थल पर कब्जा करें? 
                                                 मुफ़्ती के फतवे पर में यही कहना चाहता हूँ  की वे पाकिस्तानी फिल्म ""खुदा के लिए ""जरूर देखे उसमें भी कुछ कठमुल्ला  मौलवियों ने संगीत को "'कुफ्र"' बताया था । जिसके जवाब में एक उदारवादी  मौलाना ने हदीस से उदहारण देते हुए बताया की पैगम्बर  दाउद  के संगीत पर तो पशु - परिंदे भी चले आते थे , तो क्या वे कुफ्र कर रहे थे ? क्या एक पैगम्बर कुफ्र कर सकता हैं ? इस सवाल का जवाब उन मौलवियो  के पास न था । अगर मुफ़्ती की बात में दम हैं तो उज़्बेकिस्तान और अज़रबैजान  मैं जो सूफी परंपरा हैं वह भी कुफ्र हैं ? हमारे यंहा  के ओलिया की दरगाहो पर होने वाली कौवाल्ली  भी  क्या गुनाह नहीं हो जाएँगी   , बशिरुदीन के फतवे की नज़र से ?विगत छह -सात सौ सालो का तो  लिखित इतिहास हैं  जिसमें दरगाहो पर संगीत की बात की पुष्टि होती हैं , अब या तो मुफ़्ती साहेब सही नहीं हैं अथवा ''वो लोग '' गलत थे , अगर ऐसा हैं तो  उन्हे यह कहना होगा की अभी तक जो हो रहा था वह गैर इस्लामिक था  ।क्या वे ऐसा कर पाएंगे ? वैसे इस्लामिक धर्म ग्रंथो के बारे में आखिरी  ''रॉय ''  अलेक्ज़ेन्ड्रिया  का दारुल-उलूम हैं , क्या वंहा से इस फतवे  पर सनद लगवा  सकते हैं ? क्या मुफ़्ती साहेब इस बात से इंकार कर  सकते हैं की अज़ान में एक संगीत हैं जो लोगो के कानो में एक रूहानी फूंक   होती हैं ? 
                         कुछ ऐसे ही कट्टर बयानबाजी  अक़बरुदीन  ओवासी  ने की थी की '''अगर पंद्रह मिनट के लिए पुलिस को चुप बैठने को कह दे तो ''हम''दिखा देंगे की  अपने से चार गुना ज्यादा लोगो को [उनका इशारा सनातनी हिन्दुओ की और था ] सबक सीखा  देंगे । अब उनकी अक़ल  को क्या कहे  , की वे इस बयान  को देकर  एक बार फिर मुसलमान  भाइयो को खतरे में डाल  रहे हैं  ,और इस बार उनके लिए ना  तो  पाकिस्तान तैयार होगा और बंगला देश में तो उनके लिए जगह नहीं हैं । फिर जायेंगे ? कंहा? कुछ ऐसा ही गैर जरूरी बयान जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी दिया  , उनका कहना था की  ""इस्लाम में सेक्युलर वाद की जगह नहीं हैं "" । इस्लाम में तीन तरह के राज्य बताये गए हैं  , दारुल इस्लाम  जंहा  शरिया कानून चलता हैं ।दूसरा हैं दारुल अमन  जंहा मुस्लमान अज़ान दे सकता हैं   और नमाज़ अदा कर सकता  हैं  और तीसरा हैं दारुल हरब  जंहा अज़ान और नमाज़ की पाबन्दी हो ।आज के समय  में   इजराएल  में भी नमाज़ की आज़ादी हैं । रही बात इस्लामिक स्टेट्स की तो वंहा भी  दो तरह से यह लागु हैं कुछ  राज्य हैं जो इस्लाम को राजधर्म तो मानते हैं पर उनके यंहा  शरियत का कानून नहीं चलता । ऐसा ही एक मुल्क हैं  इंडोनेशिया -मलेसिया जंहा इस्लामिक राज्य में भी मंदिर हैं वंहा घंटे -घड़ियाल बजते हैं जैसे यंहा पांचो वक़्त की नमाज़ की अज़ान होती हैं । वंहा कानून की नज़र में सब एक सामान हैं गवाही भी औरत -मर्द की बराबर होती हैं  ।दूसरी और सऊदी अरब  हैं जंहा शरियत का ही कानून हैं ।,  अब इन राज्यों को शाही इमाम क्या कहेंगे की ये काफिर हैं ?उन्होंने तो यंहा तक उम्मीद जाता डाली की जब ''हम'' हिंदुस्तान में  आबादी में  ज्यादा हो जायेंगे तो  सेक्युलर संविधान को ख़तम कर देंगे । अब इस बयान  पर बहुसंख्यक  आबादी का खून नहीं खौलेगा  की क्या इसीलिए  मुसलमान   परिवार नियोजन नहीं अपनाते ? एक दूसरी पाकिस्तानी फिल्म हैं ''बोल'' जिस में चौदह बच्चो में सात लड़कियां  थी , उन्हे भी  परदे में रख कर तालीम नहीं दिलाई गयी ,और गरीबी में परिवार  पिसता  रहा।  गलती से लड़की के हाथो पिता की मौत हो गयी ।फांसी की सजा के पहले  उसनेअपनी  दास्ताँ मीडिया के सामने बयां की , और सवाल किया की जब परवरिश  नहीं कर सकते तब क्यों [बच्चे]पैदा करते हों ।
                                                                                           अगर ऐसी फिल्मे  पाकिस्तान जैसे इस्लामिक स्टेट में दिखाई जा सकती हैं तो यंहा का मुस्लमान क्यों   विस्वरूपम के कुछ  शॉट्स पर हाय -तौबा मचाता हैं ? क्यों नहीं  हमारी सरकार स्वामी नरेन्द्रानंद और मुफ़्ती बशिरुदीन या ओवासी  के खिलाफ कड़ा  रुख  अपनाती  ?  दूसरो की ज़िन्दगी में दखल देने का हक,  धर्म के नाम पर इन्हें  कैसे  हासिल हैं ?
                                                                          यह सवाल भा  जा प्  या कांग्रेस का नहीं हैं  यह इस तथ्य का हैं की धर्म गुरु या ''खाप'' लोगो को कब तक डराते  रहेंगे ? कब तक लोग इनसे सिमटे रहेंगे ,क्या दामिनी के बलात्कार  की घटना के बाद उमड़ा महिला समाज आज फिर इन तीन कश्मीरी  लडकियों को उन्हे आज़ादी से जीने का हक दिलाने के लिए उठ खड़ा होगा  ? जवाब आप को हमको देना होगा ।और सरकार को दिखाना होगा की बोलने की आज़ादी  का मतलब बकवास की इज़ाज़त नहीं हैं । अगर ऐसा नहीं हुआ तो  बहुसंख्यक का बारूद फटेगा और सरकारे नेस्तनाबूद हो जाएँगी ।