चल
-चल
रे मजूरा अब तेरा देस हुआ परदेस
-
कोरोना
के कारण देश की औद्योगिक
नगरियो से अपने देस -घर
-
गाँव
जाने वाले लाखो बेबस और भूखे
प्यासे "”श्रमिकों
"”
को
उनके गाँव -राज्य
में ही घुसने पर रोक लगा दी
गयी हैं !
उड़ीसा
उच्च न्यायालय ने एक जनहित
याचिका पर फैसला देते हुए कहा
हैः -की
राज्य की सीमा में उनही मजदूरो
को प्रवेश दिया जाये जो कोरोना
की जांच में "””नेगेटिव
"”
पाये
जाने का सेर्टिफिकेट दिखाये
,
जिनके
पास नहीं हो उन्हे राज्य में
घुसने नहीं दिया जाए !
अब
हजारो मील गुजरात और महाराष्ट्र
से आए हजारो मजदूरो पर यह गाज़
आन पड़ी हैं !
क्या
इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना
चाहिए की उड़ीसा के जो लोग
कोरोना पीड़ित हैं ---उन्हे
भी राज्य से बाहर किया जाये
?
आखिर
कोरोना नेगेटिव का सेर्टिफिकेट
सिर्फ बेबस प्रवासी मजदूरो
और उनके परिवारों पर ही क्यों
?
पर
जैसे भारत सरकार ने इन करोड़ो
प्रवासी मजदूरो के बारे में
राष्ट्रीय तालबंदी या ये कहे
अघोषित कर्फ़्यू 24
मार्च
को लगाया था ----तब
उन्होने भी इन मजदूरो ---या
की कर्नाटक सरकार की भाषा में
कहे तो – "”अर्थ
व्ययस्था की रीड है "”
पर
आर्थिक पैकेज देते समय उन्हे
भी सिर्फ धोबी -
नाई
और टैक्सी ड्राइवरो की ही
चिंता की !
मजे
की बात यह हैं की जिस बिल्डर
लाबी के दबाव के चलते उन्होने
कर्नाटक से प्रवासी मजदूरो
को मुफ्त में उनके राज्यो को
ले जाने वाली "””पाँच
श्रमिक ट्रेन "”
का
परिचालन रद्द किया उनके बारे
में मुख्य मंत्री येदूरप्पा
बिलकुल मौन रहे !
कितना
बड़ा क्रूर मज़ाक हैं ,
इन
बेबस मजदूरो के प्रति |
पर
ना तो नेता या मंत्री तथा अफसरो
को इसकी परवाह हैं और नाही
हमारा टेलीविज़न मीडिया को
,
जो
अभी भी जमात और काश्मीर में
आतंकवाद पर बहस करने के नाटक
को कर रहा हैं |
गुजरात
हो या महराष्ट्र अथवा हरियाँ
याकि पंजाब सभी जगहो से उत्तर
प्रदेश को जाने वाली सड़के
यूपी और बिहार के मजदूरो की
--सैकड़ो
मील की पदयात्रा की गवाह हैं
|
ये
सड़के इसकी भी गवाह हैं की जनहा
पुलिस इन्हे राजमार्गों पर
पैदल चलने की इजजाजत नहीं देती
हैं ,
उन
पर डंडे बरसाती हैं – महिलाओ
बच्चो से भी अपमानजनक व्यवहार
करती हैं |
वंही
कुछ सड्को पर बसे गाव्न इन
लोगो को भोजन पानी दे रहे हैं
|
बहुत
से दयालु लोग भी अपनी कार से
सूखे खाद्य पदार्थ लाकर इन
फटे हाल बिना पैसे वाले लोगो
को बाँट रहे हैं |
मीडिया
का एक हिस्सा जो आज की इस विषम
हालत में भी हिन्दू -
और
मुसलमान के मुद्दे पर चीखती
चिल्लाती हैं ,
उसे
इन लाखो लोगो का दर्द नहीं
दिखाई पड़ रहा हैं ?
वे
तो सिर्फ महनगरो की बहुमंज़िली
इमारतों के फ्लॅट में रहने
वालो की थाली -
और
ताली ही दिखा सके !!
उड़ीसा
उच्च न्यायालय का फैसला विधिक
इतिहास का एक "”दुखद
अध्याय"”
ही
बनेगा ,
जिसने
भारत के नागरिक से उसके संवैधानिक
अधिकार को ----
छुआछूत
से बीमार होने के भय के कारण
इस निराशा में बेबस मजदूरो
को उनकी "गाव
की माती से दूर रखा |
यह
फैसला प्लेग की महामारी के
समय पुलिस द्वरा तथा हाकिमों
द्वरा बीमारों को घरो से निकाल
कए गाव्न के बाहर मरने के लिए
छोड़ दिया जाता था |
उस
समय इस बीमारी से लगभग दस लाख
से ज़्यदा लोग अविभाजित बंगाल
में '’काल
कवलित हुए थे -
तब
उड़ीसा भी बंगाल का हिस्सा हुआ
करता था "””
| लग्ता
हैं वही भय अभी भी भद्रजनों
में व्यापात हैं |
ये
कैसी जनहित याचिका हैं --जो
केवल समाज के समर्थ लोगो की
चिंता करती हैं ,
आबादी
के 95%
की
नहीं !
अब
बात करते हैं कर्नाटक के
मुखमंत्री येदूरप्पा की घोसना
की जिसमें उन्होने 1093
करोड़
की आर्थिक सहायता इन "”
प्रावासी
मजदूरो की घर वापसी की ट्रेन
को रद्द करने के बाद की !
उन्होने
कहा की प्रावासी मजदूर "”ही
"”
हमारी
अर्थ व्यवयसथा की रीड की हड्डी
हैं !
इस
भावना का उनकी घोसना में कोई
स्थान नहीं हैं |
उन्हे
अपने लोगो के कपड़े की धुलाई-
उनके
बाल कटवाने और टॅक्सी के लिए
ड्राइवरो की जरूरत का ख्याल
था |
जिन
बड़े बिल्डरों के दबाव में वे
हज़ार करोड़ का आर्थिक पैकेज
दे रहे हैं -----वह
वास्तव में मजदूरो के हित के
लिए नहीं वरन ,
इन
बिल्डरों के काम /अधूरे
रह जाने से लाभ नहीं होने की
भरपाई के लिए हैं |
राष्ट्रीय
रेरा आयोग ने जो इन भवन निरमाताओ
और फ्लॅट खरीदने वालो के विवाद
का निर्णायक है ------उसने
भी निर्माण
में देरी के लिए मजदूरो का
अभाव होना ही माना हैं !!
जबकि
हक़ीक़त यह हैं की राष्ट्रीय
तालाबंदी में घरो में मजबूरन
"”नज़रबंद
रहे "”
मजदूरो
की कोई गलती नहीं !
परंतु
इन बिल्डरों ने पाँच सौ का
भुगतान कर खुद करोड़ो कमाए ,
परंतु
जब मजदूर मजबूर हो गए तब किसी
ने भी उनके भोजन के लिए कोई
सामुदायिक रसोई नहीं चलायी
!
उनके
बीमारों को अस्पताल ले जाने
की ज़िम्मेदारी से भी उन्होने
पल्ला झाड लिया !!
ऐसे
ह्रदय हीन मालिक के लिए मजदूर
के मन क्या आदर हो सकता हैं ?
मजे
की बात यह हैं की केंद्रीय गृह
मंत्रालय की विज्ञापति में
कहा गया हैं की – औद्योगिक
संस्थान आधे श्रमिक संख्या
के साथ उत्पादन कर सकते हैं
----पर
उनके रहने और खाने की व्यवस्था
संस्थान के परिसर में ही करनी
होगी !
अब
यह पूरी तरह से निश्चित हैं
की काम करने वाले मजदूरो के
लिए कोई आवास तो बनयेगा नहीं
-वह
किसी टीन के नीचे उन्हे सोने
का स्थान देकर और कैंटीन के
नाम पर समोसा -
पकौड़ी
की व्यसथा कर देगा ,
उसे
यह परवाह नहीं की खाने में कौन
सा तेल हैं अथवा कैसा सामान
इस्तेमाल हो रहा हैं |
लेकिन
भारत सरकार की शर्तो की खाना
पूरी तो हो गयी !!!!
24
मार्च
से शुरू हुए लाक डाउन की इस
तीसरी किश्त मे राष्ट्र 45
दिन
से ज्यादा से बंद हैं -----इससे
ज्यादा नज़रबंदी काश्मीर के
तीन पूर्व मुख्या मंत्रियो
ने झेली थी ,
तो
हम लोग तो उस हैसियत के हैं
नहीं ---और
ये कामगार तो "तुक्ष
प्राणी है "”
शासन
और सरकार तो कुछ हज़ार लोगो की
मर्ज़ी और हिट से चलता हैं
-----उसमें
बहुजन हिताय तो हैं ही नहीं
|
उधर
सबसे ज्यादा मजदूर बिहार और
उत्तर प्रदेश के हैं ,
जिनके
संख्या दासियो लाख से करोड़
तक पहुँच सकती हैं |
उड़ीसा
के बाद इन मजदूरो के प्रति
निर्ममता उत्तर प्रदेश की
योगी सरकार ने दिखाई ,
जिसने
मध्य प्रदेश – दिल्ली और
राजस्थान से लगी सीमा चोकियों
से इन प्रवासी मजदूरो के घुसने
पर रोक लगा दी |
जो
थोड़े बहुत रेल की पटरियो के
सहारे चल कर उत्तर प्रदेश की
सड्को पर आ गए तब उन्हे पुलिस
के डाँडो और अपमान को झेलना
पड़ा |
राजमार्ग
पर चलने का उनका अधिकार भी छिन
गया |
भूखे
-
प्यासे
बच्च और महिलाए तथा बुजुर्गो
और बच्चो को कांधे पर लादे
दर्जनो या सैकड़ो लोगो की कतार
चैनलो में दिखाई गयी |
हालांकि
सिर्फ एक को छोडकर बाकी सभी
चैनलो ने इसे भी एक "”इवैंट
"”
माना
– कितना बाद क्रूर मज़ाक हैं
देश के कामगारों के साथ जो
"”रोजी
-रोटी
"
के
लिए हजारो मील घर -
द्वार
छोडकर गए |
भोपाल
की एक महिला राजस्थान के
सीमावर्ती ज़िले जैसलमेर से
तीन साल की बच्ची को गोद में
लेकर और 9
और
दस साल के पुत्रो के साथ 11
दिन
में देवास पहुंची !!
यह
हैं हमारी व्यवस्था और हमारा
समाज !देवास
में महिला को खाना और पानी के
साथ विश्राम की व्यसथा हुई
|
योगी
सरकार और गुजरात सरकार की
निर्ममता का उदाहरण एक घटना
से मिला जब सूरत से 120
मजदूर
तीन बस कर के उत्तर प्रदेश
में गोरखपुर के लिए निकले थे
|
सभी
ने 5
से
6
हजार
रुपये प्रति यात्री का भुगतान
किया था |
गुजरात
सरकार ने इन्हे जाने का पत्रक
भी दे दिया |
पर
जब ये पटोल चुकी पहुंचे तब
इन्हे बताया गया की उनका आदेश
रद्द कर दिया गया हैं !
उन्हे
वापस सूरत जाना होगा !
सवाल
था ऐसा क्यू हुआ ?
जवाब
था की सूरत की तीन मिलो के
कारीगर इन बसो में थे ,
उनके
चले जाने के बाद मालिक का काम
बंद हो जाता !
उधर
योगी जी ने भी गाजियाबाद सीमा
और नोएडा में किसी को भी घुसने
से मना कर दिया था --फिर
क्या था जब भी आली गराह -
सहारनपुर
-
कास
गंग -एटा
या आगे के ज़िलो को जाने के लिए
ये मजदूर प्रयास करते तो उन्हे
डडा पड़ता |
योगी
जी ने कोटा से लखपति पिताओ के
बालको को वापस बुलाने के लिए
बसे भेजी और उनके लिए क्वारंटाइन
करने का सुविधाजनक प्रबंध
किया |
क्योंकि
वे रसूख दारो की संतान थे !
कामगार
तो होते ही "”खपने
"”
के
लिए |