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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Oct 29, 2015

उच्चतम न्यायालय के फैसले सरकार के लिए दुविधा या सुविधा .......

उच्चतम न्यायालय के फैसले सरकार के लिए दुविधा या सुविधा .......
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मोदी सरकार के संवैधानिक
संशोधन से जजो की नियुक्ति के लिए बनाई गयी व्यवस्था को "”ठुकरा "”कर जहा नरेंद्र मोदी और जेटली जी की प्रतिस्ठा को धक्का दिया | वनही शिक्षा संस्थानो मे आरक्षण के प्रश्न पर सर संघचालक मोहन भागवत के आवाहन को बल प्रदान किया है | उनके अनुसार आज़ादी के 68 साल बाद भी अनेकों विशेसाधिकार मे परिवर्तन नहीं होने पर चिंता जताई | उन्होने कहा की केंद्र और राज्य सरकारो को सुपर स्पैशलिटी कोर्स मे केवल मेरिट से ही भर्ती होनी चाहिए | उन्होने यह भी कहा की केंद्र को इस ओर जल्दी ही "”उचित कदम "” उठाने की नसीहत भी दी |

जस्टिस दीपक मिश्रा और
पी सी पंत के इस फैसले मे 27 साल पुराने फैसले का भी ज़िक्र किया गया , इतना ही नहीं अन्य कई मामलो का भी हवाला दिया | उनके अनुसार आंध्रा - तेलंगाना - और तमिलनाडू के सुपर स्पैशलिटी कोर्स मे आरक्षण की सुविधा को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला दे रहे थे | इन राज्यो ने इन कोर्सो मे भी जातिगत आरक्षण दिया था | जिस से की अनेकों सामान्य वर्ग के छात्र प्रभावित हुए थे , जिनके अंक आरक्षित वर्ग के छात्रो से कही अधिक थे | जिस कारण इन लोगो ने ''योग्यता'' को भर्ती का आधार बनाए जाने की मांग की थी | सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से आरक्षण के पुनरीक्षिण की संघ और उसके समर्थित संगठनो की मांग को बल मिलेगा |

अभी बिहार विधान सभा चुनावो के दो चरण बाक़ी है , जिनमे यह फैसला इस्तेमाल किया जा सकता है | इस निर्णय को आरक्षण समर्थक "”सवर्णों"”” द्वारा किया गया फैसला निरूपित कर के देश मे तूफान मचा सकते है | इस फैसले ने संघ की सोच और नीति को एक वैधानिक बल प्रदान किया है , जिसे राजनीतिक दल करने से बच रहे थे |
जिस समय भागवत ने यह आवाज उठाई --उस के बाद से मोदी सरकार ने सार्वजनिक रूप से देश के सामने ''''कहा था की आरक्षण को छुआ भी नहीं जाएगा "””, परंतु अब उनके लिए एक सुनहरा अवसर है है की ---अब तो कोर्ट ने भी कह दिया अब हमारे सामने उसके आदेश का पालन करने के अलावा कोई चारा नहीं है | इस प्रकार वे अदालती फैसले की आड़ मे अपने यानि ''संघ '''के "”एजेंडे '''को पूरा करने की पहल भी कर सकते है | विरोधियो को अदालती फैसले का "””असम्मान "”” का आरोप भी लगाया जा सकेगा |

प्रधान न्यायधीश एम एल दत्तू ने एक इंटरव्यू मे कहा था की सरकार को "”विवादित "”बयान"” देने वालों पर लगाम लगानी चाहिए | सरकार को चाहिए की वह शांति - व्यवस्था को देश मे बनाए रखे | जिस से की देश मे कानून -व्यवस्था का शासन बन सके | इस एक इंटरव्यू ने जहा मोदी सरकार के सांसदो और नेताओ के भड़काऊ बयानो ने "”उन छेत्रों "”की शांति और व्यवस्था को कितना नुकसान हुआ है --वह सबको ज्ञात है | अफवाहों के कारण ही दादरी कांड हुआ | और उत्तर प्रदेश के अनेक नगरो मे सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे ---यह आग शांति के टापू मध्य प्रदेश के खरगाओं और आँय शहरो मे भी पहुँच गयी है |

अब इन घटनाओ को राजनैतिक धुर्विकारण का परिणाम माना जाए -अथवा धार्मिक नफरत का ,यह तो समय ही बताएगा | क्योंकि शिव सेना के पाकिस्तान विरोधी अभियान को कालिख पोतो और बंगलोर की श्रीराम सेना ने अपना निशाना उन लेखको के प्रति धरना -प्रदर्शन से लेकर धम्की देने का सिलसिला चालू है जिनहोने संघ की "”भावना "”के अनुरूप "”' अपने क्रातियों मे लिखा है | कालबुरगी की हत्या इसी असहमति का हिंसक परिणाम था | आंध्रा और महराष्ट्र मे लेखको की हत्या केवल इसलिए हुई चूंकि वे "”सवर्ण "”” सोच के विरोध लिखते थे |
बजरंग दल और बीजेपी के संसद संगीत सोम द्वारा दादरी मे गौमांस की अफवाह को ''भावना'' पर ठोकर बताया था | परंतु जब उनके द्वरा मांस निर्यात की फैक्टरी मे साझीदार होने के प्रमाण सामने आए तब उनके बयान बंद हो गए | इसी अगर इन नेताओ का "”पाखंड "””नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए ? योगी आदित्यनाथ द्वरा गंगा के प्रदूषण के लिए औद्योगिक कचरे के बजाय --'” बक़रईद"” पर हुई कुर्बानी को बताया | क्या एक दिन मे जो खून बहा वह साल भर शहर के नालो से गंगा मे गिरने वाले कचरे से "”ज्यादा"”है ??
मुंबई मे शिवसेना द्वरा पाकिस्तान गजल गायक के आयोजन को "””नहीं करने देने का "” अभियान "”उनकी सफलता भले ही हो --परंतु निश्चय ही फड्नविस सरकार के लिए "”चुनौती है "”| चूंकि उनकी सरकार ने इस आयोजन को करने की मंजूरी दी थी | अब सरकार का हुकुम अगर इस तरह एक "”भीड़ के सामने "””बौना पड़ जाता है तो उनके "”रुतबे "” का तो फ़ालूदा तो निकल ही गया है | परंतु शायद यह उनकी "””मजबूरी है "”” |


देश के अशांत वातावरण मे राष्ट्रपति प्रणव मुकर्जी ने तीन प्रसारण मे देश की बदती धार्मिक अष्हिणुता को एकता के लिए खतरा बताया | उन्होने इस दौरान हुई दादरी और अन्य कांडो से उपजी नफरत को भी गलत बताया | तीन बयानो के बाद प्रधान न्यायाधीश का इंटरव्यू भी सरकार के लिए सार्वजनिक रूप से "”सवाल "” उठता है | जिसका उचित परिमार्जन अभी तक तो कार्यो और वचनो से स्पष्ट नहीं हुआ है | इन परिस्थितियो मे सरकार के आगामी कदमो को देखना होगा | जो देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले होंगे

Oct 19, 2015

लोकतंत्र मे क्या सभी संवैधानिक पद निर्वाचित ही होते है ?

लोकतंत्र मे क्या सभी संवैधानिक पद निर्वाचित ही होते है ?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रिय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को असंवैधानिक घोषित किए जाने पर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा की गयी टिप्पणी "”” गैर निर्वाचित लोगो द्वारा का निरंकुश नहीं बन सकता भारतीय लोकतंत्र "”” इतनी अधिक अनपयुक्त ही नहीं वरन इस संवैधानिक निकाय के प्रति असम्मानजनक है | उनका यह आक्रोश इस लिए भी अधिक है की मंत्री बनने के पूर्व सुप्रीम कोर्ट मे वकालत करते समय उन्हे अनेकों बार "””मनचाहा "”” फैसला नहीं मिला था | इतना ही नहीं वरन न्यायिक पीठ पर आसीन न्यायाधीशों से मर्यादा पूर्ण व्यवहार भी नहीं किया था | ब्लड शुगर के मरीज जेटली को अक्सर उतेजना मे देखा जा सकता है |

नियुक्ति आयोग का प्रस्ताव उन्होने संभवतः "”कमिटेड जुडीसियारी "”” के उद्देश्य किया था | इस हेतु सभी दलो के नेताओ से समर्थन भी मिला था ,, जो राजनीति से बाहर रहने पर अदालत मे काला कोट पहन कर वकील का व्यवसाय करते है | एक सरसरी नज़र डालने पर सहज मे ही इस बात की सत्य सामने आ जाएगा | काँग्रेस के कपिल सिब्बल हो मनीष तिवारी , सलमान खुर्शीद , चिदम्बरम है तो बीजेपी के रविशंकर सिन्हा है राम जेठमलानी है , ये विभूतिया ना केवल कानून बनाने का काम करती है वरन उसके असली उद्देश्य को भी अदालत मे बहस के दौरान निरूपित करते है | जेटली जी ने जिस प्रकार की प्रतिकृया दी है वह "”नितांत अनावश्यक और अवांछित ही है "”” | सुप्रीम कोर्ट का अभिमत ना केवल अंतिम है वरन इसकी अपील भी नहीं की जा सकती | ऐसी स्थिति मे केन्द्रीय मंत्री का आक्रोश मौजूदा वातावरण मे उचित नहीं है | अभी हालल मे ही बीजेपी अध्यकष अमित शाह ने बीफ और दादरी तथा बाबरी मसलो पर बे वजह बयान देने के लिए महेश शर्मा - साक्षी महराज - संगीत सोम की ''कान खिचाई ''' प्रधान मंत्री के निर्देश पर की थी | इन लोगो ने देश के वातावरण को जहरीला बनाने वाले बयान दिये थे | यद्यपि इस लाइन मे योगी आदित्यनाथ और महिला भगवा धारी को दाँत - डपट की जानी बाक़ी है |
उन्होने कह दिया की गैर निर्वाचित लोगो का निरंकुश तंत्र ---देश का लोक तंत्र नहीं बन सकता ,, वे आवेश मे भूल रहे है की हमारे संविधान निर्माताओ ने "”रोक और संतुलन ''' का सिधान्त रखा है --तीनों निकायो के मध्य | इसीलिए संसद के असंवैधानिक कानून को सुप्रीम कोर्ट ''निरसत ''' कर सकती है |अब इस शक्ति को यदि निर्वाचित सांसद को ''नियंत्रित करना चाहेंगे तो संभव नहीं | रही बात निर्वाचन की ----क्या प्रधान मंत्री निर्वाचित है अथवा मंत्री निर्वाचित है ?? वे केवल सांसद के रूप मे निर्वाचित है | महालेखा नियंत्रक - महान्यायवादी ऐसे संवैधानिक पद है जिनकी नियुक्ति होती है वे निर्वाचित नहीं है | संविधान "”संप्रभु "” है संसद नहीं " वह तीन मे से एक निकाय है बस बात इतनी सी है की कार्यपालिका भी उसी से जनम लेती है | पर इस तथ्य से वे राष्ट्रपति के ऊपर नहीं हो जाते ---भले ही वे अधिकतर विषयो मे सरकार की सिफ़ारिश मानने के लिए बाध्य हो | परंतु फिर भी "””एका बार तो वे सरकार की सिफ़ारिश को ठुकरा ही सकते है "”” जैसा प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने किया था --हिन्दू कोड बिल को वापस कर के }और उनका सुप्रीम कोर्ट को ''गैर निर्वाचित लोगो का "”निरंकुश तंत्र कहना तो अत्यंत आपतिजनक है "”










जेटली जी के आक्रोश का कारण इसलिए भी हो सकता है की इस समय केन्द्रीय सरकार के सम्मुख 120 जजो की नियुक्ति की सिफ़ारिश की फाइल लंबित है | जिसकी सिफ़ारिश "”कालेजियम "”” ने कर रखी है | अब अगर ऐसे मे सरकार उसमे काट -छांट करती है तो उसकी ''”नियत "””पर संदेह होगा की वह "”संघ और बीजेपी समर्थको से अदालत को भर देना चाहती है "”” | इसके अलावा 400 जजो की नियुक्ति भी होनी है | इस प्रकार सम्पूर्ण न्यायपालिका मे सरकार समर्थको की ''फौज'' खड़ी किए जाने का संदेह राजनीतिक छेत्रों मे व्यक्त किया जा रहा था | अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार के पास विकल्प है --पुनः संविधान मे संशोधन | जिसके लिए सरकार को काँग्रेस और उसके समर्थक दलो की जरूरत होगी | काँग्रेस ने इस मसले पर "”कोई भी सहयोग सरकार को देने से मना कर दिया है "””|
वस्तुतः यह विधायिका और अदालतों मे दखल रखने वाले सांसदो के लिए प्रतिस्ठा की बात होती है | क्योंकि कई बार वे प्रशासनिक कठिनाइयो को अदालत के माध्यम से सुलझा देते है | यह उन्हे धन और मान दोनों ही दिलाता है | सुप्रीम कोर्ट मे इन लोगो की प्रति पेशी की फीस "”लाखो रुपये "”होती है | जिस पर आज तक कोई नियंत्रण का कानून नहीं बना है | डाकटरो की चार्टर्ड अकाउंटेंट हो या आँय कोई व्यवसाय हो उसके उद्देस्य होते है | कहने को अडवोकेट ओफ़्फ़िकेर्स ऑफ ला होते है --- परंतु कानून से अधिक वे मुवक्किल के प्रति वफादार होते है | इस संदर्भ मे अनेकों मुकदमे बताए जा सकते है -परंतु उसका जवाब दिया जाएगा "””' वह हमारी व्यवसायिक प्रतिबद्धता है "”” |

यह तथ्य है की जजो के वीरुध भ्र्स्टाचार के मामले सामने आए है | उनमे सुप्रीम कोर्ट ने उतनी प्रभावी कारवाई नहीं की जितनी की उम्मीद की जाती थी | शायद यह भी एक कारण रहा होगा राष्ट्रिय न्यायिक नियुक्ति आयोग के प्रस्ताव को लाने मे | परंतु जजो के खिलाफ कारवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट को खुद से आगे आकर कोई प्रक्रिया निर्धारित करनी होगी ,,अन्यथा एक समय आएगा जब सभी राजनीतिक दल एक हो कर कोई सख्त कदम उठाए | वर्तमान मे जज को हटाने के लिए "”महाभियोग " की प्रक्रिया ''काफी दुरूह "” साबित हुई है | भले ही कोई आंतरिक व्यसथा हो परंतु यदि किसी जज की सार्वजनिक रूप से छवि ऐसी बन गयी की वह "”निसपक्ष "” नहीं तब उसका तबादला करना जरूरी हो जाता है | एक मुख्य न्यायधीश के वीरुध यह आम धारणा बन चुकी है की वे सरकार को '''जरूरत''' से ज्यादा बचाने की मुद्रा मे रहते है | हरियाणा की एक जज के घर से लाखो रुपये मिलना और मद्रास हाइ कोर्ट के एक जज द्वारा अमर्यादित व्यवहार करना आदि ऐसे अनेक उदाहरण है जो यह तो इंगित ही करते है की सर्वोच्च न्यालाया मे "””सब कुछ ठीक ठाक "” नहीं है |

इस संदर्भ एक महत्वपूर्ण तथ्य है की अनेकों बार हाइ कोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट मे "”उलट जाते है "”” ,,क्या इसका कारण संबन्धित जज की "”योग्यता छमता और ईमानदारी "”” पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाती है ?? पुलिस द्वारा दायर किए जाने वाले मुकदमे मिस्टर अभ्युक्त के निर्दोष साबित किए जाने के अदालती फैसले के बाद उस अफसर से जवाब -तलब होता है | परंतु यहा तो जजो ने यहा तक कह दिया "”की अगर हमारा फैसला गलत भी है तो हमरे खिलाफ कोई कारवाई नहीं हो सकती | सही है कोई कारवाई नहीं हो सकती क्योंकि उन्हे "”न्यायमूर्ति "” बुलाते है | पर विगत साथ सालो मे न्यायपालिका की छवि काफी ''धुंधली '' हुई है |लेकिन इसके लिए विधायिका के राजनीतिक सदस्यो को यह हक़ देना की वे अदालतों को ठीक करे करना वैसा ही होगा --जैसा की बंदर के हाथ उस्तरा देना |



Oct 17, 2015

धर्म मे वैज्ञानिकता और अश्वमेघ का शंखनाद

धर्म मे वैज्ञानिकता और अश्वमेघ का शंखनाद
दुनिया के सभी धर्म आस्था और विश्वास पर आधारित है
,,शुरुआती वक़्त मे सभी धर्म निराकार और साकार देवताओ की अवधारणाओ से युक्त थे | असीरियन और बेबीलोन सभ्यताओ मे "”गिल गिलमेश "” की मूर्ति थी ,उनके यहा भी देवता को प्रशन्न करने के लिए बलि ही दी जाती थी | वह प्रथा बाद मे मूसा के पूर्व एक ईश्वर की अवधारणा अनेक जातियो मे प्रचलित हो चुकी थी | कबीले मे रहने वाले लोगो के लिए भिन्न - भिन्न देवताओ की भी कल्पना प्रचलित थी | अधिकतर देवता प्रकरतीक शक्तियों के प्रतिनिधि और स्वामी माने जाते थे | यूनान की सभ्यता मे भी अनेक देवी और देवताओ की कल्पना थी | वेदिक धर्म मे भी प्राकरतीक शक्तियों के स्वामी माने जाते है | वही त्रिदेव की भी कल्पना वेदिक धर्म मे की गयी है ---एक जो इस दुनिया के सभी जीव - जन्तुओ को जन्म देता है दूसरा विष्णु जो इन सब का पालन करते है और शिव जो इस विश्व का संहार करते है |वेदो मे इन त्रिदेवो के अलावा प्र्क्रतिक शक्तियों के भी अधिदेवता है --जैसे देवराज इंद्र आदि | इन देवो मे अग्नि का सबसे अधिक महत्व है | क्योंकि यज्ञ मे विभिन्न देवताओ को अर्पित की जाने वाली आहुतियों को स्वीकार करके वे ही संबन्धित देव तक पाहुचने का काम करते है | इनके अलावा शाक्त संप्रदाय मे अनेक देवियो की कल्पना की गयी है | दुर्गा सप्तशती के अनुसार महा काली - महा सरस्वती और महा लक्ष्मी से प्रारम्भ हुई स्तुति दुर्गा या चंडिका तक पाहुचती है | ग्यारहवे अध्याय मे मे देवी ऋषि की स्तुति से प्रसन्न हो कर शताक्षी-शाकंभरी --दुर्गा और भीमा देवी तथा भ्रामरी रूप मे आने का वचन दिया | वही शैव संप्रदाय भी शिव के अनेक रूपो मे पूजा करता है | डॉ संपूर्णनाद की पुस्तक देव परिवार मे वेदिक धर्मो के डीवीआई देवताओ के आविर्भाव की कथादी हुई है |

परंतु ऋगवेद मे प्राकरतीक शक्तियों की स्तुति है उसमे ब्र्म्हांड का ज्ञान है | सौर मण्डल -तारे आदि की जानकारी भी दी गयी है | परंतु उस समय सूर्य -इन्द्र और वरुण मुख्य थे | अग्नि को तो वायु के समान सर्वव्यापी माना गया है + | परंतु दो मात्र शक्तियों का उल्लेख भी है | ऋषि विश्वामित्र द्वारा माता गायत्री का तथा देवी वागम्भ्रणि द्वारा आदि शक्ति का प्राक्कट्य बताया गया है | उसमे शिव -विष्णु और ब्रमहा का उल्लेख नहीं है |
इस सबका आशय यह बताना है की इसमे ज्ञान है - अनुभूव और अनुभूति है परंतु वैज्ञानिकता नहीं है | केवल अथर्व वेद मे विज्ञान सम्मत कुछ प्रयोग दिये गए है | जो गणित की भांति निश्चित है | परंतु इस वेद को आदिगुरु शंकराचार्य ने मान्यता नहीं दी है | अपनी प्रथम रचना मे ही उन्होने महा लक्ष्मी की स्तुति मे उन्हे तीन वेदो की स्वामिनी कहा है | आदिगुरु का काल नवी शताब्दी है | अतः यह मानना चाहिए की तब तक अथर्ववेद को वेद की मान्यता मे भेद था | वस्तुतः भ्र्गु वंशी ब्रामहण इस वेद के अनुयाई थे | गुजरात से नर्मदा और विंध्य के पार आर्यावर्त मे इनको मान्यता नहीं थी |
धर्म दर्शन आधारित होते है | उसी दर्शन से उपासना का स्वरूप तय होता है | वेदिक धर्म मे मूलतः "”निराकार "”” परमात्मा की कल्पना की गयी है | एवं निराकार मे वैज्ञानिकता खोजना भूसे मे सुई खोजने के समान है - हा धर्म से संलग्न ज्ञान की अन्य धाराओ मे यह उपलब्ध था | ऋगवेद मे जिन दो शक्तियों आदिशक्ति एवं गायत्री की स्तुति की गायी गयी उसमे उनकी शक्ति का वर्णन है परंतु उनके स्वरूप के बारे मे नहीं कहा गया है | वस्तुतः वे निराकार ही है | ज्ञानी जन उनके स्वरूप को प्रकाशित शिखा जैसा निरूपित किया है | आश्चर्य है की पारसियों के देवता "”आहुरमजदा "” भी निराकार ही है उनकी उपस्थिती "”अग्नि "” से मानी जाती है | वेद की अन्य शाखा जैसे आयुर्वेद - जिसमे वनस्पति और पेड़ पौधो के सभी अंगो के गुण और अवगुण उल्लखित थे | खगोल शास्त्र - गणित -ज्यामिती आदि निश्चित विज्ञान की श्रेणी मे आते है | परंतु ये धर्म से इतर है | एवं इंका आधार “”ज्ञान””है | | आस्था मे विश्वास होता है – तर्क का क्यू और कैसे नहीं होता | यदि इसे धर्म को परखने की कसौटी बनाएँगे तो संसार का कोई भी धर्म इस पर सफल नहीं होगा |वेदिक धर्म के प्र्नेताओ को यह भान था की समाज मे सभी स्त्री - पुरुष एक मेघा के नहीं होते है | बिरले ही प्रश्न करते है || बहुमत तो '''महाजनो येन गाता सा प्ंथा''' के पीछे चलते है | उन्हे सत्य का ज्ञान अन्य प्रकार से कराया जाता था | |पुराणो का लेखन इसी श्रखला मे हुआ था | साधारण जन उसे सुन कर अपने विश्वास को मजबूत करते थे | इनमे सत्य तो है पर "'पूर्ण सत्य "” नहीं | वेदिक धर्म मे जहा सम्पूर्ण अन्तरिक्ष और उसके तारा मंडलो एवं उनकी गति तथा दूरी का ज्ञान ऋचाओ मे लिपिबद्ध है | उसे अगर धर्म की "”वैज्ञानिकता माने तो ---वह "”ज्ञान "”है | उसमे श्रद्धा नहीं है | ज्ञान तलवार की धार की भांति है उसमे केवल ''सही ''' होता है और उसकी कसौटी पर नहीं खरा उतरा वह सत्य नहीं होता | शास्त्रार्थ ज्ञान के आधार पर होते थे ---श्रद्धा के आधार पर नहीं | सत्य का आधार तथ्य होते है जिनहे खोजने की प्रक्रिया ''तर्क शास्त्र "” से सीध की जाती थी | आदिगुरु और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ ऐसा ही एक उदाहरण है |

राजपूत काल मे जब भक्ति आंदोलन का प्रभाव बढा तब निष्काम आराधना का तिरोहण हो गया | आरध्या के मंदिरो मे ''मानता और मनौती "” की परंपरा शुरू हो चुकी थी | यूं तो वेदिक काल मे देवता - मनुष्य और दानव तथा राक्षस सभी ने तपस्या द्वारा अपने अभीष्ट को प्रपट किया था | अवतारो की कथा भी "”वरदान "” की कामना को स्पष्ट करती है | अब इसे पारखे तो यह भी श्रद्धा का परिणाम है | ज्ञान का नहीं | हालांकि मुनिकुमार नचिकेता को यम द्वारा दिया ज्ञान और सत्य की खोज के लिए उनके सुझाए रास्ते को ज्ञान कहा जाएगा | लेवकिन आज के युग की भौतिकी और रसायन के "”टेस्ट "” के अनुकूल तो नहीं होंगे | यहा वेद मे विस्तार पूर्वक वर्णित और बहुपयोगी "”सोम "” लता का पता "”निश्चित रूप से "””नहीं लगे जा सका है | शोध द्वारा बस इतना ही कहा जाता या लिखा गया है की अमुक वनस्पति ''सोम '' के गुणो वाली है | आम प्रचलन मे आयुर्वेद

औषधि है "”च्यवन प्राश "”” इसे "””अष्टवर्ग"” युक्त लिखा जाता है ---परंतु निर्माताओ ने इस विषय मे जानकारी मांगे जाने पर "”चार वर्गो "” की उपलब्धि कन्हा से होती है ---काफी गोपनियता बरती है | आम तौर अब मान लिया गया है की वे अब विलुप्त हो गयी है | अतः धर्म मे वैज्ञानिकता और वह भी वर्तमान कसौटियो पर परखने लायक अवधारणा ना तो संभव है और ना ही उचित भी |             

Oct 15, 2015

लेखको के अनकिए पर नियत और नीति पर सवाल ?

लेखको के अनकिए पर नियत और नीति पर सवाल ?
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्करत साहित्यकारो द्वारा ,देश मे बढ रही धार्मिक नफरत पर सरकार के मौन और उदासीन रुख के विरुद्ध सम्मान वापस करने वालो पर अपमानजनक आरोप लगाए जा रहे है | राजनीतिक दलो के नेताओ से लेकर "”साथी "”लेखको द्वारा भी इस फैसले के समय और तरीके को लेकर इन लेखको की नियत और हरकत की भर्त्स्ना करने की कोशिस हो रही है | इन सभी "”स्वनामधान्य "”” लोगो की बस एक ही "टेक" है की तब क्यो नहीं और अब क्यो ? देश मे जब 'एक छाप'' के लेखको और कलाकारो को इस मुहिम से नहीं जोड़ा जा सका -तब विदेश से आयी "' आलोचनाए और असहमतियों को ''हासिल '' किया गया |

आखिर क्या है इस ''हमले '' की वजह ? देश की नियामक संस्था मे पूर्ण बहुमत होने के बावजूद भी -क्यो भाग्य विधाता ''असहाय '' महसूस कर रहे है ? वह भी एक ऐसी जमात से जो उनकी निगाह मे ''खल्लास हो गयी शक्तियों "' की एजेंट है |यानि की आम भाषा मे कहे तो "”दगा कारतूस "” अब ऐसे वर्ग की परवाह क्यो कर की जा रही है --यह समझने के लिए अपने चारो ओर के सामाजिक और आर्थिक माहौल के साथ ही राजनैतिक स्थिति पर भी गौर करना होगा | विभिन्न वर्गो और धार्मिक सम्प्रदायो मे बदता अविश्वास क्या देश या छेत्र मे शांति बनाए रख सकेगा ??

कहते है साहित्य समाज का दर्पण होता है ,और सम्मान वापस करने वाले लेखक और कवि उस दर्पण के रचयिता , तब क्या उनका विरोध समाज मे पनप रहे असंतोष का प्रतिबिंब नहीं है क्या | इसके जवाब मे कहा जा सकता है की आखिर सरकार कि सत्ता भी तो ''बहुमत'' के आधार पर बनी है , फिर उसके विरूद्ध ये लोग कैसे आवाज उठा सकते है ?क्या यह जनता की इच्छा का अनादर नहीं होगा ? इसका जवाब है की साहित्य कभी सत्ता की चेरी नहीं होती है , जैसे इतिहास कभी हुकूमत का गुलाम नहीं होता | अब जो लोग इन बीस लेखको को लतियाने की ''कोशिस कर रहे है उनमे शत -प्रतिशत अगर नहीं तो 'बहुमत' उन लोगो का है जो मंदिर निर्माण के समर्थको की टोली से आते है | अब तुलसीदास की रामचरित मानस क्या तत्कालीन सम्राट अकबर को खुश करने अथवा उसके आशीर्वाद से लिखी गयी थी ? क्या हमारा राष्ट्र गान और राष्ट्रिय गीत क्या अंग्रेज़ सरकार को खुश करने के लिए रची गयी थी ? क्या इन रचनाओ के लेखको को तत्कालीन सत्ता से ''सुख और सुविधा'' मिली थी ? क्या प्रेमचंद का गोदान और कफन जैसी रचनाए हुकूमत को प्रसन्न करने के लिए थी ? मै उन ''महाशयो से बहुत विनम्रता पूर्वक प्रश्न पूछना चाहता हूँ की उन्होने किस आधार पर अपने बयान मे "”सुख सुविधा'' का ज़िक्र किया था क्या वे इसका खुलाषा करेंगे ? मुझे क़तई उम्मीद नहीं है की वे "इस मामले मे बहस करना चाहेंगे | क्योंकि वे तो "” आमने - सामने '' की लड़ाई चाहते ही नहीं है -वे तो उन उपद्रवियों की भांति है जो जो ईंट मार कर भागने मे विश्वास रखते है | वे इसे गुरिल्ला शैली भी बता सकते है | क्योंकि वे आमने सामने की बहस [[चैनल वाली नहीं ]]]] मे भाग ही नहीं लेना चाहते | उनका कहना होता है हमने अपनी बात कह दी अब हम ''दूसरे की '''क्यो सुने | वे तो टकसाली जुमलो का इस्तेमाल कर के किसी भी गंभीर विषय को ''हल्के''स्तर पर लाने के माहिर है |
हमारे मित्र उमेश त्रिवेदी के 15 अक्तूबर के सुबह सबेरे मे लिखे आलेख का शीर्षक इन लोगो का माकूल जवाब बन पड़ा है की '''राजनीतिक आतिशबाज़ी नहीं है साहित्यकारों का विरोध ''' | क्योंकि एक लाइन की चुटीली टिप्पणी द्वारा ''वाहवाही ' लूटने वाले ऐसे सज्जनों को भद्र भाषा मे इस से तीखा उत्तर देने पर अभद्रता की बोली पर उतरना पड़ेगा ----जिसका इस्तेमाल वो लोग कर रहे जो इस विरोध को नौटंकी - चाटुकारिता और मानसिक ग़ुलामी आदि आदि नाम दे रहे है |


मज़े की बात यह है की इन सभी महानुभावों ने आपात काल - सिख विरोधी दंगे आदि के समय विरोध ''नहीं जताए ''जाने के लिए कटघरे मे खड़ा किया है | अब किसी ने कुछ नहीं किया तो उसके लिए भर्त्सना का पात्र है | वे यह भी कह सकते है की महात्मा की हत्या के समय आपने ऐसा कुछ नहीं किया था ? प्रतियोगिता मे मूल्यांकन करने की एक विधि " नकारात्मक "” होती है लेकिन उसमे भी गलत "”उत्तर" देने पर प्राप्त नंबर से अंक काटे जाते है | शायद इन लोगो द्वारा अनकिए की सज़ा इसी लिए दी जा रही की विरोध करने वालो ने दादरी दंगे और बिहार चुनाव के समय यह तूफान क्यो बरपा किया ---इसी लिए वे मौके और तरीके को लेकर इरादे और हरकत पर एतराज़ कर रहे है | क्योंकि वे सत्ता के समीप है