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Oct 15, 2015

लेखको के अनकिए पर नियत और नीति पर सवाल ?

लेखको के अनकिए पर नियत और नीति पर सवाल ?
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्करत साहित्यकारो द्वारा ,देश मे बढ रही धार्मिक नफरत पर सरकार के मौन और उदासीन रुख के विरुद्ध सम्मान वापस करने वालो पर अपमानजनक आरोप लगाए जा रहे है | राजनीतिक दलो के नेताओ से लेकर "”साथी "”लेखको द्वारा भी इस फैसले के समय और तरीके को लेकर इन लेखको की नियत और हरकत की भर्त्स्ना करने की कोशिस हो रही है | इन सभी "”स्वनामधान्य "”” लोगो की बस एक ही "टेक" है की तब क्यो नहीं और अब क्यो ? देश मे जब 'एक छाप'' के लेखको और कलाकारो को इस मुहिम से नहीं जोड़ा जा सका -तब विदेश से आयी "' आलोचनाए और असहमतियों को ''हासिल '' किया गया |

आखिर क्या है इस ''हमले '' की वजह ? देश की नियामक संस्था मे पूर्ण बहुमत होने के बावजूद भी -क्यो भाग्य विधाता ''असहाय '' महसूस कर रहे है ? वह भी एक ऐसी जमात से जो उनकी निगाह मे ''खल्लास हो गयी शक्तियों "' की एजेंट है |यानि की आम भाषा मे कहे तो "”दगा कारतूस "” अब ऐसे वर्ग की परवाह क्यो कर की जा रही है --यह समझने के लिए अपने चारो ओर के सामाजिक और आर्थिक माहौल के साथ ही राजनैतिक स्थिति पर भी गौर करना होगा | विभिन्न वर्गो और धार्मिक सम्प्रदायो मे बदता अविश्वास क्या देश या छेत्र मे शांति बनाए रख सकेगा ??

कहते है साहित्य समाज का दर्पण होता है ,और सम्मान वापस करने वाले लेखक और कवि उस दर्पण के रचयिता , तब क्या उनका विरोध समाज मे पनप रहे असंतोष का प्रतिबिंब नहीं है क्या | इसके जवाब मे कहा जा सकता है की आखिर सरकार कि सत्ता भी तो ''बहुमत'' के आधार पर बनी है , फिर उसके विरूद्ध ये लोग कैसे आवाज उठा सकते है ?क्या यह जनता की इच्छा का अनादर नहीं होगा ? इसका जवाब है की साहित्य कभी सत्ता की चेरी नहीं होती है , जैसे इतिहास कभी हुकूमत का गुलाम नहीं होता | अब जो लोग इन बीस लेखको को लतियाने की ''कोशिस कर रहे है उनमे शत -प्रतिशत अगर नहीं तो 'बहुमत' उन लोगो का है जो मंदिर निर्माण के समर्थको की टोली से आते है | अब तुलसीदास की रामचरित मानस क्या तत्कालीन सम्राट अकबर को खुश करने अथवा उसके आशीर्वाद से लिखी गयी थी ? क्या हमारा राष्ट्र गान और राष्ट्रिय गीत क्या अंग्रेज़ सरकार को खुश करने के लिए रची गयी थी ? क्या इन रचनाओ के लेखको को तत्कालीन सत्ता से ''सुख और सुविधा'' मिली थी ? क्या प्रेमचंद का गोदान और कफन जैसी रचनाए हुकूमत को प्रसन्न करने के लिए थी ? मै उन ''महाशयो से बहुत विनम्रता पूर्वक प्रश्न पूछना चाहता हूँ की उन्होने किस आधार पर अपने बयान मे "”सुख सुविधा'' का ज़िक्र किया था क्या वे इसका खुलाषा करेंगे ? मुझे क़तई उम्मीद नहीं है की वे "इस मामले मे बहस करना चाहेंगे | क्योंकि वे तो "” आमने - सामने '' की लड़ाई चाहते ही नहीं है -वे तो उन उपद्रवियों की भांति है जो जो ईंट मार कर भागने मे विश्वास रखते है | वे इसे गुरिल्ला शैली भी बता सकते है | क्योंकि वे आमने सामने की बहस [[चैनल वाली नहीं ]]]] मे भाग ही नहीं लेना चाहते | उनका कहना होता है हमने अपनी बात कह दी अब हम ''दूसरे की '''क्यो सुने | वे तो टकसाली जुमलो का इस्तेमाल कर के किसी भी गंभीर विषय को ''हल्के''स्तर पर लाने के माहिर है |
हमारे मित्र उमेश त्रिवेदी के 15 अक्तूबर के सुबह सबेरे मे लिखे आलेख का शीर्षक इन लोगो का माकूल जवाब बन पड़ा है की '''राजनीतिक आतिशबाज़ी नहीं है साहित्यकारों का विरोध ''' | क्योंकि एक लाइन की चुटीली टिप्पणी द्वारा ''वाहवाही ' लूटने वाले ऐसे सज्जनों को भद्र भाषा मे इस से तीखा उत्तर देने पर अभद्रता की बोली पर उतरना पड़ेगा ----जिसका इस्तेमाल वो लोग कर रहे जो इस विरोध को नौटंकी - चाटुकारिता और मानसिक ग़ुलामी आदि आदि नाम दे रहे है |


मज़े की बात यह है की इन सभी महानुभावों ने आपात काल - सिख विरोधी दंगे आदि के समय विरोध ''नहीं जताए ''जाने के लिए कटघरे मे खड़ा किया है | अब किसी ने कुछ नहीं किया तो उसके लिए भर्त्सना का पात्र है | वे यह भी कह सकते है की महात्मा की हत्या के समय आपने ऐसा कुछ नहीं किया था ? प्रतियोगिता मे मूल्यांकन करने की एक विधि " नकारात्मक "” होती है लेकिन उसमे भी गलत "”उत्तर" देने पर प्राप्त नंबर से अंक काटे जाते है | शायद इन लोगो द्वारा अनकिए की सज़ा इसी लिए दी जा रही की विरोध करने वालो ने दादरी दंगे और बिहार चुनाव के समय यह तूफान क्यो बरपा किया ---इसी लिए वे मौके और तरीके को लेकर इरादे और हरकत पर एतराज़ कर रहे है | क्योंकि वे सत्ता के समीप है

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