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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Mar 23, 2015

भूमि अधिग्रहण कानून --किसान के अधिकारो के साथ बलात्कार

                    भूमि  अधिग्रहण  कानून --किसान के अधिकारो के साथ बलात्कार
                                                        विकास  के नाम पर किसानो के खेत  बिना उसकी सहमति के  कब्जे मे लेने  का अधिकार सरकार अपने हाथ मे लेने का प्रयास ही है | जिस  विधेयक को संशोधन  किया गया है उसमे  विकास  की परियोजनाओ  के लिए अधिग्रहण  को ''किसानो की रजामंदी'''  से ही संभव था|  परंतु रक्षा  और राष्ट्रिय  महत्व की  योजनाओ  के लिए  उस कानून मे भी  ''सरकार''''को अधिकार था की वह  उस भूमि का अधिग्रहण कर सके |  संशोधन मे विकास की परिभाषा  को ''विस्तार कर के  निजी भवन निर्माताओ और निजी उद्योग  पतियों के कारखानो  के लिए भी '''किसानो के खेत '''' जबरिया लिए जा सकते है ||

                                    पहले   निजी  उद्योगो  को किसानो  की सहमति अथवा ग्राम सभा की सहमति लेने आवश्यक होती थी ||  राष्ट्रिय  सड़क मार्ग  और  रक्षा उद्योगो  के लिए तब भी  भूमि लेने का अधिकार था  || परंतु  तब निजी पूंजीपति  इस '''सुविधा''' से वंचित थे ||   केंद्र सरकार और प्रधान मंत्री  मोदी  इस कानून को '''देश के लिए जरूरी '''''''बता रहे है -----लेकिन वे निजी पूंजीपतियों को ''दी ''''' गयी सुविधा को वापस नहीं लेना चाहते है |||प्रश्न उठता है की ---क्यो ???  बस यानही सरकार की नीयत पर शंका हो रही है ||


                              विकास के लिए भूमि  अधिग्रहण  की पैरवी करने वाले  लोग  कहते है की आज जनहा  आज बड़े - बड़े भवन और स्टेडियम  --स्टेशन आदि बने है ----वनहा भी कभी किसान के खेत हुआ करते थे |  इस तथ्य का एक जवाब है की  """" एक ही क्रिया  के दो नाम है -वह भी मात्र इच्छा के आधार पर -----सहवास  और बलात्कार ,,  दोनों मे ही  मैथुन क्रिया होती है ---फर्क इतना है की  पहले मे  स्त्री - पुरुष  दोनों की सहमति होती है |बलात्कार  मे सिर्फ पुरुष की  ज़बरदस्ती  होती है || वैसा ही कुछ  पुराने कानून और  और नए मे अंतर है ||  नया कानून किसानो के साथ बलात्कार के समान है ,,जिसमे किसान की मर्ज़ी के बिना  उसकी जमीन ले लिए जाने का अधिकार है
                                              कुछ मोदी समर्थक  और भारतीय जनता पार्टी के समर्थक  अन्न हज़ारे की किसान  मार्च को  धोखे की यात्रा बता रहे है |||कुछ लोगो ने तो उन्हे  बहू राष्ट्रिय कंपनियो  का एजेंट बता दिया है || कुछ लोग उन्हे विदेशी एनजीओ  का मोहरा बता रहे है || कारण यह है की  उनका कार्यक्रम  एक सुलगती हुए मुद्दे  को  हवा दे रहा है    फसलों की बरबादी के बाद किसान को अब यह दर सता  रहा है की  की उसकी एकमात्र  पूंजी उसके खेत भी किसी ''  धनपशु'''''की भूख  का निवाला बन जाएगी और वह एक भूमिहीन  मजदूर बन कर रहने के लिए मजबूर हो जाएगा | परंतु  किसानो  के इस दर्द  को  सरकार समझने  के लिए  तैयार नहीं ||

                                     सोनिया गांधी द्वारा  राजस्थान और हरियाणा  के किसानो  से मुलाक़ात  को सत्ता पक्ष के लोगो द्वारा  '''नाटक''' करार  दिया जा रहा है ---- अरे भाई   अगर आप कुछ गलत कर रहे हो और विरोधी दल उसका विरोध कर रहे है तो   इसमे प्रजातन्त्र की हत्या  कन्हा हुई  ? अब  सरकार की यह मंशा  तो  पूरी होने से रही की सभी परतीय उनके '''हर कदम पर हामी भरे '''''|| अनेक ऐसे मुद्दो पर मोदी सरकार ने  अपने रुख मे ''अबाउट टर्न'' किया है |  चुनाव के दौरान  किए गए वादो  से जनता को आशा तो बहुत दिला दी  परंतु उन्हे पूरा करने मे '''दाँतो को पसीना'' आ रहा है ||| अब प्रधान मंत्री  चाहते है की सारा देश उनके किए को  समर्थन करे |||||  इति

Mar 7, 2015

पर्व और त्योहार अब अवकाश दिनो के मोहताज हो गए है

           इकीस्वी  सदी की भागम भाग  ज़िंदगी मे  आज सभी  लोग एक  रैट रेस  मे लगे है ,,  सयुक्त परिवारों  के खंडहर कनही --कनही  मिल जाते है | जहा  संयुक्त  परिवार   इन्कम  टैक्स  मे पाये जाते है  वे भी  वस्तुतः  व्यावसायिक  गतिविधियो को चलाने के लिए ही है || चूल्हा  और ज़्यादातर  मौको पर  घर भी अलग -अलग होते है |  गावों मे तो  पहले  ज़मीन बटती फिर घर और परिवार विभाजित होता है |  अक्सर  यह सब माता-पिता के जीवित रहते ही हो जाता है ,,  एक पक्ष की रॉय के अनुसार  यह  ''भाई -भाइयो ''' मे प्रेम मोहब्बत  बनी रहे इसलिए किया जाता है || क्योंकि एक चूल्हा  और एक ''छत """ के नीचे  रहने से घर के बर्तनो मे खटपट  शुरू हो जाती है और जिसकी आवाज कभी - कभी  अदालतों  के गलियारो तक मे सुनाई पड़ती है |  तो यह है हमारी परंपरा का मौजूदा रूप |  पहले घर का मुखिया कमाता था  घर के सभी लोग खाते थे || अब ऐसा संभव नहीं है ,,क्योंकि लोगो की  जरूरतों  मे बहुत ज्यादा इजाफ़ा  हुआ है |  पहले  सोने के लिए चारपाई  भर की जरूरत होती थी जिस पर  तकिया  दाल दिया जाता था , जिस से पहचान होती थी की यह किसका ''बिस्तरा '' है | बिस्तरे के नाम पर  दरी और एक चद्दर ही होती थी | केवल घर की महिलाओ  और --बुजुर्गो  तथा घर के मालिक  का ''बिस्तरा होता था ,, जिसमे बिछाने की चादर  और ओड़ने की चादर या कंबल होता था | बाकी लोग  जाड़े के डीनो मे रज़ाई का सुख पाते थे ---वह भी अनेकों बार  ज़मीन पर सामूहिक  ''बिस्तरा ''' लाग्ने पर | 
                           अब यह सब बाते इतिहास हो चुकी है ,, अब तो घर के पाँच साल के लड़के भी यह उम्मीद करते है की उनके लिए अलग कमरा हो अकेले न सही पर  दो लोगो से ज्यादा  शेयर  न करे ऐसा\  बिस्तरा तो बारह महीने बिछा रहता है  चादर बदली जाती रहती है --तकिये के गिलाफ भी पसंद के हिसाब से  चेंज  होते है | लडकीय इन मामलो मे कुछ ज्यादा ही जिद्दी  पायी जाती है | दरी -चादर  पर तो घर का नौकर ही सोता है | '''शायद  यही विकास है  ''''?? परंतु दूसरी ओर नगरो मे एक ऐसा भी समाज पनप रहा है  जो गावों  से अभी भी ''आर्थिक''''और ''सन्स्क्रतिक'''' रूप से बंधा हुआ है |  अक्सर  अनेक भाई होने पर  एक भाई खेती - किसानी देखता है जबकि दूसरे भाई फौज मे या कोई और नौकरी करते है |  अक्सर   सम्पन्न किसानो या जमींदारो  के सुपुत्र  वकालत को  पेशा बना लेते है | बिरला ही कोई डॉक्टर बन पता है ||  नगर मे रहने के कारण इनके रहन --सहन मे काफी बदलाव आता है |   कई बार ऐसा होता है की इन लड़को की शादी भी शहरो  की लड़कियो से होती है || जो ग्रामीण परिवेश को ''हिकारत''' की नज़र से देखती है | उन्हे गाव से आने वाले अनाज और सामान  तो अच्छे  लगते है ,,परंतु व्रध ससुर या सास  बिलकुल खलनायक की तरह लगते है | उसका कारण '''''परम्पराओ और  आस्थाओ का टकराव '''' होता है | गॅस  के चूल्हा आने से पहले तक  रसोई की पवित्रता  की एक ''रेखा''' हुआ करती थी जिसको लांघने  का हक़  सिर्फ खाना बनाने वाली बहू  या एक वस्त्र मे लिपटी सास का ,, बच्चो को भी अक्सर इस जुर्म मे कान उमेठे जाते थे ,,की उन्होने खाना मांगने के लिए थाली ''लाइन;;; से  आगे कैसे कर दी ?? पर अभी भी  खाना बनाने और  कैसे बनाने पर अक्सर  बहुओ को {{{खासकर कम कमाऊ पतियों की }}} को कटु वचन सुनने ही पड़ते है ||  गाव मे तो कम पदी बहुए  और निरुपाय  पति  की ताने सुनने की मजबूरी होती है |  परंतु शहर मे  एम ए या  बी ए पास बहुए  जवाब देने मे चुकती नहीं है | फलस्वरूप परिवार और चूल्हा या कहे की रसोई अलग हो जाते है |

                                    ऐसे मे मिया - बीबी और बच्चे का परिवार बचता है ,, जिसे अपनी परंपरा  और रीति - रिवाजो की कोई जानकारी  नहीं या अधकचरी  जानकारी होती है | जिसे वह पत्नी और बच्चो के दबाव मे   ''''यादों के गलियारे मे फेंक देता है |  अब ऐसे माहौल मे जनहा """ स्टैंडर्ड """ बनाए रखने के लिए  स्त्री - पुरुष दोनों को ही नौकरी करनी होती है  वनहा  दिन की शुरुआत  बच्चो के स्कूल के लिए टिफ़िन  बनाने से शुरू होती है  और बाथरूम  के इस्तेमाल के लिए लाइन या इंतज़ार करना पड़ता है  अगर घर मे दूसरा टॉइलेट है तो यह मुश्किल नहीं होती | परंतु नहाने -नाश्ता करने  और """ तीन टिफ़िन """" बना कर लेजाने से जो ''' ज़िंदगी  की शुरुआत होती है  वह  शाम को थके हारे लौटने पर ठहरती है |  कल्पना कीजिये इस माहौल मे होली --दीवाली  की क्या तैयारी की जा सकती है ?? घर पर  बनाने वाली  सभी मीठे - नमकीन की वस्तुए  अब """दूकानों"""" पर सजी नज़र आती है ||  छुटीटीँ  का उपयोग  बस शॉपिंग  कर के त्योहार  की चीजे खरीदने मे निकाल जाता है | बच्चे तो समान पाकर उनकी कीमत के अनुसार खुशी या नाराजगी व्यक्त करते है ,,और माँ --बाप उनकी सुनते है || 
                              यह तो हुई बात विशेस त्योहारो की  अगर बात करे उन पर्वो की जिनहे सरकारी कलेंडर  मे जगह नहीं मिल पाती तो --- उसको मनाए की रसम  अवकाश के दिनो यानि शनिवार या रविवार  को कर ली जाती है | यह बात सभी महानगरो मे कार्यरत परिवारों की तो है ही ,,, कुछ बदते हुए नगरो की भी है जो बड़ी तेज़ी से फ़ेल रहे है बिना किसी रोकटोक के || मकान या फ्लॅट  तो ले लेते है बाद मे  परमानेंट  शिकायत होती है  पानी की ----बिजली  की गंदगी की  सीवर  की  आवागमन की सुविधा के अभाव की  | लेकिन पाँच शून्य वाली  वेतन  और कमाऊ पत्नी के कारण ज़िंदगी की गाड़ी चल रही है आगे भी चलती रहे जीआई |||लेकिन उसमे हमारी परम्पराओ और रीति - रिवाजो की खुसबू गायब रहेगी ||| 
                    इतना ही नहीं अब तो शादी -ब्याह भी  सेकेंड  सैटर डे और रविवार  को तय किए जाते  है और ''सम्पन्न होते है | केरलल के  कुछ छेत्रों मे   ईसाई समाज के  के सदस्य के मौत होने के बाद  अंतिम संस्कार  के लिए भी रविवार का दिन चुनते है  यह  सुविधाजनक  तो है | तो स्थिति  यह है की  परंपराए  अब सुविधा की मोहताज हो गयी है  सिर्फ  भागम भाग  की ज़िंदगी  का परिणाम है  
                                                                                      इति        

Mar 6, 2015

पंचांग से पर्व एवं त्योहार की तिथि अब हुई बेमानी - साप्ताहिक छुट्टी ही अब अवसर

                                   
                                        पंचांग  से पर्व एवं त्योहार की तिथि  अब हुई बेमानी - साप्ताहिक छुट्टी  ही अब अवसर बना , विदेशो मे बसे भारतीय   अपनी सान्स्क्रतिक  विरासत  को सम्हाल कर तो  रखते है परंतु  काम - काज  के दिन और घंटे उनके पर्व और त्योहार को एक  परंपरा की लकीर को पीटना भर होता है |   अमेरिका और इंग्लंड  तथा  अन्य  यूरोप  के देशो मे बसे  आप्रवासी   उन देशो मे प्रांत -भाषा और धर्म के बंधन को तोड़ कर   एक समुदाय मे  संगठित  हो जाते है | आज से पचास वर्ष पूर्व  कनाडा और  अमेरिका -  न्युजीलैंड  आदि मे वनहा गए  सिख समुदाय ने  गुरुद्वारों की स्थापना की थी ,,जो उनके समय -समय पर मिलने जुलने का स्थान बना ||  चूंकि वे लोग पराधीनता के समय चले गए थे और पारंपरिक रूप से किसानी  करने वाले इन लोगो ने वनहा  मशीन के प्रयोग से  अपने हुनर को स्थानीय लोगो के सामने सिद्ध किया ||   उनकी इस विरासत को आज भी  देखा जा सकता है | हालांकि  बाद मे उन्होने  अन्य हिन्दुओ को भी इन गुरुद्वारों  को सुलभ कराया जनहा वे  दसहरा - दिवाली  को मिलजुल कर मनाते थे ||


                                                                 परंतु  तब भी उन्हे अपने पर्व  और त्योहार  शनिवार और रविवार को ही मनाना पड़ता था | क्योंकि पश्चिमी  सभ्यता  के कामकाजी  माहौल  मे काम करना तो आप्रवासियो को आ गया --परंतु  वे उनके तौर -तरीके नहीं अपना सके ----अभी तक भी ! इसका कारण था उनकी सान्स्क्रतिक
विरासत  जिसको वे अपनी  जनम स्थली से लेकर  गए थे |  अपने संस्कार  --परंपराए --तीज  त्योहार  आदि सभी को वे अपने साथ  सुरक्शित रखे हुए है || पिछले  पचास सालो मे  इन देशो मे भारतीय अध्यात्म एवं योग
का प्रचार और प्रसार भी हुआ || अनेक मंदिरो को भी आज देखा जा सकता है ,, कृष्ण के गणेश के और शिव के मंदिरो  मे जमा होने वाले भारतीय  विभिन्न प्रांतो और जातियो से संबंध रखते है |  इसलिए वे सामूहिक  रूप से
अपने त्योहार को मिल -जुल कर मनाते है |  परंतु यह अवसर उन्हे केवल शनिवार  और रविवार को ही मिलता है |क्योंकि सभी  के कार्यालय उसी दिन बंद रहते है | फलस्वरूप  पंचांग  से  त्योहार को जानकारी  तो हो जाती है ,, परंतु पर्व  का उल्लास और समूहिक रूप से  उसे मनाने  का अवसर  इन भारतीयो को सप्ताह के अंतिम दो दिनो मे ही मिलता है |||

                                        विदेशो मे वहा  के काम करने के   कैलेंडर  मे  चूंकि  वेदिक धर्म के पंचांग से होने वाले पर्व  या त्योहारो को अवकाश   नहीं होता है |  अतः  आप्रवासियो की मजबूरी है की  वे अपनी धरोहर को बनाए रखने के लिए  अवकाश  के दिनो को पर्व मानते है ||  लेकिन अब यह परंपरा  भारत के महानगरो मे भी पनप रही है | चूंकि विदेशी कंपनियो मे या उनके कॉल सेंटर  मे काम करने वाले कर्मियों को  कंपनी के मूल देश के ''दिवस''' के अनुसार काम करना पड़ता है | इन सेंटरो मे काम करने वाले  """दिन को रात,, और रात को दिन """ बनाते रहते है |  हमारे देश मे भी अनेक ऐसे त्योहार है जो छेतरीय  स्तरो पर मनाए जाते है || फलस्वरूप  उन छेत्रों मे भी दूसरे इलाको के त्योहारो  को अवकाश नहीं होता | उदाहरण के लिए केरल के पोंगल और तमिलनाडू के पर्वो पर  उत्तर भारत मे  आ वकाश नहीं होता ||और उत्तर भारत  के त्योहार जैसे दीवाली और होली का अवकाश   दक्षिण भारत मे नहीं होता है |  
                                                                        लेकिन मुंबई और  बंगलोर  चेन्नई  मे बहू राष्ट्रिय कोंपनियों मे काम करने वाले उत्तर भारतीय   अपने पर्वो को छुट्टी  लेकर ही माना पाते है || शायद ऐसा देश की विविधता के कारण है |  परंतु अनेक युवको  को पहली बार झटका लगता है ,, जब उनको पता चलता है की जिस बेसबरी से वे  त्योहार मनाने का प्लान कर रहे है ---उस दिन तो कार्यालय मे अवकाश  ''ही नहीं है """ ! तब वे मायूस हो जाते है |  जरूरत है इस कठिनाई का हल खोजने की |
                                                                                                                     इति

Mar 5, 2015

फर्जी मोहरो ने वज़ीरो को घेर कर भगाया

                                 फर्जी मोहरो ने वज़ीरो को घेर कर भगाया ,, यही कहा जा सकता है  ''आप'' पार्टी मे हुए घमासान  के बारे मे | प्रशांत भूसण और योगेंद्र यादव  को पार्टी की राजनीतिक समिति से बाहर किए जाने के फैसले की |  इस विषय पर हुए मतदान मे  12 सदस्यो ने जहा   इस फैसले का समर्थन किया वही 8 सदस्यो ने इस निरण्य का विरोध किया | इसका स्पष्ट  अर्थ तो यही है की नेत्रत्व और पार्टी की नीति के बारे मे सर्वोच  निकाय मे  सर्वानुमती नहीं नहीं है |  अन्ना हज़ारे  के  भ्रष्टाचार  विरोधी   और लोकपाल  की नियुक्ति  को लेकर  हुए आंदोलन ने देश मे एक नयी जागरूकता  पैदा की थी --जिस से प्रभावित हो कर  देश के नौजवानो मे एक नयी स्फूर्ति  भर दी थी | प्रबंधन और इंजीनियरिंग  के छात्रो  और स्नातको  मे देश की समस्या और राजनीतिक नेत्रत्व  के बारे मे पनप रहे आक्रोश को एक ''मुकाम'' मिला था | वे  संगठित  भी हुए और --आंदोलन ने देश के अन्य महानगरो मे  भी असंतोष  फूट पड़ा था --जो धारणा -प्रदर्शन के रूप मे दिखाई पड़ा | जनता के इसी दबाव के आगे मनमोहन सिंह सरकार को झुक कर  रामदेव ऐसे व्यक्ति की अगवानी के लिए तीन केन्द्रीय मंत्रियो को भेजना पड़ा की वे जा कर  वार्ता का रास्ता  निकाले |  परंतु  जैसा की तब  संदेह जताया जा रहा था की  गेरुआ वस्त्रधारी  रामदेव  संघ और भारतीय जनता पार्टी के अजेंडा को आगे करने का काम कर रहे ----वह उनके रामलीला मैदान मे हुए घटना क्रम से साफ हो गया था | काला धन  विदेशो से वापस लाने की '' तरकीब'' सुझाने वाले सुबरमानियन स्वामी और उनके जैसे लोग भी इस आंदोलन मे सुर मिलने लगे |

                                   परंतु अन्ना हज़ारे ने राजनेताओ से मंच साझा ना करने  की ''टेक'' ने किसी भी दल को सामने से इस आंदोलन का श्रेय लेने का मौका नहीं दिया |  संघर्ष  जारी रहा लोकसभा चुनावो की घंटिया बजने लगी थी | भारतीय जनता पार्टी  ने आंदोलन के मुद्दो को आगे कर के  मंदिर  को पीछे धकेल दिया | नरेंद्र मोदी जी ने  आंदोलन के आरोपो को हथियार बनाकर  लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान  उन्हे  ''अपराध'' सीधा करने की सफल कोशिस की | और वे इस प्रयास मे अप्रत्याशित रूप से सफल हुए लोगो को उनकी बातों पर भरोसा इसलिए हुआ क्योंकि  ''उन्हे''''अन्ना के आंदोलन मे उठाया गया था | तब किसी ने उनकी ''सत्यता''' को परखने का प्रयास नहीं किया | क्योंकि वे एक ''गैर राजनीतिक मंच''' से उठाए गए थे | इसलिए वे आम लोगो को सत्य प्रतीत हुए | लोगो ने उनकी  वास्तविकता ''परखने'' के लिए कोई भी  प्रयास नहीं किया ,, फलस्वरूप  एक तरफा  मतदान हुआ  और परिणाम  लोक सभा चुनावो के रूप मे आया ||

                                                          खैर  यह तो  बात हुयी पुरानी ,,  लेकिन जिस अन्ना  आंदोलन  की उपज से ''आप'' पार्टी का उद्भव हुआ और उसके   युवा  नेत्रत्व  निकला उसने देश वासियो को दिल्ली से मुंबई  तक एक नयी चेतना दी | लगा की बिना पैसे के भी  चंदे के बल पर चुनाव लड़े जा सकते है ,बशर्ते  जनता को आप उनके मुद्दो और उनके समाधान को स्पष्ट  कर सके | बिजली - पानी के मुद्दे से यद्यपि दिल्ली के बीस फीसदी मतदाता ही लाभ  लेय पाएंगे | परंतु प्रयासो  की सत्यता  ही पर्याप्त था उन्हे संतोष देने के लिए |  उम्मीद की जा रही थी की यह नेत्रत्व देश मे एक ऐसी '' अलख''''  जगाएगा  जो इस सदी हुई व्यसथा को झखझोर  देगा | परंतु  सत्ता  पर पकड़  और पार्टी मे एकल वर्चस्व  की महत्वाकांचा  ने बीच राह मे ही शंकाए उत्पन्न कर दी |   दोनों संस्थापक  सदस्यो को नीति -निर्धारक निकाय से बाहर किए जाने के फैसले ने एक प्रश्न खड़ा कर दिया है की ----अब पार्टी की राह किस ओर ??? यह सर्व विदित है की योगेंद्र यादव और प्रोफेससर आनंद कुमार  और प्रशांत भूसण   समाजवादी रुझान वाले लोग है |  केजरीवाल -सीसोदिया -संजय सिंह और अन्य लोग  सिर्फ केजरीवाल के अनुगामी है | उनके लिए '''लोक कल्याण  नीति '''''ही एक शब्द है जो उनके कार्यो और -फैसलो को सीध करता है | इन लोगो को इस बात से कोई लेना -देना नहीं की हमारी क्या विचारधारा  हो अथवा उस को अमली जामा  पहनाने के लिए किस प्रकार की प्रथमिकताए तय हो कैसे कार्यक्रम बने आदि |
अब ऐसा प्रतीत होता है की  अपने वादो को पूरा करने के लिए संसाधनो  और तरीको को खोजने मे ही सरकार की शक्ति लगेगी | ठीक भी है की लोगो को यह तो लगे की दूसरी पार्टियो की तरह ""आप""" वाले भी झूठे वादे नहीं करते है | वरन जो कहा ,उसे पूरा करने का प्रयास किया | लेकिन बिना दिशा  की नाव राजनीति के भँवर मे कब कैसे फसेगी  और कौन इसके सहयोगी होंगे यह सब अनिश्चित है | अभी आप का सरकार का गठन  भौतिकी  की प्रयोगशाला  के प्रयोग की भांति है ---जिसका परीक्षण   अन्य धरातल  पर भी होना है | एवं विचारधारा की शून्यता   इन्हे कान्हा ले जाए पता नहीं | क्योंकि  इस फैसले के बाद ही ही  सोशल  मीडिया  मे आना शुरू हो गया है की अब ''आप''' पार्टी अरविंद आलों पार्टी अथवा अरविंद अरविंद पार्टी हो गयी है |यह इनके लिए अशुभ संकेत है | क्योंकि जिस गति से इन्हे दिल्ली की विधान सभा मे पूर्ण बहुमत मिला है  वह कनही जल्दी ही बिखरने न लगे | क्योंकि कहा गाय है की ''''जो जितनी गति से ऊपर जाता है ,, उस से ज्यादा गति से नीचे भी आता है ''' अगर ऐसा हूर तो भारतीय गणतन्त्र के लिए भी वह स्वास्थ्यवर्धक  नहीं होगा |
                                                                                                                                                    इति