इकीस्वी सदी की भागम भाग ज़िंदगी मे आज सभी लोग एक रैट रेस मे लगे है ,, सयुक्त परिवारों के खंडहर कनही --कनही मिल जाते है | जहा संयुक्त परिवार इन्कम टैक्स मे पाये जाते है वे भी वस्तुतः व्यावसायिक गतिविधियो को चलाने के लिए ही है || चूल्हा और ज़्यादातर मौको पर घर भी अलग -अलग होते है | गावों मे तो पहले ज़मीन बटती फिर घर और परिवार विभाजित होता है | अक्सर यह सब माता-पिता के जीवित रहते ही हो जाता है ,, एक पक्ष की रॉय के अनुसार यह ''भाई -भाइयो ''' मे प्रेम मोहब्बत बनी रहे इसलिए किया जाता है || क्योंकि एक चूल्हा और एक ''छत """ के नीचे रहने से घर के बर्तनो मे खटपट शुरू हो जाती है और जिसकी आवाज कभी - कभी अदालतों के गलियारो तक मे सुनाई पड़ती है | तो यह है हमारी परंपरा का मौजूदा रूप | पहले घर का मुखिया कमाता था घर के सभी लोग खाते थे || अब ऐसा संभव नहीं है ,,क्योंकि लोगो की जरूरतों मे बहुत ज्यादा इजाफ़ा हुआ है | पहले सोने के लिए चारपाई भर की जरूरत होती थी जिस पर तकिया दाल दिया जाता था , जिस से पहचान होती थी की यह किसका ''बिस्तरा '' है | बिस्तरे के नाम पर दरी और एक चद्दर ही होती थी | केवल घर की महिलाओ और --बुजुर्गो तथा घर के मालिक का ''बिस्तरा होता था ,, जिसमे बिछाने की चादर और ओड़ने की चादर या कंबल होता था | बाकी लोग जाड़े के डीनो मे रज़ाई का सुख पाते थे ---वह भी अनेकों बार ज़मीन पर सामूहिक ''बिस्तरा ''' लाग्ने पर |
अब यह सब बाते इतिहास हो चुकी है ,, अब तो घर के पाँच साल के लड़के भी यह उम्मीद करते है की उनके लिए अलग कमरा हो अकेले न सही पर दो लोगो से ज्यादा शेयर न करे ऐसा\ बिस्तरा तो बारह महीने बिछा रहता है चादर बदली जाती रहती है --तकिये के गिलाफ भी पसंद के हिसाब से चेंज होते है | लडकीय इन मामलो मे कुछ ज्यादा ही जिद्दी पायी जाती है | दरी -चादर पर तो घर का नौकर ही सोता है | '''शायद यही विकास है ''''?? परंतु दूसरी ओर नगरो मे एक ऐसा भी समाज पनप रहा है जो गावों से अभी भी ''आर्थिक''''और ''सन्स्क्रतिक'''' रूप से बंधा हुआ है | अक्सर अनेक भाई होने पर एक भाई खेती - किसानी देखता है जबकि दूसरे भाई फौज मे या कोई और नौकरी करते है | अक्सर सम्पन्न किसानो या जमींदारो के सुपुत्र वकालत को पेशा बना लेते है | बिरला ही कोई डॉक्टर बन पता है || नगर मे रहने के कारण इनके रहन --सहन मे काफी बदलाव आता है | कई बार ऐसा होता है की इन लड़को की शादी भी शहरो की लड़कियो से होती है || जो ग्रामीण परिवेश को ''हिकारत''' की नज़र से देखती है | उन्हे गाव से आने वाले अनाज और सामान तो अच्छे लगते है ,,परंतु व्रध ससुर या सास बिलकुल खलनायक की तरह लगते है | उसका कारण '''''परम्पराओ और आस्थाओ का टकराव '''' होता है | गॅस के चूल्हा आने से पहले तक रसोई की पवित्रता की एक ''रेखा''' हुआ करती थी जिसको लांघने का हक़ सिर्फ खाना बनाने वाली बहू या एक वस्त्र मे लिपटी सास का ,, बच्चो को भी अक्सर इस जुर्म मे कान उमेठे जाते थे ,,की उन्होने खाना मांगने के लिए थाली ''लाइन;;; से आगे कैसे कर दी ?? पर अभी भी खाना बनाने और कैसे बनाने पर अक्सर बहुओ को {{{खासकर कम कमाऊ पतियों की }}} को कटु वचन सुनने ही पड़ते है || गाव मे तो कम पदी बहुए और निरुपाय पति की ताने सुनने की मजबूरी होती है | परंतु शहर मे एम ए या बी ए पास बहुए जवाब देने मे चुकती नहीं है | फलस्वरूप परिवार और चूल्हा या कहे की रसोई अलग हो जाते है |
ऐसे मे मिया - बीबी और बच्चे का परिवार बचता है ,, जिसे अपनी परंपरा और रीति - रिवाजो की कोई जानकारी नहीं या अधकचरी जानकारी होती है | जिसे वह पत्नी और बच्चो के दबाव मे ''''यादों के गलियारे मे फेंक देता है | अब ऐसे माहौल मे जनहा """ स्टैंडर्ड """ बनाए रखने के लिए स्त्री - पुरुष दोनों को ही नौकरी करनी होती है वनहा दिन की शुरुआत बच्चो के स्कूल के लिए टिफ़िन बनाने से शुरू होती है और बाथरूम के इस्तेमाल के लिए लाइन या इंतज़ार करना पड़ता है अगर घर मे दूसरा टॉइलेट है तो यह मुश्किल नहीं होती | परंतु नहाने -नाश्ता करने और """ तीन टिफ़िन """" बना कर लेजाने से जो ''' ज़िंदगी की शुरुआत होती है वह शाम को थके हारे लौटने पर ठहरती है | कल्पना कीजिये इस माहौल मे होली --दीवाली की क्या तैयारी की जा सकती है ?? घर पर बनाने वाली सभी मीठे - नमकीन की वस्तुए अब """दूकानों"""" पर सजी नज़र आती है || छुटीटीँ का उपयोग बस शॉपिंग कर के त्योहार की चीजे खरीदने मे निकाल जाता है | बच्चे तो समान पाकर उनकी कीमत के अनुसार खुशी या नाराजगी व्यक्त करते है ,,और माँ --बाप उनकी सुनते है ||
यह तो हुई बात विशेस त्योहारो की अगर बात करे उन पर्वो की जिनहे सरकारी कलेंडर मे जगह नहीं मिल पाती तो --- उसको मनाए की रसम अवकाश के दिनो यानि शनिवार या रविवार को कर ली जाती है | यह बात सभी महानगरो मे कार्यरत परिवारों की तो है ही ,,, कुछ बदते हुए नगरो की भी है जो बड़ी तेज़ी से फ़ेल रहे है बिना किसी रोकटोक के || मकान या फ्लॅट तो ले लेते है बाद मे परमानेंट शिकायत होती है पानी की ----बिजली की गंदगी की सीवर की आवागमन की सुविधा के अभाव की | लेकिन पाँच शून्य वाली वेतन और कमाऊ पत्नी के कारण ज़िंदगी की गाड़ी चल रही है आगे भी चलती रहे जीआई |||लेकिन उसमे हमारी परम्पराओ और रीति - रिवाजो की खुसबू गायब रहेगी |||
इतना ही नहीं अब तो शादी -ब्याह भी सेकेंड सैटर डे और रविवार को तय किए जाते है और ''सम्पन्न होते है | केरलल के कुछ छेत्रों मे ईसाई समाज के के सदस्य के मौत होने के बाद अंतिम संस्कार के लिए भी रविवार का दिन चुनते है यह सुविधाजनक तो है | तो स्थिति यह है की परंपराए अब सुविधा की मोहताज हो गयी है सिर्फ भागम भाग की ज़िंदगी का परिणाम है
इति
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