जब जांच ही सज़ा बन जाये –तब अदालतो का फर्ज़
क्या हो
यह
सवाल मोदी सरकार के निज़ाम में काफी महत्वपूर्ण
है , क्यूंकी “” जांच के नाम “” पर सभी केन्द्रीय जांच एजेनसिया गैर बीजेपी दलो के नेताओ की जांच के नाम पर उन्हे हिरासत में लेकर “” अपराधियो “” का लेवल चिपकाने
का काम करती हैं | हालांकि सरकार के आलोचको को भले ही जेल में दाल दिया हो ----परंतु उनके खिलाफ , कानूनी की दस्तावेजी
, कारवाई में जांच एजेन्सिया
अदालत में सिर्फ –और समय मांगती नजर आती हैं
| जितनी जल्दबाज़ी ये एजेंसिया गिरफ्तारी करने में करती हैं , वह रफ्तार
अदालत में जैसे ठिठक जाती हैं | आखिर सर्वोच्च न्यायालय कब इन जांच एजेंसियो से यह सवाल करेगी की --- आप जिन आरोपो में नागरिकों
को हिरासत में ले रहे हैं ---- उन आरोपो के सबूत क्या हैं ? क्या गिरफ्तारी के लिए वाजिब आधार
हैं ?
बात करे
काँग्रेस के राष्ट्रिय अधिवेशन के पूर्व छतीसगड
के रायपुर में काँग्रेस के 20 पदाधिकारियों
को ईडी की कारवाई में हिरासत में लिया | अब दिल्ली के उप मुख्य
मंत्री मनीष सिसौडिया की सीबीआई द्वरा गिरफ्तारी
और रौज एवेन्यू की अदालत ने पाँच दिन की रिमांड सीबीआई को दे दी
| क्या ज़िला अदालत –का फर्ज़ बस इतना ही है की वह जांच एजेंसी की मांग पर बिना दिमाग लगाए उस पर “”मंजूरी “” देना ही हैं | गौर तलब है की अलीगड के एक मामले
में गोरखपुर के मुस्लिम डाक्टर को इस बिना
पर पुलिस ने गिरफ्तार किया था –की जिलाधिकारी ने विश्वविद्यालय में उनके भासन को “” वैमनस्य फैलाने वाला और देश द्रोह वाला बताया
था | जिसे उच्च न्यायलय ने तीखी टिप्पणी की थी की डाक्टर के भासण में कौन
सा अंश कारवाई का आधार था ! बाद में जिलाधिकारी
ने इस टिप्पणी के बारे में प्रैस के सवालो से भागते रहे |
पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री चिदम्बरम की गिरफ्तारी के बाद भी वह मामला अभी भी अदालत में घिसट रहा हैं | पूना के सनसनीखेज मामले जिसमे 6 ऐसे व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया – जिनहोने केवल लेखन और समाज
सुधार कार्य ही कर रहे थे |
उसमे एक आरोपी फादर स्टेंस जो की 80 वर्ष से अधिक आयु के थे , जिनहे
मेडिकल सुविधा तक नहीं मुहैया कराई | फलस्वरूप उनकी मौत हो गयी | फर्जी मामलो
में लोगो की गिरफ्तारी , और बाद में उनके बेगुनाह सिद्ध होने
पर जांच अधिकारियों पर कोई कारवाई ना तो अदालत
द्वरा की जाती हैं ना ही सरकार द्वरा | ऐसे में मंत्री और दारोगा मनमानी
करते रहते है |
सुप्रीम कोर्ट
ने अपने फैसलो में बार – बार कहा है की जमानत
आरोपी का अधिकार हैं ---जिसे निचली अदालतों
द्वरा स्वीकार किया जाना चाहिय | दिल्ली के अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश
जे एन यू और जामिया मिलिया के मामलो में दिल्ली पुलिस ने जिन मुस्लिम युवको
को आरोपी बना या था -- उनके खिलाफ साल भर बाद
भी कोई सबूत नहीं पेश कर पायी । तब जज साहेब
ने बहत तीखी टिप्पणी की थी | पर जांच करने वालो पर कोई असर नहीं
-----क्यूंकी सरकार उनका संरक्षण कर रही थी
| हक़ीक़त तो यह है की दिल्ली की आप सरकार के वित्त मंत्री सत्येंद्र
जैन सात माह से जेल में हैं , पर जितनी जल्दी सीबीआई ने उन्हे
बंदी बनाने में दिखाई थी ---- वह अदालत में अभी तक कोई सबूत पेश नहीं कर पाये |
हाकीकत यह है
की मोदी सरकार के इशारे पर अपने राजनीतिक विरोधियो
पर जीतने भी मामले जांच एजेंसियो ने दर्ज़ किए – चाहे वह दिल्ली के दंगो
का मामला हो अथवा न्यूज़ लांड्री के संपादक
के ट्व्वीट का हो अथवा मलयाली पत्रकार का हो जिनहोने मुरादाबाद में दलित लड़की से हुए बलात्कार के बाड हत्या फिर
सवर्ण ठाकुरो के दबाव में रात के अंधेरे में पुलिस के पहरे में उसका दाह संस्कार
का मामला उठाया था | गौर तलब हैं योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री जन्म से ठाकुर हैं | यह समीकरण
सहज ही सारी बाटो का उत्तर दे देता हैं !
वक़्त आ गया हैं की सुप्रीम कोर्ट जांच की कारवाई को सज़ा बनने
से रोके :- पुलिस हो या सी आई डी हो इंकम टैक्स
हो या फिर ईडी हो या सीबीआई अथवा एन आई ए
---ये सभी एजेंसिया भारी भरकम अफसरो और कारकुनो तथा अनेक अधिकारो और साजो सामन से लैस होती हैं | जिसके मुक़ाबले
एक नागरिक “”बस बेचारा “” ही होता हैं | उसके बाद भी बिना सबूत के गिरफ्तारी
और फिर जमानत का विरोध --- की आरोपी मामले के गवाहो को डरायेगा | संविधान में मिली आज़ादी को महीनो तक दस बाइ दस की कोठरी में “”निरपराध “” क़ैद रखना एक सज़ा ही तो हैं | क्या जिस
एजेंसी ने गिरफ्तारी की है –उसको इसबात की सज़ा नहीं मिलनी चाहिए की सने “”बिना पुख्ता सबूतो के आरोपी को किस आधार
पर गिरफ्तार किया ?
आखिर ब्रिटिश हुकूमत और तानाशाही निज़ाम में ही नागरिकों को उनके अधिकारो से वंचित
किया जाता रहा हैं | क्या चुनाव में येन्केन प्रकारेन सरकार
बना लेना –फिर अपने राजनीतिक विरोधयो को प्रातड़ित
करना ही मौजूदा निजाम का काम रह गया हैं | सत्ता के पुजारी के लिए अपनी शपथ
का वह भाग भी भूल जाना की “” मै कोई भी निरण्य बिना किसी राग या द्वेष के लूँगा “”” भारत के लोकतन्त्र के लिए खतरा है |
लगता है जब तक देश की बहुसंख्यक जनता इस विषमता के वीरुध सड़क पर नहीं उतरेगी ,तब तक संसद का बहुमत निरंकुश ही रहेगा | अभी सुप्रीम
कोर्ट के एक नव नियुक्त जज ने कहा था इज़राइल में नेत्न्यहु की सरकार ने न्यायपालिका
को पंगु करने के लिए एक कानून लाने वाले थे --- जिससे की वनहा की सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने का अधिकार संसद को दिये जाने की कोशिस थी | उन्होने कहा की अब जनता में अपने अधिकारो और सरकार की सीमाओ को नियत करने
के लिए जन आंदोलन ही करना होगा |