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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 27, 2017

प्रजातन्त्र --- जनता के लिए - जनता के द्वारा निर्वाचित शासन व्यवस्था
के कर्णधार राजनीतिक दल--- खुद के संगठनो मे चुनाव नहीं कराते
फलस्वरूप राजनीतिक दलो मे स्थानीय और प्रदेश स्तर पर नेता नहीं
पिछलग्गु निकल रहे है -जो छेत्र से अधिक आक़ाओ की फिकर करते है

भारत के संविधान मे राष्ट्रपति को तीनों निकायो अर्थात – विधायिका एवं कार्यपालिका और न्यायपालिका मे संतुलन का रखवाला माना गया है | परंतु गणराज्य के विगत साथ वर्षो से अधिक काल मे यही देखा गया है की --- कार्यपालिका ही स्वयंभू हुई है | संसद के निकले सदन मे बहुमत प्रापत दल अथवा गुट ही सरकार का गठन करता है | एवं इसी कारण वह विधायिका पर भी नियंत्रण करता है | चूंकि सरकार की सलाह राष्ट्रपति को मानना अनिवार्य है --अतः वे भी राजनीतिक सीमाओ के अतिक्रमण के मूक दर्शक ही बने रहते है | जिस प्रकार महाभारत मे द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म जैसे महारथी भी मूक साक्षी बने रहे ---कुछ - कुछ वैसा ही राष्ट्रपति की हैसियत है |

सोचा तो यह गया था की लोकसभा के जन प्रतिनिधि सरकार को उचित राह पर चलने के लिए मजबूर करते रहेंगे | परंतु राजनीतिक दलो के "”गिरोह "”” ने जनता की आवाज़ को उभरने का ही मौका नहीं दिया | देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस हो अथवा दक्षिण पंथी भारतीय जनता पार्टी या की वामपंथी साम्यवादी दल हो सभी मे संगठन के नाम पर --कतिपय नेताओ के समर्थको का हूजूम ही होता है | स्थानीय नेत्रत्व के मजबूत होने से शीर्ष मे बैठे '' नेताओ '' की पकड़ ढीली होने की आशंका से ---- कभी भी ,किसी भी दल मे सदस्यता सूची सार्वजनिक नहीं की ज़ाती | यह भी देश के नागरिकों को नहीं पता चल पाता की किस संगठन अथवा व्यक्ति ने किस दल को कितना चंदा दिया है |इसकी जानकारी भी गैर सरकारी संगठनो के जरिये चलती है | मजदूर या कामगार संगठनो के सदस्यो की संख्या के आधार पर उन्हे प्रबंधन के साथ वार्ता का अधिकार प्राप्त होता है ---वनहा भी सब कुछ गोलमाल ही रहता है | प्रबंधन मनचाहे संगठन को मान्यता प्रदान कर देता है |लेकिन किस आधार पर किया इसका खुलासा नहीं होता !
निर्वाचन आयोग से मान्यता पाने के लिए – राजनीतिक दलो को '''चुनाव ' मे प्राप्त मत ही आधार होते है |जिसके आधार पर उन्हे छेतरीय या राष्ट्रीय दल की मान्यता मिलती है |पूर्व निर्वाचन आयुक्त टी एन शेषन ने एक निर्देश द्वरा सभी राजनीतिक दलो {{छेत्रिय अथवा राष्ट्रीय }}} को संगठन के चुनाव कराना अनिवार्य कर दिया था | परंतु इन दलो मे चुनाव हो रहे है अथवा चुनाव का नाटक हो रहा है ---इसके लिए कोई व्यसथा नहीं की गयी थी | फलस्वरूप आज सभी राजनीतिक दलो मे संगठन के चुनाव का नाटक ही होता है --इसीलिए सभी राष्ट्रीय अध्यक्ष सर्वसम्मति से निर्वाचित होते है !! इससे बड़ा प्रजातन्त्र का मखौल और क्या हो सकता है ??

जिस देश मे ग्राम पंचायत के चुनाव मे "”सर्वसम्मति "” नहीं होती {{कुछ बिरले उदाहरण छोडकर }} वहा लाखो सदस्यो वाली राजनीतिक पार्टियो मे ज़िलो से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर तक के पदाधिकारी सर्वसम्मति से चुने जाते है अथवा मनोनीत होते है ? सभी दलो मे सदस्य
अपने राजनीतिक आक़ाओ की "”चापलूसी और गणेश परिक्रमा "” के बल पर ही संगठन के पद पर आसीन होते है | हालत इतने बदतर है की ब्लॉक स्तर पर भी '''मनोनयन''' ही होता है !! इसी लिए किसी भी दल के सदस्य छेत्र मे काम करके पार्टी मे जगह नहीं बनाने की सोचते --- वरन गणेश परिक्रमा मे भरोसा रखते है " इसी कारण एक प्रदेश के नेता को दूसरे प्रदेश से सदन मे भेज देते है|एक ज़िले के कार्यकर्ता को दूसरे ज़िले मे चुनाव लड़ने का "””टिकट"” दिया जाता है |

जिन राजनीतिक दलो पर देश और प्रदेश को चलाने की ज़िम्मेदारी है ---वे अपने संगठनो मे भी चुनाव नहीं कराते है -----इस से बड़ा भारत का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है|