आरोपी -तफतीश के दौरान क्यू रहते हैं जेल में -जमानत क्यू
नहीं ?
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की जुस्टिस सुंदरेश
की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में कहा की आरोपी को जमानत पाने का अधिकार हैं | जिसे अदालतों द्वरा सम्मान किया जाना
चाहिए | कुछ
ही दिन बाद जस्टिस खानविलकर की बेंच
ने मनी लौंडेरिंग के मामले में प्रवर्तन निदेशालय को बिना वारंट और कारण बताए बगैर गिरफ्तारी
को जायज बताया ! वनही प्रधान न्यायाधीश जुस्टिस रमन्ना
ने भी एक फैसले में कहा की “” बेल बट नो जेल “” | ऐसी विरोधाभाषी स्थिति में
निचली अदालतों के पास दोनों ही
स्थितियो को “”न्यायिक “ सिद्ध करने के लिए
कारण और तथ्य मौजूद हैं ! सवाल हैं
की देश की जेलो में 4 0000, चालीस हज़ार से अधिक क़ैदी “”आरोपी हैं | एवं वे भी सालो से अपने मुकदमो का इंतज़ार कर रहे हैं | जिन कारागारों को अपराधियो की सज़ा के
उद्देश्य से बनाया गया , आज वे बंदीग्रह बन गए हैं | जनहा अपराधियो से भी ज्यादा वे लोग क़ैद
हैं जिन पारा अभी भी “”अपराध “” सिद्ध नहीं हुआ हैं | क्यूंकी जांच एजेंसियो ने अपनी तफतीश पूरी नहीं की है , और और अदालतों में चार्जशीट दाखिल नहीं की गयी हैं
जांच एजेंसियो द्वारा चार्जशीट पेश करने में महीनो का विलम्ब और मुकदमें के दौरान
“”सबूतो को समय पर पेश नहीं करने “” के कारण बहुत से
आरोपी “”न्याय की इस प्रक्रिया में ही बेहाल
हो कर निराश हो जाते हैं “ | आरोपी की बेगुनाही साबित होने की दो वजहे
हैं :-
1-
सबूत का अपराध को सिद्ध करने में सीधा संबंध नहीं होना
2-
आरोपी के वीरुध अपराध करने की नियत और अपराध का सीधा संबंध नहीं होना |
इसकारण कई बार सबूतो के अभाव में उन्हे छोड़ दिया जाता हैं
| परंतु
जब अदालत आरोपी को पूर्णतया निर्दोष मानते हुए “”बाइज्जत बरी “” करने का फैसला सुनाती
है , तब तो
जांच अधिकारी की योगिता और उसकी नियत पर शंका उठना स्वाभाविका है |
महात्मा गांधी हत्यकाण्ड में हिंदू
महासभा के नेता सावरकर जिनहे वीर सावरकर भी
कुछ लीग कहते हैं , वे भी एक अभियुक्त थे |
[परंतु हत्या के षड्यंत्र में सीधा संबंध नहीं होने के कारण उन्हे आरोपो से मुक्त किया गया था , परंतु उन्हे बाइज्जत बरी नहीं किया गया था
| इस स्थिति
का फल यह होता हैं की अगर भविष्य में इस संबन्धित अपराध में कोई नए सबूत मिलते हैं
जो उनके वीरुध होते हैं ,तब उन्हे दुबारा अदालत में पेश किया जा सकता है |
परंतु महात्मा
गांधी हत्यकाण्ड में भी सावरकर को जेल में नहीं रखा गया था | यद्यपि वे आरोपी थे | परंतु आज तो फाजिल के मामले में अलीगरह हालत यह है की छोटे से
छोटे अपराध के आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पुलिस द्वरा लाये जाने पर --अदालत उनसे यह नहीं पूछती है की आप को जमानत चाहिए
या नहीं ? सीधे पुलिस
के हिसाब से डायरी देख कर सीधे हिरासत में
भेजे जाने का हुकुम लिख दिया जाता हैं | अफसोस तो यह हैं की अपील की अदालते भी जिला अदालत के फैसले को “”सरसरी
“” निगाह से देखती हैं | गोरखपुर के डॉफाजिल के मामले
में अलीगड के जिलाधिकारी द्वरा यूएपीए के तहत “ दो समुदायो के मध्य नफरत और वैमनस्य फैलाने के
जुर्म में बंदी बनाए जाने का हुकुम दे दिया
| जिस भासन
के आधार पर यह अपराध होना पाया गया था , उसे सुप्रीम कोर्ट ने “”निर्दोष भासन “” बताया , और टिप्पणी की क्या जिलाधिकारी ने पुलिस
केकसबूतों को ध्यान से परखा होता तो उन्हे
पता चलता की भासन में कोई भी ऐसा अंश नहीं हैं जिसे “” नफरत भरा “” कहा जा सके |
रिहाई के बाद डॉ फाजिल ने कहा की मेरी
सज़ा यह होनी चाहिए की मैं उन कलेक्टर साहेब का ड्राईवर बानु -जिससे की वे मेरी शक्ल
देख कर अपने फैसले के गलत होने का अंदाज़ कर सके |
रायपुर की एनआई ए की अदालत ने यू एपी
ए कानून के तहत 121 आदिवासियो को नक्सलवादी मानने से इंकार कर दिया
| उन पर
आरोप था की 2017 में उन्होने सीआरपीएफ़ के 26 जवानो को मार दिया था |
अदालत ने फैसले में लिखा की अभियोजन द्वरा ना तो कोई ऐसा बयान ही प्रस्तुत किया गया और नाही
ऐसा कोई सबूत जो इन आदिवासियों को जबत हथियारो
से जोड़ता हो | 6 जंगल गावों से
बंदी बनाए गाये आरोपी 2017 में मुश्किल से बीस या तीस वर्ष के रहे होंगे | जिनके माओ वादी होने का कोई भी सबूत पुलिस
नहीं दे पायी हैं | केवल पुलिस के आरोपो को सबूत
नहीं माना जा सकता | पुलिस यह साबित करने मेंविफल
रही की आरोपी वारदात के समय मौके पर मौजूद
थे !
रिहाई के बाद इन आदिवासियो के चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी उन्होने मीडिया से भी बात करने
से गुरेज किया | वे बस अपने -अपने परिवारों से मिलने की जल्दी
में थे ---जिनसे वे 5 वर्षो से अलग रहे | वंचितों केसमुदाय से कानून की इस नाइंसाफी ने उन्हे तोड़ दिया था |
एक दूसरे मामले में एन एस ई एल के एक आरोपी को
को तीन साल जेल में इसलिए रहना पड़ा क्यूंकी जमानत की राशि 3 लाख रुपये थी | जो वह नहीं जूता सका | तीन साल तक जेल में रहने के पश्चात अदालत
को ख्याल आया की की जब बाकी सभी आरोपी इस मामले में जमानत में है –तब यह क्यू बंदी ग्रहा में रहे | तब अदालत ने जमानत की राशि 1 लाख कर दी | परंतु उसके पैसे वाले साथी 3 साल पहले जेल
से मुक्त होकर आज़ादी की हवा में सांस ले रहे थे ----पैसे की कमी ने उसे बंदीग्रह में
ही रखा !!!!
प्रदेश को बदनाम
करने वाले व्यापम कांड , जिसमें पीएमटी प्रतियोगिता में
पैसा लेकर छात्रों को पास कराने के लिए कई गिरोह शामिल
थे | 2022 में
इस कांड को 8 साल हो गए हैं , कुल 67 मुकदमो में से सिर्फ 21 मामलो में सुनवाई पूरी हो पायी हैं | इनमें 19 मामलो में सीबीआई अभियुक्तों को सज़ा दिलाने में सफल हुए हैं |
लेकिन दो मामले जिनमे 300 लोग आरोपी हैं , में सीबीआई ने चालान तो पेश कर दिया पर गिरफ्तारी
नहीं हुई है इसलिए मामलो को सुनवाई शुरू नहीं
हुई | कहने का अर्थ हैं की की जांच एजेंसियो की धीमी चाल और अदालतों
में सुनवाई के लिए मामलो का अंबार नागरिकों को न्याय देने में विलंब कर रहा हैं |
और न्याय में देरी अन्याय के समान है
बॉक्स
उच्च
न्ययालयों और सर्वोच्च न्यायलय के हाल के विरोधा
भाषी फैसलो ने – आम लोगो में एक सवाल खड़ा कर दिया हैं ---- क्या अदालते नागरिकों
के अधिकारो की सुरक्षा के लिए हैं ,अथवा सरकार के कानूनों और फैसलो को सही घोषित करने का
काम कर रही हैं | विगत में में सुप्रीम कोर्ट ने जनता के मध्य उठ रहे मामलो और घटनाओ पर “”खुद संगयान “” ले कर देश के नागरिकों में संविधान
और विधि के शासन की अवधारणा को मजबूत किया
हैं | उदाहरण के लिए जेसिका हत्यकाण्ड मामले में काँग्रेस के एक बड़े नेता का बेटा आरोपी
था | परंतु प्रारम्भिक अदालती कारवाई में गवाहो और जांच करने वाले को आरोपी द्वरा प्रभावित किया
गया | जिससे पीड़िता
बहन न्याय पाने की उम्मीद ही खो बैठी थी |
लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्टर की कोशिस ने अंततः प्रधान
न्यायाधीश भगवती को इस मामले को पुनः खोलने पर सहमत किया | परिणाम हुआ की हरियाणा के काँग्रेस नेता के चिरंजीवी जेल में वक़्त काट रहे हैं | भले ही उन्हे पैरोल मिलने में आसानी
हो जाती हैं |
आज देश में अनेक स्थानो पर राज्यो की सरकारे कानून के साथ मनमानी करती नज़र आते हैं | सरकरे अपने संवैधानिक जैसे बुलडोजर
संसक्राति को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने उसे “”अवैध “” नहीं बताया | उनका कहना की स्थानीय निकाय को
गैर मंजूरी के बिना निर्मित इमारत को ढाहाने का अधिकार हैं | यानहा एक सवाल हैं की जिस प्रकार पुलिस “”बेगुनाहों “ को बंद कर देती हैं ,| बाद में अदालत से वे
बेगुनाह साबित हो जाते हैं | क्या पुलिस या
अदालत उस नागरिक को कोई राहत दे पाती हैं ?
न्यायायिक प्रक्रिया हैं की व्यक्ति हो या संस्थाए अथवा सरकार का कोई विभाग हो अगर वह किसी नागरिक के वीरुध कोई कारवाई करता
हैं तो उसे “”” लिखित में कारण बताना होता हैं “” यह शर्त आजकल बुलडोजर चलाने के
समय प्रभावित को नहीं दी जाती | बिना लिखित नोटिस के कारवाई को सुप्रीम
कोर्ट की सहमति ----नागरिक के संवैधानिक अधिकारो
पर हमला हैं |
धरम विशेस के लोगो को निशाना बना कर सार्वजनिक रूप से बयान बाज़ी और प्रदर्शन को उच्च
और सर्वोच्च न्यायालय द्वरा नियंत्रित
नहीं किया जाना , एक प्रकार से इन तत्वो
को हिम्मत देती हैं | जो समाज के लिए घातक
हैं |
न्यायालय समदर्शी नहीं हैं :- नूपुर शर्मा कांड में अदालत ने
एक पुरानी फिल्म के शॉट को ट्वितीर पर डालने
पर ज़ुबैर को
तो 30 दिनो तक दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जेलो
और अदालतों की सैर करनी पड़ी | जबकि दूसरी अभ्युक्त नूपुर शर्मा को अभी तक ना गिरफ्तार किया गया और नाही
वे अदालत में पेश हुई हैं | जिस सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर की लानत -मलान्त की वह अब चुप है !!!!!!!