Bhartiyam Logo

All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Apr 8, 2014

मंहगाई को कम करने और विकास गति को बदने का दावा -एक मिथक ?भाग दो



मंहगाई को कम करने और विकास गति को बदने का दावा -एक मिथक ?भाग दो

मंहगाई और विकास दोनों ही साथ -साथ चलने वाली विधाए हैं , एक ऊपर जाएगा तभी दूसरा भी ऊपर जाएगा , मतलब
यह है की अगर देश मे राज्य द्वारा विकास के लिए घाटे की बजेट व्यवस्था करने से विभिन्न विकास की योजनाओ मे किए जाने वाले व्यय
से बाज़ार मे मुद्रा का ''परिमाण"" बढ जाता है | फलस्वरूप बाज़ार मे क्रय शक्ति मे व्रद्धि होती हैं | परंतु बाज़ार मे वस्तुओ की तुलना
मे मुद्रा की अधिकता तात्कालिक रूप से वस्तुओ के दामो को बड़ा देती हैं | क्योंकि मांग- आपूर्ति के सिद्धांत से ही बाज़ार मे संतुलन होता हैं |
यद्यापि यह संतुलन आने मे ""समय""" लगता हैं ---जिसको आम आदमी मंहगाई के रूप मे परिभासित करता हैं | यह कहना की साठ
साल मे देश मे कोई विकास नहीं हुआ और मंहगाई दावानल की तरह बदती रही |
अब इस मंहगाई को विकास के साथ मे समझने के लिए
उस स्थिति को समझना होगा जो साल दर साल मंहगाई मे व्रद्धि होती रही , वनही लोगो मे सुख सुविधा की वस्तुओ मे बदोतरी भी होती रही |
साइकल से लेकर एसयूवी - ऑडी और सड़क पर दौड़ती विदेशी गाड़ियो की भरमार ---अगर विकाश नहीं हैं तो फिर विकास का कौन सा मोडेल
हैं ? पिछले पचास सालो मे दहाई और सैकड़े के वेतन ने आज हज़ार और दस हज़ार का स्थान ले लिया हैं |आज़ादी के समय सिपाही का
वेतन दहाई मे होता हैं आज उसे दस हज़ार से कुछ थोड़ा ही कम मिलता हैं |किसान की पूरी फसल जो कुछ सैकड़े मे बनिया खरीद लेता था , आज हजारो रुपये का भुगतान शासकीय खरीद केंद्र से होता हैं | पहले कोई नकद फसल नहीं के बराबर थी , आज अधिकान्स छेत्रों मे
किसान नक़द फसलों द्वारा अतिरिक्त कमाई करता हैं | जिसकी बदौलत वह अपने बच्चो को नगर मे ऊंची शिक्षा दिलाने मे सक्षम हैं |गावों
मे मोटर साइकल और जीप या एसयूवी की उपस्थिती क्या ग्रामीण संपन्नता का पैमाना नहीं हैं ? शहरो मे सड्को से पिछले चालीस सालो मे
साइकल की जगह भांति - भांति के दुपहिया वाहनो को देखा जा सकता हैं--यह दस पंद्रह सालो मे तो नहीं हुआ हैं , इसकी शुरुआत तो 1950 से हो चुकी थी |गावों अब लोग शिक्षित और सुविधा सम्पन्न हो गए हैं | दातौन की जगह टूट पासते ने ले ली हैं , अब बिसकुट
बच्चो के लिए आम बात हैं | रेडियो और ट्रंजिस्टर के युग को छोड़ कर अब टीवी युग मे गावों का प्रवेश हो चुका हैं | मोबाइल तो लगभग
सभी के हाथो मे देखा जा सकता हैं | खत लिखना मनी ऑर्डर का इंतजार अब बीते दशको की बात हो चुकी हैं | अब बैंक और डेबिट कार्ड
ने इन का विकल्प दे दिया हैं | क्या यह सब विकास नहीं हैं तो फिर विकास क्या हैं ? हाँ पेट्रोल के दाम 1970 मे वेसपा दुपहिया से
मधायम वर्ग की जानकारी मे आए | इसके पहले पेट्रोल पम्प मुट्ठी भर लोगो की गाड़ियो का स्थान हुआ करता था , परंतु अब लंबी लाइन
ने इस वस्तु को भी आम आदमी की ज़िंदगी के इस्तेमाल की वस्तु बना दिया हैं | तब चार सादे चार रुपये लिटर का पेट्रोल आज सत्तर रुपय
से अधिक का हो गया हैं | परंतु पेट्रोल की खपत बदती ही जा रही हैं | साथ ही नए - नए मोडेल की बाइकों की बिक्री मे भी अभूतपुरवा
बदोतरी हुई हैं | यह सब गुजरात मे ही ही नहीं हुआ सारे देश मे हुआ हैं | फिर मंहगाई को क्यो रोना ?क्या औसत आय मे व्रद्धि
नहीं हुई हैं ? अगर बदोतरी नहीं हुई होती तो कार और दुपहिया वाहनो की बिक्री मे इतना इजाफा कैसे हुआ ? कान्हा से पैसा आया ?बंकों
की शाखाओ मे जमा की व्रद्धि का आधार क्या हैं ? इन उदाहरणो से साफ हैं कि अगर विकाश की गति बदेगी तो मंहगाई भी बदेगी |
इसलिए यह कहना की मंहगाई को नियंत्रित करेंगे कहना गलत होगा | क्योंकि अगर नियंत्रित किया तो किस वर्ष के दामो को आधार मानेगे ?
और उस वर्ष के विकास की स्थिति को देखना क्या उचित नहीं होगा | इसलिए यह चुनावी वादा भर ही हैं जमीनी धरातल का सत्य नहीं |