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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 11, 2013

क्या लेखा परीक्षक सरकार की नीतियों की समीक्षा भी करेगा ?

क्या   लेखा  परीक्षक सरकार  की  नीतियों की समीक्षा भी करेगा ? 

                      यह सवाल अमेरिका की यूनिवर्सिटी में  नियंत्रक  लेखा परीक्षक विनोद रॉय द्वारा दिए गए एक लेक्चर से उत्पन्न हुआ हैं , उन्होंने कहा की  सी ए जी  सिर्फ खाते बही को देखने का काम ही नहीं करती ,वरन वह यह भी देखती हैं की जनता का  धन सरकार द्वारा उचित लक्ष्यों के लिए खर्च  किया जा रहा हैं ,और इस खर्च में कोई अनियमिता  तो नहीं हो रही हैं ।इस बयान ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं । सवाल हैं की चुनाव आयोग अथवा सुप्रीम  कोर्ट , आदि निकाय का गठन भारतीय संविधान के तहत हुआ हैं ।इन सभी के अधिकार और दायित्वों को लेकर एक ''चार्टर ''होता हैं जो इन सभी के अधिकारों और उनकी सीमाओ  को स्पष्ट करता हैं  अपेछा  यह रहती हैं की सभी निकाय एक संतुलन बना कर चलेंगे जैसे की ब्रम्हांड में सभी गृह अपनी -अपनी धुरी पर ही चलते हैं वैसा ही संवैधानिक निकाय आचरण करेंगे ।

                        गणतंत्र में संविधान ही अंतिम हैं ।शक्तियों के विभाजन में कानून बनाने का अधिकार चुनाव आयोग के द्वारा कराये गए निर्वाचन में चयनित प्रतिनिधियों को दिया गया हैं ।संसद का गठन इसी से होता हैं ।सरकार  का गठन इन्ही चुने गए सांसदों अथवा //विधायको  द्वारा होता हैं  । विवाद के निपटारे और न्याय  के लिए  सुप्रीम कोर्ट का गठन किया गया  हैं , जिसमें सरकार की निर्णायक भूमिका होती हैं ।शासन के अन्य सभी  महत्वपूर्ण निकायों कागठन अथवा उनमें नियुक्ति का अधिकार  मात्र  संसद अथवा विधान सभा के प्रति उत्तरदायी सरकार  का होता हैं । किसी ऐसे निकाय का नहीं जो खुद व्यस्थापिका चहिये या सरकार द्वारा चयनित हो । यह एक अलिखित  सिधान्त   हैं ।  ऐसा  इसलिए  हैं की देश की प्रभुसत्ता सरकार   के हाथो में होती  हैं , ।

                                            इन स्थितियों में कोई भी निकाय अगर  नीतियों की  परीक्षा करने लगे तो एक विरोधाभास  खड़ा हो जायेगा ।क्योंकि नीतियों का परिक्षण संसद में होता हैं ,जंहा  होनाभी चहिये । वैसे  सुप्रीम कोर्ट  भी न्यायिक समीक्षा  कर सकता हैं ।परन्तु ऐसे अवसर बिरले ही होते हैं । किसी भी अन्य शासकीय फौरम पर  नीतियों पर टीका -टिपण्णी करना  अपने अधिकारों का अतिक्रमण करना हैं ।    जैसे की मंत्रिमंडल में  सामूहिक  उत्तरदायित्व का सिधान्त  होता हैं ,परन्तु  वंहा भी  फैसले कोई वोटिंग कराकर नहीं होते वरन एक सहमती बनाने का प्रयास होता हैं ।अगर  किसी मुद्दे पर असहमति  हो -तब दो ही विकल्प होते हैं  ,पहला विषय को एजेंडे  से बाहर  कर देते हैं अथवा  प्रधान मंत्री अथवा मुख्य मंत्री  विशेषाधिकार का उपयोग करते हैं ।तब विमत रखने वाले के पास इस्तीफा  देने का एक मात्र विकल्प होता हैं ।अन्यथा उसे भी  सहमत  होना होता हैं ।
                                 यह लिखने का अभिप्राय यह हैं की  ''चार्टर '' में दिए गए  ''कार्य'' के बाहर  जाने का हक नहीं हैं ।यंहा पर ''आम  आदमी'' पार्टी की मांग का उल्लेख  करना चाहूँगा  , वे कहते हैं की  सी ब़ी आइ  को सरकार  के नियंत्रण से बाहर  किया जाए ,फिर वह किसके नियंत्रण में रहेगी  संसद या सीधे राष्ट्रपति ? आज वह प्रशासनिक रूप से शासन के नियंत्रण में हैं  ।अधिक से अधिक उसे चुनाव आयोग का दर्ज़ा  दिया जा सकता हैं । तब क्या सब अनियमितताए  ख़तम हो जाएँगी ? सुप्रीम कोर्ट  हैं पर क्या  सबको न्याय मिल रहा हैं ? चुनाव आयोग ने धनबल -बाहुबल  के  चुनाव में इस्तेमाल की शिकायत की ,पर क्या वह समाप्त हो गया ? 
        
                     अंततः संसद को ही कानून बनाना पड़ता हैं ।अतः विनोद रॉय जी को या तो  विमत उजागर कर पद त्याग करना देना चहिये  अथवा  अपनी शिकायतें सरकार  को लिखनी होगी ,क्योंकि वे ही उस पर कारवाई             करेंगे ।   वर्ना  लगता हैं की वे भी पूर्व सी ए ज़ी  टी एन चतुर्वेदी  की भांति  गवर्नर और बाद में  राज्य सभा के सदस्य  हो जायेंगे । चतुर्वेदी  ने ही ''बोफोर्स  '''का पटाखा निकाल  कर कहा था की यह बहुत बड़ा बम  हैं । इस से अधिक क्या लिखू .............।