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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jan 29, 2014

क्या राहुल गांधी का इंटरव्यू लोगो के मन मे पनप रहे संदेहो को दूर करेगा ?


क्या राहुल गांधी का इंटरव्यू लोगो के मन मे पनप रहे संदेहो को दूर करेगा ?

काँग्रेस के उपाध्यकक्ष राहुल गांधी को अनेक नाम दिये गए हैं , जिनमें पप्पू या
शहज़ादा अथवा नौसिखिया कहा गया हैं | यंहा तक की उनकी ही पार्टी के लोग भी उन पर पूरी तरह से विश्वास नहीं कर पा रहे हैं | ऐसे मे
देश और पार्टी के सामने आकार इस प्रकार सभी सवालो के जवाब दिये वे भी काफी बारीकी से | अब उन पर सभी प्रकार से टिप्पणिया भी की
जा रही हैं |कुछ साराह रहे हैं तो कुछ इसे चुनावी चाल बता रहे हैं | सवाल यह हैं की चुनाव मे क्या प्रतिस्पर्धा नहीं होती और क्या हर कोई
अपने ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार इस लड़ाई को जीतने के लिए पूरी कोशिस नहीं करता ? क्या बड़ी - बड़ी रैलि और बड़े मंच से भासण
देश को ज्ञान देने के लिए अथवा उन्हे इतिहास बताने के लिए तो नहीं हो रहा हैं ? फिर क्यों एतराज़ ?

संघ के पूर्वा सदस्य और पत्रकार राहुल देव जी ने भी यह माना हैं की राहुल के इंटरव्यू

बाद अब मोदी जी के लिए भी इसी प्रकार के 'कठिन' इंटरव्यू का सामना करना होगा | परंतु करण थापर के र्साथ इंटरव्यू मे मोदी जी के
व्यवहार को देश ने देखा -सुना हैं , इसलिए यह और आवश्यक हो जाता हैं की कम से कम अर्णव गोस्वामी के ही कठिन सवालो का जवाब
दे , क्योंकि करण थापर के किस्से से उनकी साख पर आंच लग चुकी हैं | हाँ राहुल ने कई सवालो के जवाब सीधे और सरल तरीके से नहीं
दिया , परंतु सवाल के संग्राम मे आखिर तक डटे रहे हैं | कम से कम मैदान छोड़ कर भागे नहीं | यह भी आरोप नहीं लगाया जा सकता
की टाइम्स नाऊ का इंटरव्यू कोई प्रहसन था |
अगर राहुल ने अपने प्रति संदेहो को इस प्रयत्न से संदेहो को साफ किया तो मोदी को
वायदे और दावो का खुलासा देश के सामने करना चाहिए , जिस से यह भरोसा हो की वे सिर्फ जनसमूह को ही संबोधित कर सकते हैं ,
ऐसा नहीं वरन वे किसी भी परीक्षा से भी गुजर सकते हैं |

Jan 16, 2014

एक विपक्ष ऐसा भी है- जनता से चुने जाने की बजाय जन परिषद से नामित होना चाहता हैं


एक विपक्ष ऐसा भी है- जनता से चुने जाने की बजाय जन परिषद से नामित होना चाहता हैं

बंगला देश मे विरोधी दलो द्वारा चुनाव की बजाय प्रधान मंत्री को हटाने की मांग के समर्थन मे

बंद -प्रदर्शन और हिंसात्मक आंदोलन के बावजूद अवामी लीग की शेख हसीना ने चुनाव सम्पन्न कराये | हालांकि ब्रिटेन और अमेरिका के दबाव
के बावजूद उन्होने चुनाव कराये | जबकि ये प्रजातांत्रिक देश बेगम ज़िया के लिए चुनाव को स्थगित करने का सुझाव दे रहे थे | लेकिन
थायलैंड मे भी कुछ ऐसा ही हो रहा हैं , वहा भी विपक्ष दल डेमोक्रट की मांग यनहा दो कदम आगे हैं | वे न केवल प्रधान मंत्री की चुनाव की
कोशिस का बहिसकार कर रहे हैं -वरन उनकी मांग हैं की सरकार की जगह एक सूप्रीम काउंसिल गठित की जाये | जो जन परिषद बनाए और
वे ही '''नेताओ '''का चुनाव करे | अब लगेगा की यह मांग कितनी अजीब हैं ! जनता के प्रतिनिधि चुनाव द्वारा ही सरकार बनाते हैं |
परंतु जब राजनीतिक दल चुनाव का मैदान छोड़ कर नामित होने की राह पकड़ ले , तब उसे लोकतन्त्र का भला तो होने से रहा हैं | परंतु
राजनेताओ की महत्वाकांछा चुनाव से घबराती रहती हैं | इसीलिए बंगला देश और थायलैंड के विरोधी दल चुनाव की अग्नि परीक्षा से गुजरने
से गुरेज करते हैं क्योंकि वे ''जनता''की परीक्षा मे असफलता से भयभीत रहते हैं | दूसरे उन्हे ""बहुमत" का भी भरोसा नहीं होता | इन दो
कारणो से ही बंगला देश और थायलैंड के विरोधी दल ''चुनाव''' का सामना नहीं करना चाहते हैं |वरना वे ''येन -केन प्रकारेण""'
'''सत्ता''' पर काबिज होना ही चाहते हैं |क्या यही जनतंत्र हैं |

कुछ ऐसा ही प्रयोग नेपाल मे तत्कालीन राजा महेंद्र ने किया था ---जब
उन्होने राष्ट्रिय पंचायत का गठन किया था | जिसमे कुछ लोग निर्वाचित होते थे सीधे जनता द्वारा , और बाक़ी राजा द्वारा नामित होते थे | परंतु यह प्रयोग भी नेपाल मे शोषण को रोक नहीं सका और परिणामस्वरूप वनहा पर हिंसक माओवादी आंदोलन का जन्म हुआ | जिसने
दशको तक नेपाल को खून - खराबा मे डूबा दिया | जिसकी परिणीति राज वंश की दर्दनाक अंत मे हुआ | फिर भयाक्रांत नेपाल मे
माओवादी नेता प्रचंड ने सत्ता सम्हाली | लेकिन न तो वे देश की हालत सुधार सके न ही नेपाल की जनता मे विश्वास जमा सके | इसलिए
जब वहा चुनाव हुए तो प्रचंड खुद तो पराजित हुए वरन उनकी पार्टी भी बुरी तरह हारी | लेकिन सत्ता के शौकीन प्रचंड ने जनता के फैसले
को मानने से इंकार कर दिया | | उन्होने सत्ता मे अपनी भागीदारी बनाए रखने के लिए उन्होने दुबारा बंदूक उठाने की धम्की दे डाली |
फलस्वरूप एक बार फिर संविधान सभा की नौबत आ गयी | अन्य राजनीतिक दलो ने देश को हिंसा से बचाने के लिए उनकी मांग को
स्वीकार भी कर लिया | वहा आज भी निर्वाचित सरकार का गठन नहीं हो पाया --क्योंकि निर्वाचन मे पराजित नेता को सत्ता चाहिए थी |
सवाल हैं यह कैसा लोकतन्त्र - प्रजातन्त्र हैं जिसमे नेता चुनाव से भाग रहे हैं + क्योंकि वे जनता का विसवास खो चुके हैं | ऐसे मे कोई नया प्र प्रयोग ही जनमत के भरोसे को बनाए रखने मे सफल होगा |


Jan 14, 2014

चुनावो मे विजयकी लालसा मे पराजय की संभावना भूलने का परिणाम --बंगला देश - थायलैंड-नेपाल


चुनावो मे विजयकी लालसा मे पराजय की संभावना भूलने का परिणाम --बंगला देश - थायलैंड-नेपाल

लोकतान्त्रिक देशो मे चुनावो से ही सत्ता प्रपट की जाती हैं | परंतु पिछले कुछ वर्षो मे ' जीत'' को अधिकार समझने की भूल अनेक देशो मे वनहा की राजनीतिक पार्टियो द्वारा हुई हैं | जब पराजय मुंह बाए सामने खड़ी हो जाती हैं तब इन राजनीतिक पार्टियो के पास अपनी उपस्थिती दर्ज़ करने का एक ही सहारा रह जाता हैं --समूहिक हिंसा "" | ऐसा इसलिए हो रहा हैं की राजनीतिक डालो का गठन अथवा नेत्रत्व मतदाता के मध्य से नहीं निकलता हैं | अगर वह आ जनता के मध्य से निकला भी हैं तब भी वह '''कुछ निहित स्वार्थो'''के द्वारा चलाया जाता हैं |जो अपने हितो पर कुठराघात होने पर ''कुछ भी करने को तैयार '''हो जाते हैं |

पड़ोसी बंगला देश मे अवामी लीग पार्टी की शेख हसीना संसद मे दो तिहाई बहुमत पा कर तीसरी बार प्रधान मंत्री बनी हैं |जनवरी मे हुए चुनावो मे सभी विपक्षी पार्टियो ने चुनाव का बहिसकार किया |विरोध स्वरूप जगह पर हिंसात्मक आंदोलन हुए - बाज़ार बंद कराये गए - पुलिस और सेना ने शांति बनाए रखने के लिए गोलीय भी चलायी -लोग भी मारे गए | परंतु परिणाम अवामी लीग के 150 संसद निर्विरोध निर्वाचित हुए | बंगला देश नेसनलिस्ट पार्टी की खालिद ज़िया और जनरल इरशाद की पार्टी समेत लगभग 24 पार्टियो ने चुनाव का बाहिसकार किया |इन पार्टियो की सिर्फ एक ही मांग थी ----शेख हसीना इस्तीफा दे """ क्योंकि वे हसीना की सरकार के रहते चुनाव मे सफल नहीं हो सकते |क्योंकि बंगला देश के जनक शेख मुजीबुर्रहमन -जो देश के पहले पहले राष्ट्रपति बने| सेना द्वारा उनकी हत्या कर सत्ता हथिया ली गयी | और सेना के जनरलो द्वारा चुनी हुई सरकार को हटा कर सत्ता पर क़ाबिज़ हो , गए और उनके परिवार जानो की समूहिक हत्या कर दी | उसके बाद हुए संहार मे हजारो लोग मारे गए |शेख हसीना विदेश मे होने के कारण जीवित बच गयी | जनरल जिआ उर रहमान को भी जनरल इरशाद द्वरा आपदस्थ किया गया | इस दौरान हुए चुनवो की निसपक्षता ""संदिग्ध"" थी |परंतु जहा विपक्षी दलो के नेताओ को होना चाहिए अर्थात संसद मे - वे वह न होकर सड़क पर हिंसक आंदोलन के भागी बन रहे हैं |आखिर क्यो नहीं विपक्षी चुनाव से भाग रहे हैं ? वजह साफ हैं की शेख हसीना को जनता का विश्वास प्राप्त हैं , और देश के लोग उनकी विरासत की इज्ज़त करते हैं | इसीलिए वे तीसरी बार देश का नेत्रत्व कर रही हैं | मतलब यह हैं की विपक्षी दल चुनाव के माध्यम से नहीं वरन सड़क पर धरना - प्रदर्शन कर के सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं |

कुछ ऐसा ही हाल थायलैंड मे चल रहा हैं सोमवार को बैंकॉक मे विपक्ष द्वारा धरना - प्रदर्शन कर के राजधानी को पंगु कर दिया हैं | हालांकि प्रधान मंत्री शिंवात्रा ने फ़रवरी मे चुनाव की घोसना विपक्ष की मांग के अनुरूप कर दी हैं | परंतु अब उनकी मांग हैं की शिंवात्रा प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे ,और एक सूप्रीम काउंसिल देश का शासन चलाये | अब इसका अर्थ यह हुआ की विपक्ष चुनाव नहीं चाहता हैं वरन वह चुनी हुई सरकार को हटाना चाहता हैं | लोकतन्त्र मे चुनाव के द्वारा ही सत्ता प्राप्त किया जाता हैं , परंतु यानहा तो विरोधी दल चुनाव से भाग रहा हैं | तीस हज़ार लोगो के प्रदर्शन से बैंकॉक को पंगु करके सरकार को अपदस्थ करने का यह प्रयास काफी अजीब लगता हैं | |


नेपाल मे भी चुनाव से सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया मे माओवादियो की करारी पराजय ने उनके नेता प्रचंड को भी अपने मे लपेट लिया | इस परिणाम से चुब्ध हो कर उन्होने दुबारा बंदूक उठाने की धम्की दी हैं | क्योंकि उनका मक़सद तो सरकार बनाने का था परंतु चुनाव परिणामो ने उनकी आशाओ पर पानी फेर दिया हैं | अब उन्होने फिर नया संविधान बनाने की बात शुरू कर दी हैं |

इस लेख का आशय सिर्फ इतना ही हैं की राजनीतिक दलो को अपनी विजय यात्रा के दौरान यह भी सोच लेना चाहिए की वे इस मुहिम मे """असफल"" हो सकते हैं | , इसलिए उन्हे निर्वाचन की प्रक्रिया अथवा मतदाताओ को दोष नहीं देना चाहिए वरन परिणाम को ठंडे मन से स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए |

Jan 9, 2014

काँग्रेस पार्टी का सफर और उसमे तिलक -मालवीय - सी आर दस तथा नरेंद्रदेव का सहयोग


काँग्रेस पार्टी का सफर और उसमे तिलक -मालवीय - सी आर दस तथा नरेंद्रदेव का सहयोग

आम तौर पर विश्वास किया जाता हैं की काँग्रेस 1885 मे मिस्टर ए हयूम द्वारा स्थापित की गयी जो की आज भी चली आ रही हैं | परंतु ऐसा हैं नहीं | वर्षो मे अनेक विचार धाराओ के मनीषियों ने इस धारा मे जुड़ कर इसे संजीवनी प्रदान की हैं | समय के बहुत थपेड़े इस पार्टी के राह मे आए हैं -हम बात कर रहे हैं पार्टी के श्रुयाती डीनो की , 1906 मेन अल्ल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई , उसी वर्ष उसी वर्ष गोपाल कृष्ण गोखले ने कलकत्ता अधिवेशन मे ही स्वराज सेरवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की | दिसम्बर 1907 मे सूरत हुए पार्टी के अधिवेशन मे काफी हिंसा और उथल -पुथल हुई थी | उसका कारण महात्मा द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोसना की | जिसको लेकर नरम दल के नेता गोखले और उनके साथी असहमत थे | उनके अनुयायियों ने काफी तोड़ -फोड़ की | ब्रिटिश सरकार से वार्ता से समाधान चाहने वाले नाखुश हो गए ,और उनके मतभेद तोड़-फोड़ मे परिवर्तित हो गए |

28 अप्रैल 1916 मेन बल गंगाधर तिलक ने होम लीग नमक संस्था की स्थापना पूना मे की , उनकी इरादा भी आंतरिक स्वतन्त्रता की अंग्रेज़ो से मांग करना था | उन्होने इसी बैनर के तले महाराष्ट्र मे आंदोलन शुरू किया और गिरफ्तार भी हुए | उधर 25 सेप्टेम्बर को एनने बेसेंट ने भी की |उन्हे 1917 के काँग्रेस अधिवेसन का आद्यकश चुना गया | इधर 1919 मे ब्रिटिश सरकार द्वारा टर्की के खलीफा को हटा दिया गया चूंकि उन्होने प्रथम विश्व युद्ध मे अंग्रेज़ो के विरुद्ध जर्मनी का साथ दिया था | परंतु हिंदुस्तान मे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और आली बंधुओ द्वारा खिलाफत आंदोलन चलाया गया | जिसका उद्देस्य तुर्की मे खलीफा को पुनः प्रतिस्थित करना था , जिसके लिए अंग्रेज़ो पर दबाव बनाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया गया | जिसको महात्मा गांधी का समर्थन भी प्रपट था | ताज्जुब की बात यह थी की मुस्लिम लीग इस आंदोलन के बारे मे मौन रही | इसी वर्ष जालिनवाला बाघ हे जनरल डायर द्वारा 500 से अधिक निहथे लोगो की हत्या कर दी गयी थी और 1500 लोग इस कांड मे घायल हुए थे | देश मे काफी रोष था | इसलिए खिलाफत आंदोलन ध्हेमा पद गया | फिर जब कमाल पाश ने तुर्की की सत्ता सम्हाल ली और देश को धरम -निर्पेछ घोसीट किया तब यह आंदोलन समाप्त हो गया |

1920 को लोक मान्य बल गंगाधर तिलक का स्वर्गवास हो गया और नरम दल की गति धीमी पद गयी | तब इंडियन नेशनल काँग्रेस ने महात्मा गांधी के ''असहयोग आंदोलन '' के प्रस्ताव को सर्वा सम्मति से स्वीकार किया | इसी वर्ष काँग्रेस ने सूरत के मिल कामगारों के लिए नाराइन मल्हार जोशी के नेत्रत्व मे अल्ल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस का गठन किया |1922 मे काँग्रेस ने असहयोग आंदोलन की कमान महात्मा गांधी के हाथो सौप दी | देश मे आंदोलन की गति काफी अछि थी , तभी गोरखपुर मे आन्दोलंकारियों ने चौरी चौरा ठाणे मे आग लगा दे और आंदोलन हिंसक हो गया |महात्मा ने तुरंत आंदोलन को वापस लेने की घोसना की और प्रायश्चित स्वरूप उन्होने उपवास शुरू कर दिया ब्रिटिश सरकार ने पहली बार गांधी जी को गिरफ्तार किया |उन पर देश द्रोह का मुकदमा चला और 6 वर्षो की क़ैद की सज़ा सुनाई गयी |

इसी वर्ष 1922 को चितरंजन दस और मोती लाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया | वे महात्मा गांधी के आंदोलन की नीति से असहमत थे | उन्हे नरम दल का निरूपित किया गया | उधर बेनारस मे महामना मदन मोहन मालवीय भी काँग्रेस की नीतियो से असहमत थे | उन्होने देश के सामाजिक और धार्मिक मूल्यो पर आधारित कुछ लोगो को जोड़ कर ''इंडियन पार्टी '' बनाई | तब तक रूस मे क्रांति हो चुकी थी | वनहा की व्यसथा से काँग्रेस के कुछ नेताओ को लगा की पार्टी को समाजवादी सिद्धांतों को अपनाना चाहिए | इनमे प्रमुख थे आचार्या नरेंद्र देव | उनके साथ बिहार के बसवान सिंह भी थे इन लोगो ने काँग्रेस मे रहते हुए काँग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना की | काँग्रेस मे वामपंथ की यह श्रुयत थी बाद मे पार्टी की अनेक नीतियो और कार्यक्रमों इसकी झलक दिखाई पड़ी | हमारे संविधान मे अब समाजवादी गणतन्त्र को समाहित किया गया हैं | यह सब इन नेताओ की सोच और कुर्बानियों के कारण संभव हो सका | आज़ादी के बाद देश के विकास के लिए पाँच वर्षीय योजनाए भी रूस की सात वर्षीय योजनाओ की तर्ज़ पर बनी | काँग्रेस ने 1935 मे जिन परदेशो मे सरकरे बनाई वनहा भूमि सुधार का काम पार्थमिकता से किया गाय |

इस प्रकार हम देखते हैं की काँग्रेस की विचारधारा किसी एक लीक पर नहीं चली वरन उसने समय के परिवर्तनों को भी अपने मे समाहित किया > यह कोई अंग्रेज़ो द्वारा स्थापित संस्था के रूप मे किसी क्लब की भांति नहीं रही वरन सड़क पर लड़ाई लड़ कर आज़ादी हासिल की |



Jan 8, 2014

आरोप लगाया हैं तो साबित भी करो नहीं तो सज़ा भुगतो

     आरोप लगाया हैं तो साबित भी करो नहीं तो सज़ा भुगतो 
                            
                                        भारतीय  अपराध प्रक्रिया संहिता के आधार पर ही किसी भी अपराध को पुलिस  सज्ञेय अथवा  असज्ञेय की श्रेणी मे रखकर विवेचना करती हैं | अपराध की विवेचना के दौरान सबूत एकत्र करने और गवाह खोजने के लिए वे किसी को भी थाने मे बुलाने और पूछताछ करने का 'अधिकार; हैं | इतना ही नहीं अगर उन्हे शक हैं तो वे किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे तक हवालात मे भी रख सकते हैं - कानूनन |  परंतु यह सब अधिकार उन्हे इस उम्मीद मे मिले थे की वे ''अपराधी को सज़ा दिलाने ''मे कामयाब होंगे | परंतु आंकड़े बताते हैं की देश मे पुलिस मे दर्ज़ अपराधो मे से मात्र एक तिहाई भर ही अदालत द्वारा दोषी  करार दिये जाते हैं | नाकामयाब  हुए इन मुकदमो मे भी पुलिस का भ्रष्ट तंत्र ''फलता-फूलता'' हैं | अखबारो मे पुलिस द्वारा डरा -धमका कर    पैसा वसूलने की खबरे रोज छपती हैं | रिश्वत लेते पुलिस अफसरो को पकड़ने की भी खबरों को देखा जाता हैं |  अदालतों मे पुलिस की इन असफलताओ को विभागीय स्तर पर कभी - कभी परख भी लिया जाता हैं | परंतु असफल होने पर सिर्फ सवाल - जवाब ही किया जाता हैं |  फिर सब कुछ पहले की ही तरह चलने लगता हैं | विभाग भी पुनः असंवेदनशील रुख पर बना रहता हैं | चुनाव मे और सभाओ मे नेता अगर पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कारवाई की मांग करता हैं  तब सरकार के अधिकारी और मंत्री कभी संसाधनों की कमी या गवाह और सबूत का अभाव बता कर जन आक्रोश को भरमाने का काम करते हैं | 

                                   परंतु इस सब कारवाई मे वह व्यक्ति जिसे अदालत निर्दोष बताते हुए रिहा कर चुकी होती हैं |परंतु वह और उसका परिवार जो अदालत की पेशियो और वकीलो के खर्चे और अदालत मे दी गयी रिश्वतों के कारण या तो कर्ज़ मे डूब चुका होता हैं अथवा उसकी ज़मीन और मकान गिरवी होते हैं या बिक चुका होता हैं | इसके अलावा समाज मे जिन उपाधियों से उस आदमी और परिवार  को नवाजा जाता हैं वह उन्हे ही पता होता हैं | उसे निर्दोष सिद्ध होने मे इतना सब कुछ हो जाता हैं और जिस विवेचना अधिकारी की कारण उसे इतना अपमान और धन खर्च करना पड़ा हैं सामाजिक प्रताड्ना झेलनी पड़ी हैं , वह तो अधिकतर मौके पर अदालत मे फैसला सुनाये जाने के वक़्त मौजूद भी नहीं होता हैं | क्योंकि उसे अपने मुक़दमे की कमजोरी का भान होता ही हैं | कभी -कभार ही कोई संवेदनशील जज  विवेचना अधिकारी के खिलाफ टिप्पणी लिखता हैं | कभी ही वे पुलिस को इस टिप्पणी पर कारवाई करने और पुलिस अधिकारी को दंडित करने का हुकुम सुनाते  हैं | 

                                     परंतु अब सूप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरोप लगाने वाले दारोगा जी को अदालत मे भी अपने कहे -लिखे और की गई विवेचना को सही सीध करना होगा | नहीं तो सज़ा के लिए तैयार रहना होगा | इस आदेश को थाने तक पहुचने मे काफी वक़्त लग सकता हैं | क्योंकि  सूप्रीम कोर्ट के इस आदेश से देश की पुलिस मे खलबली मच जाएगी | क्योंकि अपने किए को अपना अधिकार और शासन का महत्वपूर्ण  अंग मानते हुए ---किंग डज नो रांग की तर्ज़ पर हमेशा अपने को सही मानने का दंभ पाले रहते हैं | इसीलिए अदालतों मे निर्दोष पिस्ते रहते हैं | हर कोई भय से ग्रस्त रहता हैं की कब कोई पुलिस वाला आकर कहेगा थाने चलो |  और वह बीस या चौबीस घंटे वह या तो बेंच पर या हवालात मे बैठे रहना पड़ेगा | उसके बाद उसको गाली देकर भागा दिया जाएगा - ''जा जा इस बार छोड़ रहे हैं आगे से कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए | ''  जिन मामलो मे सर्वाधिक मुक़दमे अदालत मे खारिज हो जाते हैं -वे अधिकतर यौन संबंधी होते हैं | हालांकि दो बालिग व्यक्ति आपसी  सहमति से संबंध बनाने का अधिकार रखते हैं |वे  कही भी एकांत मे बैठने और मर्यादित व्याहर करने के लिए स्वतंत्र हैं | परंतु पुलिस इन सब को ''आवारगी'' करने मे  सार्वजनिक रूप से उठक -बैठक करवाती हैं या थाने पकड़ कर ले जाती हैं | थाने पर लड़के -लड़की के  माता-पिता को बुलवाया जाता हैं , उन्हे सीख दी जाती हैं की वे बच्चो को लगाम मे रखे | होटल के कमरे मे अगर स्त्री-पुरुष सहमति से यौन संबंध बनाते हैं तब उन्हे अङ्ग्रेज़ी मे ""सीता"" कानून के अंतर्गत बंद कर के उनका जुलूस निकाला जाता हैं | इस दौरान भी दारोगा जी आमदनी कर लेते हैं | अदालत मे जब ऐसे केस  छूट जाते हैं तब भी उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होने तो दोनों पछो को ''दुह '' लिया होता हैं | 

                      अब सूप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद उम्मीद तो यही की जानी चाहिए की ''कोई निर्दोष को आरोपी न बनाया जाये ''वैसे भी विधिशास्त्र का नियम हैं की ''दस अपराधी भले छूट जाये पर एक बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए """...................





Jan 7, 2014

प्रजातन्त्र मे विरोध का अर्थ सड़क पर हिंसा या प्रदर्शन हैं क्या ?

                 प्रजातन्त्र मे विरोध का अर्थ सड़क पर हिंसा या प्रदर्शन हैं ?
                                    पिछले आलेखो मे मैंने बंगला देश - थायलैंड और नेपाल मे आम चुनावों मे पराजय की आशंका से राजनीतिक दल सरकार के विरोध मे न केवल सड़क पर प्रदर्शन कर रहे थे वरन  प्रदर्शनो मे हिंसा भी हुई पुलिस का भी प्रयोग हुआ | बंगला देश मे जातीय संसद के चुनावों का बेगम ज़िया और जनरल इरशाद की पार्टियों द्वारा प्रधान मंत्री शेख हसीना की सरकार की बर्खास्तगी की मांग मे हड़ताल और प्रदर्शन के साथ चुनावों के बहिष्कार की घोषणा  की थी | परंतु चुनाव हुए और एक सौ से अधिक सीटे अवामी लीग निर्विरोध जीत चुकी हैं | परंतु अभी भी स्थगित स्थानो पर चुनावी प्रक्रिया होनी हैं जो सैकड़ा स्थानो मे होगी | 

           वैसे शेख हसीना की पार्टी को बहुमत मिल चुका हैं |परंतु अभी भी हिंसा का  तांडव वहा की सड्क़ो पर मचा हुआ हैं | इस व्यर्थ के खून खराबे से लोकतन्त्र का तो कोई भला होना नहीं हैं यह तो निश्चित हैं | परंतु सत्ता की लिप्सा विरोधी दलो और उसके नेताओ  के सोच को गुमराह कर चुकी हैं | अब तक हिंसा मे 11 लोगो की मौत हो चुकी हैं |

               थाईलैन्ड  मे दो फरवरी को होने वाले चुनावों का  विरोध फिर से सड्को पर हो रहा हैं | यानहा भी एक ही मांग हैं की प्रधान मंत्री शिंवात्रा  की सरकार भंग की जाये | इन दलो सारी कोशिस चुनाव मे बहुमत पाने की नहीं हैं वरन ''अल्प्मत"" के बावजूद  सरकार को गिराने का  यह प्रयास  हठधर्मिता ही कही जाएगी | यहा  भी इन हड़ताल और प्रदर्शन के दौरान सरकारी संपति की हानि का अनुमान करोड़ो मे हैं |अभी तक इन घटनाओ मे टीम लोगो की मौत हो चुकी हैं | 

                                     पड़ोसी नेपाल मे भी उथल - पुथल मची हुई हैं | क्योंकि हिंसा के तांडव के बल पर पिछली बार सत्ता मे आए माओवादी पार्टी अब वहा के लोगो का विश्वास खो चुकी हैं | पार्टी के नेता प्रचंड खुद भी काठमाण्डू से पराजित हो चुके हैं | एक बार फिर वहा   संसदीय प्रजातन्त्र  की गाड़ी अटक गयी हैं | इन उदाहरणो का तात्पर्य सिर्फ यही बताना हैं की राजनीतिक दलो द्वारा केवल और केवल सत्ता पाने मे ही दिलचस्पी हैं , जनता की सेवा करने मे नहीं | शायद इनहि कारणो से ही हमारे देश मे आप का प्रयोग इतनी जल्दी सफल हुआ हैं | शायद ऐसा ही कोई प्रयोग इन देशो की राजनीति को शुद्ध कर सकेगा |

Jan 6, 2014

क्या भ्र षटाचार सिर्फ नेताओ की ही करतूत हैं ?

          क्या  भ्र षटाचार सिर्फ नेताओ की ही करतूत हैं  ?
                 भ्रष्टाचार  की परंपरा मे होनेवाले  सभी कांडो को जनता उसमे लिप्त मंत्री या नेता के नाम के साथ याद रखता हैं | बोफोर्स मे राजीव गांधी और कामनवेल्थ मे सुरेश कल्मांडी कफन घोटाले मे जॉर्ज फेर्नांडीस ये कुछ उदाहरण भर हैं | परंतु यहा  यह सवाल उठता हैं की क्या इतना बड़ा घोटाला क्या सिर्फ इनके अकेले का काम हैं ? शासकीय व्यवस्था के कायदे -कानून के अनुसार किसी भी काम को करने के लिए जाने वाले फैसले के कई चरण होते हैं | मंत्रालय के क्लेर्क से लेकर सचिव तक किसी भी फ़ाइल को पाँच -छह डेस्को से गुजरना होता हैं | तब कोई फ़ाइल मंत्री के सामने रखी जाती हैं |  यह प्रक्रिया पूरी किए बिना सरकार मे  कोई फैसला नहीं हो सकता | फिर क्या इस बात को मान लिया जाये की कोई भी मंत्री अकेले ही कोई निर्णय ले सकता हैं ? क्योंकि अगर मात हतो द्वारा किसी भी मामले मे प्रस्तावित विषय पर विपरीत टिप्पणी की गयी हैं तब उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता | किसी भी मत को अमान्य करने के लिए कारण देने होते हैं | मंत्री  मनचाहा फैसला तभी ले सकता हैं जब  छोटे  बाबू से लेकर सचिव तक एकमत न हो | यदि  फ़ाइल पर एकमत  नहीं हैं तब सचिव के स्तर पर जो सनछेपिका तैयार होगी वह सारे निर्णयो और अभिमतो का सार होती हैं |  तब केवल नेता या मंत्री को दोष किस आधार पर ? यह माना जा सकता हैं की सारे अभिमतो और निर्णयो को प्रभावित किया जा सकता हैं , या तो धन बल द्वारा अथवा दबाव की बदौलत , परंतु अगर अफसरो पर यह हथियार काम करता हैं तब यह भी मानना होगा की वही दबाव नेता अथवा मंत्री पर भी काम कर सकता हैं | 

                अब इस तर्क को तथ्य पर परखते हैं , हमारे देश मे 790 सांसद हैं और देश की 30 विधान सभाओ और विधान परिषदों मे 4561 विधायक हैं | सभी दलो के नेता या मंत्री इसी संख्या मे समाहित हैं | दूसरी तरफ सिर्फ केन्द्रीय सरकार मे ही तीस लाख से अधिक कर्मचारियो की फौज हैं | प्रदेश सरकार और उनके आनुषंगिक संगठनो के कर्मचारियो की संख्या भी लगभग एक करोड़ हैं | कुल मिलाकर यह संख्या  लगभग पौने दो करोड़ बनती हैं | अब इतने सरकारी कर्मियों की तुलना मे पाँच हज़ार नेताओ द्वारा जितना भ्रष्टाचार भी संभव हैं उसमे अधिकतर इन लोगो का हिस्सा हैं | हम दिन  प्रतिदिन देखते हैं की अस्पताल हो या पुलिस अथवा नगरनिगम  या अदालत  इन सभी जगहो  मे  बाबू अथवा उसका समकच्छ कर्मचारी  ही  वहा पर जनता से ''वसूली ''करता हैं कोई अधिकारी या नेता नहीं | हाँ यह बात ज़रूर हैं की यह वसूली सौ पचास रुपये की ही होती हैं , परंतु अगर हिसाब लगाए तो आप पाएंगे की "" यह बूंद से बूंद ''' बेईमानी का घड़ा भरने की कसरत ही हैं | अस्पताल मे वार्ड बॉय  -डॉक्टर यहाँ  तक की  कभी- कभी नर्स भी मरीज़ो या उनके तीमारदारों से वसूली करती हैं |अदालत मे पेशकार _-  मुहरीर और चपरासी तक हाथ फैलाये रहते हैं | अगर उसमे कुछ रखना होता हैं | ऐसे ही नगरनिगम मे जनम -मरण का प्रमाणपत्र लेना हो ,गुमाश्ता बनवाना हो तब भी इनकी जेबे गरम करनी होती हैं | अगर कोई यह सब नहीं करता हैं तब उसका काम नहीं होता हैं | भवन निर्माण की अनुमति पाने के लिए तो लाखो की रिश्वत देनी होती हैं | | कहने का तात्पर्य यह हैं की रेल्वे मे रिज़र्वेशन हो तो वनहा भी भेंट पुजा देनी  पड़ती हैं | अब यह सब नेता या मंत्री तो नहीं करता | हाँ कुछ बड़े मामलो मे जरूर संभावना रहती हैं की नीचे से चली फ़ाइल पर सहमति देने के लिए लंबी -चौड़ी रकम वसूली जाये | ऐसा नहीं की राजनेता भ्रषटाचार नहीं करते परंतु उनका हिस्सा थोड़ा कम ही होता हैं | 
                                

Jan 5, 2014

समाज का खुलापन और नारी सुरक्षा के प्रश्न -समानता का अधिकार कहा ?

           समाज का खुलापन और नारी सुरक्षा के प्रश्न  
                               इधर काफी बड़ी बहस चल रही हैं की नारी की मर्यादा पर पुरुष के प्रहार को दंडनीय होना चाहिए | इसका परिणाम यह हुआ की किसी महिला द्वारा पुलिस मे मात्र शिकायत दर्ज़ करने की ""फ़ंला आदमी ने मेरी अस्मिता पर हमला किया हैं "" जरूरत हैं , बस इसके बाद उन सज्जन के दुर्दिन शुरू हो जाते हैं | जैसे शनि की  कूदृष्टि ही पद गयी ऐसे प्रकोप के वे शिकार बनते हैं |  उनकी गिरफ्तारी होती हैं - वे जमानत के लिए अदालत मे दरखास्त देते हैं ,लेकिन वह तो सिर्फ  उच्च  न्यायालय से ही राहत पा  सकते हैं | अब वह शिकायत महीनो या वर्षो पुरानी किसी घटना के आधार पर हो इस से कोई मतलब नहीं | 

           सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानून की धारा 377 के अधीन समलैंगिकता को अपराध घोसित किए जाने के बाद  महिलाओ और पुरुषो ने इसका विरोध किया | नारियो का तर्क था ''मेरा शरीर मेरा अधिकार '''कानून कन्हा से आया"" परंतु पुरुष ऐसा नहीं कह सके | शायद यही भावना ही रही होगी जिसके कारण नारी सुरक्षा का नया कानून बना | जिसके अधीन पुरुष की ज़िम्मेदारी हैं की वह अपने को निर्दोष साबित करे |यानि महिला को सिर्फ आरोप भर लगाना हैं बाक़ी काम कानून का | फिर उस व्यक्ति  की   सामाजिक इज्ज़त पर जो हमला मीडिया द्वारा किया जाता हैं --उसकी भरपाई ""निर्दोष'' साबित होने पर भी नहीं होती |

              दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज   भट ने अपने फैसले मे कहा की कोई भी धर्म विवाह पूर्व  शारीरिक संबंधो को मान्यता नहीं देता | अतः यदि बालिग महिला विवाह के वादे पर किसी पुरुष से संबंध बनाती हैं तब वह स्वेक्षा से ऐसा करती है | जिसे ''बलात्कार'' नहीं कहा जा सकता | यह एक ऐतिहासिक निरण्य साबित हो सकता हैं एक बार इसे ऊंची अदालतों द्वारा मान्य कर लिया जाये | अभी हो यह रहा हैं की दिनो या महीनो की नहीं वरन सालो पुरानी घटना को लेकर किसी भी पुरुष को पुलिस द्वारा घसीटा जा सकता हैं | यहा  एक सवाल उठता हैं की क्या कोई समलैंगिक  महिला यदि महीनो सालो बाद अपने पार्टनर के खिलाफ शिकायत करे तो क्या पुलिस कोई कारवाई करेगी ? 

                       सहमति द्वारा बनाए गए  शारीरिक संबंध  को  नाराज़ होने पर अपराध की श्रेणी मे रखने का अधिकार "" केवल लड़की "" को ही हैं | इसी तथ्य पर दिल्ली की अदालत ने फैसला दिया हैं | इसी संदर्भ मे भोपाल पुलिस द्वारा महिलाओ के लिए चलाये गए समाधान केन्द्रो के अनुसार , शिकायत क़र्ता महिला आम तौर पर ''पीछा करने या परेशान करने ''' वाले की शिकायत करती हैं | जब उस व्यक्ति को पुलिस बुला कर पूछताछ करती हैं तब पता चलता हैं की वह महिला का पुराना  दोस्त हैं |इस पर पुलिस रिपोर्ट लिखवाने का आग्रह करती हैं तब ''राज़'' खुलता हैं की शिकायत  कर्ता  मुकदमा नहीं चलाना  चाहती हैं | वे बस परेशान करने वाले को ''समझाइस '' दिलाना चाहती हैं | क्योंकि अदालत जाने पर सारी बाते घर वालों और समाज के सामने खुल जाएंगी | परिणाम स्वरूप वे मामले को पुलिस के सामने ही समाप्त करना चाहती हैं |  अब इसे नारी स्वतन्त्रता कहा जाये या  यौनाचार ? एक गलत धारणा बन गयी हैं की छेड़छाड़  सिर्फ पुरुष ही करता हैं नारी नहीं | जबकि यह पूरी तरह भ्रामक हैं | अनेकों मामले  सामने आए हैं जनहा शारीरिक संबंध बनाने की पहल स्त्री द्वारा की गयी हैं |  
                     ज़रूरत हैं की की सूप्रीम कोर्ट एक बार इस कानून की व्याख्या करे और समानता के सिधान्त को लागू करे ,वरना यह लिंग के आधार पर भेदभाव ही माना जाएगा | |  

Jan 4, 2014

सत्ता मे सादगी और प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त करना ही आप की पहचान


लड़ाई सादगी से भ्रषटाचार के लिए जो पहुंची सत्ता तक,

अन्ना हज़ारे ने जब लोकपाल की लड़ाई शुरू की थी तब उन्हे उम्मीद भी ना रही होगी की उनके शिष्य अरविंद
केजरीवाल इसी के सहारे मुख्य मंत्री पद तक पहुँच जाएँगे | इसी लिए जब '''आप''' पार्टी ने विधान सभा चुनाव लड़ा तब और परिणामो की घोसणा होने के बाद के बाद तदुपरान्त सरकार बनाने तक उनकी प्रतिकृया काफी ''ठंडी''सी रही | सरकार बनाते ही कुछ फैसलो पर केजरीवाल को अपने कदम पीछे खिचने पड़े |जैसे दिल्ली मे सचिवलाय मे मीडिया के प्रवेश पर '''पाबंदी'''और पाँच कमरो वाले सरकारी निवास को मुख्य मंत्री आवास और कार्यालय बनाने पर उठे विवाद के कारण भी केजरीवाल को भगवनदास रोड स्थित आवास  छोडने का फैसला लेना पड़ा था | इन डी डी ए आवासो का निर्माण ""उनके अफसरो " के लिए किया गया हैं | एक सवाल यह उठता हैं की अगर एक आइ ए एस अधिकारी जो की मुख्य मंत्री के मातहत काम करता हैं --अगर वह इन आवासो मे रह सकता हैं तब उसके ""बॉस " क्यो नहीं ?

                   एक सवाल अक्सर पूछा जा रहा हैं की दिल्ली मे भषटाचार की लड़ाई से शुरू हुआ संगर्ष दिल्ली की सरकार बनने का सबब  कैसे बन गया ? लेकिन हाल की घटनाओ से एक बात साफ नज़र आती हैं की "" महात्मा गांधी   की टोपी "" को जो इज्ज़त  आप पार्टी ने दिलाई हैं वह काम , गांधी की विरासत को सम्हालने वाली काँग्रेस  भी नहीं कर सकी | विसवास मत के दौरान दिल्ली की विधान सभा मे जितनी ''टोपियाँ'' " दिखाई पड़ी उतनी तो लोकसभा मे भी नहीं दिखाई पड़ती |   महात्मा का सिधान्त था की कम से कम मे काम चलाना चाहिए |

                                   अब बात करते हैं की ''आप ''' का असर भारत की राजनीति मे कितना हुआ हैं ? इसका जवाब हैं की  चाहे  राजस्थान हो या झारखंड सभी स्थानो मे  मंत्रियो के भरी ""लाव - लाशकर"" मे कमी की जा रही हैं | आलीशान और भव्य  निवास स्थानो की जगह रहने योग्य की शर्त बन गयी हैं | वसुंधरा राजे ,राजस्थान की मुख्य मंत्री ने  पारंपरिक मुख्य मंत्री आवास की जगह --छोटा बंगला मांगा हैं | जबकि वे एक राजसी परिवार से आती हैं ,जिसने जन्म से ही ऐश ओ आराम की ज़िंदगी  बिताई हो अगर वह अब ''रहने लायक जगह''' की बात करे तो लगता हैं की राज नेताओ के दिमाग मे यह बात आ रही है की  अब ""वैभव शाली ठाठ - बाट """ नहीं चलेगा |  सुरक्षा नियमो के आधार पर एक मंत्री के साथ दो गाड़ी चलती हैं | मुख्य मंत्री के साथ  ""सोलह गाड़िया "" चलती हैं | अब सवाल हैं की ''बड़े बाबुओ'' ने खुद ताम-झाम  लेने के लिए पहले अपने '''साहब''' को उसका  आदी बनाया , फिर  धीरे से अपना भी बंदोबस्त कर लिया | इसी लिए पाँच कमरो के निवास मे ""बाबू"" रह सकता हैं पर """जन प्रतिनिधि """ नहीं |  मज़े की बात यह हैं की  नौकरशाही के इस शिकंजे मे  विरोध मे बैठे राजनीतिक दल भी फंस जाते हैं | तब अफसोस होता हैं की शासन कौन चला रहा हैं ? चुने हुए प्रतिनिधि या  नौकरशाही ? जो जनता को जवाबदेह नहीं हैं |  यह बड़ा सवाल हैं जिसका उत्तर भारतीय प्रजातन्त्र को खोजना होगा |  |