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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Oct 23, 2019


हिन्दू और पीतर्भु कितने वेदिक ?
जो सिंधु से सिंधु के मध्य जो जन्मा हैं – वह हिन्दू हैं --तिलक ??
आज कल चुनावी माहौल में गर्माहट के लिए फुलझड़ी छोडने का काम संघ और उसके राजनीतिक संगठन के नेताओ द्वारा बोलने और लिखने में खूब किया जा रहा हैं , खासकर विनायक सावरकर के नाम से जोड़कर ! यहा दो विसंगतिया है ----
1-- हिन्दू शब्द का अर्थ और उसका संदर्भ क्या है ?
2---किस काल में यह शब्द किस ग्रंथ में उपयोग हुआ ?
शब्द हिन्दू का उपयोग सातवी सदी के बाद के एक ग्रंथ में आया हैं --- तंत्र विद्या के ग्रंथ "”मेरुतन्त्र "” में आता हैं |
लिखा हैं 'हीनं दूषयती स हिन्दू " अर्थात जो नीच कर्मो को हीन मानता हैं अर्थात दूषित समझता हैं वह हिन्दू हैं | डॉ सच्चिननाद पाठक के अनुसार विष्णु पुराण में में कहा गया हैं की "असिन्धो: सिंधुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका | पीतर्भु: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिती स्म्रत: “”||
अर्थात सिंधु नदी के उद्गम से सिंधु {समुद्र } तक सम्पूर्ण भारत भूमि , जिसकी पीतर्भु तथा पुण्यभू वह हिन्दू कहलाता हैं !! इस श्लोक को लोकमान्य गंगाधार तिलक द्वारा अपनी पुस्तक में उद्धरत किया गया | परंतु जिस स्वरूप में आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के नेता इसका प्रयोग करते हैं -----वह सर्वथा गलत ही नहीं वरन स्वार्थ वश फैलाया जा रहा दुष्प्रचार ही है | वेदिक परंपरा में अथर्ववेद के पुरुष सूक्त में मे सष्ट कहा गया है "” भूमि ही मेरी माता है और प्रथ्वी ही पिता है "” | ऐसा कहने का कारण हैं की भूमि --जननी है , जिसके कारण मेरा अस्तित्व है -और प्र्थ्वी "”पिता"” हैं | पिता का अर्थ है पालन करता , चूंकि प्रथ्वी पर स्थित भूमि पर अन्न उगा कर मेरा पालन पोषण होता हैं , इसलिए वही पिता हैं |
कुछ विद्वान आपति कर सकते हैं की "”प्र्थ्वी "” को स्त्री रूप में बताया गया हैं , फिर वह पिता {अर्थात पुरुष } कैसे हो सकता हैं ! उनकी जानकारी के लिए बता दूँ की – "”जननी और जनक "” के संबंध से संतान होती हैं | परंतु "जनक " पिता" बने यह आवश्यक नहीं हैं | महाभारत में कौरव एवं पांडवो के जनक देवता थे --परंतु पिता के रूप में विचित्र वीर्य और चित्रांगद ही माने जाते हैं |
सावरकर को "”हिन्दू और हिन्दुत्व " का पुरोधा बताने वालो को थोड़ा वेदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए | देश के गृह मंत्री अमित शाह की भांति सावरकर को --- 1857 की क्रांति को प्रकाश में लाने का "” कोलंबस "” बताने की गलती नाही करे | क्योंकि जो सूक्त सावरकर के नाम पर मडा जा रहा है --- वह वास्तव में तिलक उनसे पूर्व प्रयोग कर चुके थे ! और लोकमान्य तिलक के पहले भी उसे लिखा जा चुका था | वैसे "”हिन्दू " शब्द का अर्थ पूर्व में बताया जा चुका हैं ---- परंतु जैसे कलिंग - अग्निदेश निवासियों की {उत्तर पूर्व राज्य } छेत्रीय पहचान के रूप में पौराणिक रूप में रही है ,उसी प्रकार ही "”हिन्दू " शब्द का भौगोलिक उपयोग हुआ है | नाकी "”धर्म विशेस के रूप में जैसा की राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जा रहा हैं | छेत्र की परिभाषा आर्यावर्त और उसके बाद भारत रही हैं , वेदिक धरम की उपासना में किसी भी करमकांड में सर्व प्रथम "”संकलप "” किया जाता हैं | जो वस्तुतः "”जातक अथवा यजमान "” की पहचान के अलावा उस छेत्र की भी पहचान बताता हैं जनहा यह संकल्प लिया जा रहा हैं |
पीतर्भु या पित्रभूमि अथवा मातर्भु अथवा माट्रभूमि :--------एशिया स्थित देशो में चाहे वे सनातन धरम के मानने वाले हो अथवा इस्लाम----- सबने मात्रभूमि अथवा "”मादरे वतन "”ही कहा गया हैं | केवल योरप में किन कारणो से "” फादर लैंड "” या पीतर्भु कहा गया , यह मुझे नहीं मालूम | परंतु शायद भारत में संयुक्त परिवार प्रथा के कारण , स्त्री या माता को सारंक्षण था | जिससे की संतानों से उस के संबंधो की पहचान बरकरार रही | यूरोप में बालिग होने के बाद शादी और फिर माता- पिता से अलग घर बनाने की परंपरा रही हैं | वनहा ग्राम नहीं होते थे | पौराणिक काल में के जिन साम्राज्यओ अथवा राज्यो का इतिहास देखे तो उनकी मूल प्र्शसनिक इकाई ग्राम ही था | जिससे राजस्व की प्राप्ति और सेना के लिए सिपाही मिलते थे | ग्राम में मुखिया या प्रधान होता था , जो राज्य के स्थानीय अधिकारियों को जवाबदेह होता था |
जनपद और महाजनपद काल में भी ग्राम की महत्ता बनी रही | वे अपनी व्यवस्था के लिए चुनाव करते ---जनहा तक संभव होता सभी वर्गो ,जैसे किसान – कुम्हार – बढई- राज मिस्त्री और लोहार का प्रतिनिधित्व होता | तब भी वे "”भूमि को माता मानकर ही किसान खेतो में हल चलाते थे "”

सीता किसान के हल से बनने वाली खुदी हुई रेखा को कहते हैं | यह स्पष्ट करता हैं की आर्यावरत में --मातृ भूमि ही थी | यूरोप में जमीन को जायदाद माना , उससे आध्यात्मिक लगाव नहीं रहा | भले ही छेत्रीय पहचान इलाकाई हो पर उससे वे अपनी कबीले की पहचान मानते थे | जिसकी भौगोलिक सीमा उनकी सभ्यता अथवा संसक्राति में कनही "”बताई "” गयी हो ------ऐसे यहूदियो के लिए येरूशलम | अब इतिफाक ही हैं की यह नगर इस्लाम और ईसाई धर्मो के लिए भी उतना ही महत्व रखता हैं | आज यह स्थान दुनिया के सबसे " संवेदनशील स्थानो में हैं "”” और यह सब धर्म की कट्टरता के कारण हैं | यदि समवेशी रुख सभी का हो तो समाधान सिद्ध हो जाए |



यूरोप में आज भी वनहा के किसान अपनी जोत की भूमि पर ही घर बनाकर रहते हैं | जबकि भारत में वेदिक काल से ही गाँव में समूह बना कर रहने की परंपरा थी | राज्य के कामो में भी परिवार के मुखिया और "”किसी भी वयसाय के लोगो के मुखिया को सलाह देने का हक़ था "” | ऐसा यूरोप में नहीं था | भारत में वेदिक काल में स्त्रियो को साथी चुनने की आज़ादी थी | वेदो की ऋचाए भी बहुत सी ब्रहंवादिनीयो द्वरा रचे गए हैं |
स्ंभव्तह महिलाओ की इस सम्मानजनक स्थिति के कारण माता या जननी का स्थान "”पिता "” से तनिक ऊपर रखा गया हैं | इसलिए चाहे बाल गंगाधर तिलक रहे हों अथवा विनायक सावरकर इन दोनों द्वारा "” पीतर्भु "” शब्द का प्रयोग निश्चित ही उनके समाज में तत्कालीन समय स्त्री के पारिवारिक और सामाजिक स्थिति का द्योतक ही माना जाएगा |
दूसरा आपतिजनक शब्द हैं "””पुण्यभू "”” तिलक और सावरकर के अनुसार फिर ईसाई और येहूदी आदि अनेक धरम के लोग इस देश "”के लिए "”विजातीय हो जाएंगे ! क्योंकि इनके आस्था के स्थान भारत की भौगोलिक सीमा से बाहर स्थित हैं | यनहा दो स्थितिया निर्मित होती हैं ------ जो लोग किनही भी कारणो से जन्म के समय के धरम को त्याग कर दूसरा धरम धारण कर ले तो वह भी "”विजातीय "”हो जाएगा ! जबकि देश के ईसाई कोई बाहर से नहीं आए हैं , वरन वे भारत भू के जन्मे हैं ---और भारतीय हैं – उन सभी के समान जो हिमालय से कन्याकुमारी के
मध्य निवास करते हैं | इस संबंध में पारसियों की पुण्यभू किसे मानेंगे ?? ईरान को -जो आज इस्लामिक मुल्क हैं ,अथवा जो कभी पारसी साम्राज्य हुआ करता था ---जनहा आर्य संसक्राति फली फुली | वैसे कट्टर "”हिंदुवादी नेता "” पारसी समुदाय को भी मुसलमानो का ही सहोदर मानने की भूल करते हैं | श्रीमति इन्दिरा गांधी के पति फिरोज गांधी पारसी थे | उनके नाम के कारण
कारण बहुत से "” हिन्दू पद पादशाही "” के सदस्य लोग उन्हे मुसलमान "””घोषित करते हैं | इन अज्ञानियों को यह नहीं मालूम की पारसी "’आर्य "” संसक्राति की ही एक शाखा हैं | वे निराकार उपासना करते है ---परंतु मूलतः वे अग्नि पूजक है | मंदिरो में गैर सनातनी और मस्जिदों गैर इस्लामी व्यक्ति जा सकता हैं , परंतु पारसियों के उपासना गृह "””अगियारी "” में केवल और केवल शुद्ध पारसी ही ड्योदी लांघ सकता हैं , इसका अर्थ यह हुआ की पारसी माता और पारसी पिता की संतान ही जा सकती हैं | बहुत कम लोगो को मालूम होगा की जे आर डी टाटा को अगियारी में होने वाले "””नौरोज़ "” समारोह में भाग लेने की पात्रता नहीं थी | क्योंकि उन्होने एक गैर पारसी महिला से विवाह किया था | पेरिस में उनके देहावसान के बाद उन्हे वनही दफ्न कर दिया गया था | ब्सियों साल बाद ब्रिटेन और भारत के पारसियों ने धरम गुरुओ को इस बात के लिए राजी किया की की उनके शव को मुंबई के "””टावर ऑफ साइलेंस "” में रखने की अनुमति मिली |
क्यो पारसी "”हम वेदिक धर्मियों के समीप हैं इसके दो सबूत हैं :-
यज्ञोपवीत – वेदिक धर्म में विद्यध्यान के लिए यज्ञोपवीत आवश्यक बताया गया हैं | पारसियों में भी इसी के समान एक करम कांड होता हैं | इंका जनेऊ एक सिला हुआ कपड़ा होता हैं जिसे मंत्र द्वरा अभषिक्त किया जाता हैं | इनके यानहा यह जनेऊ लड़का और लड़की दोनों का होता हैं | वेदिक काल में आर्यों {{ हम लोगो में } भी स्त्री और -पुरुष का यज्ञोपवीत होता था | क्योंकि ऋचाओ की रचना यज्ञोपवीत करने वाला ही कर सकता था | यह बंधन ऋषियों द्वरा निर्णीत था | पारसियों ने वेदिक कालीन परंपरा को कायम रखा , परंतु हम "”आर्य संसक्राति के अलमबरदारो ने "” स्त्री को इस लायक नहीं रखा की वे भी ज्ञान वर्धन कर सके | यह सब महान कार्य उत्तर पौराणिक काल में हुआ | अब इन्हे मुसलमान समझने वाले "””महा पुरुषो "” की बुद्धि को क्या कहे !!! इनके लिए आज भी ईरान को मातृभूमि ही मानते है , पितृभूमि नहीं !