राजनैतिक झगडे में धार्मिक असलहे का इस्तेमाल
अयोध्या में ८४ कोशी परिक्रमा को ले कर विश्व हिन्दू परिषद् और उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार के बीच चल; रही रस्सकाशी का परिणाम वैसा ही हुआ जैसा की अप्पेक्षित था । उन्होंने मुट्ठी भर लोगो और थोड़े से भगवाधारी साधुओ के साथ सरयू नदी से जल लेकर ""सांकेतिक"" यात्रा की शुरुआत की और तोगड़िया समेत दो -तीन सौ लोग गिरफ्तार हो गए । इस प्रकार दोनों ही पक्षों की ""जिद्द"" पूरी हो गयी । एक कहानी हैं की मारवाड़ के एक राजा ने बूंदी का किला फतह करने के बाद ही पानी पिने की क़सम खायी थी । परन्तु यह काम आसन क्या बहुत ही कठिन था । अब दरबारियों ने रजा के प्राण बचाने के लिए उनसे अपनी प्रतिज्ञा छोड़ने का आग्रह किया , परन्तु राजा तो फिर राजा थे ,अड़े रहे , आखिर राजपूती शान जो ठहरी । आखिरकार मंत्री ने एक """विक़ल्प """ सुझाया , जिस से प्रतिज्ञा भी पूरी हो जाए और प्राण भी सुरक्षित रहे ।
वह उपाय था की मिटटी का एक किला जो बूंदी के किले की प्रतिकृति था । उसे फ़तेह कर के राजा जल ग्रहण कर सकते थे । ऐसा ही किया गया । परन्तु बूंदी के कुछ हाडा राजपूत जो राजा की सेना में थे , उन्हें यह मात्रभूमि का अपमान लगा । एवं वे इस """सांकेतिक "" युद्ध में भी झूठे किले की रक्षा करते हुए मारे गए । सवाल यह उठता हैं की क्या इस पूजा को को संकेत माना जाए ? तब यह भी मंज़ूर करना होगा की कुछ लोग तो इसमें भी मारे जायेंगे । तब इस संकेत का दोषी औं ? राजनीती अथवा धर्म ? अब यह तो अपने - अपने विस्वास की बात हैं की कौन किस तरफ हैं । परन्तु जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ , हालाँकि यह साफ़ हो गया की धर्म का उन्माद बिना राजसत्ता की हामी के नहीं भड़कता हैं ।
अयोध्या में ८४ कोशी परिक्रमा को ले कर विश्व हिन्दू परिषद् और उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार के बीच चल; रही रस्सकाशी का परिणाम वैसा ही हुआ जैसा की अप्पेक्षित था । उन्होंने मुट्ठी भर लोगो और थोड़े से भगवाधारी साधुओ के साथ सरयू नदी से जल लेकर ""सांकेतिक"" यात्रा की शुरुआत की और तोगड़िया समेत दो -तीन सौ लोग गिरफ्तार हो गए । इस प्रकार दोनों ही पक्षों की ""जिद्द"" पूरी हो गयी । एक कहानी हैं की मारवाड़ के एक राजा ने बूंदी का किला फतह करने के बाद ही पानी पिने की क़सम खायी थी । परन्तु यह काम आसन क्या बहुत ही कठिन था । अब दरबारियों ने रजा के प्राण बचाने के लिए उनसे अपनी प्रतिज्ञा छोड़ने का आग्रह किया , परन्तु राजा तो फिर राजा थे ,अड़े रहे , आखिर राजपूती शान जो ठहरी । आखिरकार मंत्री ने एक """विक़ल्प """ सुझाया , जिस से प्रतिज्ञा भी पूरी हो जाए और प्राण भी सुरक्षित रहे ।
वह उपाय था की मिटटी का एक किला जो बूंदी के किले की प्रतिकृति था । उसे फ़तेह कर के राजा जल ग्रहण कर सकते थे । ऐसा ही किया गया । परन्तु बूंदी के कुछ हाडा राजपूत जो राजा की सेना में थे , उन्हें यह मात्रभूमि का अपमान लगा । एवं वे इस """सांकेतिक "" युद्ध में भी झूठे किले की रक्षा करते हुए मारे गए । सवाल यह उठता हैं की क्या इस पूजा को को संकेत माना जाए ? तब यह भी मंज़ूर करना होगा की कुछ लोग तो इसमें भी मारे जायेंगे । तब इस संकेत का दोषी औं ? राजनीती अथवा धर्म ? अब यह तो अपने - अपने विस्वास की बात हैं की कौन किस तरफ हैं । परन्तु जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ , हालाँकि यह साफ़ हो गया की धर्म का उन्माद बिना राजसत्ता की हामी के नहीं भड़कता हैं ।