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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 21, 2012

PARTY YA PERSONALITY --NARENDRA MODY

गुजरात चुनाव -पर्सन या पर्सनालिटी      नरेन्द्र  ंमोदी  की तीसरी ताजपोशी  को  उन्देखा तो कतई  नहीं किया जा सकता हैं , परन्तु यह ऐसी उपलब्धी  भी नहीं हैं जिसे   "ना  भूतो  ना भाविसायती " कहा जा सके । क्यों  कि भले    ही छोटे  राज्य हो पर कांग्रेस के  तीन मुख्या मंत्री  भी तीसरी बार  यह कारनामा दिखा चुके हैं ,दिल्ली में शीला  दीक्षित  एवं  आसाम में तरुण गोगोई तथा मणिपुर के सिंह । सबसे दीर्घ  काल तक मुख्या मंत्री रहने वाले  वेस्ट  बंगाल के  ज्योति बासु थे ।ऐसे  में यह करिश्मा  तो नहीं ही हैं । हाँ एक बात साफ़ तौर पर उभर कर  आई हैं , की पार्टी  यानी भारतीय  जनता पार्टी पर मोदी  का क़द भारी पड़ा हैं । वही  कांग्रेस  के पांचवी  बार पराजित  होने से स्पस्ट हो गया हैं की  उसने  अभी भी कोई सबक नहीं सीखा  हैं । नेतृत्व  की स्पष्टता  जन्हा भा जा पा  की ताक़त साबित हुई ,वंही  कांग्रेस  की असमर्थता  साबित हुई हैं । क्योंकि पांचवी बार की हार असफलता तो नहीं हैं । हाँ  गजनवी की भांति अगर कांग्रेस प्रयासरत हैं तो बात दूसरी हैं । वैसे वह दिल्ली  में तो काबिज हैं ही , भले ही मुग़ल  साम्राज्य की तरह उसका हुकुम  चांदनी चौक या नईदिल्ली  तक ही बरक़रार  हों । लेकिन  एक राष्ट्रीय  पार्टी  के रूप में यह न केवल शर्मनाक  हैं बल्कि इस हालत के जिम्मेदार लोगो को , बरक़रार  तो नहीं रखना चहिये । इतना ही नहीं  नयी रणनीति भी बनाने पर विचार करना चहिये ,नहीं तो लहराने वाला परचम  रुमाल बन के रह जायेगा ।

                                                                                          यूँ  तो गुजरात में चुनाव विधान सभा के लिए हुएथे , पर मोदी  रास्ट्रीय मुद्दों पर प्रचार कर रहे थे ,और लोग  विधयक की जगह प्रधान मंत्री  का चुनाव कर रहे थे । अजीब  सी बात हैं , पर हैं सच ।  सफलता तो फिर सफलता होती हैं भले ही वह एक वोट से ही क्यों न मिली हों । पर मोदी जी का यह कहना की कांग्रेस  पर विजय का  मत प्रतिशत  बड़ा हैं , गलत साबित हुआ , एवं भले ही एक सीट से पिछले चुनाव के मुकाबले  वे कांग्रेस से पीछे रह गए पर कमी  तो फिर कमी होती हैं ।हालाँकि  कांग्रेस का 1977 में उत्तर भारत  में सफाया हो गया था , परन्तु वोट परसेंटेज   में  बढोतरी हुई  थी ।   , यही लोकतंत्र की माया  हैं , की वोट बढ़े  पर सीट गयी  ।

                                                                                        एक बात और की मोदी ने खुद मंजूर किया की  3डी  माध्यम से चुनाव प्रचार  काफी  सफल रहा , अब कोई उस तकनीक को खर्चीला बताये ,या चुनावी ख़र्चे  की सीमा को ""द्रविड़ प्राणायाम " के तरीके से तोडने -मरोडने का आरोप लगाये , पर अपनी बात को प्रभावशाली तरीके से मतदाता  तक  ले जाने का सटीक तरीका तो हैं ही । क्योंकि प्रत्याशी के खर्च की सीमा तो हैं पर उसकी पार्टी के खर्चने  पर कोई पाबंदी  नहीं हैं । चुनाव के दौरान मीडिया के सभी साधनों में रास्ट्रीय मुद्दों को ही तरजीह मिली  , यह हैं प्रचार तंत्र की सफल भूमिका ।जिस पर पार्टियों को नए सिरे से विचार करना होगा }यह तो साफ़ हो गया की  विज्ञापन से मतदाता नहीं प्रभावित होता । हाँ , आप की बात उसे अपील करे तो वह जरूर   सोचेगा  , अब उस तक अपना सन्देश किस भाषा  या शैली में पंहुचा पाते  हैं यह बात निर्णायक होगी ।किया लिखा गया  , कैसे लिखा गया यह चुनाव का फैसला  बन सकता हैं ।इस बात  पर विचार करना होगा ।

                                                                        लेकिन गुजरात  की आकांछा  को देश की रॉय बने  इसका सबसे बड़ा  लिटमस टेस्ट मीडिया प्रचार नहीं होगा ,वरन सभी छेत्रो -और वर्गों द्वारा मंज़ूर व्यक्तित्व ही रास्त्र का नेतृत्व कर सकेगा । संसदीय लोकतंत्र में  व्यक्ति पार्टी का संबल  तो हो सकता हैं पर मुहर तो पार्टी के निशान पर ही लगेगी  । इसलिए पर्सनाल्टी  कितनी ही बड़ी हो पार्टी के नीचे ही रहेगी । सरकार  बनाने का न्योता भी पार्टी    को ही दिया जाता हैं ।ऐसे में मोदी को पहले अपने को भा जा पा  मैं निर्विवादित  नेता साबित करना होगा  ,तभी बात आगे बढेगी ।वर्ना  ज्योति  बासु की तरह उनकी भी प्रधान मंत्री बन ने की उम्मीद ""घर"" मैं ही दफ़न हो जाएगी । कुछ नेताओ द्वारा  उन्हे प्रधानमंत्री पद के ""योग्य"" मानने  के बयानों से बात नहीं बनेगी । मीडिया तो किसी का भी बयां ""चला"" कर आपना काम कर देगा , पर वह वास्तविकता नहीं होगी । हकीक़त तो ""पार्टी '' का नेतृत्व ही तय करेगा । टी वी  पर हनी वाली बहसों से ऐसे सवाल नहीं हल होते , उन्हे तो बस फैसले ही बताये जाते हैं ।वे फैसलों को  प्रभावित करने की ताक़त नहीं रखते , भले ही वे दर्शको को प्रभावित  करें । क्योंकि दलों के निर्णय     पूरी तरह  जनतांत्रिक नहीं होते हैं ।वंहा इमोशन की कम और यथार्थ  पर फैसला होता हैं ।   इसलिए गांधीनगर की यात्रा तो पूरी हो गयी पर दिल्ली  अभी दूर हैं उनके लिये  जिनके लिए सडको पर नारे लग रहे हैं ।। ।                                              

Nov 27, 2012

NEEYAT-NITI SAY LEKAR NIUKTI KI RAJNITI

               नीयत -नीति  से लेकर नियुक्ती  की राजनीती    यह सवाल  हॉल मेंही  सी .ब़ी आइ  के निदेशक पद पर रंजित कुमार सिन्हा की पद स्थापना  के फैसले को लेकर हुई  । हर  राजनीतिक  दल की ""नीयत ""उसके सिधान्तो और घोस्नापत्र मैं स्पष्ट होती हैं ।     इस पूरे प्रकरण को  देखने पर लगता हैं की संसद में बैठे डालो को यह आधारभूत बात नहीं मालूम हैं ,अथवा वे जान कर भी अनजान  बन रहे हैं ।संविधान के सत्ता विभाजन के आधार पर  संसद एअक विधायी निकाय हैं , जो सरकार के  लिए    विधि निर्माण  का  कार्य करने की उत्तरदायी  हैं ।आब इस मामले ,में  एक  अधिकारी की नियुक्ति   होनी थी ।जो की पूरी तरह से प्रसासनिक कारवाई हैं ।अब इस मामले में या तो उस अधिकारी के चरित्र पर कोई दोष सिद्ध होताथ्वा कोई और कमी होती ,तब ऐतराज वाजिब होता , पर ऐसा कुछ नहीं था ,फिर भी सदन में शोर था और हैं ।मतलब दो दिन संसद के हल्ला-गुल्ला में बर्बाद हुए ।।अब इस मुद्दे को लेकर भा .ज पा  में बात इतनी बड़ी हो गयी की उन्हे आपने फायरब्रांड  नेता ""राम जेठमलानी  जो की सांसद हैं उन्हे भी पार्टी से निलंबित करना पड़ा . इतना ही नहीं पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और फ़िल्मी कला कर शत्रुघ्न सिन्हा को  भी चेतावनी देनी पड़ी ।अब  इसके दो ही आर्थ हो सकते हैं --या तो यह कारवाई  आपसी गुटबाजी का नतीजा हैं अथवा इसमें कोई "" अनजाना  फैक्टर हैं ?अब वह किया हैं यह भी साझ पाना  कोई कैलकुलस की प्रॉब्लम नहीं हैं जिसे हल करने में दांतों तले  पसीना आ जाए ।

                                                 सीधी सी बात हैं की भा  ज  पा  को कोई ऐसा मुद्दा चहिये जिस के बलबूते पर वह राजनितिक  आकाश पर एक अलग तारे की तरह चमके , ।अब इसके लिए पिचली बार संसद के अधिवेसन को शोर - ओ - गुल की भेंट चदा दिया था , और इस बार भी लग रहा हैं की वह उसी दिशामें अग्रसर हैं ।आख़िरकार एक अधिकारी की नियुक्ति को लेकर देश का एक दल क्यों इतना विचलित हैं ?यह प्रश्न उठता हैं ।     जंहा  तक उम्मीद हैं की राजनितिक मजबूरियों के अलावा भी पर्दे के पीछे भी कुछ ऐसा गोपनीय रहस्य हैं जिसे  नेतृत्व  ना ही कह सकता हैं और बर्दास्त  हो नहीं पा रहा हैं ।अब इस स्थिति में  ""चरम""क़दम उठाने का फैसला ही उनके  पास विकल्प के रूप में बचा  हैं , और वह हैं ''सदन की करवाई को बाधित कर कर  विरोधी दल हनी का सबूत डे जिस से सरकार  को संदेह के कटघरे में लाया जा  सके ,ऊँगली उठाई जसके ,एक बयां भी दिया जा सके ।क्योंकि अन्य कोई रास्ता बचा नहीं हैं ।
                                   
                                                  परन्तु भा जा पा के इस रुख से जेंह एक और संवैधानिक मर्यादा टूटी हैं  वही यह भी सवाल उठने लगाहें की  की अब सदन सिर्फ अधिनियम ही नहीं बनाएगा वरन विनियम भी बनाएगा ,जो अभी तक सम्बंधित  विभाग द्वारा बनाये जाते थे ,और वह भी सरकारी बाबुओ द्वारा '''न की राजनितिक ''सत्ता '' द्वारा ।     वैसे  यह स्थिति पूरी तरह संकट में डालने वाली नहीं हैं , क्योंकि इस से एक बात  तो ठीक हो  जाएगी ---वह यह की फिर शकल देख कर विभाग काम नहीं कर सकेगा ।क्योंकि एक बार सदन ने विनियम को  पारित कर दिया तब उनमें ---संशोधन --परिवर्तन --छूट आदि के मामले उन्ही नियमो से तय होंगे, नाकि '''मुंह देख कर कानून बताने का सिलसिला ख़तम हो जायेगा ।वह इसलिए की कानून तोडने पर तो सजा का प्राविधान  भी  करना  होगा । अभी भूमि अधिग्रहण के मामले मैं  अथवा मास्टर प्लान के मामले में गरीब की  जमीन  कब्जे में ले ली जाती हैं और अफसर और बिल्डर माफिया की जमीन  को ''मॉल ''बनाने के लिए  या कारोबारी - धंधे के लिए छोड़ दिया जाता हैं ।ऐतराज़  उठाने पर ''यू  शो में फेस विल शो यू रूल ''के सिधान्त   के अनुरूप करवाई की जाती हैं ।अभी इंदौर और भोपाल के अनेक मामलो में जमीं के ट्रान्सफर के मामलें सुर्खी में आये हैं  ,वे इसी कारन हैं की विनियम सबके लिए लाभकारी नहीं हैं ।अगर भा जा  पा  की संसद रोक की इस करवाई से ऐसा कुछ हो सकता हैं तो फिर यह ''विरोध'' सर माथे पर .

Oct 15, 2012

MS SUBBULAKSHMI : KANAKADHARA STOTRAM

आरोप और उनकी जांच कौन करें ?

                               आजकल मौसम हैं आरोपों का और   उनकी जांच की मांग का , पर इसमें एक दिक्कत यह हैं की --जांच कौन करें ? क्योंकि  पुलिस और जांच की दीगर  संस्थाओ को ''जन नेता '' पहली फुर्सत में अविश्वास के योग्य बताते हैं ।चाहे  सी बी आई  हो या कोई और संसथान उनके लिए सब सर्कार के ''पिठू ' हैं , लिहाजा उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता । फिर जब जांच सर्कार के किसी मंत्री की हो या उस से जुडे आदमी की हो तब तो उनकी बात सुनने में बड़ी तर्क सांगत लगती हैं ।भले ही विवेचना करने पर ऊपर की यह धरना गलत साबित हो ।अब  बात करें अदालती जांच की , तो उस जांच की भी रिपोर्ट  पुलिस को ही सौपी जाती हैं । क्योंकि हमारी न्याय व्ययस्था  में अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने का दायितव  उन्हें ही सौंपा गया हैं ।सजा दिलाने के लिए मुक़दमा चलाया जाना जरूरी हैं , जंहा सबूतों के आधार पर ही कारवाई  की जाती हैं ।पर आजकल इन ''जन नेताओ ''को  जल्दी फैसला देने वाली व्यस्था की दर्कार  रहती हैं ।आम आदमी का रहनुमा हनी वाले भूल जाते हैं की अगर रोज -बा -रोज भी सुनवाई हो तो भी वक़्त तो लगेगा ।पर वे तो मुद्दे के गरम रहने तक ही फैसला चाहते हैं क्योंकि  वे अपने मुद्दे को ज्यादा वक़्त तक नहीं गरमा सकते ,क्योंकि मीडिया एक ही बात को पब्लिक को कितने दिनों तक ''पेश ''करती रहेगी ।अक्सर  देखा गया हैं की मीडिया में आये मुद्दे अदालती  कसौटी पर बिखर जाते हैं ।वह इन वतन के रहनुमाओ के लिए लाभ दायक नहीं होता ।इसी लिए वे आईसी व्यस्था चाहते हैं जिसमें उनके द्वारा चाहे गए वक़्त के भीतर ही मामले का फैसला हों ।अब इस के लिए तो कोई नया प्रावधान संविधान में करना होगा ।क्योंकि वर्त्तमान व्यावस्था में तो संभव नहीं , इसलिए विचार करना होगा की क्या किया जाए ? यह लेख इसी लिए हैं ।

                                               सभी दल और अदालतों के जज भी इस तथ्य को मानते हैं की हमारे यंहा लंबित मुक़दमों की संख्या लाखो में हैं , जिला से लेकर उच्च न्यायलय और सुप्रीम  कोर्ट में भी यह संख्या लाखो में हैं , फिर इसका हल क्या हैं ? चाहे सर्कार कांग्रेस के नेतृत्व वाली हो या भा जा प् के नेतृत्व वाली हो सभी बस कहते रहते हैं की  न्यायादिशो  की संख्या में  बढोतरी होनी चाहिए , कोई मजबूत कदम इस और नहीं उठाया जाता ।आखिर क्यों ।क्या सरकारों के पास संसाधनों की कमी हैं अथवा  उच्च और उच्चतम  अदालतों के लिए योय लोग नहीं मिलते , क्योंकि बहैसियत वकील उनकी आमदनी जो एक माह में होती हैं वह इन अदालतों के जज साहबान को साल भर की वेतन -भत्ते के रूप में मिलती हैं ।एक दिन की पैरवी के लिए दस लाख रुपये लेने वाले कानून मंत्री  तो बनते हैं पर अदालतों में बैठना उन्हे तौहीन लगता हैं ।आपसी बातचीत में  ये लोग अक्सर कहते सुनी जाते हैं की दो दिन की प्रक्टिस  में ''इनके''दो माह की तनख्वाह निकल आती हैं ।सभी डालो में ऐसे नेता हैं जो इस श्रेणी में आते हैं पर बयां देने के अलावा और कुछ नहीं करते ।यंहा तक जिस सदन के वे सदस्य हैं उसमें भी वे इस मामले में कोई सार्थक कदम नहीं उठाते हैं ।
                           अब इस स्थिति में  जिस से की फैसला जल्दी आये जांच और फैसले की ''इंस्टेंट ''मांग तो बेकार ही होनी हैं , मजे की बात यह हैं की मीडिया भी इस हालत से बाखबर हैं पर खबर को चटपटा बनाने के लिए त्वरित जांच और फैसले की मांग को वह भी हवा देता हैं , जिस से की टी ऑर पी  बढे ।इसी लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों में सिवाय बार -बार के दुहराव के कोई नयी बात नहीं होती हैं ।इनके यंहा एक वाक्य हैं जो न्यूज़ रूम में बोला जाता हैं ''आज इस मुद्दे को खेल जाओ '' मतलब यह की लोगो को सूचित करने के बजे ''मजे ''लेने के लिए खबर ''बनायीं ''जाती हैं ।इसलिए लगता हैं की इनके संवादाताओ को समाचार एकत्र करने के बजाय कुछ ''खोद '' निकालने की जिम्मेदारी दे गयी हो ।अतः इन्हे अगर खबर बनाने वाले इंजिनियर कहा जाए तो  कम न होगा  क्योंकि आखिर ''स्टिंग' या डंक ओपरेसन भी तो खोदने जैसा ही तो काम हैं ! 

                                 अब दो सवाल हैं की जांच कौन करें ?जिस से की फैसला जल्दी आये ? साथ मैं यह भी सवाल हैं की क्या इलेक्ट्रोनिक  मीडिया का कोई ''स्वयं सिद्ध ''नियम भी हैं की एक खबर कितने देर तक चलायी जाए या  पक्ष -विपक्ष को बराबर का समय दिया जाए की नहीं ? यूँ तो मीडिया सरकार और उसमें बैठे लोगो के लिए ''विवेकाधिकार '' की सुविधा समाप्त की पैरवी करता हैं तो क्या आपने काम में भी वह इस अधिकार को छोड़ेगा ?उम्मीद तो कम हैं क्योंकि यह मुद्दा बड़ी जल्दी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला मन जायेगा , इस से यह भी सिद्ध होता हैं की मीडिया खुद के लिए '' स्पेशल  नियम चाहता हैं ।क्या यह वाजिब होगा ?आखिर मीडिया द्वारा लगाये गए आरोपों की जांच के लिए भी तो कोई एजेंसी हो। तभी तो आम लोगो को लगेगा की न्याय हुआ हैं ।

Oct 8, 2012

चुनावी घोषणा पत्र एक छलावा या जनता से किया गया एक पवित्र वादा?

चुनावी घोषणा पत्र एक छलावा या जनता से किया गया एक पवित्र वादा ? यह  सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया हैं की अगले कुछ समय में गुजरात और हिमाचल में चुनाव होने  वाले हैं ।सभी बड़ी राजनितिक पार्टियाँ  जनता के सामने बड़े -बड़े वायदे कर के सत्ता प्राप्त करने के लोकतान्त्रिक आज़ादी का प्रयोग करेंगे ।पर सवाल यह हेंकी आम तौर पर इन वायदों का बुरा हाल होता हैं .। ऐसा लगता हैं की मतदाताओ को लुभाने के लिए कुबेर का खज़ाना खुल जाता हैं ।उदाहरण  के लिए उत्तर प्रदेश  में समाजवादी पार्टी ने सभी को काम सुलभ करने का वादा किया था , छात्रो को टैबलेट और लैपटॉप देने की बात कही गयी थी ।परन्तु जब रोजगार दफ्तरों में काम मांगने वालो भरी भीड़ आने लगी ,तब नौकरी के आवेदन पत्रों को लेकर दफ्तर की रद्दी में  फेके जाने की खबरे आने लगी । जब इन खबरों ने राजनैतिक आंच  देनी शुरू की तब वायदे में संशोधन किया गया की स्नातक पास लोगो की नौकरी लगेगी ।महिलाओ को काम देने के नियम थोडे कड़े किये गए ।जैसे भारतवर्ष में विधायिका  में बैठे जन - प्रतिनिधि कानून बनाते हैं , परन्तु कानून की आत्मा का गला रूल्स के सहारे  अफसर घोट देते हैं ।कलंक नेता के माथे और माल अफसर के पास ! किसान को क़र्ज़ न चूका पाने की स्थिति में आतम हत्या करनी पड़ती हैं , पर बड़े -बड़े उद्योगपति  अरबो रुपये का कर्ज़  डकार जाते हैं ,और सरकार  औद्योगिक  उन्नति के नाम पर इस राशी को बत्ती खाते में दाल देती हैं । हैं न मज़ेदार किस्सा !  
                                       अभी किंग  फिशर हवाई कंपनी का ही मामला हैं हजारो करोड़ रुपये सरकारी बैंको के अरबो रुपये डकार गए पर मालिको या प्रबधन के विरुद्ध कोई करवाई नहीं हुई । 
                       
                                           लेकिन अभी बात चुनावी घोषणा  पत्र की पवित्रता पर ---तो बात थी की छात्रो को लैपटॉप  बाँटने की पर उत्तर प्रदेश की सरकार  को एक साल बीत जाने के बाद भी कोई ऐसी कंपनी नहीं मिल पायी जो उनके अनुसार टैब लेट       की आपूर्ति कर सके ।अब सरकार कह रही हैं की हमारी मंशा तो साफ़ हैं पर कोई कंपनी ही नहीं तैयार हैं ? सवाल हैं की जब वादा किया था तब वित्तीय आंकलन किया था की प्रदेश में कितने छात्र-छात्राओं को यह उपकरण देना होगा ? इस पर कितना खर्च आएगा ?क्या सरकारी खज़ाना इस व्यय को सह पायेगा ?  हकीक़त यह हैं की चुनाव के जोश में नेताओ में होड़ मची थी की कौन कितना बड़ा लुभावना वायदा मतदाताओ से कर के उनके वोट कबाड़ सकता हैं । जब प्रश्न वायदे को पूरा करने का आया तब सभी समस्याएं सामने आयी |इसे क्या समझे की वादा करते समय इसे पूरा करने की कवायद का विचार ही नहीं आया ।हालाँकि केंद्र सरकार का भी इस सम्बन्ध में ट्रैक रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं हैं , जिस आकाश उपकरण को दो हज़ार में छात्रो -छात्राओ को सुलभ करने की बात थी ,वह  भी अभी तक पूरी नहीं हो पायी हैं ।अब अगर केंद्र नहीं अपने कहे हुए को पूरा नहीं कर पा  रहा हैं  तब उत्तर प्रदेश का क्या कहना ?    

                   एक और मुद्दा हैं  किसानो को बिजली देने का ,-- सभी राजनैतिक दलों  में होड़ लगी रहती हैं ।कोई किसानो को सस्ती बिजली देने का वादा करती हैं , तो कोई चौबीस घंटे विद्युत् आपूर्ति की बात करता हैं ,तो अकाली दल ने  तो मुफ्त में बिजली देने की बात की ,। परिणाम यह हुआ की  सभी प्रदेशो के विद्युत् बोर्ड लम्बे -लम्बे  घाटे  में चल रहे हैं । हालत यह हो गए हैं की सभी प्रदेश सरकारे  बिजली की कमी से दो -चार हो रही हैं ।अब अगर वादा न पूरा हुआ तो ग्रामीण छेत्र के मतदाता तो सरकार के खिलाफ हो जायेंगे ।यही डर  सभी सत्तारूद  दलों को प्रदेशो मैं सताता रहता हैं । परिणाम स्वरुप बोर्ड  घाटे में चलते रहते हैं ।हर साल के बजट में राज्यों को अरबो रुपये का इंतजाम बिजली के मद में करना पड़ता हैं ।अगर सभी दल यह समझ ले की राज्यों की आधारभूत संरचना  की कीमत पर राजनैतिक वायदे आखिर कार राज्य को रसातल में ही ले जायेंगे ।

                                अब इन सब बातो का तात्पर्य  यही हैं की सरकार बनाने के लालच में शासन को ही न लंगड़ा कर दे । 
                              

Oct 7, 2012

फर्क होना दामाद --नेहरु और गाँधी परिवार का

            यह शीर्षक  हो सकता हैं की कुछ पाठको को विस्मित करने वाला लगे ---परन्तु नेहरु -गाँधी परिवार के दामादो में एक  तुलना की  कोशिश हैं । नेहरु के दामाद फ़िरोज़ गाँधी संसदीय प्रणाली के एक प्रतिमान थे ।भारत के प्रथम  प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु की पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी  से उनके  विवाह के कारन ही राजीव -संजय और सोनिया तथा राहुल तथा प्रियंका को गाँधी का सरनेम  प्राप्त हुआअत्य हैं ।  । इसलिए कुछ लोगो का यह कहना की नेहरु परिवार ने महात्मा गाँधी के सरनेम का अनाधिकृत  प्रयोग किया --पूरी तरह  असत्य हैं । गुजरात में पटेल - गाँधी आदि कई ऐसे सरनामे हैं जो पारसियों और सनातन धरम मानने वालो मैं पाए जाते हैं ।          
                                    बात हैं की फिरोज  गाँधी एक कांग्रेसी संसद और प्रधान मंत्री के दामाद होने  के बावजूद  भी उस काल में  भी कभी गलत काम को उजागर करने में पीछे नहीं रहे ।मैं यंहा दो उदहारण रकः रहा हूँ --एक था तत्कालीन वितमंत्री  टी टी कृष्णामचारी का जिन पर फ़िरोज़ साहेब ने एक सौदे में एक व्यासायिक घराने को गलत तरीके से फायदा पहुचने का आरोप लगाया था ।कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओ ने नेहरु जी से कहा की वे अपने दामाद को ऐसा करने से रोके , परन्तु नेहरु जी ने ऐसा करने से मना  करते हुए कहा की   आरोपों का   वित्त मंत्री को  सामना करना चहिये । बहस के दौरान वित्त मंत्री निरुतर हो गए परिणामस्वरूप उन्हे अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा ।ऐसा ही एक और उदहारण हैं जब ब्रिटिश  इंडिया कारपोरेसन के सौदे में उन्होंने बंगाल के उद्योगपति हरी दास मुध्दा  पर आइनैतिक व्यापारिक  तरीको के इस्तेमाल का आरोप लगाया था ।इस सौदे के अनुसार कानपूर की लाल इमली मिल तथा अथर्तन वेस्ट मिलो के बेचे जाने की संसद में मांग की । जांच में उनके आरोप सत्य साबित हुए और हरी दास को जेल हुई । इन सभी प्रकरणों में प्रधान मंत्री की और से कोई भी हस्तछेप नहीं किया गया ।अब इन घटनाओ से यह तो स्पस्ट होता हैं की नेहरु के दामाद की निर्भीकता और सच का साथ देने का दम कितना था , इसके लिए आज के भारतीय जनता पार्टी के नेताओ से नेहरु -गाँधी परिवार को सर्टिफिकेट लेने की जरुरत नहीं हैं ।क्योंकि इस तरह का एक भी उदहारण वे प्रस्तुत नहीं कर सकते ।      
 
                                            अब रही बात रोबेर्ट वाड्रा  के व्यापारिक संबंधो की और उनसे संभावित  फायदे की , अरविन्द केजरीवाल नाम के नवोदित नेता ने सस्ती  लोक प्रियता बटोरने के लिए टीवी चैनल को एक लिस्ट दे कर कहा की पञ्च लाख से व्यापार शुरू कर के वे इतनी जल्दी अरबपति बन गए । अभी हाल में एक ठेकेदार के यंहा  आयकर का छापा पड़ा  इन सज्जन ने सन 2006 में छः लाख की पूंजी से काम शुरू किया था , आज वे दस हज़ार करोड़ से ज्यादा मिलकियत के आदमी हैं ।जब कांग्रेस की और से जांच की बात की गयी तो सत्तारुद दल ने इसे व्यापारिक गतिविधि कह कर उनका बचाव किया ।आज देश की सबसे बड़े ओउदोगिक घराने  अम्बानी घराने की प्रगति को देखे तो पिचले 28 सालो में यह ग्रुप बाद कर आज एक लाख करोड़ की सम्पति का स्वामी हैं , अब उनसे भी यह सवाल हो सकता हैं की इतनी प्रगति उन्होने कैसे कर ली ? यह सवाल आज की कई नवोदित  कंपनियों से पूछा  जा सकता हैं की पांच -छ वषों  में उन्होने स्टाक मार्केट मैं आपनी साख कैसे बनायीं ? क्या इन सब मामलो की अदालती जांच की मांग केजरीवाल करेंगे ? शायद नहीं क्योंकि ऐसा करने का मैन डेट उनके पास नहीं होगा ,क्योंकि वे तो सिर्फ कांग्रेस को ही देश की सभी बुराइयों की जड़ मानते हैं ।अब उनके गलत सोच और इतिहास के अज्ञान के लिए क्या किया जाए ।हाँ रोबेर्ट वाड्रा  अपनी और परिवार की प्रतिष्ठा  के लिए  अपनी और से सफाई पेश करे  जिससे नेहरु -गाँधी परिवार की प्रतिष्ठा बरक़रार  रख सके ।क्योंकि सत्तर =आस्सी साल में जो स्तिति इस परिवार को मिली हैं वह दाग -धब्बे लगाने वाले लोगो के प्रयास को निष्फल कर सके ।क्योंकि इस नव स्थापित पार्टी  का न तो कोई कार्यक्रम हैं न ही कोई जन कल्याण की योजना , बस मीडिया की सुर्खियों में बने रहने का जूनून ।जिस  पार्टी का उद्देश्य पोल-खोल हो वह धरना  अनसन और हुडदंग के सिवा और किया कर सकती हैं ।

Oct 6, 2012

लाखो लोगो को रोजगार मिलने के वालमार्ट के दावे मैं कितना सच ?

                                       फुटकर व्यापर मैं विदेशी निवेश से  लाखो लोगो को रोजगार मिलने के दावे में कितना सच हैं ,इसका पता वालमार्ट के ही कागजो से चलता हैं ।इस विदेशी दात्याकर कंपनी की स्थापना 1962 में सम वाल्टन द्वारा अरकंसास राज्य में हुई ।यह  united  states of अमेरिका  के पचास राज्यों में से काफी पिछड़ा राज्य हैं ।जंहा सिटी कौंसिल और राज्य के लेवल पर राजनैतिक एवं प्रशासनिक नेतृत्व को आसानी से प्रभावित किया जा सकता हैं ।इस दक्षिण में बसे राज्य में कुछ मुठी भर पैसे और प्रभाव वाले लोगो की ही चलती हैं ,लगभग 90प्रतिशत  जनता की आवाज को राजनेताओ और धनपतियो के  काकस द्वारा नियंत्रित रखा जाता हैं ।यही कारन हैं की इन स्थानों में '''जनहित''का लेवल लगा कर कुछ भी किया जा सकता हैं ।चाहे  वह मामला पर्यावरण का हो अथवा जनता के स्वस्थ्य और सुरक्षा से सम्बंधित हो , सभी मामलो को छेत्र में ''नए रोजगार के अवसर '''के नाम पर पेश कर दिया जाता हैं ।                                                                                
                                                                                   आब बात करे  वालमार्ट द्वारा भारत में निवेश के उपरांत रोजगार के अवसर सुलाभ हनी के --में कुछ तथ्य सामने रख रहा हु ।दुनिया में वालमार्ट के कुल 8500रिटेल  स्टोर  हैं , जिनमें  कुल 21 लाख लोग कार्यरत हैं ।इस संख्या में मेक्सिको के वाल्माक्स और ब्रिटेन के aasda  तथा भारत में चल रहे बेस्ट price स्टोरों की संख्या शामिल हैं ।अब अगर हिसाब लगाये तो प्रति स्टरे 248 लोगो को ही नौकरिया मिल पाएंगी ।जबकि इस प्रस्ताव के समर्थको द्वारा इन निवेसो से लाखो लोगो को रोजगार मिलने का ''दावा ''किया जा रहा हैं ।फिलहाल भारत के 53 महानगरो में ही इन स्टोरों को खोलने की योजना हैं ।प्रति स्टरे पर ऊपर दर्शाए गए हिसाब से मात्र 13,094 लोगो के लिए काम के अवसर  सृजित हो सकेगे । विदेशी निवेश की शर्त के अनुसार एक मल्टी  ब्रांड प्रोजेक्ट में कम से कम 500  करोड़  का निवेश जरूरी होगा । इसमें से आधा अर्थात 250 करोड़ ''बैक एवं मूलभूत {INFRASTRUCTURE } सुविधाओ में लगाना होगा ।इस का मतलब यह हुआ की वे भवन और गोदाम के नाम पर कम्पनी  स्थाई  सम्पति खरीदेगी , तथा आपनी बैलेंस सीट में में उसे जोड़कर अपने निवेशको को बुद्धू  बनायेंगी ।इधर भारत के खुदरा बाज़ार में काम कर रहे चार करोड़ लोगो का काम छिन  जायेगा ।जन्हा तक किसान को वाजिब दाम मिलने की बात हैं तोउसकी कहानी  उत्तरी अमरीका के किसानो से जाना जा सकता हैं ।जंहा  इस कम्पनी के चरण पड़  चुके हैं ।
                                                           एक तरह से बड़े  बाधों और औदोगिक कल कारखानों की स्थापना  के नाम पर विकास  की यात्रा में कैसे '''भूमिपति'' कंगाल बनजाता  हैं ,और समर्थ लोगो का आर्थिक रूप से गुलाम बन जाता हैं ।उसी प्रकार तेरह हज़ार लोगो को काम पर वर्दी में आने का हुकुम सुनाकर , खरीदने की शक्ति रखने वाले  वर्ग को जो देश की आबादी का दस प्रतिशत हैं उसे एक अहंकारी  व्यक्ति में बदल देगी ।जो अपने ही लोगो का दुश्मन बन जायेगा । एक फ़िल्मी गाना याद आता हैं ''साला में तो साहेब बन गया '''।इस लिए सभी समझदार लोगो को  इस फैसले का विरोध करना होगा ,नहीं तो हम फर आर्थिक गुलामी फंस जायेंगे ।।।

केजरीवाल की क्यों और कारवाई का सच ?

             केजरीवाल की क्यों और कारवाई का सच ? वास्तव मैं भ्रस्टाचार  के विरुद्ध एक आन्दोलन हुआ करता था ---अन्ना हजारे  का , जिसे कुछ सरकारी नौकरी से छुट्टी पाए कुछ लोगो ने तथा वकील पिता -पुत्र ने अपनी जेबी संस्था बनाने का सफल प्रयास किया ।परन्तु अन्ना ने अपने को इन ''अभिजात्य' लोगो से अपने को अलग कर लिया । फिर भी नेता बनने  के इन पूर्व अधिकारियो ने राजनितिक दल बना लिया .                                 

                      जिसका मुख्य आधार एक हैं ----'''पोल  खोल ''
                      उद्देश्य हैं जिसका --------मीडिया की सुर्खियों में बने रहना   
                      तरीका -----खुद की उपलब्धि के बजाय -दूसरे को गाली देना 
                       राजनीती ----जंतर -मंतर पर बैठक ,धरना,अनशन  आन्दोलन
                       शंखनाद ----हमसे  अच्छा  कोई नहीं  बाकी सब '''बेईमान '''
               
  1.          एक बयान   में अरविन्द केजरीवाल और                                                                                                                 वकील प्रशांत भूषण ने सोनिया गाँधी                                     के दामाद रोबेर्ट वाड्रा पर आरोप लगाया हैं  की  उन्होने तीन साल में  पचास  लाख    रुपये  कमाए  हैं ।यहसब एक बिल्डर कंपनी डी  एल  ऍफ़  के साथ मिल कर उन्होने किया . ।वकील प्रशांत    के पिता शांति  भूषन  ने तो सीधे कारवाई करने की मांग की हैं ।लेकिन यह नहीं बताया की किन  धाराओ  के तहत ऐसा करना हैं ?आरोप यह हैं की बिल्डर कंपनी ने रोबेर्ट को बिना गारंटी के 65 करोड़ रुपये का कर्ज दिया ।इस के पूर्व रोबर्ट की कम्पनी की पूंजी मात्र 50  लाख  रुपये ही थी ।  इतना ही नहीं डी  एल ऍफ़  ने उन्हे सस्ती दरो पर संपतियां सुलभ करा यी   । अब इस चौकड़ी का एतराज इस बात पर हैं की यह सब सोनिया का रिश्तेदार होने  के कारन हुआ  ,क्योंकि  हरियाणा और हिमांचल की सरकारों ने राजनीतिक दबाव में ऐसा किया ।वे भूल गए की हिमांचल में भारतीय जनता पार्टी की सरकार हैं ।न की कांग्रेस की ।अब अगर हिमांचल की सरकार  ने भी सोनिया के दामाद को लाभ पहुँचाया तब तो उन्हे धूमल के विरुद्ध भी मोर्चा खोलना पड़ेगा ।           
  2.        वकील        भूषण एंड भूषण के अनुसार उनके आरोप अंतिम सत्य हैं ,इसलिए उस पर करवाई करते हुये  10 जनपथ के खिलाफ कारवाई  करने की मांग की ।अब सवाल हैं की अगर आयकर विभाग  से हटाये  गए एक कर्मचारी के कथन पर मुकदमा  चलाया जाए तब तो ऐसे मुकदमें बहुत हो जायेंगे ,और कानून का राज्य समाप्त हो जायेगा ।क्योंकि केजरीवाल से  हैसियत में काफी बड़े लोग और नेता  रोज एक -दूसरे पर आरोप लगते हैं ---पर जिस पर आरोप लगता हैं वह जांच की मांग करता हैं जो वैधानिक भी हैं ,इन स्थितियों में केजरीवाल और भूषण एंड भूषण का दावा तो तभी कुछ ''लायक'' हो पायेगा जब वे जनता पार्टी के नेता  स्वामी की सलाह मान कर एक ''जनहित'' याचिका  दायर करना चाहिए , तभी उनके कहने का कुछ अर्थ  निकलेगा । वरना  मीडिया के लिए एक और शगूफा ही साबित होगा ।



                                 

Oct 3, 2012

तेल कंपनियों के घाटे का सच बैलेंस शीट मैं फायदा और बयान में घाटा

तेल कंपनियों को हो रहे घाटे  का नाम लेकर केंद्र सरकार ने रसोई गैस के सिलेंडरो पर मिलने वाली सरकारी सहायता में कटौती कर के आम आदमी के लिए घर के खाने का खर्चा  बड़ा  दिया हैं । पर इन तेल कंपनियों के सालाना खर्चे के हिसाब -किताब में 2011-12 में इंडियन आयल कंपनी ने टैक्स चुकाने के बाद में 3955 करोड़  का फायदा दिखाया हैं ।बी पी सी एल  ने इसी अवधि में 1311करोड़ तथा एच पी सी एल ने इस वित्तीय वर्ष में 911 करोड  रुपये का फायदा दिखाया हैं ।अब इस रिपोर्ट के बाद  केंद्र सरकार  का वादा  तो झूठा साबित हो जाता हैं ।\अब  यह सच तो आम आदमी को केंद्र सरकार के प्रति  और अविश्वास से भर देगा । इस स्थिति  का केंद्र के पास क्या  जवाब हैं ? अभी एक रिपोर्ट के अनुसार  केंद्र सरकार  फिर से गैस के दाम बढाने  की तैयारी  कर रही हैं ।  पेट्रोल और डीजल  पर भी बढोतरी  की तैयारी  चल रही हैं  ।आखिर इन सब बातो का क्या मतलब हैं ?           
                       आम  नागरिक  के मन में संदेह  का बीज  इसलिए पनपा हैं चूँकि इन तेल कंपनियों ने लाभाश के रूप में भारत सरकार  को अरबो  रुपये का भुगतान किया हैं ।फिर उनसे  अनुदान के रूप में वापस उसी राशि को वापस ले लेते हैं ।अब इस तरकीब को क्या कहेंगे ? जनता को मुर्ख बनाने का नुस्खा हैं या फिर  आंकड़ो की बाजीगरी जिसे अर्थशास्त्र  के तहत बजट  का ''नया ''तरीका ! क्योंकि फायदे में चलने वाली एक कम्पनी  को ''घाटा '' ''घाटा '' चिलाने का क्या मतलब हो सकता हैं ?आम आदमी की समझ के बाहर  की बात हैं ।  

                  इसी दौरान एक तथ्य सामने आया हैं की राजस्थान के तेल कुओं का ठेका एक अमेरिकेन कंपनी को दिया गया हैं ,  जिसे  एक बैर्रल कच्चे  तेल का दाम तीन डालर पड़ता हैं पर वह इस की मार्केटिंग  100 डालर  में करती हैं । जो भारत सरकार  भुगतान करती हैं ।अब तीन के दाम सौ दिए जायेंगे ,तो पेट्रोल तो महंगा होगा ही ! लेकिन एक सवाल यह भी हैं की आखिर भारत सरकार  की क्या मजबूरी हैं की इतने  महंगे दामो में तेल खरीदने  की क्या मजबूरी हैं ? अगर सभी सरकारी और निजी तेल कंपनियों की तेल निकालने की लागत देश को बताना होगा ,जिस से देशवासियों को आवगत करना होगा ।नहीं तो आम आदमी के मन में हमेशा सरकार  के प्रति एक संदेह  बना रहेगा ।जो सरकार  के लिए बेहद नुकसानदेह  होगा , क्योंकि अगर सच और और बताये गए तथ्य में  सरकारी तथ्य सही साबित नहीं हुए तो लोगो का गुस्सा फूटना पक्का हैं । जो राजनैतिक रूप से वर्त्तमान केंद्र सरकार के लिए घातक साबित हो सकती हैं .।


   

                 
 

Sep 26, 2012

कहावत हैं की घर का जोगी जोगडा आन गाँव का सिद्ध

                                        यह कहावत खुदरा छेत्र में विदेशी निवेस के मामलें में पूरी तरह से फिट ,बैठती हैं ।यह  इसलिए लिख रहा हुईं की इस मुद्दे पर राजनैतिक दलों का ""पाखंड ""स्पस्ट रूप से सिद्ध होता हैं ।हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में विरोधी  दल के नेता के रूप में भी  ""इस प्रस्ताव ""का मुखर विरोध किया था , जिसका वे आज जी -जान से न केवल समर्थन करते हैं वरन इस मुद्दे को  उन्होने अपनी और पार्टी की प्रतिष्ठा का  सवाल बना लिया हैं ।अब यह जग जाहिर हो गया हैं की जब तक राजनैतिक दल   विरोध में रहते हैं तो जिन मुद्दों को वे देश के लिए ""नुकसानदेह '''मानते हैं ,वे ही देश की जनता के लिये ''अमृत ''  बन जाते हैं जब वे ''सत्ता की कुर्सी पर काबिज'' हो जाते हैं .।इस तथ्य को हम आज की परिस्थिति में पूर्ण रूप से सही पाते हैं ।1998---2004 में जब वे राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी के नेता के रूप में कार्यरत थे तब उन्हे  फुटकर व्यापार  में विदेसी निवेस  खतरनाक लगता था , आज वही देश की ''आर्थिक ''उन्नति के लिए अपरिहार्य लगता हैं !हैं न अचरज की बात ,,दूसरी और भारतीय जनता पार्टी  जो आज इस विषय को करोडो व्यापारियो के धंधे  के लिए खतरा बताता हैं ,,उसकी सरकार ने अटल  बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 2002 में इस छेत्र में 100% विदेसी निवेश की सिफारिस की थी ।सवाल  देश की जनता का यह हैं की वाजपेयी सरकार  का प्रस्ताव किस अर्थ में आज के मसौदे से भिन्न था ?

खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का भद्दा सच

खुदरा व्यापर  में विदेशी  निवेश  की  मनमोहन सिंह  की नीति  का सबसे बड़ा राज यह हैं की  विरोध में बैठे हुए उन्होने राज्य सभा में इसी प्रस्ताव को भारत के लिए नुकसानदेह बताया था । वंही आज जब वे प्रधान मंत्री बन गए तब उन्हे वही  प्रस्ताव देश की आर्थिक उन्नति के लिए सबसे फायदेमंद बता रहे हैं ।लेकिन केवल कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री ही इस पाखंड के लिए जिम्मेदार हो ऐसा नहीं हैं , भारतीय जनता पार्टी और nda  के उसके सहयोगी दलों ने  भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी इस प्रस्ताव पर शत -प्रतिशत विदेशी निवेश का प्रस्ताव लाये थे ।कम से कम कांग्रेस सरकार  ने शत -प्रतिशत  विदेशी निवेश की जगह मात्र सत्तर प्रतिशत की ही भागीदारी की अनुमति दी हैं । 

                                             यह हैं भारत के राजनैतिक दलों का चारित्र ---यानि विरोध केवल इसलिए करना चूँकि सम्बंधित '''मुद्दा'''' उन्होने नहीं उठाया हैं , इस तथ्य से कोई मतलब नहीं की कोई नीति या मुद्दा देश या यंहा की जनता के लिए लाभप्रद हैं .,अथवा हानिकारक ? यह इस एक तथ्य से स्पष्ट हैं की वही राजनैतिक दल जो एक समय फुटकर व्यापार में विदेशी निवेश के समर्थक थे  वे आज पाला बदल जाने से अपने रुख से बदल गए ।क्या  इसे राजनैतिक ""ईमानदारी ""कह सकते हैं ? या राजनैतिक दलों की "अवसरवादिता ""अथवा हठ धर्मिता कहा जाए ? इस से एक बात तो साफ़ होती हैं की इन दलों या इनके नेताओ को आम जनता की कोई परवाह नहीं हैं ।बस येन -केन  प्रकारेण उनके लिए जरूरी हैं बस '''सत्ता '' ! इस एक उदा हरण से यह बात साफ़ हो जाती हैं ।
         
                     अब बात की जाए झगडे की जड़ की --यानी ''वालमार्ट ''जैसी अनेक बड़ी कंपनियों के खुदरा व्यापार में  भागीदारी की । यंहा यह भी जानना  जरूरी हैं की ये वही  कंपनी हैं जो न्यू योर्क और वाशिंग टन में ''अछूत '' मानी जाती हैं यही कारन हैं की दुनिया के इन दो बड़े महानगरो में वालमार्ट  के एक भी '''माल '''     नहीं हैं ., हैं न अचरज की बात ! इतना ही नहीं यूरोप के अनेक देशो में भी वालमार्ट के विरुद्ध  आन्दोलन हुए हैं ।जिसके फलस्वरूप इस मल्टी नेशनल  को अपना  बोरिया --बिस्तर लेकर वापस अमेरिका जाना पड़ा ।आखिर  ऐसा क्या हैं जिस के कारन इनको जनता का  ""कोपभाजन '''बनना पड़ा ?वास्तव में जो दावा किया जाता हैं की इनके आने से लाखो लोगो को नौकरियां मिलेगी और उपभोक्ता को सस्ता सामान मिलेगा ,  वह एक मिथक भर हैं सचाई नहीं . ।उदहारण  के लिए आज मुंबई और दिल्ली के       जो  बड़े -बड़े ''माल '' हैं उनमें  कितने लोगो को नौकरियां मिली हैं .? उसे अगर देखा जाए तो  अमूमन एक औसत दर्जे के माल में ''सेल्स ''के छेत्र में  सिक्यूरिटी आदि मिला कर  भी एक हज़ार आदमियों को काम नहीं मिलता ।फिर किस प्रकार '''लाखो ''नौकरियों और काम के अवसरों का दावा किया जाता हैं ।यंही कारन हैं की वालमार्ट  आपने ही देश में अछूत  बना हुआ हैं ,क्योंकि आप सब को धोखा  दे  सकते हैं पर  जन्हा आप पले और   बड़े हुए हैं वंहा के लोगो से सच  नहीं छुपा सकते हैं । अमेरिका के उन राज्यों में जंहा आबादी कम हैं और वंहा की ''सिटी कौंसिल '''को  बस  में  किया  जा सकता हैं उन्ही स्थानों में इनकी दाल गली हैं ,बाकी जगह नहीं ।ऐसी स्थिति में क्या  केंद्र की इस नीति  का समर्थन करना चहिये ?एक सवाल हैं जिस पर हम सभी को सोचना चहिये ।








 

Sep 24, 2012

Governance or administration -which is priority of elected government ?

      In democracy people choose the government at least for getting the basic amenities , but from last fifteen years it is being observed that the COALITION  governments have given the most of these in the hands of INDIAN MNCs, who are least bothered as to who is leading the government . Because they are sure of their PROFIT and in this they are helped by the Buerocracy   I mean the IAS and other babus .Whether it is field of education or Irrigation Power generation road building  , providing other amenities . All these have been given in the hands of   private  parties . The result is that the common man who have voted them""government"" feels sorry . Let us take an example of New Delhi --where the billing of the Power is been given in the hands of One Ambani company .  Now as we all know that the tarrif of power is fixed by the  Vidyut Niyamak Ayog , but despite this  provision  this billing company is charging unrealistic  amount from the users. The company did not change the RATE but manipulated the implementation  part so nicely that when complained they said ""OH SORRY WE ARE GETTING THE BILL CHECKED >MEANWHILE YOU PAY THE BILL ''' now what one can do ! And Chief Minister Sheila Dixist saying that  if people will not pay the electricity bill then it would amount to CHAOS . . She has not taken the matter with the Billing Company .  Can it be said that she is GOVERNING ?                        
                                                                                    In Chhatisgarah  river named Shivnanth's water was given for exclusively to a steel plant owned by an MP. Latter the order was amended ,but the villagers are  still have to drink the NON-Potable water of the river . When this matter was brought to the notice of Chief Minister then his explanation was that it is the price of development .
                                                                    In Madhya Pradesh  the road s candle has rocked the government and the administration , when INCOME TAX  ENFORCEMENT  team searched a very influential and exorbitantly NEO RICH    then people started talking that  bad the maintenance of road is how bad are they been constructed .  We see that certain roads of the state capital is repaired thrice a year because they fall in the VIParea . Once again the government pleaded helplessness  an promised to take strict action against the  Culprit , but nothing happened.
                                                         In the matter of corruption the government adopts two standards  we can say DOUBLE standards   , one example may suffice my statement AN IAS  couple was raided by IT deptt and hundreds of crore rupees were recovered from their bed room , they were found responsible for corruption ,.But their brethren who were conducting the inquiry   linger on the investigation that it took almost Two years to SACK   them , we read many times that some class four or three employee  caught taking bribe and arrested later sent to jail . But no jail for IAS  even if he is caught with LOTS AND LOTS of money Why . ? that  that
                         My question is that on the name of Peoples Participation  we have witnessed the corruption in road building and house building , on the name of expansion of education or hyigne or for any other reason NGO'S are found squandering  crores of rupees , recently web read the news of the public contribution to India Against Corruption to the tune of TWO CRORES , now it is said that the Anna Hazarey has refused to accept the amount . But where it went MR ARVIND KEJRIWAL  has to explain to 110 crore indians as he used to ask from many Ministers and Politicians.
                                                     What seems to me is that Public Representative have become the tool in the hands of BABU run administration  otherwise so much anomalies would not have occured . This is high time that MLA AND MP'S should consider that  they will ensure the GOVERNANCE and not  bow down tothese babus. Otherwise USSR has  melted because of their  buearacracy  god forbid if the present attitude continues then we may also meet the same fate . .

Sep 19, 2012

Protocol of Death Ceremony

                                 The history of mankind in all the civilizations, is a tale of struggle to Survive and for that  the basic need is food, protection from the harsh nature requiring a shelter and comfort to sleep. But in the entire struggle  man also realises that a time comes for each creature when he is not able to fight --- meaning that he has to sleep forever ----this is called DEATH . In early history men believed that those who have died, will return some day, that is why in some civilizations all the necessities of live were put in a tomb or a cave when a body was interred. Pyramids are a prominent example of this belief.. The Incas on the other hand had a tradition of leaving their dead  in open at high pedestal so that the spirit of the dead could meet the powers that be.

                                                                                     Later on many different rituals evolved, such as cremation in a tomb, consigning the dead to water bodies,  and lastly keeping the dead  in the open We  see that different religions have adopted/adapted one of these rituals for their dead.

After the copper age certain traditions became the identity of particular tribe. If we study the Greek mythology  even their the dead were cremated, for example it is recorded that the King of Troy Priam  went to Greeks and ask the body of his son --so that he could  give him a respectful  cremation,and the enemy allowed the same. Thereafter the body was put on a pyre and fire was ignited by the father. Similarly  in Odyssey  when the Master of the Ship Oak died, his body was put on the ship on a pile of wood  and it was pushed in the sea and from the banks a burning arrow put the fire in the pile. We have an another example of King Arthur, Famous for founding the Round Table, an early start of Aristocracy, who is also supposed to have been given a similar ritual. In Egypt the King, Queen and the  royalty were entombed, while the commoners were were given a sandy grave. In the line of Prophets the most revered is Moses, also known as Kalimullah, meaning "a person who has talked to GOD himself". As the story goes, it was God who gave Moses the tablets containing the Ten Commandments, which formed the basis of the legal and religious tenets for the Jews, Christians and Muslims, though each faith incorporated some changes in the interpretation. However, at no point of time there was a dispute regarding the same.                                                

Sep 12, 2012

जन आन्दोलन अथवा धरना और इन का औचित्य

ओंकारेश्वर  और नर्मदा सागर  बाँध  के विस्थापितों द्वारा  मुआवजा न पाने और जमीं के बदले जमीं की मांग को लेकर किये जा रहे जल-""सत्याग्रह"" में सरकार  ने  खंडवा के लोगो के लिए तो "कुछ"  राहत देने की घोसना की हें ,परन्तु हरदा के विस्थापितों के बारे में   शासन  का रुख काफी सखत हैं ।मीडिया के कुछ भागो में इस दुहरे मानदंड को लेकर  टीका -टिप्पणी  भी की गयी और आलोचना भी हुई हैं । एक स्थान पर लगभग सौ -सवा सौ आन्दोलनकारी थे और हरदा में  भी अंदाज़न  इतने  ही लोग जल के अंदर बैठ कर  जमीं के बदले जमीन  की मांग कर रहे थे । हालाँकि  किसानो की मांग पूरी तरह से जायज़  हैं ,पर सरकारी नियम काफी निर्मोही हैं , अफसर की नज़र में तो "" सब चीज़ की एक क़ीमत  हैं और वह भी  रुपये में "" फिर चाहे वह  रोज़ी हो या आशियाना ""। इसीलिये   देश की सभी विकास की परियोजनायो  में  जमीन   अधिग्रहण  एक असाध्य समस्या बनी हुई हैं ।इस और   ना  ही  केंद्र सरकार और ना  ही प्रदेश सरकारों ने कोई वास्तविक नीति  आज़ादी के साठ  सालो बाद भी  नहीं बनायीं हैं । एक महत्वपूर्ण  मुद्दा यह हैं की ,   विकास  भले ही अंतर -प्रदेशीय हो अथवा राज्य   विषेस के हो  या वह केंद्र प्रवर्तित  महती योजना हो , भूमि तो उस प्रदेश की कम होती हैं  जंहा उसका निर्माण होता हैं ----यही हैं  विकास की  कीमत  जो उस राज्य के लोगो को चुकानी पड़ती हैं ।
                      लोगो का बेघर होना और किसान का मजदूर बन जाना  इस प्रगति के चरण की पहली   बलि हैं, ,जो भाखरा नंगल से लेकर  दामोदर वैली  एवं बहुत सी परियोजनाओ  की कहानी हैं ।गाँव में मैंने  एक कहावत सुनी थी -की जमीन  के अंदर का धन पाने के लिए ""हल का एक बैल या एक पुत्र खोना होता हैं ""आज इतनी सालो बाद विकास की कहानी का यह    सच समझ में आया ।  किसान के खेतो की सिंचाई के लिए पानी का बन्दोबस्त  करने के लिए बड़े बाँध  बनाये जाते हैं ,यही उन किसानो को भी समझाया जाता हैं की ""तुमाहरे ही इलाके में सोना बरसेगा  जब दो - दो फसल काटोगे  ।पर फसल कटने वाले तो बड़े किसान या जमींदार तो इस विकास से दो तरह से मालामाल होते हैं , पहला उनकी किसानी भरपूर  बढ  जाती हैं ,और उनकी जमीनों के दाम सैकड़ो गुना बढ  जाते हैं ।तो आमदनी में कई गुना का इजाफा तो हुआ ही और सम्पति का मूल्य भी अनेक गुना बढ  जाता हैं ।पर विकास की इस वेदी पर जिनका  सर्वस्व स्वाहा  हो जाता हैं , उनकी नियति किसान से मजदूर बन कर इनता -गारा उठाना और अपने इलाके से दर-बदर  हो जाना होता हैं। इतना ही नहींबाँध  से बन ने वाली बिजली की खपत के लिए इलाकें में  बडे -बडे कारखाने  लगते हैं ,  जिसके  लिए फिर एक  बार  कुछ  और किसान की नियति मजदूर बनने की हो जाती हैं ।
                                            अब विकास का फल यानी पानी तो बचे हुएं  किसानो को मिलता हैं , हल -बैल वाले किसान ,फिर ट्रक्टर वाले हो जाते हैं ।उनके  मिटटी के मकान  कांक्रेट  के हो जाते हैं । वे ही  सरपंच  बन जाते हैं और गाँव के विकास के भाग्य नियंता बन जाते हैं ।इस  सारी  प्रक्रिया में गाँव के निवासियों में जो समरसता    मौजूद थी वह स्वाहा  हो जाती हैं ।इन बडे किसानो  द्वारा ही सहरो में दूध -दही बेचा जाता हैं , उनकी सम्पन्नता दिन दुनी रात   चौगुनी बदती हैं  ।गाँव में घोर विषमता  बदती हैं ।सम्पति की रक्षा के लिए समर्थ  लोग बन्दूक रायफल  खरीदते हैं , जिसके सहारे अपना प्रभुत्व जमाते हैं । नक्सल वादी और माओ वादी  इसी विषमता की उपज हैं ।

                                                             यह  था विकास की कहानी का एक पहलु हैं ।दूसरा पछ  फिर आगे की कहानी  बाद में .............
                                                         
                                                          

Sep 10, 2012

क्या सभी सत्याग्रह सही हैं भले ही वह समाज और प्रदेश के लिए नुकसानदेह हो?

                   नर्मदा सागर  बाँध के खंडवा स्थित घोगर गाँव  में सत्याग्रहियों द्वारा जल मैं बैठ कर आन्दोलन करना , उचित हैं की नहीं ,यह एक बहस का विषय हैं .। क्योंकि  10 सितम्बर  को अगर मध्य प्रदेश  सरकार  ने सत्याग्रहियों को  "" जमीन  के बदले  जमीन  "" देने की  मांग  को मंज़ूर कर लिया हैं । आज के ही दिन  तमिलनाडु  के कुदाम्कुनल  आणविक बिजलीघर  मै इधन  भरे जाने के विरुद्ध  लगभग  हज़ार लोगो ने  प्रदर्शन  कर के आक्रोश व्यक्त किया । आब दोनों घटनाओ को मिला कर देखे तो  समझ में आयगा  की विद्युत् उत्पादन  केन्द्रों के विरुद्ध इन  आंदोलनों  के  मध्य  कोई रिश्ता हें क्या ? शायद  लोगो को  मंज़ूर  न हो     पर  हो सकता यह  सत्य हो ।
                                             अगर हम बीते कुछ वर्षो  में  अन्तराष्ट्रीय  स्तर  पर हुई घटनाओ  पर नज़र डाले तो पायेंगे की  अनेक गैर सरकारी  संस्थाएं  विकाशशील  देशो में  पर्यावरण --और  प्रकृति  संरक्षण  के नाम पर सिंचाई  के लिए बनने वाले बाँध  या विद्युत् गृह  के विरोध मैं झंडा उठा लेते हैं । यह केवल एशिया के देशो में ही होता हैं ,यूरोप  के देशो में नहीं । हालाँकि   बड़ी विद्युत् योजनाये  और बाँध  का निर्माण  विकसित  में अधिक हुआ हैं। अगर ये योजनाये  न होती तो न तो इन देशो के खेतो में मन  चाहा पानी नहीं मिलता और नहीं  इनके कारखानों मैं तीनो  शिफ्टो  में बिजली मिलती । पर इन्ही देशो की बड़ी कंपनिया  जब  अरबो रुपये   के टेंडर निकलते हैं --बाँध या  विद्युत् ग्रहों के निर्माण के  इन टेंडर  में  असफल होने पर  इन्ही कंपनियों के इशारे पर  ये एन जी ओ पर्यावरण या प्रदूषित  विकास के नाम पर  जन आन्दोलन  खड़ा करते हें । हाँ  अगर  गलती  से कोई दुर्घटना हो गयी तब तो  इन ''खुदाई खिदमतगारो "" को  मानो  मुंह मांगी मुराद मिल जाती हैं , भोपाल गैस त्रासदी के मामलें मैं इन संस्थाओ ने कई बार ऐसी  स्थिति कर दी  की सर्कार और समाज के लोग भी असमंजस  में पड़  गये  थे ।परन्तु इन स्वयंभू  नेताओ को  तो अपनी  नेतागिरी  चमकने की फिकर ज्यादा थी , जैसे हमारे नेताओ को सच  या झूठ  अथवा  सही गलत से ज्यादा परवाह  होती हैं    ""अपने   वोट बैंक की '' उसी तरह  इन नेताओ को भी  अपनी  नेतागिरी की ज्यादा परवाह थी  बजाय  इसके की वे गैस पीडितो का  भला करें ""   ।कुछ  ऐसा ही इस बार हो रहा हैं ।आखिर क्यों विद्युत् गृहों  के निर्माण में बाधा डाली जा रही ,,जब की देश को 50 हज़ार मेगावाट बिजली की जरूरत हैं ? शायद  फिर भी कुछ लोग कह सकते हैं की  जिन को जमीं से बेदखल  किया गया ,उन के पूर्ण पुनर्वास की जिम्मेदारी भी राज्य सरकार की हैं । पर इस पन बिजली  योजना का लाभ तो सारे प्रदेश को मिलेगा ,तो फिर पुनर्वास की जिम्मेदारी भी सारे प्रदेश की हैं ।अब  इस  बात का क्या जवाब हैं की जिन लोगो ने आज इन के ""मसीहा "" बन कर आन्दोलन चला रखा हैं ,उन लोगो ने ""मुआवजा ""वितरण के समय क्यों नहीं इन मुद्दों को उठाया ? अब जमीन के बदले जमीन  तो शायद मिल भी जाए तो वासी ही मिलेगी जैसी की यंहा के कुछ लोगो को गुजरात में जा कर बसना पड़ा । शायद यही इन आंदोलनकारियो के साथ भी हो सकता हैं ।तब इस आन्दोलन के नेता क्या कहेंगे या क्या करेंगे ? यह भविष्य में देखने की बात होगी ।

Sep 6, 2012

क्या वाशिंगटन पोस्ट का अभिमत उचित हैं ?

अभी हाल में वाशिंगटन पोस्ट में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के बारे में कमेन्ट किया गया हैं की वे "अनिर्णय'' के अवतार हैं;  इतना ही नहीं वे पार्टी के प्रेसिडेंट की कठपुतली  हैं, इतना ही नहीं उन्हे  सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं, जिनके आधीन  सिर्फ घोटाले ही घोटाले  निकल रहे हैं . यह  खबर  टाइम  मैं भी दूसरे ढंग  से लिखी गयी। सवाल हैं की क्या यह एक  टिपण्णी  हैं अथवा  नियोजित प्रचार का अंग ?

अगर  हम जरा अमेरिका  के  राजनितिक इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे की  अमरीकी प्रेसिडेंट निक्सन पर गलत बयानी के लिए  वाटर गेट  काण्ड मैं  महाभियोग  लगा कर उन्हें हटाया गया था , वह भी जब उन्होंने  आपने लिए क्षमादान  का बंदोबस्त  कर लिया  था। इसी प्रकार  राष्ट्रपति  बिल क्लिंटन पर जब महाभियोग  चला तब भी वे क्षमादान का कवच ले कर ही पद मुक्त  हुए थे ।

अब अमेरिकी पत्र -पत्रिकाएँ  मनमोहन सिंह के बारे में घोटाले का आरोप लगा रही हैं , जबकि हकीक़त हैं की उन पर एक भी आरोप नहीं सिद्ध हुआ हैं । वास्तव मैं अमेरिकी लाबी का आक्रोश खुदरा व्यापार और  बैंकिंग तथा बीमा छेत्र मैं विदेशी कंपनियों की भागीदारी को अनुमति  नहीं देने के कारन ही मनमोहन सिंह सरकार  को अनिर्णय और घोटालो के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं ।  हमे प्रेसिडेंट ओबामा की यात्रा  का ख्याल करना चहिये  उन्होंने हमारी सेनाओ मैं विमानों की खरीद के लिए अमेरिकी  कंपनियों की वकालत  की और भारत सरकार  से सिफारिश की और दबाव भी बनाया।

आज उन्हीं औद्योगिक घरानों के द्वारा  यह दुष्प्रचार  किया जा रहा हैं की भारत सरकार ऐसे हाथो मैं हैं जंहा  मुक्त  व्यापार  का गला घोटा जा रहा हैं  क्योंकि  भारत सरकार अपने देशवासियों का हित संरक्षण कर  रही  है, जो कि उसका  दायित्व  है।

अब अगर सरकार के दायित्व निर्वहन में विदेशी सरकार  या वहां की कंपनियों  का हित संवर्धन नहीं होता तो उनका नाराज़  होना स्वाभाविक है। और यही हो रहा है आज जब वहां के धनपतियो की आवाज वहां का मीडिया उठा रहा है और हमारे देश को बेईमान और बेईमानी का अड्डा बता रहा है। अब विचार का विषय है कि क्या हम विदेशो में अपनी इस छवि को जमने देंगे अथवा इस आरोप का खंडन करेंगे ?

Aug 27, 2012

Desh ka madhya yaani madhya pradesh

                                                                                 भारतीयम . कॉम                                                                      
           देश का मध्य यानी मध्य प्रदेश 
     
    प्रत्येक कार्य अथवा स्थिति का  का आरम्भ होता हैं वैसे ही उसकी इति  भी होती हैं ,\। वैसे ही इस स्थिति या  स्थान का एक मध्य भी होता हैं  जंहा  आरम्भ और अंत का मिलन होता हैं ।वैसे ही इस भारत देश के मध्य मैं स्थित हमारे प्रदेश की हैं ।उत्तर प्रदेश --झारखण्ड --छतीस  गड -- महारास्ट्र --राजस्थान -से घिरे हुए इस छेत्र मैं जितनी विविधता भाषा -बोली और खान -पान तथा वेस्भूसा  तथा खानपान की विविधता  यंहा स्पस्ट दिखाई पड़ती हैं ।जैसे उत्तरप्रदेश और झारखण्ड की सीमा से लगे जिले  सीधी -शहडोल--  रीवा आदि की बोली की तुलना हम मालवा छेत्र  की बोली से करें तो पायंगे की दोनों मैं काफी भिन्नता हैं ।इसी प्रकार यंहा के खानपान और पहरावे को देखे तो  जमीं आसमान का अंतर दिखाई पड़ेगा । इसी प्रकार इंदौर -धर -झाबुआ आदि जिलो मैं जो भासा बोली जाती हैं वह राजस्थान की मारवाड़ी से प्रभावित हैं ।यह असर राजगृह -गुना मैं भी दिखयी पड़ता हैं ।भिंड --मुरैना  की बोली अगर आगरा  और इटावा  से मिलती हैं तो बंद और अल्ल्हाबाद की बोली और भासा का असर रेवा मैं स्पस्ट दिखयी पड़ता  है । एक प्रकार से हम पाते हैं की हमारे प्रदेश मैं विभिन्न छेत्रीय संस्कृतियों  का मिलन हैं , एक प्रकार से यह  एक ऐसा पात्र हैं जेंह उपरोक्त सभी भाषा   बोली और संस्कृति के लोग  सामंजस्य  से रहते हैं ।                                                                                                                            .                                                                      गौर करने की बात हैं की आज़ादी के समय सैकड़ो छोटी        बड़ी रियासतों  मैं विभाजित यह छेत्र  बिलकुल अलग -थलग सा लगता था ।परन्तु 1957 मैं वर्त्तमान स्वरुप मैं आने के चालीस साल बाद ही इसे विभाजन की  पीड़ा      झेलनी पड़ी ---छतीस गड के गठन के रूप मैं ।  परन्तु  विकास की यात्रा अनवरत   चलती रही . ।अभी  छतीस गड  के गठन के बाद ही एक बार बोली और संस्कृति के आधार पर पृथक बुंदेलखंड की मांग उठने लगी हैं ।परन्तु वंहा भी एक पेंच फस हुआ हैं --यंहा जिस छेत्र को भावी प्रदेश मैं शामिल करने की बात की जा रही , उसे और उत्तर प्रदेश के   बांदा  -अतरा हमीरपुर  -जालौन-झाँस--ललितपुर                 को मिला कर एक बृहद बुंदेलखंड की कल्पना की गयी हैं ।अब उत्तर प्रदेश का विभाजन तो रास्ट्रीय मुद्दा हैं जो  निकट भविष्य मैं  सुलझाता नहीं नज़र आता हैं ।इसलिए इस मांग को ज्यादा बल मिलेगा इसकी सम्भावना कम हैं ।                                                                                        
                                                                            वैसे राजस्थान को छोड़कर बाकि सभी राज्यों मैं ब्रिटिश राज  था , इसलिए वंहा पर शासन की संस्कृति भिन्न थी , जबकि राजे - राजवाडे  के अदब - कायदे  अलग ही थे  ।परन्तु प्रदेश गठन के बाद यंहा पर अगर ""दरबार "'और ""हुकुम "" या मारवाड़ी संस्कृति ""घडी  खम्भा "" की परंपरा आज भी हैं तो वह कोई अधीनता या दरबारी नहीं हैं ।वरन वह भी एक तरह से  विनम्रता  का ही प्रतिक बन गया हैं . ।जिसके प्रयोग से एक शराफत ही दिखाई पड़ती हैं ।शासन मैं जो निकटता  नागरिको से होनी चहिये  --और जो अंग्रेजो द्वारा शासित प्रदेशो  मैं पूरी तरह से गायब हैं , वह यंहा के राजनैतिक नेतृत्व और प्रशासन के अधिकारियो  के प्रयासों का फल हैं । मैं स्वयं  चालीस सालो तक उत्तर प्रदेश मैं रहा हूँ , इसलिए यह बात मैं दावे  के साथ कह सकता हूँ की  --जो  कुछ भी शासन मैं पारदर्शिता  बची हैं वह इन्ही दोनों  वर्गों के  प्रयासों का फल हैं ।हालाँकि इसके बाद भी समाचार पत्रों मैं और स्वयं सेवी  संस्थाओ के लोग जब यह कहते हैं की  ----प्रशासन निष्ठुर हैं तो मैं अनुभव से यही कह सकता हुईं की ""हुजुर आपने अभी हाकिम का हुकुम कैसे  कहर बरपा करता हैं इसे देखा ही नहीं हैं "" इसका यह मतलब नहीं की  मध्य प्रदेश मैं ""स्वर्ग" बस्ता हैं पर  पडोसी राज्यों से तुलना करें तो बात ज्यदा जल्दी समझ आएगी । यह विरासत किसी एक राजनैतिक दल की सर्कार की नहीं नहीं हैं ,वरन  अगल -बगल से ली  गयी संस्कृति से आई हैं ।                      
                                                                                                                                  यंहा  एक ऐसी  बात का जिक्र  करना जरूरी हैं 1957 मैं प्रदेश के गठन के समय यंहा एक तिहाई आबादी आदिवासी भाइयो की थी जो राष्ट्र की मुख्य  धारा  से काफी दूर थे ।पंच्वार्सिय  योजना मैं उनके लिए विशेस प्रयास किये जाने थे । यह काम  किसी अन्य राज्यों  मैं नहीं होना था ।जबकि झारखण्ड और गुजरात  तथा राजस्थान  तथा ओड़िसा  से  मिली सीमा मैं बसे इन आदिवासी यों  को स्वस्थ्य  -पेयजल और अवागमन      की सुविधा सुलभ करना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी  थी ।जिसे  तब से लगा कर आब तक की सरकारों ने निभाने की कोशिस की हैं ।अब आंकलन मैं   कोई कुछ भी कहे  पर सभी दलों     की सरकारों ने   अपनी जिम्मेदारी  निभाई हैं .।अब कोई दलीय नजरिये से देखे तो  बात दूसरी हैं ।                                                                 पार्ट वन जारी ..........                                                                                                    

Aug 6, 2012

QUO__VADIS of team Anna movement

BHARTIYAM DOT IN

                On 29th of July on this Blog  I have  written that  Anna movement has gone disarray , because it has lost the basic decency in a democratic set-up. By insulting the Newly elected President  of the Republic Mr Pranav Mukerjji they have gone down in the esteem of people who have  some respect for their movement . It was like the "QUO VADIS" meaning which way..... .In the same article  I have mentioned an event of the similar type , in which socialist leader Raj Narain  has protested against the then congress govt. led by Chief Minister Mr Kamlapati Tripathi . That protest rally failed because government did not use any coercive method like arrest - lathi charge etc. . Due to absence of  police action  protest lost its very purpose to attract the attention of the people and press.

                                                                      Similarly Anna was forced to abandon  his movement and Fast unto death  , because administration did  nothing to stop them from what they were doing. Also Government of India declared that it would not have diolouge  with the leaders of the  agitation . And Media which gave the hype to Anna"s movement  have adopted  neutral posture , which has irritated the leaders of the movement. And on being  attacked by the supporters of the Anna media also got upset, which reflected in their coverage of the event . This created  a situation where Jantar-Mantar gave  a deserted look in news papers and on Chanels . The organizers realized that  without resistance  people wont be attracted to their cause .

                 Hence  the Legal  mind of the movement Mr Shanti Bhusan and his son Prasant Bhusan  advised the fellow leaders that for a respectful exit  it would be better if the agitation is withdrawn or called off. The collective wisdom  came out with a ""Brilliant" idea of forming a political party . Throughout the agitation members  of team Anna were lambasting the political parties and their leaders from the dias , and from same dias they announced the formation of a political party ------should we term it a solution or suicide ? 

Jul 28, 2012

ANNA KA ANDOLAN KIS DISHA KO ?

हर प्रजातान्त्रिक  देश का  संविधान -झंडा-राजचिन्ह  उसकी सर्वभौमिकता  की पहचान होती हैं ,पर येप्रतीक हैं  पर जीवंत प्रतिनिधि  होता हैं वंहा का  का राष्ट्रपति  जो उसकी सार्वभौमिकता  की पहचान होता हैं .इसी लिए देश के सभी सरकारी दफ्तरों मैं उसका  चित्र  लगाया जाता हैं , जो उसके प्रति रास्त्र के सम्मान का प्रतिक हैं . .इसलिए  इन प्रतीकों  के प्रति असम्मान अथवा अपमान  दिखाने   पर सजा  का कानून हैं . पर अगर कुछ कुछ  मदांध लोगो का समूह  आपने को कानून से ऊपर समझ कर सरे -आम राष्ट्रपति के चीत्र को पैरो के तले कुचल कर पदासीन व्यक्ति को बेईमान बताये तो किया यह कानून का उल्लंघन नहीं हैं ?अन्ना  की टीम के लोगो ने जिनमें केजरीवाल -किरण बेदी ऐसे लोग शामिल हो तो उन्हे इस सत्यता का ज्ञान तो जरूर होगा  फिर उनके द्वारा प्रधानमंत्री के कार्यालय के बाहर  इस प्रकार की हरकत करना भ्रस्ताचार  आन्दोलन की किस कारवाई  का संकेत हैं ?   हकीक़त  मैं   सरकार  से  छुट्टी पाए और कुछ एक तो  वसीका  वसूल रहे स्वयंभू  लोगो का घमंड ही इस हरकत के मूल मैं हैं .विगत कुछ समय से आम जनता भी इनके  बयानों और उसमें झलकते   विरोधभासो  से उब चुकी हैं . इसीलिए इस बार जंतर -मंतर पर भीड़ के लिए योग शिशक  रामदो को निमंत्रण  दे कर बुलाया था . परन्तु अन्ना की टीम और और रामदेव की आकांषा  मैं  काफी टकराव हैं  इसलिए  फ़िल्मी कलाकारों की तरह भीड़ उनके आने पर आई और उनके मंच से चले जाने के बाद गायब हो गयी                                                                                  
           अब खली मैदान में किस को भासण  सुनाये ?समस्या यह बहुत बड़ी थी , आखिर मीडिया की सुर्खियों मैं रहने के लिए इन्हे कुछ तो करना ही था .यंहा ऐसी ही हालत से मिलता - जुलता एक घटना याद आ गयी , उत्तर प्रदेश मैं कमलापति त्रिपाठी मुख्या मंत्री थे , प्रखर समाजवादी नेता राज  नारायण ने एक बड़े आन्दोलन के लिए लखनऊ मैं  प्रदेश भर से कार्यकर्ताओ को बुलाया था .लगभग  पांच -छः हज़ार  लोग एकत्र हुए , आन्दोलनकारी विधान सभा के सामने आने वाले थे सरकार की परेशानी थी ,जैसी आज हैं . कमलापति जी ने जिला प्रशासन से कहा आंदोलनकारियो को नियंत्रण मैं रखने के भरपूर  बंदोबस्त किया जाये ---पर गिरफ़्तारी न की जाए . छल यह थी की आयोजको के पास इतनी भीड़ को खिलाने का इंतजाम नहीं था , यह बात पता चल चुकी थी .जब ""नेता जी ""जैसा की राज  नारायण जी को कहा जाता था ने देखा की आंदोलनकारियो को न तो गिरफ्तार किया जा रहा नहीं पुलिस लाठी  चला रही हैं तो उन्होने गुस्सा हो कर अफसरों से कहा की गिरफ़्तारी क्यों नहीं हो रही हैं ? तब पुलिस  अफसरों ने कहा हम आपको गिरफ्तार नहीं करेंगे  आप नारे लगाये -धरना दे .आब नेता जी को चिंता हुई की इन आंदोलनकारियो को खाना कंहा से खिलाएंगे , असमंजस मैं उन्होने pwd  के मुख्य अभियंता के दफ्तर मैं जा कर यकायक सामान तोडना शुरू किया  फिर तो पुलिस को उन्हे गिरफ्तार करना पड़ा .उसी दिन शाम को उन्हे रिहा कर दिया गया ..वे सीधे मुख्य मंत्री .के पास पहुंचे और कहा की आपने मुझे मरवा दिया अब इतनी लोगो का खाने का प्रभंद कान्हा से करूँ ?त्रिपाठी   जी ने कहा आन्दोलन आप ने किया हम खाने का  प्रबंध क्यों करे ?नेता जी बोले आप सरकार  हम विरोधी दल के लोग प्रदर्सन करेंगे तो जेल जायेंगे जेंह हमे खाना मिलेगा , इस पर त्रिपाठी जी ने हंसते हुए कहा  इसीलिए  हम ने गिरफ़्तारी पर रोक लगायी थी हमे मालूम था की सुबह चन्ना खिलाकर सब , को विधानसभा  ले आये थे की दोपहर और रात का खाना तो जेल मैं मिलेगा  ना , नेता जी चुप थे .फिर बोले हमने अपना काम किय आपने अपना अब कुछ बंदोबस्त करिए .फिर त्रिपाठी जी ने आंदोलनकारियो के खाने   का प्रबध कराया . जाते जाते राज नारायण जी ने कहा ""गुरु तू गुरुघंटाल  हैं .कहने का मतलब कभी कभी विरोधी दौड़ा कर थका देना जरूरी होता हैं .हमेशा लाठी ही नहीं चलाना चहिये .अब अन्ना की टीम दौड़ कर दौरा करने पर उतर आई हैं पहले जंतर-मंतर को ही ""शक्तिस्थल ""समझ बैठे थे अब इधर -उधर भाग रहे हैं ,              

BHARTIYAMDOTIN  

Jul 23, 2012

Satyavadi kaun Dr Ka;lam ya Subramaniyam Swami

भारत की  राजनीती मे  इस समय कुछ स्वयंभू  ""निर्णायक ""अवतरित हुए हैं . वैसे  इन महानुभावो की  हाजिरी पिछले  कुछ समय से  अनुभव की जा रही हैं .यह त्रिमूर्ति  हैं --सुब्रमनियन स्वामी   एवं  योग सिशक  रामदेव तथा  भ्रस्ताचार  हटाने की मुहीम के स्वयंभू  दावेदार  केजरीवाल और पिता -पुत्र शांति भूसन -प्रसंत भूसन . अब यंहा पर एअक -एअक के दावे की सच्चाई की परख करने की कोसिस की जाएगी . डॉ स्वामी ने एक टीवी  चैनल  मैं दिए गए intervew  मैं कहा की  डॉ   कलाम  ने  अपनी नव प्रकाशित पुस्तक टर्निंग  पॉइंट मैं यह ""झूट  दावा किया हैं की श्रीमती सोनिया गाँधी  ने कभी भी स्वय  प्रधान मंत्री बनने की इच्छा नहीं व्यक्त की थी"" . सत्य तो यह हैं की जब मैने उनकी नागरिकता के बारे में सवाल उठाया तब  कलाम ने सोनिया को शपथ दिलाने से इंकार कर दिया था . स्वामी ने तब यह कहा था की सोनिया जन्मजात भारतीय नागरिक नहीं हैं इसलिए वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकती . .गौर तलब हैं की उनके दावे के काफी समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट इस बारे में फैसला सुना चूका था की सोनिया गाँधी भारत की नागरिक हैं और उन्हे वे सब अधिकार हासिल हैं जो अन्य नागरिको को हैं"" . भारत के संविधान में स्पस्ट हैं की कोई  भी भारतीय नागरिक देश का प्रधान मंत्री बन सकता हैं .अब सवाल हैं की झूठा कौन ? एक व्यक्ति जिसको देश का  भूतपूर्व राष्ट्रपति हनी का गौरव प्राप्त हैं अथवा एक नेता जिसने अपने राजनितिक जीवन काल में कम से कम पांच बार पार्टी बदली और ""अपने कथन ""से मुकरजाने का रिकॉर्ड हैं  ?जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी फिर जनता पार्टी का सफ़र करने वाले  स्वामी कितना सच  बोलते हैं यह अधिक लोगो को मालूम हैं . एवं डॉ कलाम की तुलना में तो उन्हें कोई भी विस्वसनीय  नहीं मान सकता .                                                                                                                                                                      दुसरे महानुभाव हैं योग . की  क्लास लेने वाले  ""बाबा   कहलाने का शौक  रखने वाले रामदेव , हॉल ही में उन्होने भोपाल में सागर इंस्टिट्यूट के विद्य्राथियो  से कहा की बहुत पडने -लिखने से आप लोग प्रधानमंत्री की तरह फिसड्डी बन जाओगे . अब इंजीनियरिंग के छात्रो   से यह कहना की अधिक अध्ययन  "फिसड्डी " बनाता  हैं कहा तक तर्कसंगत और उचित हैं यह मैं पाठको के विवेक पर छोड़ता हूँ .आखिर योग का एक अर्थ  जोड़ना भी होता हैं ,अर्थात विद्यार्थी अपने को समाज से न जोड़े वरन ""बाबा" से जुड़े . कँहा  की समझदारी हैं ? इन तथाकथित बाबा जी को अगर हम गेरुआ वस्त्र पहने के कारन सन्यासी माने तो यह सच्चाई  के विपरीत होगा क्योंकि इनके पास दवा      बनाने का उद्योग हैं  जिसकी पूंजी आय कर विभाग के अनुसार 5 हज़ार करोड़ रुपये की हैं .अब इन्हे दवा  बनाने वाला उद्योगपति कहा जाये  या नहीं यह सवाल भी मैं पाठको के ऊपर छोड़ता  हूँ                                                                                                                                                        एक  तीसरी  तिकड़ी हैं हैं भ्रस्ताचार हटाओ की मुहीम के स्वंभू मसीहा अरविन्द केजरीवाल -किरण बेदी -मानिस सिसोदिया  जो अपने को  अन्ना हजारे  का खुदाई खिदमतगार  साबित करने मैं जुटे हैं .सरकारी पेन्सन याफ्ता लोगो की इस टीम मैं कुछ  गैर सरकारी स्वक्षिक संस्थाओ के साथ ही वकील पिता -पुत्र  {शांति भूसन एवं प्रशांत भूसन } भी हैं . जो वकालत से ज्यादा देश को शिक्षित करने मैं लगे हैं . इस टीम ने निर्वाचित राष्ट्रपति  प्रणव मुखेर्जी को भ्रष्ट वित्त मंत्री बताते हुए दावा किया हैं की वे उनके भ्रष्टाचार  के सबूत  सुप्रीम  कोर्ट  के सामने रखेंगे , कुछ ऐसी ही बात राष्ट्रपति चुनाव मैं पराजित गैर कांग्रेसी प्रत्यासी  संगमा साहेब भी कह रहे हैं . अर्थात अगर हम सीधे तरीके से गद्दी पर नहीं कब्ज़ा कर सके तो हम तुम्हे भी चैन से  शपथ नहीं लेने देंगे . इस टीम मैं  अपनी पराजय मंजूर करने का  साहस  नहीं हैं . लोकपाल के मुद्दे पर जब केंद्र की सर्कार को हिलाने मैं असमर्थ  रही यह चौकड़ी आब मीडिया के सहारे सिर्फ कीचड  पोतने  मैं जुट गयी हैं . क्योंकि  अब हजारो की भीड़ की जगह सिर्ग सैकड़ो और कभी कमरे मैं बैठे चालीस -पचास लोगो पर ही संतोष करना पड़ रहा हैं  . अब खिसियाहट तो होगी ही . इनके बारे मैं भी फैसला  पाठको पर छोड़ता हूँ . भारतीयमडोट इन 

Jul 15, 2012

chunavo ki shudhta evam rajya dwara vittiya sahayta

BHARTIYAM.IN                        चुनाव की शुद्ता  और सरकारी वितीय  सहायता  एक  नज़र   मैं लगता हैं जैसे  सारी समस्या की जड़ मैं चुनाव मैं  होने  वाला व्यय ही भ्रस्ताचार की जड़ हैं .परन्तु  गंभीरता से देखे तो ऐसा है नहीं . क्योंकि हॉल ही मैं छपी रिपोर्ट के अनुसार  सभी पार्टियाँ  एक हज़ार करोड़ के आसपास   की मालदार हैं .छेत्रिय  पार्टिया जैसे बहुजन समाज की भी थैली मैं 2011-12 मैं 424 करोड़ रुपये थे . हालाँकि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और अन्ना डी ऍम  के तथा तृणमूल एवं शिवसेना  जैसी पार्टिया भी सैकड़ो करोड़  की मालिक हैं . अ ब सवाल हैं की किया धन की प्रचुरता इन राजनितिक पार्टिया को चुनावो मैं गैर कानूनी कदम उठाने से रोकेगी या और बढावा देंगी ? अगर समाचारपत्रों मैं जो कुछ धन राशी  बताई गयी या जिस का दावा अपने बयानों मैं नेताओ द्वारा   किया गया   वह सही हैं तो इन पार्टियों को तो  दस हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा  का मालिक होना चहिये , परन्तु अगर इन पार्टियों के नेताओ से सच जान ने की कोशिस की गयी तो सभी चुनावो मैं होने  वाले खर्चो  का रोना शुरू कर देगे . निर्वाचन आयोग  ने  लोक सभा के प्रत्यासियो के लिए 25 लाख  एवं विधान सभाओ के लिए 12 लाख रुपये व्यय  किया जन निर्धारित किया हैं . परन्तु  लोक सभा के 545 सीटो के लिए  ही एक  पार्टी को 13,625 करोड़ रुपये चाहिए , पर इस हिसाब से तो   कांग्रेस पार्टी केवल 66 लोक सभा सीटो  पर और भारतीय  जनता पार्टी  34 पर तथा बहुजन पार्टी मात्र 17 सीटो  पर ही अपने संसाधनों  से चुनाव  लड़ सकती हैं ! पर किया हम सब इस सत्य को मंज़ूर  कर सकते हैं .  शायद  नहीं ,क्योंकि अगर कल लोकसभा के चुनाव घोषित हो जाएँ तो कोई भी पार्टी  इसे  अन्यथा  नहीं लेगी . फिर वित्तीय संसाधन कन्हा  से आयेंगे   ? कोई भी   पार्टी सैकड़ो उम्मीदवार  उतारेगी , कुछ आपने दम और पैसे से भी चुनाव लड़ेंगे , पर उनका प्रतिशत अल्प  ही हैं .  वैसे भी सिर्फ  फुट  बोर्ड या   नाम मात्र की राजनितिक पार्टियों  के भी एक दो सांसद तो होते ही हैं .  ऐसे मैं  यह  समझना  की सभी राजनितिक दलों  द्वारा त्राहि - त्राहि की जाएगी  . पर ऐसा नहीं होगा क्योंकि  सभी डालो के पास ""अंतर्यामी""की मदद  पकी  हैं .

                                       

chunavo ki shudhta aur sarkari vittiya sahayta

                                              चुनावो की शुद्धता  और  राज्य द्वारा धन सुलभ कराये जाने का मसला काफी समय से  

Jul 13, 2012

                                                           Kalam kay kalam, part two                                     Turning  Point  किताब  मैं पूर्व राष्ट्रपति  कलाम  साहेब ने एक बहुत  बडे मुद्दे पर बेबाकी से अपनी रॉय दी हैं  वह हैं आतंरिक सुरक्षा के मसले पर उनका कहना हैं की इस विषय मैं सारे अधिकार  केंद्र के आधीन होना चहिये क्योंकि यह बहुत संवेदनशील मसला हैं . जिससे देश  की सुरक्षा को संकट हो सकता हैं , अभी यह मसला काफी चर्चा मैं था  ,जब रास्ट्रीय सुरक्षा  सम्बन्धी प्रस्तावित  बिल का सभी गैर कांगेरसी राज्यों के मुख्यमंत्री लोगो ने राजनैतिक आधार पर यह कहते हुए विरोध किया की यह संविधान के संघीय स्वरुप  की भावना के विरुद्ध हैं . क्योंकि प्रस्तावित  बिल के अंतर्गत  संदिग्ध  आरोपियों को बिना राज्यों को बताये बता गिरफ्तारी  की जा सकती हैं , इसी मुद्दे को लेकर प्रदेश की सरकार  को  यह एतराज था की शांति -व्यवस्था  का विषय राज्य सूचि का विषय हैं फिर केंद्र इस मसले पर कैसे कानून  बना सकता हैं ?राज्यों  ने कहा की केंद्            सरकार  गैर जरूरी कदम राजनातिक   उद्देश्य  से ला रही हैं . आखिरकार यह बिल लाने से  केंद्र सर्कार पीछे हट गयी . हालाँकि लस्कर और अल-कायदा  जैसे आतंकी संगठन  देश मैं  आये दिन धमाके  कर रही हैं .ऐसे मैं  सारी  आवाजे  देश की  सरकार के विरुद्ध विष वामन  कर रही हैं , फिर किस प्रकार  केंद्र सरकार  बिना  कानून के आपराधियो  को गिरफ्तार करे . अभी हाल मैं  ही मध्य प्रदेश मैं सिमी  के सरगना  को पुलिस  सजा दिलाने मैं विफल रही , क्योंकि सभी गवाह  अदालत मैं पुलिस  को दिए गए बयां से पलट गए . अब  अदालत  को तो सबूत चहिये  फिर मामला चाहे देश की सुरक्षा हो या गिरहकटी  का ! फिर भी कलम साहेब ने ऐसे मुद्दे पर अपने विचार स्पस्ट कर दिए . अब कोई कुछ भी कहे , हाँ  यंहा सुब्रमनियम  साहेब ने दावा किया की  कलम ने सोनिया गाँधी के बारे मैं गलत बयानी की हैं ,उनके अनुसार  चूँकि उन्होने सोनिया की नागरिकता पर सवाल उठाया था इसलिए कलम ने उन्हे प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलाने से इंकार कर दिया था , अब कोई इस  बेपेंदी के नेता की बात को सच माने   या राष्ट्रपति    पद सम्हाल चुके अ.प.ज.कलम   की बात को माने ?फैसला  पाठको के ऊपर छोड़ता हूँ .                                                                                                               दूसरे  सुझाव मैं उन्होने  कहा की  विकास के कार्यक्रमों  से सम्बंधित सभी योजनाओ के बारे मैं वित्त सम्बन्धी  सभी अधिकार  राज्यों को दिए जाने चहिये . क्योंकि आखिरकार  इन योजनाओ  को लागू करने का काम  राज्य की सरकारे  ही करती हैं . अतः इनकी  फुंडिंग  के बारे मैं केंद्र स्पस्ट फ़ॉर्मूला बनाये . यह भी कहा की एअक केंद्रीय आयोग बने जो केंद्र से गरीबी हटाने और  इस से सम्बंधित कार्यक्रमों  को संसाधन उपलब्ध करने के लिए  जमीनी स्तर पर भौतिक लक्ष्यों की उपलब्धि को आधार बनाये  अपने दस सूत्री सुझावों  मैं आगे उन्होने  केंद्र और राज्यों मैं होने वाली निउक्तियों  के लिए एक विसेस आयोग बनाये जाए  जो  लोकसेवा आयोग की भांति लोगो का चयन करे . 

Jul 12, 2012

Kalam kay kalam kitney uchit ?

                         Kalam kay kalam kitney uchit ?                                      डॉ अपज कलाम की नयी पुस्तक  turning  points  के 153 पेज पर  उन्होने कुछ सुझाव दिए है जिनके द्वारा भ्रस्ताचार और कुशासन को दूर करने के सुझाव हैं , परन्तु कुछ सुझाव काफी  आव्यहरिक  हैं . उन्होने यह माना  हैं की केन्द्र  या राज्यों मैं  मिलीजुली सरकारों का बनना  कुछ राजनैतिक कारणों से  जरूरी लग रहा हैं , ऐसे मैं सरकारों की स्थिरता 
एक अहम्  मुद्दा  हैं . परन्तु जेंह किसी एक जन प्रतिनिधि द्वारा दलबदल  को गैरकानूनी करार दिया गया हैं वही  साझा सरकारों के दलों        द्वारा अकारण समर्थन वापस लेने से सरकार   आस्थिर हो जाती हैं  एसे  मैं भ्रस्स्ताचार  की आशंका बढ  जाती हैं . इसलिए दलबदल  निरोधक  कानून का प्रयोग जरूरी हो जाता हैं . यह सुझाव  जंहा  स्वागत  करने योग्य हैं . वही एअक अन्य सुझाव मैं  उनका कहना हैं की एक संविधान संसोधन द्वारा  मंत्रिमंडल  के एक  चौथाई  सदस्य  एक्सपर्ट  होने  चहिये  और वे गैर सदस्य हनी चहिये . अब यह प्रथा  switizerland  के संविधान मैं हैं ,वंहा  मंरिमंडल के सदस्य  सदन के द्वारा चुनी जाते हैं पर वे सदन के सदस्य नहीं होते हैं . वे नियत समय तक अपना पद धारण करते हैं .उनके द्वारा लाया गया बिल पास नहीं  होने  पर उन्हे पदत्याग नहीं करना होता . budget  मैं कटौती प्रस्ताव के पास होने  पर  उन्हे त्याग पत्र नहीं देना पड़ता ना ही सर्कार गिरती हैं ,वह तो नियत  हैं . पर किया हिंदुस्तान  मैं ऐसा हो सकता हैं ?जब तक सभी रास्ट्रीय और छेत्रिय दल राजी नहीं होते तब तक यह लक्ष्य नहीं प् सकते . एक सुझाव यह भी हैं की   स्पीकर  को यह अधिकार हो की वह सदन की कारवाही मैं बार बार बाधा डालने वाले को स्वयं निलंबित कर सके   या निकाल  सके  उन्होने धवानिमत को तुरंत समाप्त  करने तथा सभी विध्हायी  कार्यो पर कोउन्तिंग करने की व्यस्था का सुझाव दिया हैं . उनके अनुसार हर मंत्री आपने विभाग के तर्गातेस के बारे मैं सदन को बताये  और वार्षिकलक्ष्य  के बारे मैं  ब्यौरा सदन मैं दे . जब तक सदन आपना पूरा कार्य सम्पादित न कर ले तब तक स्थगन नहीं किया जाए .अब इन सुझावों को तो अन्य पार्टिया तो किया ममता बन्नेर्जी की पार्टी भी नहीं मंज़ूर करेगी .


                                                

Apr 23, 2012

INDIA IS UNION AND NOT A FEDERAL STATE PRT. ONE

DOES THE DEMAND OF STATES OF WANTING MORE POWERS                                                                      RECENTLY  THE STATE CHIEF MINISTERS ,MOSTLY RATHER ALL OF THEM WERE NON-CONGRESS RULED STATES , THEIR DEMAND WAS THAT ON THE NAME OF RESTRAINING THE TERROR ACTIVITIES , CENTRAL GOVERNMENT IS TRYING TO  IN THE MATTERS OF STATES. INTERFERE    IN THE STATES POWER OF MAINTAINING THE LAW AND ORDER. HERE ARE SOME QUESTIONS , STATE GOVERNMENTS ARE USING THE I.P.C. AND CR.P.C. WHICH ARE GIVEN BY THE GOVERNMENT OF INDIA , THEN FIRST THEY SHOULD DENY OR GET AMENDMENTS OF THEIR LIKINGS. SIMILARLY THE ARTICLE OF CONSTITUTION  355 IMPOSES THE RESPONSIBILITY ON THE UNION GOVERNMENT AND NOT ON THE FEDERAL GOVERNMENT             TO MAINTAIN THE CONSTITUTIONAL SET UP IN THE STATES AND IF THE STATES FAILS TO MEND THE WAYS THEN THE UNION GOVERNMENT HAS THE POWER TO INTERFERE  IN THE MATTERS OF STATES .UNDER ARTICLE 353 THE UNION  GOVERNMENT HAS THE POWER TO DECLARE THREE TYPE OF EMERGENCY ---IF THE BORDERS OF THE COUNTRY IS THREATNED , SECONDLY -IF THEIR IS A SITUATION IN ANY STATE WHERE THE CONSTITUTIONAL SET UP IS NOT BEING FOLLOWED THEN THE UNION GOVERNMENT CAN DECLARE INTERNAL EMERGENCY,AND FINNALY TO COMBAT FINANCIAL CRISIS UNION GOVERNMENT CAN TAKES MEASURES WHICH IT THINKS PROPER..AND UNDER ARTICLE 356 THE UNION GOVERNMENT CAN DECLARE THE ""IN FAMOUS""EMERGENCY IN THE ENTIRE COUNTRY , GIVING THE AUTHORITY TO CURB THE CIVIL SET UP TILL THE TIME THE PROBLEM IS OVER . 356 PROMULAGATION HAS BEEN RESTRICTED FOR PARLIAMENTORY APPROVAL .                                         NOW IN THE LIGHT OF N.C.T.C. AND R.P.F. ALSO B.S.F.ACT AMENDMENTS THE HUE AND CRY   OF THE WEST BENGAL, TAMILNADU ,,GUJRAT,ORISSA,HIMANCHAL,AND PUNJAB GOVERNMENTS FORGET WHENEVER THEIR IS ANY PROBLEM BE IT OF NATURE OR MAN MADE THE CHIEF MINISTER OF THE STATE IMMEDIATELY DEMAND SPECIAL PACKAGE TO MEET THE PROBLEM, IF THEY THINK SELF SUFFICIENT THEN WHY THEY LOOK TOWARDS CENTRAL GOVT?