Aug 6, 2014
राष्ट्रियता एक वेदिक अवधारणा है , राजसत्ता से जुड़ी नहीं है
अभी हाल मे भोपाल मे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और उनके 21 आनुषंगिक संगठनो की त्रि दिवसीय बैठक मे
सर संघ संचालक मोहन भागवत ने एक भासण मे कहा था की राष्ट्रियता की अवधारणा 1947 से नहीं वरन उसके पूर्वा से है |
उन्होने कहा की हमारे देश की ऋषि परंपरा ने यह अवधारणा बनाए रखी है | इसका देश की आज़ादी से कोई लेना -देना नहीं है |
लेकिन वे इस बात का खुलाषा नहीं किया की आखिर व्रहतर भारत और राष्ट्रियता की विरासत का प्रारम्भिक काल कौन सा था?
वैसे राष्ट्रियता की अवधारणा राजनीतिक नहीं है | क्योंकि हमारे इतिहास मे किसी भी सम्राट ने वर्तमान भारत को आधिपत्य नहीं
पाया था , अधिकतर या तो उत्तर भारत के अधिनायक थे या दक्षणी राज्यो के उसी समय कोई अन्य राजवंश का शासन हुआ
करता था | इसलिए सम्राटों का इलाका इस अवधारणा का जन्मदाता नहीं हो सकता | इसलिए भगवत जी का यह कथन सही है
की यह अवधारणा स्वतन्त्रता के बाद नहीं बनी | लेकिन यह भी एक तथ्य है की वर्तमान देश का नक्शा अंग्रेज़ो द्वारा सौपा
गया है |
अगर हम नन्द साम्राज्य से प्रारम्भ करे तो मौर्य फिर गुप्ता समराजों का इतिहास भी गोदावरी के ऊपर तक ही रहा
है , दक्षिण मे दूसरे राजे _ महाराजे राज्य करते थे जो उत्तर से अलग थे | आसाम भी काफी समय तक स्वतंत्र रहा |
उधर पंजाब और अफगानिस्तान सिंध कभी उत्तर के राज्यो की अधीनता मे रहा लेकिन मौका मिलते ही आज़ादी का ऐलान करता
रहा | ऐतिहासिक रूप से इन तथ्यो को रखने का तात्पर्य था की राजनीतिक सीमाए कभी ""भारत"" को राष्ट्र का रूप नहीं दे
सकी | सिकंदर का मुक़ाबला भी पंजाब के एक राजा द्वारा किया गया था , नन्द साम्राज्य उसकी मदद को नहीं आया था | अर्थ
यह है की उस समय राजाओ वतन उनका राज्य ही था उन्हे देश और राष्ट्रियता की अवधारणा का ज्ञान नहीं था , |
परंतु यह कहना की उन्हे अपनी सान्स्क्रतिक --धार्मिक विरासत का ज्ञान नहीं था , गलत होगा | क्योंकि इस धरा
पर अगर अफगानिस्तान से लेकर काश्मीर से केरल तक या यू कहे की देश से बाहर श्री लंका और बर्मा और इंडोनेशिया
तक हमारी सशन्स्क्रती को फैलाने """"धर्म """ का स्थान रहा है | एवं यह अत्यंत प्राचीन अवधारणा है ---इसका प्रमाण
वेदिक धर्म मे किसी भी अनुष्ठान को करने के पूर्वा व्यक्ति को जिसे "यजमान" की संज्ञा दी गयी है | हमारे धर्मशास्त्रों के
अनुसार कोई भी "संकल्प" ""स्थान और समय ""के विवरण के बगैर सम्पन्न नहीं हो सकता | अध्यात्म मे भी कहा गया है
"" समस्त चराचर का मूल काल और आकाश है """ योग मे कहा गया है की महायोगी समय की सीमाओ को विजय कर
लेते है | इसीलिए ऐसे महान योगियो के कथन अटल सिद्ध होते है | इस बारे मे फिर कभी विस्तार से बात होगी | हम अपने
असल मुद्दे पर आते है |
वेदिक धर्म ना कि हिन्दू , क्योंकि अब मई जो लिखने जा रहा है वह मुझे अपने करमकांडो कि
जानकारी से मिला है | आसान पर बैठने के पश्चात ही संकल्प लेते ही कहा जाता है """ जम्बूद्विपे भारत खंडे आर्यावरते
अमुक छेत्रे अमुक नदी तीरे अमुक नाम समवतसरे अमुक मासे अमुक तिथौ तत्पश्चात अपने गोत्र का उच्चारण करके अपने
मन्तव्य को बोलते हुए जल को भूमि पर छोड़ा जाता है | अब इस संकल्प कि विवहना करे तो पाएंगे कि जंबू द्वीप कि
अवधारणा मे अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर से केरल और बर्मा तथा बाली द्वीप समूह तक वेदिक धर्म कि सनातन परंपरा
प्रवाहित हुई थी |राष्ट्रियता कि अवधारणा का प्रारम्भ किस समय से हुआ ,यह तय करना मेरे लिए संभव नहीं , क्योंकि
ये समय किन ग्रंथो मे उद्धरत है यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना तो पक्का है कि हमारी परंपरा प्राचीन है और उसी के
अनुरूप राष्ट्रियता कि अवधारणा भी |
अब रही ब्रहतर भारत कि बात तो यह संकल्प ही इसका सबूत है कि जिन स्थानो को इस
अवधारणा मे शामिल किया गया है वे राजनीतिक रूप से भले ही किसी एक सिंहासन के अधीन भले ही ना रहे हो परंतु
""धर्म और परंपरा """ के कारण इन छेत्रों के लोग एक सूत्र मे बंधे थे ,जिसका प्रमाण संकल्प कि शब्दावली ही है |
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