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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jul 11, 2018


कहने को वे अपने को "परमहंस " बताते है ---कहते है बाबा तो भीख मांगने वाले को कहते है --जी वे वही "”नर्मदानंद जी है जो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के --पाँच सन्यासी मे से एक है "”

वैसे इन भगवाधारियो को प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा मे हो रहे अवैध उत्खनन को रोकने और -और किनारो पर उजाड़े गए जंगल को पुनः जीवन देने के लिए व्रक्षा रोपण मे गति लाने के लिए आम्न्तृत किया गया है |


अब सरकार के राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नर्मदानंद जी को किस सम्बोधन से पुकारा जाये अथवा उनको किस प्रकार लिखा जाये यह बहुत मुश्किल काम है ! वैसे साधु ही है ,क्योंकि उनको पहली नज़र मे सन्यासी तो नाही कहा जा सकता है | वैसे अपने को "”परमहंस "” तो स्वामी रामकृष्ण ने भी नहीं कहा | जबकि उनके शिस्य विवेकानंद ऐसे मनीषी और विद्वान हुए है | उनके अवसान के बाद ही मठ और अनुयायियों ने उन्हे परमहंस की उपाधि दी | परमहंस उस मानव को कहते है ----जो सुख मे दुख मे , तथा जादा और गर्मी बरसात , मे
समभाव से रहता हो | जो मान - अपमान से परे हो | जिसमे किसी के लिए कोई द्वेष अथवा राग की भावना नहीं हो !!

परंतु इस कसौटी पर --- पेट के ऊपर भगवा लूँगी बाधे -- बिना दंड के नर्मदानंद जी को स्वामी भी नहीं कहा जा सकता | क्योंकि वे तो अपने को परमहंस ही कहलाना चाहते है !! पत्र प्रतिनिधियों मे से एक ने जब उन्हे कहा की कम्प्युटर बाबा से तुलना करने पर क्रोधपूर्वक बोले उनको बोलते होंगे '’बाबा '’ हम तो परमहंस है -------हम तो देने वालो मे है ,लेने वालो मे नहीं !!!

इन सज्जन को वेदिक धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले आदिगुरु शंकराचार्य के जीवन का ज्ञान नहीं है | वैसे अपने माथे पर लगे त्रिपुन्ड से वे '’’’शैव'’’ मतावलंबी ही लगते है , जिस संप्रदाय के आदिगुरु स्वय भी थे |परंतु भीख या भिक्षा मांगने वाले को बाबा कहने की बात कही ---वह नितांत अपमान जनक लहजे मे ही थी |जबकि नर्मदानंद जी को शायद यह नहीं मालूम की उस दिव्य स्वरूप की प्रथम रचना जिसे विश्व कनकधारा स्त्रोतम के नाम से जानता है , वह एक ब्रांहण विधवा द्वारा भिक्षाम देही कह कर मांगने वाले बटुक को खाली हाथ लौटने की विवशता पर रो पड़ी थी | तब आदिगुरु ने कारण पूछा और उसकी अभाव की कहानी सुन कर वे द्रवित हुए |उन्होने कहा माता कुछ तो जरूर होगा ----- और एक सूखे आंवले को '’भिक्षा मे स्वीकार करते हुए --उन्होने आदिशक्ति के लक्ष्मी रूप की स्तुति गायी | कहते की उस स्तुति से देवी ने प्रसन्न होकर उस विधवा के घर पर सोने के आँवलो की वर्षा की |फलस्वरूप उसका दारिद्री समाप्त हो गया | अब क्या केरल के कानड़ि के शिवगुरु नंबुदरी के यशस्वी संतान शंकर {{जिनहे बाद मे शंकराचार्य } कहा गया "”भीख "” मांगने जैसे "””हेय "” कार्य कर रहे थे ---अथवा वेदिक धर्म के आचार के अनुसार गुरुकुल के बटुक के रूप मे भिक्षा का पवित्र कार्य कर रहे थे ????

आजकल साधु ---सन्यासियों मे भी "””स्वयंसिद्ध "” होने की प्रथा चल पड़ी है | वे खुद को ही '’’स्वामी '’ ‘’’महा मंडलेश्वर '’ मंडलेश्वर '’ --’’’पीठाचार्य"” आदि के रूप मे बताते है | हालांकि यह परिचय उनके अगल -बगल वाले ही बोलते है ----परंतु इस उपाधि को सुनने का सुख तो उनके कानो मे रस घोलता है | 1960 - से 1980 तक या उसके पहले तक '’’भगवा वस्त्र धारी '’ के नाम के आगे 108 लगाया जाता था | उसके बाद कड़ी प्रतिस्पर्धा मे यह संख्या 1008 हो गयी ! हालांकि इस का अर्थ जानने की कोशिस की परंतु दो -एक '’’बाबा '’ लोग नहीं बता सके !! उस समय तक चार शंकराचार्य स्थापित पीठ थे | करपातरी जी महरज और -- देवराहा बाबा ,जो मचान पर रहते थे | कहते है की परिवार की तीन पीड़ियों ने उन्हे वैसे ही देखा था | इन महात्माओ को '’’बाबा '’ कहे जाने पर कभी भी क्रोध नहीं आया !!!!! जैसा की नर्मदानंद जी को आया |अब यह तो सनातन समाज ही तय करेगा की कौन महान और ज्ञानी है ??

अब एक बार पुनः बात नाम के आगे लाग्ने वाली उपाधि की ---- वे स्वयं ही जोड़ ली जाती है |जैसा की नर्मदानंद जी ने कहा की '’’वे परमहंस'’’ है ,वे लेते नहीं देते है |बस सरकार से राज्य मंत्री का दर्जा ही '’’लिया है '’’ इसे वे स्वयं नहीं पा सकते थे !!!