मन
की
बात
या
मनमानी
की
---
सरकारी
सफलता
की
कहानी
का
खोखलापन
उजागर
करने
की
सज़ा
चैनल
ले
पत्रकारो
को
??
अगर
सवाल
पूछना
या
हक़ीक़त
उजागर
करना
जुर्म
है
-तब
यह
आपात
काल
नहीं
तो
क्या
है
?
मुख्यमंत्री
की
फूलो
की
खेती
मे
दो
गुना
लाभ
होने
का
भी
दावा
है
!!
प्रधान
मंत्री
की
मन
की
बात
के
प्रोग्राम
मे
सरकारी
कार्यक्रमों
की
सफलता
की
"”कहानियो
"”
मे
कितना
सच
और
कितना
झूठ
होता
है
---इसकी
बानगी
ABP
न्यूज़
के
कार्यक्रम
मे
पुण्य
प्रसून
वाजपायी
ने
देश
के
सामने
खोल
दी
|
जिससे
कुपित
होकर
सरकार
के
अमले
और
पार्टी
के
मुखिया
ने
उन्हे
और
उनके
सहयोगीयो
को
निशाने
पर
रख
लिया
|
परिणाम
तीन
पत्रकारो
को
अपनी
नौकरी
छोडनी
पड़ी
!!!
कितना
निर्भीक
है
इस
देश
का
लोकतन्त्र
और
कितनी
डरपोक
है
हमारी
सरकार
की
एक
झूठ
के
उजगार
होने
से
भयभीत
हो
गयी
,
और
सच
का
गला
घोटने
पर
उतर
आई
!!!
आखिर
वह खबर क्या थी जिससे की चैनल
के तीन पत्रकारो की "”छुट्टी
'कार्वा
दी गयी !
20 जून
की मन की बात के दौरान छतीसगढ़
के कांकेर ज़िले की कनहरपुरी
की चंद्रमनी नामक महिला से
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी
ने पूछ था की खेती मे आप की आय
मे बदोतरी हुई है क्या ?
चंड्र्मनी
ने उत्तर दिया था की जी हा मेरी
आम्दानी दो गुणी हो गयी है "”
| जब
इस दावे की खोज परख की गयी तब
चंड्र्मनी ने कैमरे के सामने
कबूल किया की दिल्ली से एक
अफसर आए थे उन्होने पूछा था
की क्या तुम प्रधान मंत्री
से बात कर पाओगी ?
तब
मैंने हाँ भर् लिया था |
मुझसे
कहा गया था की जब पूछा जाए की
खेती से आम्दानी तब दो गुना
बताना !
वैसा
ही मैंने किया |
जब
रिपोर्टर ने उससे पूछा की की
धान की खेती तो बहुत अच्छी
नहीं लग रही है ?
तब
चंड्र्मनी ने बताया की धान
की खेती अच्छी नहीं है |
तब
कैसे कहा की आम्दानी दो गुणी
हो गयी है ?
उसका
कहना था की जैसा मुझको बोला
गया था वैसा ही मैंने कहा !!!
इस
घटना से न केवल यह उजागर हुआ
की मन की बात की स्क्रिप्ट
पहले से तैयार की जाती है उसमे
जमीनी रंग भरने के लिए योजनाओ
की "”सफलता
के रंग भरे जाते है "”
भले
ही वे हक़ीक़त न हो !
इस
घटना ने प्रधान मंत्री की मन
की बात के प्रोग्राम की साख
बिल्कुल खतम कर दी है |
भले
ही यह मोदी जी के प्रचार का
कार्यकरम था ---परंतु
यह देश के प्रधान मंत्री का
भी था |
इससे
ना केवल इस कार्यक्रम की
विश्वसनीयता समाप्त हुई --
वरन
यह भी सिद्ध हो गया की एक नाटक
की भांति इसके पात्र खोजे जाते
है और उन्हे रटे-रटाए
डायलोग भी बुलयावे जाते है
|
इस
प्रसंग मे यह भी सुनने मे आया
है की संसद के सत्र के दौरान
किसी ने सत्तारूद दल के प्रमुख
को किसी से कहते सुना था की
इस चैनल को सबक सीखना पड़ेगा
!!
और
सबक के रूप मे तीन पत्रकार
खोजी पत्रकारिता की सूली पर
छड़ा दिये गए |
एनडीटीवी
केपत्रकार
रवीश
कुमार
शायद
अब
नरेंद्र
मोदी
और
अमित
शाह
के
निशाने
पर
हो
सकते
है
|
क्योंकि
वे
लगातार
राजनीतिक
हमले
तो
नहीं
करते
परंतु
सरकार
की
"”निरंकुसता
-असंवेद्न्शील्ता
तथा
-लापरवाही
"”
को
उजागर
करते
रहते
है
|
चाहे
वह
विश्विदयालयो
मे
कुप्रबंधन
का
मामला
हो
-जिसके
कारण
हजारो
छात्रो
के
साल
सिर्फ
इसलिए
बर्बाद
होते
है
क्योंकि
विश्वविदायलय
ना
तो
आधायपको
की
व्यसथा
करते
है
नाही
क्लास
होती
है
और
इन
सब
के
कारण
दो
से
तीन
साल
तक
परीक्षा
नहीं
होती
|
लड़को
के
साल
तो
बर्बाद
होते
ही
है
साथ
ही
वे
नौकरी
के
लिए
होने
वाली
प्रतियोगिताओ
मे
भाग
भी
नहीं
ले
पाते
!
अभी
हाल
मे
रेल्वे
की
क्लास
थ्री
की
परीक्षा
के
लिए
दासियो
हजारो
लड़को
के
परीक्षा
केंद्र
पाँच
सौ
मील
से
ज्यादा
हाजरों
मील
दूर
आवंटित
किए
गए
है
|
साथ
हज़ार
से
ज्यादा
इन
छत्रों
को
गंतव्य
तक
पाहुचने
के
लिए
रेल्वे
मे
ना
तो
रिज़र्वेशन
मिला
रहा
है
ना
ही
टिकट
क्योंकि
दूर
की
गाड़ियो
मे
"””नो
रूम
"”
लिखा
आ
रहा
है
|
परिणाम
यह
होगा
की
मुश्किल
से
2
से
3
प्रतिशत
लड़के
किसी
प्रकार
इन
परीक्षाओ
मे
शामिल
हो
पाएंगे
|
फिर
कब
इसका
परिणाम
आएगा
यह
भी
निश्चित
नहीं
है
!!!
सरकारी
नौकरियों
के
बारे
मे
उनके
प्रोग्राम
सरकार
के
अफसरो
की
काहिली
और
बदनीयती
सामने
आई
जब
परीक्षाओ
के
परिणाम
आने
के
बाद
भी
"”सफल
परीक्षार्थियों
"”
को
नियुक्ति
पत्र
नहीं
मिला
रहे
थे
|
विभाग
से
जब
वे
पूछते
है
तब
उन्हे
टाका
सा
उत्तर
दे
दिया
जाता
है
की
"””
हब
देख
रहे
है
"””
सवाल
यह
है
की
क्या
केंद्र
सरकार
मे
इन
प्रतियोगिताओ
के
लेकर
कोई
निश्चित
समय
बढ़
कार्यक्रम
है
भी
की
नहीं
----जिससे
की
सफल
हुए
प्रतियोगियो
को
उनके
नियुक्ति
पत्र
और
पदस्थपना
का
स्थान
बताया
जाये
???
क्या
इसकी
कोई
समय
सीमा
भी
है
----अथवा
अनंत
काल
की
प्रतीछा
ही
इनके
"””भाग्य
मे
है
"”
? क्योंकि
ये
सब
देश
के
किसानो
के
बच्चे
है
जो
मेहनत
से
आध्यान
करके
इन
प्रतियोगिताओ
मे
शामिल
होते
है
|
अगर
सरकार
को
इन
खुलाशों
से
तकलीफ
होती
है
--तो
क्यो
नहीं
वे
संबन्धित
मंत्रालयों
के
अधिकारियों
से
जवाब
तलब
करते
है
??
परंतु
ऐसा करने पर शायद तंत्र के
अफसर उन्हे ही कनही "”कानून
या नियमो के जंजाल मे ना फंसा
दे ~
शायद
इसी भाय से सरकार पूरी तरह से
"”तंत्र"”
के
जाल मे है और --अपनी
राजनीतिक छवि को बनाने मे मे
अधिकारी जितना सहायक हो सकते
है ---उतना
ही उन्हे 'कसा'
जाता
है |
अगर
सरकार अपनी कमियो की ओर नहीं
देखना चाहती है तब ---यह
कैसा लोकतन्त्र है ?
आखिर
देश मे सबकुछ ठीक तो नहीं चल
रहा है ?
चाहे
भीड़ द्वरा निर्दोष लोगो को
गाय के नाम पर बच्चा चोर के
नाम पर पीट कर मार डालना क्या
कानून के राज्य का फल है ?
सोचना
पड़ेगा इस देश के नागरिकों को
क्या हम बुज़दिलों की भांति
सब अन्याया सहते रहेंगे या
आवाज भी उठाएंगे ?