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Apr 7, 2014

मंहगाई को कम करने और विकास की गति को बड़ाने का दावा ---कितना बड़ा मिथक !


मंहगाई को कम करने और विकास की गति को बड़ाने का दावा ---कितना बड़ा मिथक !

विकास और मंहगाई अर्थशास्त्र के नियमो के अनुसार दोनों एक दूसरे की दिशा के विपरीत चलने वाली अवधारनाए हैं | किसी

भी छेत्र अथवा देश की आर्थिक उन्नति होने के साथ ही उस देश मे मंहगाई का बदना अवश्यंभावी होता हैं | इसलिए विकास के पथ
पर अग्रसर होने का प्रयास मंहगाई का सूचक होता हैं | चलिये इसको अपने देश के परिप्रेक्ष्य मे देखते हैं | स्वयं के अनुभव के अनुसार
सोलाह आने के रुपये को जब दशमलव प्रणाली मे परिवर्तित किए जाने के पूर्व तौल मे भी छांटक -सेर और - मन मे ही सभी जिंसों के
भाव हुआ करते थे | पांचवे दशक के अंत मे यह सब बदलाव हुआ | इसका कारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मे अपनी मुद्रा और -तौल के मानको
समानता लाने का प्रयास था | इतना सब संदर्भ देने का तात्पर्य उस समय की जींसों की दरे और तत्कालीन विकास की स्थिति मे
अनुपात को परखने का है| उस समय '''विभाजित'''भारत की आबादी लगभग 64 करोड़ थी | मेरा स्वयं का अनुभव हैं की उस वक़्त
शक्कर या चीनी का भाव छह आने सेर [अर्थात आज की मुद्रा और तौल मे 37 पैसे मे लगभग 900 ग्राम ] था | अब आज एक अरब की
आबादी के देश मे 26 से30 रुपये प्रति किलोग्राम का भाव है | गेंहू और सारसो के भाव भी कुछ इसी अनुपात मे थे | 1957 मे जब इस
मुद्रा - माप -तौल का दशमलव करण हुआ , उस समय भी 1947 के पूर्व के भारत के दामो और बाज़ार की मंहगाई की शिकायत नगर
और गावों की चौपाल मे होती थी | तब इंग्लैंड से आयातित रैले साइकल रखना इज्ज़त की बात हुआ करती थी | तब आज की कार को
'मोटर' कहा जाता था , और यह राजे - महराजे या जमींदारो के इस्तेमाल की वस्तु हुआ करती थी | आम आदमी किसी भी स्थान की

दूरी का अंदाज़ ''कोस'' और ''दिन'' मे लगता था |यह देश की 98 प्रतिशत आबादी की हालत थी | दूसरी वस्तुओ के दाम भी
सकते हैं , परंतु वह गैर ज़रूरी ही होगा | उस समय दैनिक मजदूरी ''आने ''[सोलह आने के रुपये] मे और वेतन दहाई मे और बिरले
लोगो को सैकड़े रुपये मे ''दरमाहा ''या तलब'' मिलता था |जिसका अर्थ मासिक वेतन हुआ करता था |

उस हालत मे भी मंहगाई थी , पर विकास नहीं था | स्कूल -अस्पताल ज़िला मुख्यालयों या बड़े नगरो मे ही
सुलभ हुआ करती थी |बिहार -उत्तर प्रदेश के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा कलकत्ता - बेनारस -अलीगड़ विस्वविद्यालय हुआ करते थे |
तब विकास के नाम पर गाँव मे नहर और ग्रामवासियों की मदद से भाषा और गणित का प्रारम्भिक ज्ञान देने के लिए गुरु जी ही हुआ करते
थे , मस्जिदों मे कुरान पड़ने की व्यसथा हुआ करती थी | ऐसे मे कृषि ही एक मात्र आय का साधन हुआ करता था | अधिकान्स लोग
तब भी रोजगार के लिए शहरो की ओर भागते थे | महात्मा गांधी द्वारा चरखा आंदोलन के बाद ब्रिटिश प्रदेशो के गाँव मे कुछ नौजवानो ने
ग्रामीण विकास के लिए इसे ही आधार बनाया | परंतु तब भी लोग रुपये मे दस सेर गेंहू को भी मंहगाई मानते थे |

आज़ादी के पूर्व 1935 मे जिन राज्यो मे गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत चुनाव हुए और वंहा सरकारे बनी उन
राज्यो मे प्रांतीय सरकारो को केवल शिक्षा और कृषि के ही अधिकार प्राप्त थे , पंजाब -बिहार - उत्तर प्रदेश और प्रेसेडेन्सी नगरो मे इन दोनों
ही छेत्रों मे स्कूल खुले और और श्रमदान से सरकारो ने नहरों का निर्माण कराया | आज़ादी के बाद भी इसी छेत्र मे उन्नति हुई चालीस के दशक
मे गन्ना उत्पादन को बड़ावा देकर चीनी मिलो की स्थापना देशी सेठो द्वारा की गयी | क्योंकि तब तक देश मे स्थानीय तौर पर खांड या गुड
का ही निर्माण हुआ करता था | मिलो के आने से किसानो को पहली बार ''कैश क्रॉप '' का अवसर मिला | उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर
प्रदेश मे चीनी मिलो की बाद जैसी आ गयी | आज यह इलाका ''बीमार''चीनी मिलो का हो गया हैं | इससे कृषि आधारित उद्योग पनपा
इसी लिए अन्य इलाको की तुलना मे शिक्षा और कुटीर उद्योगो मे बड़े --हाथ करघा ने लाखो परिवारों को रोज़ी प्रदान की , जिस से वे अपने
लड़को को शीशा के लिए बाहर भेजने लगे |

लेकिन इसी प्रगति के साथ ही गेंहू के दाम भी बदने लगे ,हालांकि सिंचाई सुलभ होने के कारण
उत्पादन मे भी बदोतरी भी हुई |गावों मे साइकल दिखयी देने लगी देश मे पहली स्वदेशी किले हिन्द का निर्माण हुआ और इंग्लैंड से रैले
साइकल का आयात खतम हुआ , यह सब पांचवे दशक मे हुआ | 1950 के उस भारत की तुलना मे आज का भारत कान्हा पर खड़ा हैं ?