Bhartiyam Logo

All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 31, 2014

सामाजिक उत्थान के लिए किसान ही क्यो बलिदान करे ?सौ साल बाद भी नहीं मिला मुआवजा

                    सामाजिक उत्थान  के लिए  किसान ही क्यो  बलिदान करे  ?
                                लुटिएन की बनाई दिल्ली  मे कितने  किसानो  का मुस्तकबिल  छिना यह तथ्य  अभी हाल मे सोनीपत के  किसानो  द्वारा  2217 रुपया 10 आना 11 पैसे का मुआवजा 1912 से अब तक नहीं चुकाया गया है | सवाल उठता है क्यो ?  चलो यह मान लिया की यह ज़िम्मेदारी ब्रिटिश सरकार की थी , क्योंकि जब देश की राजधानी  कलकते से उठा कर दिल्ली लायी गयी थी अगल - बगल के  सैकड़ो गावों के लाखो किसानो को यहा से  बेघर हो कर वर्तमान हरियाणा  और पंजाब  जा कर बसना पड़ा |  राजधानी के पाश  इलाके सरदार पटेल मार्ग के पास ही है मालचा मार्ग --- एक सदी पूर्व यहा गाव हुआ करता था  जिनकी जमीने राजधानी निर्माण के लिए अधिग्रहित कर ली गयी थी | हालांकि उन्हे मुआवजा भी दिया गया था | परंतु एक परिवार को यह नहीं दिया गया | जबकि उसकी '''मालियत''' {कीमत} आँकी गयी थी  , आज यह रकम बहुत ''  छोटी''' लगे --परंतु
 गौर करे की उस जमाने मे ''एक रुपये की कीमत क्या थी ?"""  विश्वास करेंगे  2 डॉलर के समतुल्य था रुपया !! अब अंदाज़ लगाए  की आज इस रकम की '''असली कीमत क्या है """" | ?
                                                    अभी  केन्द्रीय वित्त् मत्री  अरुण जेटली ने कहा की विकास - रक्षा एवं उद्योग के लिए  भूमि अधिग्रहण को ''''सरल """ बनाया जाएगा |  उन्होने यह नहीं ''कहा की भूमि का ग्रामीण छेत्रों मे  आवंटन  भी और मुआवजा वितरण ''' को शीघ्र और सुलभ बनाया जाएगा |  क्योंकि वे कह सकते है की ''मुआवजा''' देने की ज़िम्मेदारी  राज्य सरकारो की है |  भूमि दिलाने की ज़िम्मेदारी केंद्र की और मुआवजा देने की प्रदेश की ------ कितना सुलभ और सरल रास्ता  है न ??
 
                                                मनमोहन सिंह की हो या मोदी जी की सरकार हो  देश  के विकास के यज्ञ  मे """बलि""" तो किसान के मुस्तकबिल की ही होनी है | क्या हम दूसरे नकसलबारी ऐसे विद्रोह को डावात नहीं दे रहे है ---किसानो के हितो की अनदेखी कर के ?? मलचा गाव की जमीन का सौ सालो तक भी मुआवजा न मिलना  उनके अशंतोष को चिंगारी दे सकता है |
                          

Dec 28, 2014

अल्प मतो से बनते बहुमत के बाद भी मुख्यमंत्री पद का झगड़ा

                                                                कश्मीर मे मुख्य मंत्री वैसे अब हिन्दू  नहीं होगा परंतु क्या धर्म 
    के आधार पर पर इस पद  का  फैसला होना धर्म निरपेक्षता  होगी अथवा सांप्रदायिकता ??? बड़ा सवाल है 
  की धर्म जाति हो वर्ग विशेस हो छेत्र विशेस हो क्या इन्हे आनुपातिक प्रतिनिधित्व  कहेंगे या  '''लोगो की 
  महत्वा कांछा""" को पूर्ण करना ??? 

                                      जम्मू -काश्मीर मे  भारतीय जनता पार्टी  के सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के बाद भी  यह विवाद उठा की  मुख्य मंत्री हिन्दू हो अथवा  परंपरागत  रूप से कोई मुस्लिम ही हो |  यह तथ्य है की इस  प्रदेश मे  मुस्लिम  आबादी बहु  संख्यक  है ,, परंतु क्या चुनाव  इस आधार पर हुए थे  की मुस्लिम  ही चुनना है ? अथवा  सबसे      बड़ी पार्टी  का उम्मीदवार मुख्य मंत्री बनेगा |   आखिर  जम्मू - काश्मीर भी तीन सन्स्क्रातियों  का समूह है |
     अगर जम्मू मे सनातन धर्मी और सिख बहुल है तो घाटी मुस्लिम बहुल और लद्दाख मे बाउध धर्म के मानने         वालों की बहुलता है | अब इन छोटे -छोटे  मतो के समूह से बना """बहुमत""" ही तो होगा | चाहे किसी भी 
     राज्य मे कोई चुनाव हो   वहा मतदान का आधार  परिवार से शुरू हो कर जाति फिर धरम और  छेत्रवाद के 
   आधार पर ही मतदान का आधार तय होता है |  वैसे प्रचार  यही किया  जाता है की" ''पार्टी ''' का घोषणा पत्र 
  ही  मतदाताओ  के सामने पहचान होता है | फिर नेताओ के भाषणो मे किए गए वादे  और दावे भी चुनाव को 
  गरमा देते है |  लेकिन  मतदाताओ को अपील  करता है ----नेताओ के  भाषणो  का पुलिंदा  जो उन्हे समझ मे 
   आता है  , परिणाम यह होता है की बात '''''जाति -धर्म'''' तक सिमट जाती |है | फिर  राजनीतिक """ पाखंड""
    उजागर हो जाता है | क्योंकि  घोषणा पत्र  और नेताओ  के भाषण को न  तो अदालत मे  चुनौती दी जा
     सकती है ---ना ही किसी अन्य निकायो के द्वारा  लागू किया जा सकता है ????

                                                                  क्योंकि अब राजनीति  सिर्फ सत्ता के लिए है ---इसलिए अगर 
  पार्टिया चुनाव के बाद  अपने """वादे """ या  कहेसे  बादल जाये तो मतदाता केवल निरीह बन कर गवाह 
  ही बन पता है | ज्यादा हुआ तो अगले पाँच वर्षो  के बाद बदला लेने की भावना से भर जाता है ,,, परंतु वह भावना भी माह -दो माह मे पिघल जाती है | 

                                                      अब मुद्दे की बात पर आते है --- झारखंड  एक आदिवासी बहुल राज्य है 
 
 वनहा पर बीजेपी को बहुमत मिलने के बाद प्रश्न आया की मुख्य मंत्री किसे बनाया जाये ??? सवाल व्यक्ति 
  का नहीं वर्ण वर्ग का था | यानि सामान्य वर्ग का हो अथवा आदिवासी हो | चूंकि राज्य के निर्माण से अब तक 
  वहा आदिवासी ही मुख्य मंत्री हुए फिर चाहे वे काँग्रेस समर्थित रहे हो अथवा भारतीय जनता पार्टी  के समर्थन 
  से बने हो | भ्रस्टाचार की कहानिया पिछले पंद्रह वर्षो मे  घर घर मे सुनाई गयी | बीजेपी के नेत्रत्व के अनुसार 
  चूंकि उनकी पार्टी को सर्वाधिक समर्थन सामान्य वर्ग से मिला है  अतः  मुख्य मंत्री को भी इसी वर्ग से होना चाहिए | रगनीतिक रूप से इस फैसले का कोई संदेश हो --परंतु प्रशासनिक रूप से साफ हो गया की  आदिवासी 
 होने पर कोई विशेस लाभ नहीं मिलेगा |वही मिलेगा जो वाजिब होगा |

                                                       हालांकि कश्मीर मे बीजेपी को हिन्दू मुख्य मंत्री की मांग से कदम पीछे 
 घसीटने पड़े है ,,क्योंकि बाक़ी अन्य पार्टियो ने उनकी मांग को '''गैर वाजिब'''' माना | पी डीपी  हो या नेशनल 
 कान्फ्रेंस  दोनों ने ही मुस्लिम मुकया मंत्री के समर्थन मे रॉय व्यक्त की है | हालांकि इन शब्दो मे अपनी बात नहीं रखी--- पर परिणाम यही था |  यह घटनाए साबित करती है की राजनीतिक दलो का ''''एक ही खेल''' कैसे 
 करे कब्जा कुरशी पर | सांप्रदायिकता या धर्म निरपेक्षता  सिर्फ शब्द बचे है --- निरर्थक 

   

Dec 27, 2014

स्कूल किए बंद और पंचायत चुनाव के लिए दस्वी पास होना ज़रूरी

                                 
                                    राजस्थान प्रदेश सरकार का तुगलकी फरमान वाकई आश्चर्य  चकित करनेवाला है |
  वसुंधरा राजे सिंधिया  की सरकार बिलकुल """महारानी """ वाली स्टाइल मे चलायी जा रही है | उन्होने पहले
  तो 17000  स्कूल को बंद कर दिया ----क्योंकि  इस फैसले से  उन्हे """""राजकोष""" की बचत करनी थी |
  इसके पहले उन्होने केंद्र सरकार से सहयाता  प्राप्त  ""मनरेगा"" योजना को बंद करने की सिफ़ारिश की
   क्योंकि  प्रदेश की मिलो  मे '''सस्ते मजदूर """"नहीं मिलते थे | क्योंकि लीग अपने गाव मे रह कर मजदूरी
  करके उससे मिलने वाली कमाई से ''संतुष्ट''' थे |  फिर ग्रामीण छेत्रों  मे शिक्षा के प्रसार  से राजस्थानी  सामंती  '''' संस्क्रती''''  के अनाचार  का खुलासा  मीडिया  मे हो रहा था || इसलिए """प्रजा""" का  """अनपद """"बना रहना  एक ज़रूरी शर्त है | इस लिए स्कूल बंद किए गए |  लेकिन  चकित रह जाना पड़ता है जब  वही सरकार
  जिसने 17000 स्कूल बंद किए ---वही शासन  पंचायत के चुनावो के लिए  उम्मीदवार का ''' दसवी'''  कछा पास होना ज़रूरी  कर दिया | !!!! है न अचंभे की बात

                                       यह फरमान तब और गैर जायज हो जाता है -जब यह तथ्य  पता चले की राज्य की विधान सभा मे सत्ता धारी भारतीय जनता पार्टी के 23 विधायक भी दसवी पास नहीं है ---मतलब यह की इस
  शर्त को वे लोग ""तय "" कर रहे है जो खुद उस ""परीक्षा ''' को पास नहीं कर सके !! है न  टाजूब की बात \ इतना ही नहीं  बीजेपी के दो संसद भी दसवी पास नहीं है ,,परंतु वे नरेंद्र मोदी जी की सरकार की नीव है |  इस फरमान से लगता है की  आदिवासी छेत्रों  मे जो लोफ़ '''लोकप्रिय'' है वे दसवी पास भले ही न हो परंतु  अपने
 लोगो -और इललके मे पकड़ अच्छी रखते है | इस हथियार  से ऐसे लोग चुनाव  से बाहर हो जाएँगे \ कोई
 आदिवासी ठिकानेदार  का छोरा जो कॉलेज फ़ेल भले होगा लेकिन  चुनाव लड़ेगा ---तो लोग पुराने संबंधो
का ख्याल करके  उसे जीता देंगे | एक बार चुनाव '''जीत'''भर जाये -फिर तो वही होगा --जो पूरे देश मे हो रहा है |
 अर्थात  पाँच साल तक तो कोई रोक-टॉक नहीं होगी | यह सब इसलिए हो रहा है की राजस्थान  के लोग  आज भी  ''महारानी''' की नज़र मे प्रजा है ------नागरिक नहीं |  वे बहुमत का नहीं ---अपनी मन मर्ज़ी का शासन चाहती है | लेकिन यह घटना वनहा  पर लोकतन्त्र के नाम हो रहे नाटक का सबूत है |

Nov 17, 2014

संत और शासन की रस्साकशी

                                    संत  और  शासन  की रस्साकशी
       विगत  समय  मे एक """संत आशा  राम ""  की गिरफ्तारी  मे इंदौर  की पुलिस और  प्रदेश शासन को बहुत  ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी थी |   तीन दिन की   बीमारी  और महिला समर्थको  के कारण पुलिस बल प्रयोग  करने से बचता रहा | ||  परंतु तथाकथित संत के ""प्रभावशाली "" समर्थको ने भी उन्हे पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने की सलाह दी | तब जाकर  उन्हे इंदौर से  राजस्थान ले जया गया ,और अदालत मे पेश  किया जा सका | कुच्छ  ऐसा ही हरियाणा  के हिसार जिले और  बरवाला  के आश्रीमो के चारो ओर  बच्चो और औरतों का हुजूम  बैठा कर  एक दीवाल बना दी है ||  जिस के कारण  पुलिस और  प्रशासन  दोनों ही असमंजस  मे है  ||  उच्च  न्यायालया  के आदेश के अनुसार   तथा कथित संत रामपाल  को हत्या के  मामले मे  हाजिर होना है ||                                                                                            
                            कर्नाटक मे भी ऐसे ही एक  महिला प्रेमी भगवा वस्त्र धारी  स्वामी को गिरफ्तारी  के लिए भी  प्रशासन को थोड़ी तकलीफ हुई थी |  तब भी उनके समर्थको ने हल्ला मचाया था |  वैसे भी  जब कभी किसी  भगवा वस्त्र धारी  कानून  के पंजे मे फसता है ----------तब -तब ऐसे  झझटों  से सरकारो को दो -चार होना पड़ता है ||| कांचपीठ के जयेन्द्र सरस्वती  को भी हत्या के आरोप का सामना करना पड़ा था | वॉरेंट निकालने के साथ ही  जयेन्द्र सरस्वती को कर्नाटका की सीमा पार करना पड़ा था |
                                                                                                       धार्मिक  गुरु या नेताओ की गिरफ्तारी का सबसे भयानक  ''कांड'' तो स्वर्ण मंदिर मे हुआ आपरेसन  ब्लू  स्टार  था || संत भिंडेरवाले  को और उनके समर्थको  केव वीरुध पुलिस अफसर और लोगो की हत्या करने के दर्जनो मामले थे | परंतु सिख समुदाय   की धार्मिक भावनाए  भड़क चुकी थी || पंजाब सरकार भिंडरनवाले  की गिरफ्तारी के लिए केंद्र से  मदद की लगातार मांग कर रहा था || पंजाब पुलिस  से प्रभावी कारवाई नहीं  हो रही थी || मुख्य मंत्री दरबरा सिंह असमर्थता जाता चुके थे | इन परिस्थितियो मे  ही ''कानून  का पालन करने के लिए  ही सेना की मदद  लेने का फैसला किया  जिसका परिणाम  ही था  की स्वर्ण मंदिर  मे सेना ने प्रवेश किया | जिसमे  अनेक  लोगो की मौत हुई || एवं  जिसका  परिणाम  बहुत दुखद  हुआ और  प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी  की  हत्या  हुई और सिख विरोधी  दंगे हुए  और  भयानक  वातवर्ण बना जो आज भी खतम होने का नाम नहीं ले रहा , यह है  सेंटो  को अदालत  मे पेश करने का इतिहास --मुख़तसर मे      

Nov 8, 2014

प्रिंट पत्रकारिता मे डिजिटल बदलाव और नए {{{ वर्तमान }}}} समय या आधुनिक वक़्त मे पत्रकारिता का चाव

 कलाम के सिपाही  यानि की पत्रकार  का एक नाम हुआ करता था ,  --हालांकि वह नाम आज भी  मौजू  है पर   अब कलाम की जगह  की बोर्ड  आ गया है |  इसे ही हम प्रिंट पत्रकारिता  मे डिजिटल  युग का प्रारम्भ भी कह सकते है | पहले समाचार पात्रो के दफ्तरो मे   अखबारी  कागज  की ''खुसबू'''' और और बड़ी - बड़ी मेज़ों पर   न्यूज़ प्रिंट के कटे कागज  जिन पर सब एडिटर  न्यूज़ एजन्सि   के रोल्ल निकाल कर खबर बनाते {{{लिखते}}}} थे |  स्याही और न्यूज़ प्रिंट की विशेष सुगंध ही  सभी  छोटे  या बड़े समाचार पत्रो  के दफ्तरो मे  एक सी हुआ करती थी |  नामी - गिरामी पत्र हो या  ज़िले से निकालने वाला '' चौपतिया''' हो   दागतरों मे एक जैसा माहौल हुआ करता था | समाचार संपादक  के फोन का इस्तेमाल  दफ्तरो मे अफसरो से बात करने //या खबर की पुष्टि करने के लिया किया जाता था | थाने- अस्पताल और  स्टेशन  से रात की शिफ्ट  वालो को बात करना ज़रूरी होता था | क्योंकि इन  जगहो  से """''छपते -छपते''' के कालम के लिए अंतिम समाचार  लिए  जाते  थे |  पर अब वैसा नहीं है ||

 क्योंकि  संचार क्रान्ति ने  पत्रकारिता  और समाचार पत्रो  की दुनिया और ''मिजाज''' को  भी बदल दिया है |  अब पत्रो के दफ्तर  अक्सर   छापे खानो से दूर होते है ----तब ये एक साथ होते थे , जैसे  एक घर | पर अब औदोगिक  क्रांति और व्यवसायिकता  ने इस '''घर को बाँट दिया'''' है |  अब पत्रकार और गैर पत्रकार  का भेद है | तब सभी अखबार  के करमचारी हुआ करते थे | संस्थानो  मे अक्सर आर्थिक  दिकक्ते आती थी  -- पर सब मिलजुल कर '''बाँट''' लेते थे | तब सभी '''काम के बंदे थे''''' अब जैसा नहीं  की संपादक  ही कई प्रकार के होते है  हर  संसकरण  के लिए  अलग '' इंचार्ज ''   , समाचार के लिए अलग और ''विचार''' के लिए अलग , पुस्तक समीक्छा के लिए अलग  संपादक | गोया की अब पत्र -पत्रिकाओ का दफ्तर  सनातन धर्म की भांति ही अनेक जातियो और उप जातियो मे विभाजित  है | 

 परंतु तकनीकी रूप से  काम करने की '''गति''' मे तेज़ी तो आई है , परंतु बौद्धिकता --अध्ययन  का दिवला निकाल चुका है | पहले रिपोर्टर  दफ्तर - दफ्तर  खबर के लिए फिरता था --- दूसरे अखबारो  के साथियो से समाचार साझा करते थे | एक   बिरादरी की भावना थी |  अब आपस मे प्रतियोगिता है | खबर लाने मे अव्वल कौन का जमाना आ गया है | खबर   अच्छी  कौन लिखता है --किसका ढंग  प्रस्तुति करण बड़िया है या किसका ''इंटरों''' धानसु है ---तब इस पर चर्चा होती थी | सफलता इन गुणो  पर निर्भर करती थी |  अब तो मोबाइल  पर खबर मिलती है  और लिख दी जाती है |  पहले खबर  को तार्किक और तथ्यो पर तौला जाता था --संपादक जाँचते भी थे | अब तो किसी  बड़े  नेता या अफसर  ने '''उगला ''' और हमने उसे '''निगला'''  और ला कर  खबर बना दी |  
 
अखबार  कागज  पर भले ही छपे पर उसके दफ्तर मे अब ''' पेपर लेस """" काम है । लैपटाप और कम्प्युटर  पर अंगुलिया चलती है  कलाम नहीं चलती | अब  पत्रकारिता  के पेशे का  मतलब '''सत्ता के गलियारो के लोगो के कंधो से कंधा रगड़ना """ हो गया है | नेता और अफसर भी अब उस संवाददाता को  नहीं उसके संस्थान --और उसके मालिक को जानता है | संस्थान  अब  बिजनेस  हाउस  बन गए है ----संपादक की हैसियत भी  एक अदना से करामचरि जैसी हो गयी है | क्योंकि अब अखबार  के दफ्तर मे अब मालिक का कैबिन  है --जो अंतर्यामी की भांति यह नज़र रखता है की कनही उसके """" स्वार्थो"""" पर कुठराघात  तो नहीं हो रहा है , यानि की जिस अफसर से कोई काम  है  उसके खिलाफ कोई खबर तो नहीं जा रही है ?? भले ही वह खबर  या घटना वास्तविक रूप से सत्या हो |   स्वतंत्र  पत्रकारिता  एक मिथक बन कर रह गया है || आज़ादी  समाचार पत्रो  के लिए अर्थात  मालिक के लिए हो गयी है उसमे काम करने वाले '''पत्रकार की नहीं '''''  बस यही परिवर्तन हुआ है की स्पीड  तो बहुत आई लेकिन राह बादल गयी ---  फायदा उद्देस्य हो गया है   सत्य  नहीं |||  इति

पेपर लेस समाचार पत्र के दफ्तर

बीसवी  सदी तक  अखबार  के दफ्तर  का नाम दिमाग मे आते ही  न्यूज़ प्रिंट  और स्याही की  गंध से भरा हुआ  हाल  और उसकी मेज़ों  पर  कागज  के  कटे हुए  पन्ने   तरतीबवार  से रखे हुए --जिन पर  कुछ लोग  लिखते हुए   कुछ लोग उन कटे पन्नो को लेकर  कम्पोजिंग  की ओर जाते हुए ----मुख़तसर  मे यही होता था   माहौल | चाहे वह बड़ा अखबार  हो या छेतरीय  या ज़िले का पत्र  कागज की उपस्थिती  हर जगह  परमात्मा  की तरह व्याप्त  रहता  था | परंतु कम्प्युटर के  आने पर  हालत  बदले ,,  न्यूज़ पेपर  का कार्यालय  अब  पेपर लेस  हो रहा था | और इकीस्वी  सदी के पहले दशक  मे तो  न्यूज़ रूम मे    कम्प्युटर  की भीड़  और उस पर   काम करते हुए सब एडिटर  और न्यूज़ एडिटर  की मेज़  पर भी एक  कम्प्युटर जनहा से   खबरों  का चयन और  उनका स्थान  का निरण्य  होता है |  रिपोर्टर  अपनी -अपनी मेज़ों  पर भी खबरों  को टाइप करते हुए -----बस यही अब का सीन  है समाचार पत्र  के दफ्तर का | 
                                         कहने का मतलब  यह है की अब  समाचार  पत्र के दफ्तरो  का माहौल  तकनीक  के आने से   मशीनी   हो गया है | लोगो मे आत्मीयता  का अभाव हुआ | क्योंकि कलम की जगह अब की बोर्ड  ने ले ली | सभी  लोगो के पास  मोबाइल  आ जाने से  बातचीत  का काम काफी आसान  हो गया | कंही पर भी --कंही से  भी  किसी से भी जाना -पहचाना  हो या   अनजाना  सभी से बात  हो जाती है | मिलने के लिए  भी  कम ही अवसर  पड़ते है | पहले इन मुलाक़ातों  के लिए वक़्त  और जगह  का ख्याल करना पड़ता था | अब तो घर हो या दफ्तर  कंही भी बात करना आसान  हो गया है |  खबरों की पुष्टि  के लिए समय की कोई पाबंदी नहीं है |और  ""पुष्टि"" करने की जरूरत भी नहीं है |क्योंकि  अगर तो खबर जिसको ''चोट'' पहुंचा रही है -- उसे यह इशारा किया जा रहा की  जरा इधर  भी देख कर ख्याल कर के रहो ,,अथवा  ''''होशियार - खबरदार """ करने की नीयत होती है |  सौ मे से अस्सी बार ऐसा होता है की  """निशाने ""'पर आया अफसर या नेता """  इस संकेत को समझ जाता है | बात संस्थान के हितो के संवर्धन की होती है --सो वह पूरी होने लगती है |  लेकिन कुछ अपवाद स्वरूप  ""भयदोहन """ के इस दाव को नकार देते है ,, क्योंकि उन्हे यह मालूम हो जाता है की जिस काम को लेकर  यह ""हरकत ""की जा रही है उसके ऑर्डर  मे अथवा यदि ''भुगतान'' को लेकर तकलीफ है तो  वह उस तकलीफ को  थोड़ा और ""चौड़ा कर देता है | परिणाम स्वरूप मामले को और उलझा कर  नियमो के जाले"" मे डाल देता है |  संपादक जी अथवा संस्थान के ही कोई """स्वयं भू""" जब उस अफसर से मिलने जाते है तब वह ""फ़ाइल और नियमो की किताब '''को मेज़ पर रख कर बात करता है | परिणाम यह होता है की मामला  सचिव और मुख्य सचिव से होता हुआ मंत्री और अंततः  मुख्य मनरी तक पाहुचता है | परंतु स्वार्थी अखबार के मालिको  क यह एहसास हो जाता है  की '''नियमो की मार ''' की ढाल  संबन्धित अफसर ही बन सकता है | तब यकायक  हमलावर  तोपो के मुंह बदल जाते है --- बेईमान  अफसर एकदम  से ''सफल'' और सहयोगी  हो जाता है |  
                                                  बीसवी सदी के सातवे दशक से लेकर  नवे दशक तक   के संस्थान कभी  ""पब्लिक  रिलेसनिंग """ नहीं करते थे ,, क्योंकि वे कोई ''प्रॉडक्ट''' के निर्माता  नहीं थे |  परंतु पत्रकारो के वेतन -भत्तो को लेकर  केंद्र सरकार द्वारा बनये गए  आयोग के सामने देश के सबसे बड़ेने अपने  को '' प्रिंटिंग और  विज्ञापन एजन्सि ""के रूप मे प्रस्तुत  किया | गोया की  ''लाभ कम होने और  पत्रकारो जैसे दोयम दर्जे के प्राणी को विज्ञापन वालो के बराबर  वेतन देने """ की जरूट नहीं पड़े ,,इसलिए उन्होने  अपने -अपने """रूप """" के तीन""" भाग कर दिये | मसलन  छापा खाना -- विज्ञापन  एजन्सि  और तीसरा  अखबार का प्रकाशन ,, इन तीन भागो के कारण लाभ - हानि के पत्रक मे  समाचार पत्र  एक नितांत घाटे का सौदा ''सा'' दिखाया गया | परिणाम यह हुआ की  पहले   संस्थानो मे श्रम  कानूनों  के द्वारा  संस्थान मे काम करने वालों को """ जॉब की सुरक्षा ''' और काम करने के तरीको और """गलत --सही""" के निर्धारण के नियम वैसे ही पालन होते थे --जैसे सरकारी मंत्रालयों मे होते थे | मातहत भी अफसर के आदेश को चुनौती दे सकता था | उस समय अनेक समाचार पात्रो मे अनेक ऐसी घटनाए हुई भी , जिस से मालिको के ""खी ख़्वाह """ संपादकों  को सुनना पड़ा की ''आप अपने"""" नीचे """" के लोगो को क़ाबू मे नहीं रख सकते | इस फटकार नुमा सलाह के बाद  समपादकों का मूड  मिलो  के जेनरल  मैनेजर  जैसा होगया | परिणाम  यह हुआ की ''सहयोगी '' या कॉमरेड  की भावना ककई हत्या हो गयी ,, और एक डंडाधारी  शख्स  एडिटोरियल  मीटिंगों  मे फरमान  सुनाने  लगे की """ मालिक का हुकुम है  की स्कूल  कवर करने वाले  संवाददाता  श्चूलों और कोचिंग संस्थानो से  """नीयत राशि """ के विज्ञापन प्रतिमाह  लाये --जो उनके वेतन  का चार से पाँच गुना होना चाहिए , ऐसा नहीं होने पर पे डे पर कोई पेमेंट  नहीं मिलेगा """" |  तस्वीर साफ थी की  आप खबर  लाने की कोशिस नहीं करे ---पैसा लाने का प्रयास करे || मतलब साफ था  खबर और आलेख का कोई महत्व नहीं --- लिखे हुए शब्दो  का अवमूल्यन हो चुका था |  अब पत्रकार संस्थान के लिए कमाने वाला  ''जीव भर  था''' | 

 ऐसे मे पत्रकारिता संस्थानो - विश्वविद्यालयो  मे जो कुछ पदया -लिखाया जा रहा था  वह """विषय निष्ठ """" न होकर ''प्रद्योगिकी होना """ चाहिए था , परंतु ऐसा नहीं हुआ | परिणाम स्वरूप इन संस्थानो से ""पत्रकारिता """ की डिग्री लेकर निकला युवक  जब नौकरी मांगने जाता था  तब उस से साल भर तो ""अप्रेंटिस""" के नाम पर  एक करामचरि का काम लिया जाता था | और वक़्त वक़्त  पर  निर्देश दिये जाते थे की  लिखने और पड़ने से ज्यादा शासन  मे संबंध बनाओ   विज्ञापन लाओ | ऊंची  उमंगों और देश और समाज को बदल डालने की तमन्ना  लिए हुए युवक  जो ""धड़ाम""" से यथार्थ की ज़मीन पर गिरता था तो  उसे एहसास होता था की  उसने जो कुछ  पदा और सीखा है उन सबकी  यंहा कोई ज़रूरत ही नहीं है |  और जो ""गुण ''' पत्रकार ''' बनने के लिए होने चाहिए  वह तो अपने  ''वरिष्ठों""' से ही सीखना पड़ेगा || मारता ना करता क्या  वह भी किसी  ''सफल "" रिपोर्टर  का चेला बन जाता है --उनके लिए पान - गुटका और सिगरेट  का  बंदोबस्त  करता है ,, क्योंकि इस गुरु दक्षिणा से  ही तो वह उन द्वारो को खोल सकेगा , जिनकी बदौलत  ""गुरुदेव """ ने चार साल काम करकर कार और  बैंक बलेंस  बनाया है | साल डेड साल  के ज्ञानार्जन के उपरांत वह ''ट्रेनी''  मिलने - जुलने  वाले अफसरो मे ''जाती - इलाकाई ''' जान पहचान बनाता है | फिर किसी ''परिचित''' अफसर के लिए  केस  लाने लगता है --क्योंकि तब तक संस्थान अथवा संपादक जी द्वारा पुलिस थाने  या नगर निगम  की भवन अनुज्ञा  शाखा  से कुछ काम करा कर ""प्रकटिकल""" का अनुभव ले चुका होता  है | उसी ज्ञान के बल पर  वह संस्थान के  अलावा  '''निजी'''  लोगो  को थाने से छुड़वाने  या नगर निगम से काम कराकर  कुछ अपना और कुछ  संबन्धित अफसर का भला कर चुका होता है | नौकरी के पाँच सालो मे चार पहिये की गाड़ी  और  फ्लॅट -प्लॉट  का जुगाड़  कर लेता है | फिर वह अफसरो की दारू  पार्टी  और ठेकेदारो और भू माफिया  के गुट या गुटो मे शामिल हो कर '''सक्रिय कार्यकर्ता''' बन जाता है | 

फिर शुरू होती है  संपादक बनने की यात्रा -- इसमे  उसके सहयोगी लोग मदद करते है | वे समाचार पत्र या पत्रिका  के प्रबन्धक को बताते है की कितना """कारगर""" है यह लड़का |  फिर उसकी प्रयोगिक परीक्षा  होती है --जिसमे उसे  विज्ञापन और धंधे से ''माल कमवाना '''' होता है , जिसका अर्थ यह होता है की आप अपने वेतन को ""जस्टीफाई""" कर सकते है की नहीं ?? इस प्रक्रिया मे समझदार हो चुका '''पत्रकार  नुमा """ प्राणी फिर अपने दाम अच्छे लगता है |क्योंकि अब तक उसे समझ मे आ गया होता है की  एक्सक्लूसिव  खबर अथवा चटकता समपादकीय  लिखने से खबरों के इस संसार  मे ''ज़िंदा ''नहीं रहा जा सकता | कुछ एक ईमानदार पत्रकारो को बीमारी से   जुझते और गॅस तथा बच्चो  को सरकारी स्कूल मे पड़ने की मजबूरी  और ठेले पर परिवार  सहित चाट खाते  देख चुका होता है | उनके सम्मान को भी कई अवसरो पर देख चुका  होता है  परंतु  उसको लगता है की    ''''पेपर की इस दुनिया  -पेपर लेस है , क्योंकि यंहा ''लेखनी की जगह  लैपटाप चलता है और ''ज्ञान या जानकारी के लिए अब दो साधन है --गूगल  और विक्किपेडिया , जिनकी गलत जानकारी  एक आध प्रतिशत  लोग ही ''पकड़ते है '''' उनकी परवाह किसे है | संपादक जी को मालिक के आदेश पर एक घंटे मे '''बड़िया आलेख '''' देने का दायित्व यह ''नया उद्द्यमी बखूबी निभा देता है | क्योंकि न तो मालिक और ना ही ''संपादक नामक जीव """ को जानकारी  से ज्यादा मालिक की कृपा की ज़रूरत होती है | 
तो इस प्रकार पेपर मे काम करने की ट्रेनिंग लेकर  आए  युवक को  पत्रकारिता  के चकाचौंध  कर देने वाले  चक्र वुयाह  को भेदने वाला  अभिमन्यु  बन देता है | अब तक उसको यह भी समझ मे आ गया होता है की  """ पत्रकारिता की स्वतन्त्रता  का अर्थ मालिक के हितो पर ''''' नुकसान ना पाहुचने देना ही है | पत्रकारो  की आज़ादी का मतलब लिखने  की आज़ादी थोड़े ही है क्योंकि वह """ तो बहुत पहले गिरवी हो गयी """ क्योंकि गरीब किसान की भांति  वह भी  '''मालिक के मूड के मौसम  का ही फल पाएंगा ---अपनी मेहनत का नहीं | मुख़तसर  मे मेरी समझ से पेपर के पेपर लेस और समाचार पात्रो के दफ्तरो से कॉमरेड की भावना और मूल्यो की रक्षा का मौजूदा मतलब तो यही है | लेकिन मुझसे भी ज्यादा जानने वाले  मुझे मार्गदर्शन डे सकते है | लेकिन एक मिथक  ज़रूर तोड़ना चाहूँगा की ____ पत्रकारिता संविधान का चौथा स्तम्भ  कतई नहीं है  क्योंकि संविधान मे राज्य के तीन ही अंग लिखे गए है सरकार ---विधायिका और न्यायपालिका | इस  व्यापारिक उद्ययम  की कोई कानूनी स्थिति नहीं है | लेकिन ''भरम '' मे ज़िंदगी चल जाती है --बस वैसा ही काम चल रहा है |  इति

Nov 6, 2014

उच्च न्यायालय के दो हाल के फैसलो ने अनेक प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये है


उच्च न्यायालय के दो हाल के फैसलो ने अनेक प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये है , दिल्ली हाइकोर्ट
की खंड पीठ ने 65 वर्ष की एक महिला से बलात्कार के बाद हत्या के एक मामले मे न्यायाधीशो ने यह फैसला सुनाया की चूंकि मृतका ""मेनोपाज़ "" की आयु पार कर चूंकि थी --एवं उसके गुप्तांग पर चोट पायी गयी थी | विद्वान जजो ने माना की बलात्कार करने मे बल का उपयोग भले हुआ हो परंतु जबरदस्ती नहीं की गयी थी |अब भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अनुसार महिला के साथ ज़बरदस्ती कर के उसके गुप्तांग मे ''मात्र प्रवेश''' भी अपराध है | अब इस अवधारणा मे मेनोपौज होना या नहीं होना कोई विचारणीय मुद्दा नहीं है | परंतु विद्वान जजो ने मात्र दो शब्दो "" बलपूर्वक ""अथवा "" जबरन ""यानि Forcible aur Forcefully को लेकर ही विवाद खड़ा कर दिया | यद्यपि पुलिस की जांच मे मृतका के साथ बलात्कार होना और बाद मे उसकी हत्या किए जाने के लिए अभियुक्त अच्छे लाल को दोषी माना | ज़िला अदालत ने भी अभियुक्त को जुर्म का अपराधी करार दिया | परंतु उच्च न्यायालया की दो जजो की खंड पीठ ने अभियोजन की इस दलील को को महिला के साथ ज़बरदस्ती की गयी थी --नहीं माना ,,उन्होने बचाव पक्ष की इस दलील पर भरोसा किया की संभोग के लिए गए प्रयास को ज़बरदस्ती नहीं वरन बलपूर्वक माना जाना चाहिए | चूंकि मृतका के विसरा मे शराब मिली थी , शायद इसी को '''अदालत ने सहमति' माना | मथुरा - निर्भाया आदि के मामलो मे सर्वोच्च न्यायालया बलात्कार के अपराध के लिए जबरन संभोग को गैर ज़रूरी मानते हुए """बलात्कार """ का अपराधी माना | परंतु इस मामले मे बिलकुल उलट निरण्य दिया है | इस फैसले ने अब बलात्कार के अपराध की नयी व्याख्या की आवश्यकता को जन्म दिया है | क्योंकि अगर हाई कोर्ट से इस प्रकार का फैसला हुआ तो वह """नज़ीर """या उदाहरण बन जाएगा ---और अपराधी इन नुक्तो के चलते बच निकलेंगे |



दूसरा फैसला जबलपुर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश खिलवारकर और जस्टिस आरधे ने दिया | प्रदेश मे सरकारी नौकरियों की परीक्षाओ को करने की ज़िम्मेदारी """व्यापम """ नामक संगठन की थी | जिसने पुलिस की सिपाही से लेकर सब इंस्पेक्टर और --पीएमटी तथा लगभग 33 प्रतियोगी परीक्षाओ मे बेईमानी की | आरोप हाई की मंत्रियो से लेकर पूर्व मुख्य मंत्री और अनेक नेता एवं दर्जनो अधिकारियों ने इस षड्यंत्र मे अरबों रुपये का लेन-देन हुआ | परिणाम स्वरूप योग्य लोगो को ''असफल'' और नालयको'' को पास किया गया | दर्जनो मेडिकल कालेजो के सैकड़ो विद्यार्थियो को जमानत लेनी पड़ी बहुत से छात्र गिरफ्तारी के भाय से भाग गए | हालत यह हो गयी की सरकारी नौकरियों की ""नीलामी "" जैसी हो गयी | इसमे भंडाफोड़ मे जब आंच मुख्य मंत्री के आसपास के लोगो पर आने लगी तब पुलिस ने जांच के लिए ""स्पेसल टास्क फोर्स """ एक अतिरिक्त पुलिस महानिदेसक की अधीनता मे बनाई गयी | जब जनमत का दबाव बड़ा और याचिकाए दायर हुई तब मुख्य न्यायाधीश ने इस
फोर्स को सारी जांच की कारवाई """बंद लिफाफे मे अदालत को देने का आदेश दिया """"" यह भी निर्देश दिया की कोई भी अधीनस्थ अदालत
इस वैश्य मे सीधे आदेश नहीं दे सकेगी | पुलिस जांच से अदालती निर्देशों पर पुलिस की जांच का परिणाम यह हुआ की एसटीएफ़ किसी को भी
जवाबदेह नहीं रही सिर्फ अदालत ही """"जानती है की इस मामले किस के खिलाफ क्या कारवाई हो रही है | पूर्वा मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह
ने जब इस प्रक्रिया के खिलाफ याचिका दायर की तब मुख्य न्यायडिश महोदय की पीठ ने एक नयी व्यसथा जांच की कर दी ---उन्होने निर्देश
दिया की हाई कोर्ट के सेवानिव्रत जज की अध्यक्षता मे एक स्पेशल इन्वैस्टिगेशन टीम बनाई जाये जो एसटीएफ़ की जांच की निगरानी करेगी | यह भी आदेश दिया की ''इन मामलो से जुड़े कोई दस्तावेज़ और जानकारी '''' बिना एस आई टी की अनुमति के किसी भी व्यक्ति या एजन्सि को ना दी जाए | उन्होने एक बार फिर ईस पूरे मामले की जांच सी बी आई से करने की मांग तीसरी बार खारिज की | यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने भी
कोले की खदानों और --कालेधन के मामले मे एस आई टी बनाई परंतु उन्होने '''जांच एजन्सि की जांच के लिए व्यसथा नहीं की | अब तो यह भी संदेह हो रहा हाई की यह कारवाई किसी को बचाने के लिए तो नहीं हो रही हाई ? क्योंकि जो हो रहा वह पहले कभी नहीं हुआ | ऐसे फैसले न्याय वव्ययस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लगते हाई











Sep 26, 2014

शिक्षा की दूकाने या ज्ञान प्रदान करने का स्थान

शिक्षा की दूकाने या ज्ञान प्रदान का ????????????
वेदिक काल मे प्रत्येक गाव मे एक स्कूल होता था , जो शिक्षक के घर मे ही होता था | वनही अध्यापक उन्हे
गणित और भाषा तथा सामान्य व्यवहार का ज्ञान देते थे | फीस के नाम पर होने वाली फसल का एक भाग अध्यापक जी
के हिस्से मे जाता था | समय बदला ऋषियों के आश्रम और गुरुजनों का घर ज्ञान देने का स्थान नहीं रहा , मुस्लिम काल मे
यह व्यवस्था टूट सी गयी | सन्स्क्रत और फारसी पढने के लिए अलग -अलग स्थान होने लगे | क्योंकि फारसी राज दरबार और
शासन की भाषा बन चुकी थी | काशी और अन्य धर्म स्थल पर वेदिक संस्कारो और कर्मकांडो की शिक्षा दी जाती थी | दूर से
लोग यंहा शिक्षा लेने आते थे | फारसी की शिक्षा मौलवी लोग देते थे , दरबार मे स्थान पाने के लिए लोग इनके पास आते थे |
अङ्ग्रेज़ी कंपनी बहादुर का शासन आने पर लॉर्ड मैकाले ने एक नीति बनाकर अङ्ग्रेज़ी भाषा और दुनिया का इतिहास पदाने की
कोशिस शुरू की | आज की शिक्षा व्यवस्था उसी के खडहर पर खड़ी है | अनेक भारतीय संगठन इस शिक्षा व्यवस्था के घोर
विरोधी है | वे शिक्षा के छेत्र मे आमूल चूल परिवर्तन चाहते है |
1980 के बाद केंद्र सरकार ने शिक्षा के छेत्र मे निजी पूंजी को बड़ावा देने
की नीति के तहत देश मे निजी इंजीन्यरिंग और मेडिकल कॉलेज खुले | उम्मीद थी की निजी छेत्रों मे और सार्वजनिक छेत्रों मे प्राविधिक ज्ञान के स्नातको की भरपाई होगी | परंतु इंजीन्यरिंग कालेजो की भीड़ ने “”’मांग से कई गुना ज्यादा इंजीनियर पैदा कर दिये “”” फलस्वरूप इन डिग्री प्राप्त लोगो की भीड़ सदको पर भटकने लगे –जो आज भी देखे जाते है | डिग्री लेकर भी उसके ज्ञान से वंचित छोटी –छोटी नौकरियों के लिए तरसते है | आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? सरकार की नीति जिसमे इस भेड़चाल को रोकने की “””ताकत”” और हैसियत ही नहीं है |





Sep 22, 2014

आखिर वाम पंथ को क्या हो गया ? जो देश की राजनीति से बाहर हो गए


देश की आज़ादी के तुरंत बाद तेलंगाना मे सर्वहारा वर्ग द्वारा हथियार उठा कर विद्रोह करने का बीड़ा जिस कम्यूनिस्ट
पार्टी के नेता वासव पुननाया के नेत्रत्व मे उठाया था , आज उसी धरती पर उनका नामो निशान भी खतम हो गया | जो नकसलबारी मे कई
दशको बाद दुबारा उठा | 1957 के आम चुनावो मे जिस पार्टी ने पहली बार गैर कांग्रेससी सरकार देश मे बनाई | नम्बूदरिपाद देश के
पहले वामपंथी पार्टी {कमुनिस्ट पार्टी } के मुख्य मंत्री बने | आज़ादी के बाद राजनैतिक रूप से यह वां पंथ की सुनहरी विजय थी , देश के
कामगारों मे एक विश्वास जागा , लगा की की एक समतावादी समाज का निर्माण बिना खूनी क्रांति के भी संभव है | बुलेट नहीं बैलेट मे भी
आस्था हुई | अंग्रेज़ो के जमाने मे जो गैर बराबरी और ना इंसाफ़ी हुई थी ---उसके खात्मे की किरण दिखाई पड़ी | धीरे -धीरे समाजवादी
विचार धारा ने केंद्र मे सत्तारूड कांग्रेस को भी प्रभावित किया | 1957 से 1967 के दरम्यान देश के अन्य प्रांतो मे भी काफी उथल -पुथल
हो रही थी | छेत्रीय दल भी स्थानीय समस्याओ को लेकर बनने लगे थे | तमिलनाडु मे द्रविड़ कडगम रामासामी नायकर के नेत्रत्व मे
ब्रामहन राजनैतिक नेत्रत्व के खिलाफ खड़ा हुआ था वह सनातन धर्म को तहस -नहस करने का इरादा रखता था | वनही उत्तर प्रदेश मे धूर
दक्षिण पंथी दल जैसे हिन्दू महा सभा और राम राज्य परिषद उठ खड़े हुए थे | जिनका अस्तित्व ही धर्म आधारित था | बिहार और उत्तर प्रदेश
आचार्या नरेंद्र देव और बाबू बसवान सिंह तथा आचार्या कृपलानी आदि नेता कांग्रेस छोड़कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी भी पचास के दसक मे
बनाई थी | जो दूसरे आम चुनाव के पूर्व प्रजा समाजवादी पार्टी के रूप मे अवतरित हुई | झोपड़ी चुनाव चिन्ह और राष्ट्रिय वेतन नीति
नारा -----सौ से कम ना हज़ार से ज्यादा , सोसलिस्ट का यही तक़ाज़ा | 1957 के चुनाव मे ऐसी सोच समाजवादी ही थी |


छटे दशक मे शिक्षा और भूमि सुधार के लिए संघर्ष करने का जुनून भी इसी वाम पंथ की सोच का
श्रोत रूस की 1917 की क्रांति थी , जिसके द्वारा देश के मजदूर --कामगार --किसान को राष्ट्रिय उन्नति मे न्यायपूर्ण हिस्सा दिलाने
का प्रयास था | आज़ादी के बाद देश की जनता मे परिवर्तन के लिए उत्साह और कामना थी | काँग्रेस की मध्यम राजनीति के चलते
देश के सर्वहारा वर्ग की आकांच्छाओ को जल्दी अमली जामा पहनाना आसान नहीं लगता था | क्योंकि सत्तारूद दल के नेत्रत्व मे बड़े -बड़े
जमींदार -राजा रजवाड़े और धन पतियो का वर्चस्व था | ऐसे मे कुछ जागरूक नेताओ ने काँग्रेस त्याग कर किसना मजदूर प्रजा पार्टी बना कर
लोगो मे संदेश देने का प्रयास किया की """"""बदलाव जल्दी ही होगा """"'| वाम पंथ मे दो भाग हो चुके थे ----एक था रजनी पल्म्दुत्त
द्वारा इंग्लैंड मे स्थापित कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और दूसरी ओर जर्मनी से पद कर आए द्र राम मनोहर लोहिया -इंग्लैंड से आए
डॉ ज़ेड ए अहमद ने पहले काँग्रेस मे शामिल हो कर आज़ादी की लड़ाई मे गांधी जी के मार्ग दर्शन मे भाग लिया ||| लेकिन देश आज़ाद
होने के बाद विचारो की उग्रता ने इन लोगो को पार्टी छोड़ने का फैसला लेना पड़ा | 1957 से लेकर 1962 के मध्य चुनावी राजनीति के कारण
कई दल मिटे और कई नए बने | नए - नए समीकरण बने | परंतु चीन द्वारा भारत पर हमले से कम्यूनिस्ट पार्टी को लोग संदेह की
निगाह से देखने लगे | आम जनता मे बदते अविश्वास ने कम्यूनिस्ट आंदोलन को प्रभावित किया -----फलस्वरूप चीन को सर्वहारा वर्ग
का सही दिशा देने वाले और रूस की अक्तूबर क्रांति के समर्थक अलग होने की सोचने लगे | अजय घोष के महा सचिव रहते हुए पार्टी मे
दो फाड़ हो गए | बंगाल मे भी वाम पंथ दो भागो मे विभाजित हुआ तो केरल मे भी हुआ | आंध्रा और ट्रेड यूनियन चीन को आदर्श मन रहे थे |
प्रगतिशील विचार धारा के इस प्रकार बिखर जाने से सर्वहारा की लड़ाई कमजोर हुई | परंतु इन्दिरा गांधी के आपातकाल लगाने से मार्क्सवादी
खेमे को नुकसान हुआ जबकि रूस समर्थक खेमा को शासन का संरक्षण प्राप्त हुआ परंतु आम लोगो मे प्रतिस्था घटी|


आपात काल के बाद बंगाल मे वामपंथी सात डालो ने ज्योति बाबू के नेत्रत्व मे विधान सभा चुनाव लड़ा , और लोक सभा तथा
विधान सभा चुनावो मे सफलता मिली | इसका एक कारण '''आपरेशन बरगा ''''था जिसके द्वारा बटाईदारों को उस जमीन का हक़ मिला
जिस पर वे मालिक के लिए खेती करते थे | यह नकसलबारी की घटना का परिणाम था | जनहा बड़े बड़े भूपतियों ने बटाईदारों का जीना मुहाल
कर रखा था | गुस्साये बटाईदार मजदूरो ने मालिको को परिवार सहित मार डाला | कूच बिहार मे भीदंगे हुए | तत्कालीन मुख्य मंत्री सिधार्थ शंकर राय
ने इस हिंसक आंदोलन को पुलिस की सख्ती से साफ कर दिया |बहुत से लोग मारे गए सैकड़ो गिरफ्तार हुए | शासन जीता ----लेकिन लोगो के
मन से सरकार से नफरत हो गयी | 1977 के चुनाव मे काँग्रेस की पराजय हुई | बंगाल -केरल - त्रिपुरा मे मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी को
अरत्याशित सफलता मिली | यद्यपि केंद्र मे गैर काँग्रेस दलो के महा गठबंधन की सरकार थी , परंतु इन तीन राज्यो मे वाम पंथी दलो का
बोलबाला रहा |
1980 मे भी चुनावो मे [दोनों ] कम्यूनिस्टपार्टियो को सफलता बरकरार सी ही रही |बंगाल वाम पंथ का गद रहा | लेकिन
ज्योति बाबू के पद छोड़ने का फैसला करने के बाद लगने लगा था की इंका स्वर्णिम काल गया | 2010 के विधान सभा चुनावो मे ममता बनेरजी
ने 2014 मे लोक सभा चुनावो मे इन राष्ट्रिय पार्टियो को छेतरीय पार्टियो की बराबरी ला कर खड़ा कर दिया |दक्षिण पंथी पार्टी को केंद्र मे और
राज्यो मे काफी सफलता मिली | लगभग 25 सालो मे ही शिखर और फिर पराभव का क्या कारण है , इन दलो को खोजना पड़ेगा | वैसे कूच
विचारको का कहना है की रूस के विघटन और गोर्बछोव द्वारा खुलेपन के सिधान्त के कारण भारत मे वाम पंथ की सफलता के बारे मे संदेह
होने लगा था | कूच अन्य का कहना है की रूस की भांति पार्टी नौकरशाही के कारण ज़मीन कमजोर पद गयी और लोग भरमीट होने लगे |
अब जो भी कारण हो आज वाम पंथ देश मे अंतिम साँसे ले रहा है |








Aug 13, 2014

आखिरकार न्यायिक आयोग के गठन का कानून बन ही गया ........


क्या संयोग है की 13 अगस्त को हाई कोर्ट और सूप्रीम कोर्ट के जजो नियुक्ति
का कानून संसद से पारित हुआ , और दो दिन बाद स्वतन्त्रता दिवस है, वह आज़ादी भी राजनीतिक मिली थी
इस कानून से भी ""राजनीतिक "" हाथ ने संवैधानिक आज़ादी और राज्य के तीनों अंगो मे संतुलन को एकतरफा
कर दिया है | संविधान के अनुसार विधायिका -कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने मे सम्पूर्ण स्वतन्त्र है , अभी तक
थे भी , पर इस कानून से अदालतों पर अंकुश लग जाएगा वह भी संविधान के नाम पर कार्यपालिका का |संविधान के
तीन निकायो मे नियुक्ति - निर्वाचन के स्पष्ट प्रविधान है |नियमतः सरकार या कार्यपालिका विधायिका को जवाबदेह
होती है | परंतु व्यवहार मे ऐसा नहीं है, हाइ कोर्ट और सूप्रीम कोर्ट मे न्यायाधीश की नियुक्ति और कार्य संचालन
के उसे स्वायतता प्रपट है | जैसे विधायिका सदन चलाने के नियम को बनाने के लिए आज़ाद है , वह स्वानुशासित
होती है , उसी तर्ज़ पर इन दोनों अदालतों को भी अपने नियम बनाकर स्वानुशासित रहने का अधिकार संविधान ने
दिया है | अभी तक जजो की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश एवं चार वरिष्ठ जुजो की समिति करती थी ,
वे सूची बनाकर विधि मंत्रलाया को भेज दी जाती , जंहा से राष्ट्रपति कार्यालय जाती थी |फिर नियुक्ति का वारंट
जारी होता था |

मोदी सरकार के राज्यारोहण के बाद सरकार और न्यायपालिका मे टकराव शुरू हो गया

प्रधान न्यायाधीश द्वारा भेजे गए चार नामो मे गोपाल सुबरमानियम का नाम सरकार ने मंजूर नहीं किया | क्योंकि
उन्होने नरेंद्र मोदी के वीरुध दंगो के मुकदमे मे पैरवी की थी | प्रधान न्यायाधीश ने सख्त रुख व्यक्त किया परंतु
गांठ पद चुकी थी , जिसकी परिनीति इस कानून के रूप मे आई | नए विधान के अनुसार छह सदस्यीय समिति
जजो की नियुक्ति पर विचार करेगी | इसका गठन प्रधान न्यायाधीश की आद्यक्षता मे होगा , इसमे सूप्रीम कोर्ट के
दो सीनियर जज होंगे , तथा विधि मंत्री तथा दो सदस्य ऐसे होंगे जिंका चयन प्रधान मंत्री और नेता प्रतिपक्ष और विधि
मंत्री करेंगे वे लोग दो गणमान्य नागरिकों का चुनाव करेंगे जो जजो की नियुक्ति की समिति के सदस्य होंगे | अब
इस समिति मे न्यायिक और गैर न्यायिक सदस्य बराबर संख्या मे है, नियुक्ति के लिए जिन नामो पर विचार किया
जाएगा --उस मे यदि दो चयनकर्ता ने आपति कर दी तो वह व्यक्ति चयन प्रक्रिया से बाहर हो जाएगा | सरकार द्वारा
मनोनीत दो सदस्यो का प्रयोग सरकार ऐसे लोगो को जज बनने से रोकेगी ""जो उसकी विचार धारा के विरुद्ध है |"'
सूप्रीम कोर्ट मे सीधी भर्ती का पहला अवसर था जब जस्टिस फली नारिमान को सूप्रीम कोर्ट मे लाया गया |


नियुक्ति मे न्यायपालिका और सरकार के बीच रस्साकशी और ""पारदर्शिता'' के सिधान्त
की अवहेलना का पूरा खतरा है | क्योंकि सरकार अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाकर
संभावित लोगो के चरित्र हत्या का हथियार अपना कर , केवल अपने """पिछलगूओ """ को बेंच मे पाहुचाने का प्रयास
करेगी | विरोधी को """संदिग्ध "" बनाने का प्रयास गोपाल सुबरमानियम के मामले मे स्पष्ट है | क्योंकि वे नरेंद्र
मोदी के खिलाफ मुकदमा लड़े थे | सत्तारूद दल के नेताओ का विरोध अथवा उनके खिलाफ मुकदमा लड़ना अब
अब गुनाह हो जाएगा |
आज सदन मे काँग्रेस पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी आदि ने भी इस विधेयक का समर्थन
किया है , परंतु वे इस बात से आहात है की अदालत मे बैठ कर जज कुछ भी टिप्पणी करदेते है , जिसका कोई
कानूनी महत्व नहीं होता , परंतु प्रचार माध्यमों के जरिये उसे मिर्च -मसाला लगाकर फैला दिया जाता है | प्रभावित
पार्टी न तो इसके खिलाफ कोई अपील कर सकती है क्योंकि टिप्पणी कोई कानूनी आदेश नहीं होती | इस प्रकार राजनेता
बदनाम तो हो जाता है , परंतु जवाब मे कुछ कर नहीं पाता | इस काशमसाहट की अभिव्यक्ति आज सदन मे हुई |
बस एक खतरा है की अदालतों से भी अब '''प्रशासनिक इंसाफ'''' न मिलने लगे ? तब एक दिन ये राज नेता भी
ही त्राहि --त्राहि करेंगे , जब फैसले से पहले निरण्य सड़क पर चर्चित होने लगे क्योंकि तब जज साहब तथ्य या तर्क
अथवा गवाही की बात नहीं करेंगे , वे तो """अपने """और """दूसरे""" के आधार पर फैसला सुनाएँगे |










Aug 8, 2014

ज्योति हत्याकांड मे सामाजिक और विधिक न्याय की छवि


कानपुर मे करोड़पति बिसकुट व्यापारी दासनी के चिरंजीव पीयूष द्वारा अपनी पत्नी ज्योति की साजिश कर के क़तल करने
के आरोप मे गिरफ्तारी के बाद पुलिस उप अधीक्षक राकेश नायक द्वारा खुले आम माथा चूम कर निर्दोष बताना , फिर जन
आक्रोश के चलते उन्हे निलंबित किया जाना , और अदालत मे वकीलो द्वारा अभियुक्त को पुलिस हिरासत से छुड़ाकर पिटाई
करना और बाद मे उसकी पैरवी नहीं करने के फैसले के घटना क्रम ने यह तो साबित कर दिया की समाज मे अभी भी "" संवेदना'"
बची हुई है | साथ यह भी की उत्तर प्रदेश का प्रशासन भी उतना ""नाकारा""" नहीं जितना कुछ राजनीतिक दलो द्वारा चित्रित किया
जा रहा है | वरना समाज का ही दबाव था जो चौबीस घंटे ने एक पुलिस अधिकारी का निलंबन फिर उन्हे कानपुर से दूर अटैच
करना ""जन मानस """ की आकांछा की पूर्ति ही तो है , वरना इंदौर मे एक दारोगा के दुर्व्यहर पर आकृषित वकीलो को तो
एक पखवारे से ज्यादा तक ""काम बंद करके आंदोलन करना पड़ा | जैसा सामाजिक दबाव एक धनपती के अभियुक्त पुत्र की
पैरवी नहीं करना वकीलो द्वारा सामाजिक समस्याओ पर विरोध प्रकट करने का अंतिम हथियार है |

एक ओर पीयूष के पिता ने अपने पुत्र को हत्या का गुनहगार मानते हुए उसकी पैरवी नहीं करने का इरादा
जताया है वंही हत्या की सह - अभियुक्त मनीषा माखिजा के पिता हरीश माखिजा ने पीयूष पर आरोप लगाया है की उसी ने
उनकी लड़की को ज़बरदस्ती फंसाया है | पुलिस के अनुसार पीयूष और मनीषा के मध्य संबंधो को साबित करने के
लिए मोबाइल फोन से भेजे गए सैकड़ो एसएमएस का विवरण निकाला है जो लगभग 700 पेजो का है | अभियुक्तों ने
संदेशो को डिलीट कर दिया था | यह दर्शाता है की जंहा पीयूष के पिता ने घटना के सत्या को स्वीकार करते हुए पुत्र के दोष
को मंजूर किया वंही गुटखा व्यापारी हरीश माखिजा ने सत्य को झुठलाने के लिए पैसे और रसूख की मदद लेने का अहंकार
दिखाया है | जबकि अभी तकके घटना चक्र से स्पष्ट है की प्रथम द्रष्ट्या दोनों ही दोषी है | यह दो पैसे वालो की मनःस्थिति
को रेखांकित करता है , जनहा एक ने सच को मान कर "अपराधी"" की मदद नहीं करने का फैसला किया वंही दूसरे ने
""संतान मोह "" को सामाजिक - कानूनी दायरे को नकारने की कोशिस की है | यह समाज मे पैसेवालों की मनःस्थिति
को दर्शाता है | व्यक्ति और समाज की इस लड़ाई मे कौन जीतेगा यह भविष्य के गर्भ मे है |

इस घटना एक और पहलू है की समाज के लोग इस घटना के द्वारा यह सीध करने की कोशिस मे है की ""पैसे""
से न्याय नहीं खरीदा जाये ---जबकि वास्तविक जीवन मे "" न्याय "" मिलना असंभव सा ही है | अदालतों के चक्कर
और सालो चलने वाली सुनवाई - अपील आदि मे दासियो साल लग जाते है | डाकू फूलन देवी की हत्या मे हाइ कोर्ट ने
सत्रह साल बाद अभियुक्त शेर सिंह राणा को दोषी करार दिया है | इस हाइ प्रोफ़ाइल मामले मे एक तो डाकू दूसरे हत्या के
समय वे संसद सदस्य थी और राणा से उन्होने शादी की थी | इसलिए जब ऐसे मामले दासियो साल बाद निर्णीत हो तो
सहज ही लगता है की पैसा और समय ही अपराधियो को अदालत के चंगुल से दूर रखते है |परंतु मध्य प्रदेश के उपभोक्ता मंच
ने उप पुलिस अधीक्षक द्वारा जिस प्रकार से सरे -आम पीयूष से प्यार दर्शाया उस से जिले की पुलिस की ""ईमानदारी ""
पर प्रश्न चिन्ह लगाया है | इसीलिए स्थानीय वकीलो के सहयोग से उन्होने इस मामले की जांच स्पेशल टास्क फोर्स
से करने की मांग करते हुए उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री को पत्र लिखा है | ज्योति जबलपुर की निवासी थी और उसके पिता
व्यापारी है और उनकी सामाजिक - राजनीतिक प्रतिस्था है | जबलपुर के नागरिक शहर की ""लड़की"" की इस प्रकार हत्या
किए जाने से चुब्ध है |


हालांकि यह मामला भी हत्या के अपराध का है ,जिसकी जांच कानून के अनुसार ही होगी , सबूत झुटाए जाएँगे
गवाह खोजे जाएँगे | लेकिन कानून की किताब मे दो प्रकार के अपराध बताए गए है एक वे जो ""समाज के प्रति किए गए """
और दूसरा वह जो ""व्यक्ति के विरुद्ध हो """ , हत्या -डकैती जैसे अपराध समाज के विरुद्ध की श्रेणी मे है | परंतु
निर्भया बलात्कार के बाद यह दूसरी घटना है जब देश या प्रदेश तो नहीं परंतु कानपुर शहर मे ज़रूर ""गुस्सा"" है | यही
संवेदना अपराध और अपराधियो के हौसले पस्त करने के लिए बहुत है |








Aug 7, 2014

वैदिक राष्ट्रियता किसी विश्व विजेता या सम्राट की विजय का परिणाम नहीं वरन हमारे धरम का प्रभाव है


ब्रहतर भारत की कल्पना किसी सम्राट की दिग्विजय यात्रा का परिणाम नहीं है जिससे यह कहा जा सके की
अफगानिस्तान से लेकर जावा -सुमात्रा तक जिस "'संसक्राति """की छाप दिखाई पड़ती है वह हमारे ऋषियों का योग दान है
जिनहोने हुमे समस्त विधाओ का ज्ञान दिया | एक गलतफहमी अक्सर लोगो के विचार मे रहती है जैसे की किसी समय हमारे
देश का राज्य इन सभी स्थानो पर था| परंतु ऐसा नहीं है , वस्तुतः जिस प्रकार सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए
अपनी संतनी को श्री लंका भेज दिया था , वह कोई पहली बार नहीं हुआ था | कंबोडिया और म्यांमार मे भी आज बौद्ध धर्म
के मानने वाले ही बहुसंख्यक है | परंतु कंबोडिया के सम्राट के नाम मे ""राम ""का उपयोग आवश्यक रूप से होता है ,
वंहा एक परंपरा है की बीस से पचीस वर्ष तक बौद्ध मठ मे रह कर शिक्षा प्रपट करते है | वैदिक धर्म की आश्रम व्यवस्था
मे भी बालक को प्रथम पाचीस वर्ष तक गुरु के आश्रम मे रह कर शीशा प्रपट करनी होती थी | यह परंपरा जारी होना ही
प्रमाण है की वैदिक धर्म का प्रसार वंहा था | इसका एक कारण हो सकता है की उनकी सभ्यता मे वैज्ञानिकता का अभाव
रहा होगा जो हमारे धर्म मे थी |

पिछले आलेख मे मैंने जंबू द्वीप के बारे मे बात की थी वस्तुतः यह समस्त छेत्र ही जंबू द्वीप है ,
जिसका विस्तार अफगानिस्तान से लेकर समस्त भारत होते हुए श्री लंका और वर्तमान इंडोनेशिया -कंबोडिया आदि तक फैली
हुई थी | भरत ख्ण्डे से मंत्र मे तात्पर्य वर्तमान भारत की वर्तमान सीमा सहित पाकिस्तान -बर्मा -भी शामिल रहे होंगे |
क्योंकि हिंदुकुश -हिमालय -विंध्या -पर्वत श्रंखलाओ के विस्तार के छेत्र शामिल है क्योंकि इन इलाको मे भी भरत खंडे के
ही मंत्र का जाप होता है | इसी प्रकार आर्यवेर्ते का तात्पर्य गंगा -यमुना के मैदान का इलाका है | दिल्ली और राजस्थान
के इलाके को ब्र्म्हवर्त कहा गया है | इसकी निशानी बताई गयी है की जनहा काले हिरण नहीं होते वह छेत्र ही ब्र्म्हवर्त
है |काफी समय तक यानहा तक की महाभारत के भी कुरुछेत्र को इसी इलाके मे बताया गया था |

इस संकल्प मंत्र की विवेचना करके यह तो लगभग निश्चित हो गया की वैदिक भारत की ""परम्पराओ ""
को गंगा -यमुना के मैदानो से दूर तक प्रसार हुआ | यह सब कम से कम दो से तीन हज़ार वर्षो पूर्वा का है ,क्योंकि
बौद्ध धर्म का प्रसार करने निकले भिक्क्षुओ ने इन सभी इलाको मे अपने धर्म का प्रसार किया | लेकिन उन्होने पुरानी
परम्पराओ को बरकरार रखा | यही कारण है की कंबोडिया या लाओस मे बौद्ध धर्म राज्य का धर्म तो है परंतु परंपराए
आज भी वैदिक है | इंडोनेशिया इस्लामिक राज्य है परंतु वंहा के जावा द्वीप पर इस्लाम धर्म कए मानने वाले बहुसंख्यक
है सिर्फ थोड़े से लोग आज भी सनातन परंपरा के वैदिक धर्म को मानने वाले है | जो सदियो पुराने मंदिरो की देख -रेख
कर रहे है वे अपने पर्व और त्योहार भी मानते है | यंहा की रामलीला भरत मे भी सराही जाती है , अब यह विचित्र
लगेगा की रामलीला मे राम कोई मुस्लिम बने ! हमारे देश मे अगर ऐसा हो जाये तो सांप्रदायिक दंगे हो जाये , जंहा
मंदिर पर लाउड स्पीकर लगाने को लेकर हिन्दू - मुस्लिम दंगा हो जाये वंहा ऐसी बात भी कल्पना लगती है |

इन तथ्यो के अनुसार हम अपनी परम्पराओ पर गर्व तो कर सकते परंतु हम इसे अपनी "विश्व विजय ""
क़तई नहीं कह सकते , हम इस पर न तो यह कह सकते है की यह हमारी """विजय""नहीं है | इसलिए हम इसका
अध्ययन ही कर सकते है , इसे अपने गौरव पूर्ण इतिहास की एक उपलब्धि तो मान सकते है , परंतु इसको
अपना नशा नहीं बना सकते | जैसे की चीन अपने """इतिहास मे चंगेज़ खान की विजय """ को शामिल कर के
तिब्बत और भारत के हिस्सो अरुनञ्चल पर अपना हक़ जता रहा है | कुछ तबको मे जंबू द्वीप की अवधारणा
को हमारी विश्व विजय के रूप मे पेश करने कोशिस की जा रही है जो बिलकुल सही नहीं है |






Aug 6, 2014

राष्ट्रियता एक वेदिक अवधारणा है , राजसत्ता से जुड़ी नहीं है



अभी हाल मे भोपाल मे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और उनके 21 आनुषंगिक संगठनो की त्रि दिवसीय बैठक मे
सर संघ संचालक मोहन भागवत ने एक भासण मे कहा था की राष्ट्रियता की अवधारणा 1947 से नहीं वरन उसके पूर्वा से है |
उन्होने कहा की हमारे देश की ऋषि परंपरा ने यह अवधारणा बनाए रखी है | इसका देश की आज़ादी से कोई लेना -देना नहीं है |
लेकिन वे इस बात का खुलाषा नहीं किया की आखिर व्रहतर भारत और राष्ट्रियता की विरासत का प्रारम्भिक काल कौन सा था?
वैसे राष्ट्रियता की अवधारणा राजनीतिक नहीं है | क्योंकि हमारे इतिहास मे किसी भी सम्राट ने वर्तमान भारत को आधिपत्य नहीं
पाया था , अधिकतर या तो उत्तर भारत के अधिनायक थे या दक्षणी राज्यो के उसी समय कोई अन्य राजवंश का शासन हुआ
करता था | इसलिए सम्राटों का इलाका इस अवधारणा का जन्मदाता नहीं हो सकता | इसलिए भगवत जी का यह कथन सही है
की यह अवधारणा स्वतन्त्रता के बाद नहीं बनी | लेकिन यह भी एक तथ्य है की वर्तमान देश का नक्शा अंग्रेज़ो द्वारा सौपा
गया है |
अगर हम नन्द साम्राज्य से प्रारम्भ करे तो मौर्य फिर गुप्ता समराजों का इतिहास भी गोदावरी के ऊपर तक ही रहा
है , दक्षिण मे दूसरे राजे _ महाराजे राज्य करते थे जो उत्तर से अलग थे | आसाम भी काफी समय तक स्वतंत्र रहा |
उधर पंजाब और अफगानिस्तान सिंध कभी उत्तर के राज्यो की अधीनता मे रहा लेकिन मौका मिलते ही आज़ादी का ऐलान करता
रहा | ऐतिहासिक रूप से इन तथ्यो को रखने का तात्पर्य था की राजनीतिक सीमाए कभी ""भारत"" को राष्ट्र का रूप नहीं दे
सकी | सिकंदर का मुक़ाबला भी पंजाब के एक राजा द्वारा किया गया था , नन्द साम्राज्य उसकी मदद को नहीं आया था | अर्थ
यह है की उस समय राजाओ वतन उनका राज्य ही था उन्हे देश और राष्ट्रियता की अवधारणा का ज्ञान नहीं था , |

परंतु यह कहना की उन्हे अपनी सान्स्क्रतिक --धार्मिक विरासत का ज्ञान नहीं था , गलत होगा | क्योंकि इस धरा
पर अगर अफगानिस्तान से लेकर काश्मीर से केरल तक या यू कहे की देश से बाहर श्री लंका और बर्मा और इंडोनेशिया
तक हमारी सशन्स्क्रती को फैलाने """"धर्म """ का स्थान रहा है | एवं यह अत्यंत प्राचीन अवधारणा है ---इसका प्रमाण
वेदिक धर्म मे किसी भी अनुष्ठान को करने के पूर्वा व्यक्ति को जिसे "यजमान" की संज्ञा दी गयी है | हमारे धर्मशास्त्रों के
अनुसार कोई भी "संकल्प" ""स्थान और समय ""के विवरण के बगैर सम्पन्न नहीं हो सकता | अध्यात्म मे भी कहा गया है
"" समस्त चराचर का मूल काल और आकाश है """ योग मे कहा गया है की महायोगी समय की सीमाओ को विजय कर
लेते है | इसीलिए ऐसे महान योगियो के कथन अटल सिद्ध होते है | इस बारे मे फिर कभी विस्तार से बात होगी | हम अपने
असल मुद्दे पर आते है |

वेदिक धर्म ना कि हिन्दू , क्योंकि अब मई जो लिखने जा रहा है वह मुझे अपने करमकांडो कि
जानकारी से मिला है | आसान पर बैठने के पश्चात ही संकल्प लेते ही कहा जाता है """ जम्बूद्विपे भारत खंडे आर्यावरते
अमुक छेत्रे अमुक नदी तीरे अमुक नाम समवतसरे अमुक मासे अमुक तिथौ तत्पश्चात अपने गोत्र का उच्चारण करके अपने
मन्तव्य को बोलते हुए जल को भूमि पर छोड़ा जाता है | अब इस संकल्प कि विवहना करे तो पाएंगे कि जंबू द्वीप कि
अवधारणा मे अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर से केरल और बर्मा तथा बाली द्वीप समूह तक वेदिक धर्म कि सनातन परंपरा
प्रवाहित हुई थी |राष्ट्रियता कि अवधारणा का प्रारम्भ किस समय से हुआ ,यह तय करना मेरे लिए संभव नहीं , क्योंकि
ये समय किन ग्रंथो मे उद्धरत है यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना तो पक्का है कि हमारी परंपरा प्राचीन है और उसी के
अनुरूप राष्ट्रियता कि अवधारणा भी |

अब रही ब्रहतर भारत कि बात तो यह संकल्प ही इसका सबूत है कि जिन स्थानो को इस
अवधारणा मे शामिल किया गया है वे राजनीतिक रूप से भले ही किसी एक सिंहासन के अधीन भले ही ना रहे हो परंतु
""धर्म और परंपरा """ के कारण इन छेत्रों के लोग एक सूत्र मे बंधे थे ,जिसका प्रमाण संकल्प कि शब्दावली ही है |








Jul 31, 2014

जब कलेक्टरों के आंकड़ो को सरकार भी नहीं मान सकी !


प्रदेश के ज़िलो से सरकार ने बंधुआ मजदूरो की संख्या और स्थिति के बारे मे रिपोर्ट मांगी थी , क्योंकि
समाचार पत्रो मे लगातार बंधुआ मजदूरो की दयनीय स्थिति पर बड़े -बड़े समाचार लिखे जा रहे थे | इसलिएराजधानी
मे वारिस्ठ अधिकारियों ने वस्तु स्थिति की जानकारी के लिए ज़िलो से रिपोर्ट म्ंगाई थी | परंतु उन्हे तब आश्चर्य
हुआ जब प्रदेश के सभी जिलो के अधिकारियों ने रिपोर्ट भेजी की उनके छेत्र मे ""कोई भी बंधुआ मजदूर नहीं है """|
इस रिपोर्ट से सरकार के अफसरो के होश ही उद गए , क्योंकि दो दिन पूर्व ही मंडला जिले के एक आदिवासी ने
अपने पुत्र को बंधक इसलिए बनाया की उसे भोजन के लिए रुपये की जरूरत थी | यह समाचार राजधानी के एक पत्र
मे छपा था , फिर भी राज्य के 51 ज़िलो से यही रिपोर्ट आई की ""उनके यहा कोई भी बंधुआ मजदूर नहीं है "|

इस रिपोर्ट के बाद राज्य सरकार ने प्रदेश स्तर पर मंत्रालय मे निगरानी समिति गठित की गयी |
गृह सचिव की अध्यक्षता मे यह समिति ने सम्भागीय स्तर पर समितीय गठित की है जो अपने छेत्र मे बंधुआ
मजदूरो के लिए सर्वे करेंगे | यह एक उदाहरण है की हमारी अफसरशाही कैसे और कितनी ""ईमानदारी"""से काम
करती है | इस बारे मे शर्म कीबात यह है की सचिव लीग जिलो के अधिकारियों की लापरवाही से हतप्रभ है |
परंतु अफसरो के """अनलिखे "" नियम के अनुसार सब एक -दूसरे को बचते ही है |

एक ऐसा ही मामला शिक्षा विभाग का है जिसकी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की बीस हज़ार छात्राओ
को मार्शल आर्ट मे प्रशिक्षित किया गया है | अब इस आंकड़े को सही माने तो स्कूल मे छेदखानी की घटनाओ
मे लड़कियो को बेइज़्ज़त और शर्मशार नहीं होना पड़ता | बलात्कार का शिकार नहीं बनना पड़ता , तो यह आंकड़े
कितने सच है प्रश्न है ?

भाई साहब नहीं कहिए भाई जान कहे




विदेश मंत्री सुषमा स्वराज्य ने नेपाल मे जा कर कूटनीतिक भाषा मे एक नए शब्द को जन्म दिया
जिसका प्रयोग वाकई तारीफ के काबिल है ---वह है भाई जान | दरअसल उन्होने पड़ोसी देशो को आश्वस्त
करते हुए कहा की वे भारत को अपना बड़ा भाई समझे , अङ्ग्रेज़ी मे दो शब्द है बिग ब्रदर और एल्डर ब्रदर एक का
अर्थ है ""दादा"" और दूसरे से अग्रज का आशय होता है | लखनऊ विश्वविद्यालय मे अध्ययन के दौरान मुझे
इन शब्दो के अर्थ का वास्तविक रूप का भान हुआ | छात्र संघ के चुनाव मे एक उम्मीदवार दे अविनाश दादा
उनके सरनेम के बारे मे मुझे पता नहीं था | उनके वीरुध विज्ञान संकाय के ताङणी जी थे वे पर्वतीय थे | चुनाव
प्रचार के दौरान अविनाश दादा के आतंक के कारण तीन -चार सौ छात्रो का हुजूम चलता था , गगन भेदी नारे
लगते थे "" अविनाश का टेम्पो हाइ है --दादा हमारा भाई है """ उनके प्रतिद्वंदी उम्मीदवार इस प्रचार से थोड़ा
हतप्रभ थे | उस समय टांगड़ी की दो बहने भी विश्वविद्यालय मे ही अध्ययनरत थी ,वे भी अपने भाई का प्रचार कर रही थी
दो -तीन दिन बाद यकायक देखा की की दादा के जुलूस के पिछले हिस्से के दस - बारह च्चाटरों को रोक कर
उन दोनों से सवाल किया की "भैया आपके दादा कान्हा के दादा है , बॉम्बे के या कलकत्ता के ? अब इस सावल से सभी थोड़ा चकराये फिर हिम्मत कर के सवाल किया की आपका क्या मतलब है बॉम्बे और कलकत्ता से ? उन्होने कहा की बॉम्बे मे दादा का
मतलब गुंडे - मावली से होता है और कलकत्ता मे बड़े भाई को इस सम्बोधन से बुलाया जाता है ,अब बताओ ?
अविनाश दादा की गुंडई के डर से ही लड़के उन के साथ थे ,परंतु इस व्याख्या ने उनके दिमाग खोल दिये |
परिणाम स्वरूप जीतने लड़को का जुलूस चलता था उतने भी वोट दादा को नहीं मिले | तब मेरी भी समझ मे आया
की दादा का अर्थ कैसे स्थान परिवर्तन से बदल जाता है |

सुषमा जी ने भी पड़ोसी देशो नेपाल - भूटान आदि को भारत को बड़ा भाई यानि की
कलकत्ता दादा समझने का आग्रह किया है ना की बॉम्बे का दादा | इसीलिए उन्होने नया सम्बोधन दिया भाई जान ,
हालांकि हिन्दी और हिन्दू तथा राष्ट्रवाद की पार्टी से संबंध रखने के कारण इसके लिए लोग उन्हे उर्दूपरस्त या
सर्व धर्म समभाव का हिमायती न समझ लिया जाये , क्योंकि उनकी राजनीतिक प्रष्टभूमि समाजवादी दल की
है स्वयं सेवक संघ की नहीं , इसीलिए वे ज्यादा सहज है अन्योय की तुलना मे



Jul 30, 2014

कैसे हो हरियाली जब जंगल ही खतम किए जाये ?


30 जुलाई को जब वन मंत्री डॉ गौरी शंकर शेजवार मध्य प्रदेश मे एक करोड़ पौधो को लगाने की
की घोसना कर रहे थे , उसी सुबह पूना के आंबेगाओं तहसील के मालिन नामक गाव पहाड़ की मिट्टी खिसक जाने से तबाह
हो चुका था | एक बस ड्राईवर ने ने रोज की तरह जब सड़क और गाव को अपने स्थान से नदारद पाया तब प्रशासन
जानकारी मिली की सारा गाव मय आबादी समेत ""गायब"" हो चुका है | शासन के अनुसार ज्यतिर्लिंग भीमशंकर से दस किलो
मीटर की दूरी पर बसे इस गाव को सहयाद्रि पर्वत श्रंखला की तलहटी मे जुंगल काट कर बसाया गया था | पर्यावरण की विभिसिका
से लापरवाह प्रशासन की गलती का खामियाजा गाव वालों को जान - माल की बरबादी के रूप मे मिला | ऐसे मे वन मंत्री का
यह कहना की चालीस हेक्टर तक की वन भूमि का औद्योगिक उद्देस्य के लिए छूट दी जानी चाहिए , अब उद्योग किसके लिए
और किस कीमत पर सवाल यह उठता है ? वे एक करोड़ पौधे लगाने की बात करते है , जंगल बनाने के लिए पौधो को कितनी
भूमि की जरूरत होगी ,यह भी एक मुद्दा है और ऐसे मे वन छेत्र को कम करना कन्हा तक तर्कसंगत होगा?

उन्होने कहा वन्य जन्तुओ को प्रश्रय दिया जाएगा , कूनों अभयारण्य मे गिर के सिंह लाये
जाएँगे , अब सवाल यह भी उठता है की एक सिंह के लिए कितना वन छेत्र और उसके आहार के लिए कितने पशु उस वन मे
है ? आज जब भोपाल मे केरवा बांध के समीप तेंदुआ और अन्य जंगली जानवर विचरते है तो वनहा की आबादी मे डर तो
व्याप्त होता ही है? एक साल मे केवल दो बाघ ही मध्य प्रदेश के जंगलो मे बढे है | राज्य के एक अन्य अभयारण्य के बाहर
भी हिंसक वन्य जन्तुओ द्वारा आबादी मे घुस कर लोगो के जान और उनके पशुओ पर हमला करने की घटनाए अक्सर सामने
आती है | अब यह केवल इसलिए होता है की आबादी के कारण उनका विचरण कठिन होता जा रहा है ,साथ ही उनके भोजन
के लिए जो जन्तु जरूरी है उनकी संख्या और उपलब्धता कम होती जा रही है , इस कारण वे आस पास की आबादी मे पालतू
जानवरो पर हमला करते है , इस से ग्रामीणों मे भी तो रहता है साथ पशुओ के मारे जाने से उनकी आजीविका भी प्रभावित होती है |

इन हालातो मे वन छेत्र मे व्रद्धि तथा वन्य जन्तुओ की संख्या मे बदोतरी के साथ पर्यावरण की रक्षा करना
एक चुनौती है , ऐसे मे उद्योगो के लिए जंगलो को काटना कितना बुद्धिमानी पूर्णा कार्य होगा यह अपने आप मे एक ज्वलंत
प्रश्न है | समस्या गंभीर है और सरकारी अमले की बेरुखी इसे और खतरनाक बनाएगी ऐसा अनुमान है | अभी तक वन विभाग
यह स्पष्ट नहीं कर सका है की किन किन स्थानो मे कौन कौन से पौधे लगाए जाएंगे ?

ज़िंदगी या कैरियर चुनाव किसका ?आज के युवा की त्रासदी


आज जिधर भी नज़र दौड़ाओ युवको को प्रतियोगिता और -स्टडी फिर प्लेसमेंट की दौड़ मे भागते ही पाएंगे ,
कुछ लड़को से इस बारे मे मैंने बात कर के जानना चाहा की आखिर उनकी ज़िंदगी का मक़सद क्या है ? तो सभी का जवाब था की
अधिक से अधिक पैसा कमाना और उस से क्वालिटी टाइम स्पेंड करना , जब इस स्थिति के बारे मे विस्तार से पूछा तो उनके
जवाब थे --बड़िया फ्लॅट -बड़ी गाड़ी मोटा बैंक बैलेंस | रुपये से मनचाहा खाना खाना और कपड़े खरीदना "" बड़ी -बड़ी
कंपनियो के और नामचीन मोबाइल -टीवी सेट -साउंड सिस्टम आदि | जब मैंने उनसे उनकी दिनचर्या के बारे मे पूछा तो उनका जवाब
था की सुबह सादे नौ बजे ऑफिस पाहुचना वनहा से क्लाईंट के पास या मीटिंग मे जाना | दोपहर के भोजन के बारे मे उनका जवाब था
की सभी लोग कनही जाकर वर्किंग लंच करना , वह भी तीस मिनट से एक घंटे मे | फिर वही भागमभाग , रात आठ या नौ बजे
अपने रूम या फ्लॅट मे पहुँचना खाने के लिए अगर कुछ बना रखा है तो खा लेना और सादे दस बजे तक सो जाना | क्योंकि सुबह
सात बजे ट्रेन या बस पकड़ना होती है | यह दिनचर्या हफ्ते के छह दिन हो ऐसा नहींरविवार को भी कोई न कोई ऑफिस का अधूरा
असाइन्मंट पूरा करने के लिए मोबाइल पर लगे रहना | सिर्फ सोने के वक़्त को छोड़ कर बाकी समय तनाव बना रहना क्योंकि
क्लाईंट या असाइन्मंट का परिणाम क्या होगा असफल रहने पर बॉस को क्या जवाब देना होगा इस की चिंता मे लगे रहना मजबूरी
होती है | इसी तनाव से भरी स्थिति मे फ्लॅट या रूम पर वापसी यात्रा भी होती है , अगर कनही मोटर साइकल या कार से लौट
रहे है तो स्थिति और भी खतरनाक होती है की कनही गाड़ी का एक्सिडेंट न हो जाये | आज के युवा की सफलता की यह एक झांकी
है |


सवाल यह है की इस पूरे दौरान एक बार भी उन्हे अपने माता- पिता या घर की सुध नहीं आती है ,जंहा वे पड़े और बड़े
हुये , जिनहोने अपनी पूंजी लगा कर उन्हे पड़ाया -लिखाया , जो उसकी चिंता करते है | यह उपेक्षा कोई एक दो दिन नहीं होती
हफ़्तों और महीनो चलती है | घर से माता -पिता ही फोन से हाल -चाल पूछते है तो अलसाए भाव मे युवा टरका देते है |
क्योंकि उनकी दिनचर्या मे """माता -पिता और घर """ का कोई महत्व नहीं होता | जबकि उनके वर्तमान को बनाने मे वे
अपना भविस्य भी दाव पर लगा चुके होते है |परंतु परिवार से दूर --दोस्तो और परिचितों से अलग एक माहौल जनहा प्रश्नवाचक निगाहे
और शंका भरा वातावरण हो और महाभारत के अर्जुन की भांति ""उस से उम्मीद की जाती है की वह केवल कंपनी द्वारा दिये गए
लक्ष्य को उसी भांति एकाग्रता से प्राप्त करने का प्रयास """अहर्निश""" करता रहे | एक योगी की भांति आहार -विहार तथा किसी भी
अन्य सांसरिक ""चिंताओ"""को त्याग कर वह कुछ लोगो के एक समूह द्वारा """"लाभ अर्जन"""" के लिए किए जा रहे उद्यम को
ही एकमात्र उद्देस्य बनाए | अब जिन संगठनो के लिए उयकों से इस तन्मयता की उम्मीद की जाती है वे अनेक बार कानूनी एवं
सामाजिक रूप से धोखा और विश्वासघात के आरोपी बनते है | हथकड़ी लगती है अदालत और मीडिया उन्हे खलनायक निरूपित करता
है | अर्थात काम करने वाला युवक दिग्भ्रमित हो जाता है की वह परिवार मे सिखाये और विद्यालयो मे पड़ाए गए जीवन मूल्य को
को उचित माने अथवा """"सफलता """" को जीवन और कार्य का एकमात्र उद्देस्य समझे |


इस माहौल का एक ही आदर्श वाक्य होता है ""जो मैं चाह रहा हूँ वही अंतिम सत्य है ""तथा उसी को प्राप्त
करना ही मोक्ष के समान है | युवक को इस वातावरण मे रहते - रहते एक प्रकार की मानसिकता विकसित होती है जो ""उपलब्धि ""
को येन -केन पाने मे ही सफलता मानती है | वह साध्य को परम धर्म मानने लगती है उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की
जिस साधन से वह लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है वे कानूनी और नैतिक स्टार पर गलत है | अगर उसे इस बात
पर टोका जाता है तब वह उन लोगो को अपना शत्रु और मूर्ख मानकर एक ही शब्द कहता है आप प्रैक्टिकल नहीं है | अब इस शब्द
मे उसकी भर्त्सना निहित है | इस प्रकार वह उन मूल्यो से पूरी तरह दूर हो जाता है जो उसे सिखाये गए थे | पैसे से सब कुछ
खरीदने की मानसिकता उसे अक्सर ""मानव से दानव """ बना देती है | यद्यपि समाज और सरकार मे इस वैल्यू सिस्टम को
उचित मानने वालों की संख्या कम भले ही हो परंतु वे निर्णायक हैसियत मे है | इस माहौल का परिणाम हम देखते है की बड़े -बड़े
नाम जब समाचारो मे सुरखिया बनते है तो किसी भले कार्यो के लिए नहीं वरन एक अभियुक्त और कानून तोड़ने वाले के रूप मे |
तब समाज मे जो लोग धन और सुविधाओ से व्यक्ति की हैसियत और सफलता आँकते है ---वे भी भरमीट हो कर कहते है """अरे
इसको ऐसा तो नहीं सोचा था """"' सत्यम घोटाले के समय स्टॉक एक्स्चेंज और व्यापारिक हलको मे अलावा आम निवेशको के
विश्वास को भी धक्का लगा था | तब शायद स्टॉक मार्केट के बारे मे लिखी या बताई गयी बातों और सूचनाओ पर प्रश्न चिन्ह
लगने की शुरुआत थी | यू तो अनेक कांड हो गए परंतु इस मार्केटिंग युग का चलन का मिजाज नहीं बदला | परिणाम स्वरूप
अक्सर बड़ी - बड़ी कंपनियो मे कार्यरत युवक अनेक घटिया अपराधो मे पकड़े जाते है, अथवा पकड़े जाने की आशंका से आत्महत्या
करते है |

इस प्रकार एक स्वर्णिम अवसर धूल धूसरित होता है | वर्षो की शिक्षा और मेहनत माता-पिता की तपस्या असमय ही
दम तोड़ देती है |जीवन के संध्या काल मे जब ऐसे माता - पिता सहारे की आस मे होते है तब अक्सर उन्हे खुद परिवार का आसरा
और सहारा बनना पड़ता है | सवाल यह है की असमय मे महत्वाकांछा के लिए बलि चद्ते ऐसे जीवन से नाही परिवार अथवा समाज
का भला होता है ना ही देश का | तब सोचने पर कोई मजबूर होता है की क्या आज की भागम भाग उचित है या जीवन मे संतोष
से थोड़े मे अपने परिवार जनो के साथ वक़्त बिताना ज्यादा श्रेयस्कर है ,बजाय इसके की बड़ी गाड़ी मोटा बैंक बैलेंस सजा हुआ फ्लॅट
हो ? सवाल अभी भी अनुतरित है ?परंतु उत्तर खोज्न होगा वरना पीड़ी की पीड़ी इस म्रग मारीचिका के पीछे भागता रहेगा | वह खुद
और समाज तथा देश खोखला होता रहेगा |





Jul 13, 2014

अभिभावकों की आफत --फीस या फिरौती ?


आज कल किसी भी शिक्षा संस्थान मे फीस का बड़ा गड़बड़ झाला है , क्योंकि सरकार द्वारा किसी भी स्तर पर इस बात
का प्रयास नहीं किया गया की कॉलेज या स्कूलो मे अन्य संस्थानो की फ़ीसों मे ""एकरूपता """ला सके | इसीलिए सदको - गलियो
मे खुले तथा कथित नाम के कान्वेंट स्कूलो की फीस भी आसमान छूती है |सिवाय सरकारी प्राइमरी स्कूलो या माधायमिक कालेजो मे
जनहा सरकार का फरमान चलता है , उसके अलावा अन्य सभी प्रकार के संस्थानो मे खासकर अल्प संख्यक समुदाय के शिक्षा संस्थान
तो बिलकुल निरंकुश है वे ड्रेस - दाखिले के नियम , किताब -कॉपी के खरीदने के बारे मे तथा "अनुशासन" के नाम पर जो होता है
उसे ""ज्यो का त्यो"" मानने मे बहुत कठिनाई है |

अभी हाल मे ही एक अखबार ने एक सर्वे किया ""पब्लिक स्कूल और कालेजो
का ,जिसमें दिल्ली- मुंबई - कोलकोतता - बंगलोर -पुणे- नागपूर के साथ ही भोपाल और इंदौर के संस्थानो """"का भी जायजा लिया
गया है | आप को यह जान कर ताजुब्ब होगा की भोपाल मे अगर औसत फीस 56 हज़ार से 76 हज़ार वार्षिक है , तो इंदौर मे यह फीस
45 हज़ार से लेकर 2.5 लाख तक है , जबकि यह फीस मात्र 76 हज़ार और मुंबई मे 43 हज़ार तथा कोलकता मे 44 हज़ार
और पुणे मे 54 हज़ार और नागपूर मे 58 हज़ार है सबसे कम फीस बंगलोरे मे 41 हज़ार है | केवल तमिलनाडु मे पब्लिक स्कूल की फीस
पर सरकार का पूर्णा नियंत्रण है | उपरोक्त फीस मात्र ट्यूसन - विकाश - एडमिसन फी-एवं लंच [अगर दिया गया ] |पहली कक्षा की
इतनी फीस यह तो बता देती है की """"""भारत मे गरीब लोग तो रहते ही नहीं """"""| सवाल है अगर तमिलनाडु सरकार शिक्षा
संस्थानो की फीस को नियंत्रित कर सकती है -----तब देश के अन्य राज्यो की सरकारे क्यो ऐसा कदम नहीं उठा सकती ?
इसका अर्थ यह है की या तो सरकार -- शासन के लोगो की मिली भगत है , या उनके खुद के शिक्षा संस्थान है | महाराष्ट्र और
कर्नाटका मे जीतने शिक्षा संस्थान है वे किसी न किसी पार्टी के मंत्री या सांसद की रियासत है | अब इन लोगो के स्वार्थ के कारण
फीस तो कम नहीं होगी ,जैसे मंहगाई कम नहीं होगी | क्या जनता अपने प्रतिनिधियों से यह पूछेगी की अगर तमिलनाडु मे कान्वेंट
स्कूलो की फीस नियंत्रित की जा सकती है तब मध्य प्रदेश मे क्यो नहीं ?????ज्वलंत प्रश्न ......










|

नेता मे आक्रामकता ज़रूरी है क्या ?


अपने शीर्षक को थोड़ा सा उलट देता हूँ की क्या नेता बनने के लिए आक्रामकता ज़रूरी है ?, इस कथन की
की विवेचना करना इसलिए आवश्यक है , क्योंकि यह श्री दिग्विजय सिंह उवाच है , आम आदमी कोई ऐसी टिप्पणी करता तब उसको
गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं होती , पर यह कथन एक ऐसे आदमिके श्री मुख से उद्घाटित हुआ तो , विवेचना का मुस्तहक बन गया|
इसके कई कारण हो सकते है , परंतु मेरी समझ से प्रदेश के दस साल की अवधि तक मुख्य मंत्री रह चुके डिग्गी राजा कोई अंट-शंट
बयान नहीं देते | दूसरा वे काफी निहितार्थ वाली टिप्पणी के लिए भी जाने जाते है | तीसरा यह कथन जिस संदर्भ और व्यक्ति के बारे मे
मे किया गया वह और कोई नहीं वरन काँग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी है ! जिनके संदर्भ मे यह अक्सर कहा जाता है की दिग्विजय सिंह ने
उन्हे प्रजातन्त्र मे दलीय राजनीति के गुर सिखाये है | अब ऐसे मे यह टिप्पणी महत्वपूर्ण बन जाती है | क्योंकि लोकसभा चुनावो मे हुई
पराजय के बाद उनका यह कहना की """""राहुल जी मे शासक बनने की छंटा नहीं है , जिस आक्रामकता की जरूरत होती है उसका अभाव
है , वे तो गलत के वीरुध लड़ाई लड़ना चाहते है """ अब इस का क्या अर्थ लगाया जा सकता है ? इसको सतही तौर पर यह कहा जा रहा
की राहुल जी नेत्रत्व करने की छमता का अभाव है |

अब इसकी विवेचना के लिए काल और परिस्थिति का अनुमान लगाना जरूरी है , क्योंकि
सामान्य दिनो मे यदि यह टिप्पणी की गयी होती इसे एक व्यक्ति के मूल्यांकन के रूप मे लिया जाता , परंतु शिकस्त के बाद ऐसा कहना
काफी लोगो को अटपटा लगा , ना केवल काँग्रेस मे वरन पार्टी के बाहर भी | लगभग इसी समय पार्टी के कद्दावर नेता ए के एंथनी कनहे
की ""पार्टी की धर्म निरपेक्षता की छवि को धक्का लगा है "" उनके बयान का संदर्भ काफी दिनो बाद यह बताया गया की केरल मे ईसाई
समुदाय को ऐसा महसूस हो रहा की सरकार उनके हितो के प्रति चिंतित नहीं है | अब केवल केरल मे ही काँग्रेस मिलीजुली सरकार की एक
घटक है और उसी का प्रतिनिधि मुख्य मंत्री है जो संयोग से ईसाई है |




और अब सुन्नी खलीफा भी !


छठी शताब्दी मे पैगंबर मोहम्मद के देहांत के बाद आबु बकर पहले खलीफा बने जो की इस्लाम के बंदो के धार्मिक और
प्रशासनिक प्रमुख बने | हालांकि पैगंबर ने अली को अपना भाई घोसित किया था | परंतु विरासत के बारे मे उन्होने कोई फैसला नहीं
किया था ,ऐसा कहा जाता है | | अबूबकर के बाद उमर तथा उनके बाद उथमान बने , उथमान की हत्या किए जाने के बाद """उममा""ने
अली का ""चयन""" किया | पहले तीनों खलीफा निर्वाचित नहीं थे | इंका मुख्यलाया मक्का था | 661 मे हसन इब्न अली ने
मुवाइया के हक़ मे खिलाफत की गद्दी छोड़ दी | मुवैया ने मक्का से दूर दमिसक [ वर्तमान ] को अपनी राजधानी बनाया 756 मे उसन
अपने को कोरडोबा का अमीर घोसित किया 929 से इस अधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और सबका अलग प्रभाव छेत्र बनते गए | सातवी सदी
से बारहवी सदी तक बगदाद खलीफा का मुख्यलाया बना |लेकिन नवी सदी मे फातमीद साम्राज्य से शीआ आधिपत्य की शुरुआत हुई |
इसमें इस्माइली और जैदी तथा तवेलर कबीले शामिल थे | अल महदी इनका पहला खलीफा बना | खिलाफत की सीट पहले मक्का
फिर कोरडोबा उसके बाद बगदाद फिर कैरो [वर्तमान काहिरा] और आखिर मे ओट्टोमान साम्राज्य मे इस्तांबुल बनी | जंहा 1909 मे तुर्की
की संसद ने खलीफा को मात्र संवैधानिक प्रमुख बनाकर सारे अधिकार संसद को सौप दिये | 3 मार्च 1924 को तुर्की की संसद ने
धर्म -निरपेक्षता को आधार बनाया | लेकिन खलीफा की पदवी बरकरार रखी , आज भी बायज़ेड ओसमान खलीफा कहलाते है वे फ़्रांस की
राजधानी पेरिस मे रहते है , वनही इस्माइली धर्म गुरु आग़ा खान भी रहते है |

लेकिन 21वी सदी मे एक नए खलीफा ने फिर खून - खराबे के साथ आई एस आई एस मातलब
इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक अँड लेवान्त की घोषणा करते हुए 29 जून 2014 को अपने को खलीफा बताते हुए ""सुन्नी"""मुसलमानो से
सहयोग मांगा है | हालांकि अभी तक उन्होने जो नर संहार किया है उसमें सुन्नी भी काफी संख्या मे थे |

विगत अनेक वर्षो से धर्म के नाम पर इस्लाम मे अनेक कट्टर पंथियो ने अनेक सङ्ग्थान खड़े किए है , जिनके माध्यम
से विश्व के अनेक हिस्सो मे आतंक और खून - खराबा किया जा रहा है | अल कायदा उनमे प्रमुख रहा है | बगदादी भी पहले उसी मे
रहा है | आज वह जो कुछ है उसमे कुछ सुन्नी देशो द्वारा की जा रही चोरी छिपे मदद तथा कुछ उग्रवादी तत्वो का हाथ है |



Jun 23, 2014

हुनर सिखाने वाले संस्थान बने मुनाफा कमाने की दूकाने


हुनर सिखाने वाले संस्थान बने मुनाफा कमाने की दूकाने

मध्य प्रदेश मे इंजीन्यरिंग और प्रबंधन तथा बी एड आदि व्यवसायिक शिक्षा देने वाले संस्थानो पर प्रवेश -परीक्षा-परिणाम
और फीस के मामले मे प्र्भावी नियम -कानों और उनको पालन करने वाले निकाय की ""लुंज पुंज"" हालत के कारण छात्र का समय - धन
और भविष्य सभी बर्बाद हो रहा है | हमारे प्रधान मंत्री मोदी जी जनहा युवाओ को देश की पूंजी मान रहे है , वनही निसप्रभावी और बाज़ार के
अनुकूल नहीं होने वाली शिक्षा इन छात्रो को डिग्री धारी तो बना रही है ,परंतु नौकरी के बाज़ार मे उनके लिए कोई स्थान नहीं होता |
एम बी ए पास लड़को को दो -दो हज़ार मे पेट्रोल प

Jun 3, 2014

महाजनो येन गता स प्ंथा --बड़े लोगो के दिखाये रास्ते पर ही लोग चलते है


महाजनो येन गता स प्ंथा --बड़े लोगो के दिखाये रास्ते पर ही लोग चलते है

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्री मण्डल के गठन मे ना तो भाई -भतीजावाद को जगह दी , ना ही कोई
सिफ़ारिश चली न कोई अन्य तथ्य को तवाजोह दी गयी | उन्होने राजस्थान और छातीसगद के मुख्य मंत्रियो की सिफ़ारिशों को एक दम
नकार दिया , दोनों ही अपने -अपने पुत्रो को मंत्रिमंडल मे स्थान दिलाना चाहते थे | परंतु मोदी जी ने किसी भी रिश्तेदारों को जगह देने से
इंकार कर दिया | दोनों ही मुख्य मंत्रियो ने आखिरी समय मे एक - एक सांसद का नाम दिया ,जिनहे शपथ दिला दी गयी | बिना किसी
गुरेज के | इन दोनों को ही समझ मे आ गया की यह नेता इनके दबाव मे नहीं आने वाला है ||

इस कड़े फैसले के बाद मोदी जी ने अपने मंत्रियो और सांसदो को ताकीद कर दी की कोई भी अपने रिश्तेदारों को
अपने स्टाफ मे नियुक्त नहीं करेगा | कहा तो यह भी जाता है की उन्होने सभी मंत्रियो द्वारा निजी स्टाफ मे की गयी नियुक्तियों की लिस्ट
बुलाई , और जांच कराई | उत्तर प्रदेश के बाराबंकी सीट की सांसद श्रीमति रावत को अपने पति को सांसद प्रतिनिधि बनाने पर कोप का
भाजन बनना पड़ा | बाद मे उन्हे पति देव को हटाना पड़ा |परंतु छतीस गढके रायपुर और जंजगीर के सांसदो ने प्रधान मंत्री के निर्देश को
मानने से इंकार कर दिया | वैश्य ने तो विगत पंद्रह वर्षो से अपने भतीजे को ही सांसद प्रतिनिधि बना रखा है जंजगीर सांसद ने अपने पुत्र
को यही ज़िम्मेदारी दे रखी है | अब इन पर क्या कारवाई होती है , यह देखना होगा |

उधर देश के 29वे राज्य तेलंगाना के मुख्य मंत्री चन्द्र शेखर राव ने मोदी जी की भावना के विपरीत , अपने पुत्र और
भतीजे को भी अपने मंत्री मण्डल मे शामिल करके उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव मंत्रिमंडल जैसा ही किया है | वनहा भी भतीजा मुख्य
मंत्री और दो चाचा मंत्री है | अब ऐसे मे ऊपर कहा गया सूत्र वाक्य कैसे सत्या होगा ?

May 28, 2014

स्कूलो से आरक्षण के आतंक के खात्मे की शुरुआत



स्कूलो से आरक्षण के आतंक के खात्मे की शुरुआत

मध्य प्रदेश सरकार ने अध्ययन के छेत्र से आरक्षण के आतंक को समाप्त करने के प्रयास का प्रथम
पहल की है , आदिवासी और अनुसूचित विभाग द्वारा संचालित स्कूलो मे आरक्षित वर्ग के छात्र -छात्राओ के लिए बने हुए छात्रावासो
मे अब सामान्य वर्ग के निर्धन छात्रो के लिए भी पाँच फीसदी स्थान देने का आदेश जारी किया है |इस से लंबे समय से आरक्षण की
सार्थकता के प्रति पनप रहे असंतोष को शांत करने पहल ही माना जाएगा | विगत काफी समय से समाज मे यह बहस चल रही थी की क्या
आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के लड़के और लड़कियो को नहीं मिलना चाहिए ? क्योंकि इधर यह देखा जा रहा था की आरक्षित
वर्ग के उन बालक - बालिकाओ को मुफ्त शिक्षा और आवास की सुविधा मिल रही थी जिनके मटा - पिता अफसर है , और वे इनके
अध्ययन का खर्च वहन करने मे समर्थ है | परंतु संवैधानिक कारणो से उन्हे यह सुविधा मिलती है | जबकि उन्हे इसकी ज़रूरत नहीं होती है
दूसरी ओर एक प्रतिभाशाली बालक - बालिकाए धन एवं सुविधा के अभाव मे फड़ाई छोड़ने पर मजबूर होते है | शिक्षक भी इन हालातो से
काफी छुब्ध होते है , परंतु कानूनी प्रविधानों के कारण विवशता महसूस करते है |

शिवराज सिंह सरकार द्वारा नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री पद की सपथ लेने के बाद यह पहला मंत्रिमंडलीय
फैसला है , जिसे काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है |इस निरण्य ने आम लोगो के मध्य आरक्षण के प्रति पनप रहे आशंतोष की आग पर
पानी का छींटा ही साबित होगा | होने को तो यह कोई बहुत बड़ा फैसला नहीं है , परंतु उस दिशा मे एक प्रयास है जिससे समाज के बड़े वर्ग
मे कुछ आशंतोष कम होगा और आरक्षण के खात्मे की आवाज को कुछ और समय तक टाला जा सकेगा |























Apr 29, 2014

मुस्लिम देशो मे इस्लामी कट्टर पंथियो पर होते प्रहार --एक सुखद संकेत


मुस्लिम देशो मे इस्लामी कट्टर पंथियो पर होते प्रहार --एक सुखद संकेत

दशको पूर्व फ्रांस से मिली आज़ादी के बाद अल्जेरिया मे हुए चुनावो मे ''मुस्लिम ब्रदर हूड़"" नामक संगठन
ने धर्म के नाम पर बहुमत प्राप्त किया | सरकार बनाने के बाद इस संगठन ने वर्ग विशेस को तरजीह देते हुए दूसरे वर्ग के लोगो को
प्रताड़ित करना प्रारम्भ किया | सैनिक राष्ट्रपति कर्नल बौमेडीन ने सरकार को बर्खास्त कर इस संगठन को गैर कानूनी करार दिया | ब्रदरहूड़ के
लोगो ने कुछ अशांति फैलाई ---हिंसक घटनाए हुई सैकड़ो लोग गोली बारी मे मारे गए | मतलब ब्रदरहूड़ द्वारा आतंक का माहौल
बना दिया | शांति प्रिय लोग जो बहू संख्यक थे निरुपाय हो गए | तब सेना ने ब्रदर हूड़ के समर्थको का सफाया करना शुरू किया |
कुछ ही माह मे व्यसथा बरकरार हुई | प्रजातांत्रिक रू से सरकार का गठन हुआ | काफी समय बाद मिश्र मे मुहम्मद मुरसी के नेत्रत्व
मे ब्रदरहूड़ ने चुनावो मे भाग लिया , एक गठबंधन की सरकार बनी |मुरसी प्रधान मंत्री बने | शुरू मे तो उन्होने सबको साथ लेकर
चलने की घोसना की | परंतु उनके फैसलो मे कट्टरता की झलक थी | रोज - रोज आलोचना सुनने के बाद उन्होने संविधान मे
संशोधन की योजना बनाई , जिसके तहत केवल वर्ग विशेस को ही सरक्षण दिया गया | कानून के सामने सबको समानता का अधिकार
को कुछ वर्गो तक ही सीमित करने का प्रविधान था | लोगो की रॉय जानने के नाम पर एक बार फिर देश मे खूनी माहौल पनपा |
दुनिया के देशो मे खलबली मची | आखिर मे सेना प्रमुख ने मुरसी को क़ैद करके तदर्थ सरकार का गठन किया , जिसमे मुख्य
न्यायाधीश समेत लोगो शामिल थे | मुस्लिम ब्रदरहूड़ के लोगो पर देश द्रोह और हिंसा फैलाने -निर्दोषों की हत्या करने के आरोप
मे सैकड़ो लोगो पर मुकदमा चला , और मोहम्मद बादेई समेत 683 लोगो को सज़ा-ए -मौत दी गयी | इस घटना ने एशिया के मुल्को | मे इस्लामी कट्टर पंथी ताकतों जैसे अल - कायदा या अन्य आतंकी संगठनो को बड़ा झटका लगा हैं |

अभी कुछ माह पूर्व बंगला देश मे विशेष सैनिक अदालत ने बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या कर कर
सरकार पलटने के आरोप मे तीन सौ लोगो को मौत की सज़ा दी थी | कुछ कट्टर पंथियो ने हो हल्ला मचाया परंतु बंग बंधु की पुत्री
प्रधान मंत्री शेख हसीना ने सख्ती से विरोध को दबा दिया | बाद मे हुए चुनवो मे इन नफरत फैलाने वाली ताकतों ने हिन्दू और बौदध
मंदिरो को जला दिया | चुनाव कार्यक्रम कुछ व्यधान से सम्पन्न हुए | परंतु लोगो ने कट्टर पंथी ताकतों के मुक़ाबले उदार नेत्रत्व को ही
दुबारा चुना |







Apr 21, 2014

धार्मिक कुरीतियों पर कुठराघात के लिए खुद लोग आगे आ रहे है ना कोई नेता नाही संगठन है तैयार



धार्मिक कुरीतियों पर कुठराघात के लिए खुद लोग आगे आ रहे है ना कोई नेता नाही संगठन है तैयार

जैसे उन्नीसवी सदी मे बाल -विवाह ,सती प्रथा आदि कुरीतियो को राजा राम मोहन राय ने एक आंदोलन
चला कर तत्कालीन शासको को इन समस्याओ को हल करने पर विवश किया था | अंग्रेज़ो के समय मे दोनों ही बुराइयों पर रोक लगी
शारदा विवाह कानून बना कर उन्होने केवल ''ब्रामह विवाह''' को ही मान्यता दी | वेदिक धर्म मे बताए गए विवाह के अन्य तरीको
को कानूनी मान्यता नहीं दी | वरन""राक्षस"" और ""पैशाच"" प्रकारो को गैर कानूनी ठहराया | "राक्षस"" विवाह मे कन्या
खिला --पिला कर उसे बलपूर्वक उठा लाना ""पैशाच"" विवाह मे तो धोखे से नशा करा कर बलात्कार करने को भी विवाह की
मान्यता दे दी थी |मनु संहिता मे भी इन्हे स्वीकार किया गया हैं | जिनहे आज भारतीय दंड संहिता मे इन्हे ''भगाने'' और ''
बलात्कार का अपराध माना है | एवं उसे गर्हित अपराध माना गया है |

देश मे विधवा -विवाह को कानूनी मंजूरी मिल जाने के बाद भी एक -दो -
प्रकरण ही देखने को मिलते है | जबकि वेदिक - जैन धर्म के मानने वालों मे ""तलाक"" की काफी घटनाए सुनने मे आती है |जबकि
इस ""स्थिति"""का कोई हवाला नहीं मिलता है | राम चरित मानस मे सुग्रीवा की पत्नी को बल पूर्वक बाली द्वारा अपन्बे रनिवास मे
रखने का ज़िक्र आता है \हालांकि इस क्र्रतया को पाप बताते हुए बालि -वध को वैधानिकता दी गयी | 21स्वी सदी मे भी विधवा को
""हेय" द्रष्टि से देखा जाता है |परंतु अंध -विश्वास और रुडियो से ग्रष्त समाज मे भी कुछ ऐसी पहल देखने को मिलती है जो यह
सिद्ध करती है की वेदिक धर्म की सनातन परंपरा को मानने वाला हिन्दू के नाम से जाने जाना वाला समूह मे भी परिवर्तन की चेतना
है , एवं कुछ बेहतर करने की ओर ""समाज के अंजाने लोग ही इस परिवर्तन के वाहक बने है |ना की कोई अपने को सामाजिक
संगठन कहने वालों की भीड़ स्वे निकाल -कर आता है ना ही कोई राज नेता इस ओर कोई पहल करता है|

कन्या पक्ष को हेय और छोटा मानने वाले समाज की धारणा तथा दहेज की "कुप्रथा"के विरुद्ध ऐसी ही एक
पहल उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले के घानापुर गाँव के भूट्पुर्व ग्राम प्रधान महेंद्र यादव के घर मे उनके बेटे अरुण को ब्याहने के लिए
फूलपुर कलाँ की कुमारी निशा ""बारात"" ले कर आई | विवाह की सारी रष्मे लड़के के घर पर ही सम्पन्न हुई , फेरे भी लड़के के घर
पर लिए गए , और "बारात""की विदाई हुई जो बिना दुल्हन के वापस चली गयी |बरतियों की खातिरदारी लड़के वालों द्वारा की गयी ,
""विदाई""रशम को खतम कर दिया गय | विवाह मे यादव समाज के लोग कागी संख्या मे शामिल हुए |कोई दहेज भी नहीं लिया गया || यह तो एक शुभ अवसर पर होने वाली कुरीतियो को खतम करने वाली पहल थी | दूसरी घटना मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर की है ,
जनहा बलदेव बाग मे रहने वाली श्रीमती अरुणा अवस्थी का देहावसान हो गया | उनके पुत्र का कुछ समय पूर्वा देहांत हो चुका था | घर
मे विधवा बहू प्राची ही थी | सबकी सहमति से प्राची ने अपनी सास को मुखाग्नि दी | प्राची वन विभाग मे कार्यरत हैं |

इन घटनाओ मे यादव जिनहे वर्णाश्रम मे पिछड़ा माना जाता हैं उन्होने दहेज का बहिसकार करके और कन्या पक्ष को
प्रतिष्ठा देते हुए वधू को बारात की अगुवाई करने का श्रेय दिया |दूसरी ओर रुदीवादिता और अनवस्यक रीति -रिवाजो से ग्रसत ब्रामहन
जाति ने भी स्त्री को बराबरी का दर्जा देने की पहल की | ऐसे ही प्रयासो से हम यह बता सकेंगे की अब दोनों ही बराबर है --क्या
लड़की या क्या लड़का |







Apr 11, 2014

चुनाव से गायब होते मुद्दे और बयान बनते प्रचार के मुद्दे



यूं तो हर चुनाव मे कुछ प्रमुख मुद्दे होते हैं जिनके बारे मे प्रत्येक पार्टी की कुछ राय होती है | परंतु इस बार [2014] के
लोकसभा चुनावो मे ऐसा नहीं है | चूंकि भारतीय जनता पार्टी ने इस बार अपनी स्थापित परम्पराओ से हट कर --संगठन आधारित प्रचार
की जगह ,व्यक्ति को अपने संग्राम के केंद्र मे रखा|एक एक काडर बेस पार्टी का यह परिवर्तन थोड़ा सा अटपटा जरूर लगा | फिर यह समझ
आया की चुनावी संग्राम मे विजय की यह रणनीति ही शायद सफलता दिला सकती हो ? इसलिए इस संसदीय चुनवो मे प्रचार इस प्रकार हुआ
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव मे प्रतायशी को केंद्र बिन्दु रख कर सारी नीतिया और मुद्दे पर उसके विचारो से चुनाव लड़ा जाता हैं |यानि वाहा
उम्मीदवार ही अपनी पार्टी का भावी चेहरा होता हैं |क्योंकि वह '''अकेला'''ही सरकार होता हैं | पर संसदीय चुनवो मे पार्टी फोरम पर

लिए गए फैसले ही --चुनावी घोसणा पत्र बनता हैं , जो एक तरह से मतदाताओ से किए गए वादे का दस्तावेज़ होता हैं | जिसकी सिर्फ
''नैतिक'''महता होती है | अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव मे सिर्फ उस उम्मीदवार के कुछ वादे होते है अपनेदेश की जनता से -बस |
उन पर ही उसकी ''जय - पराजय''सुनिश्चित हो जाती है | वनहा अक्सर दो - एक ही मुद्दे राष्ट्रिय मुद्दे होते है ,अधिकतर तो राज्यो की
समस्याओ पर ''आसवासन''' होते हैं | परंतु इस बार बीजेपी ने अपनी रन नीति को अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनाव की भांति ही इलाकाई
मुद्दो पर मोदी के बयान कराये |जिनहे एक तरह से चुनावी वादे कहे जा सकते हैं | हालांकि जब लोकसभा के लिए मतदान का पहला चरण
प्रारम्भ हुआ तब इस राष्ट्रिय पार्टी का ''''चुनाव घोसणा पत्र '''सार्वजनिक किया गया | जबकि उनके प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र
'''अपना''' प्रचार तीन माह पूर्वा ही शुरू कर चुके थे -वह भी काफी धूम -धड़ाके से बिलकुल राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज़ पर |

जिस अमेरिकी कंपनी को चुनाव प्राचार की ज़िम्मेदारी दी गयी थी उसने ''भावी प्र्तयाशी '''के बयानो को ही चुनावी
वादे मान कर टीवी चैनलो और अखबारो रेडियो पर ऐसी विज्ञापनो की बाद लगाई की जैसी आज के पूर्व कभी नहीं देखी गयी थी |वजह
चुनावी लड़ाई की रणनीति मे आमूल - कूल बदलाव था | जिसके लिए दूसरे राजनीतिक दल तैयार नहीं थे | इससे पहले चुनाव प्रचार
निर्वाचन आयोग द्वारा मतदान की तारीखों की घोसणा के बाद ही प्रचार के अखाड़े मे कूदते थे | पर इस बार वे पीछे रह गए | बीजेपी नेता ने
चुनाव के चार माह पहले से ही 3 डी के माध्यमों से एक साथ काँग्रेस और गांधी परिवार तथा प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर हमला शुरू
कर के ''इरादा''' साफ कर दिया था | करोड़ो रुपये खर्च कर के रेल गाड़ियो से बसो से लाखो की भीड़ जुटाई गयी | लाल किला या संसद
भवन की नकल पर मंच से भासण कर के यह साबित करने की कोशिस की यह कोई मुश्किल काम नहीं है | मतलब देश को चलाना कठिन
नहीं है | तभी उन्होने काला धन ---आतंकवाद --विदेशो से संबंध जैसे महत्वपूर्ण मसलो को सड़क पर उतार दिया इतना ही नहीं लोगो
के दिमाग मे यह भी प्रचार माध्यमों से बैठाने की कोशिस की उनके पास तो ''देश की सभी समस्याओ '''' का हल है | इतना ही नहीं
उन्होने देश के इतिहास पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए ,और आज़ादी के बाद के विकाश और शिक्षा तथा इतिहास को धिकारने लगे |

परंतु चुनाव प्रचार भी अपने विरोधियो को नाटकीय प्रकार से भासण द्वारा नीचा दिखने तक ही सीमित रहा|भ्रस्ताचार का
सवाल और विकास की बात धीरे -धीरे पीछे छूट गयी | व्यंग और आरोपात्मक शैली मे जन्म और जीवन शैली ज्यादा चर्चा के मुद्दे बन
गए , | ऐसे सवाल जिनका राष्ट्रिय राजनीति से कोई मतलब नहीं , जिन पर कोई बहस नहीं हो सकती वो बाते चटखारे ले कर
सोशल मीडिया पर मुहिम सी बन गयी | दो दो लाइन की फबतिया और भद्दी टिप्पणिया चटखारे ले कर चाय और पान की दूकानों पर दावो
की भांति गीता के सत्य की तरह चर्चित होने लगी | ये कथन अधिकतर चरित्र और भरास्ताचर के बारे मे पर्चे बाजी और बयानो के आधार
पर की जाती थी |

किस्सा -कोताह यह की देश की राजनीति के मुद्दे प्रचार से गायब हो गए | चूंकि अधिक प्रचार टीवी के जरिये हो
रहा था , इसलिए कुछ भी कहा सुना रेकॉर्ड बन के दस्तावेजी प्रमाण बन जाता है |इस लिए सभी पर्टिया एक दूसरे के लिए प्रश्नकर्ता बन गयी
और सवालो के जवाब देने की फुर्सत भी किसी दल मे नहीं दिखाई पड़ी |आलम यह हुआ की तुमने तब यह किया--- हमने ऐसा किया -आदि
के साथ आरोप - प्रत्यारोप लगने शुरू हो गए |, उनके जवाब और सफाई मे ही विकास और बेईमानी का सवाल दब गया जैसे गरीब
की अर्जी अदालत और अफसर के यंहा फाइलों के नीचे गुम हो जाती है , वैसे ही असली मुद्दे भी चुनाव के छितिज से गायब हो गए
उनके स्थान पर ''हल्के-फुल्के'''बयान विकल्प के रूप मे सामने आए | अब मतदाता मुद्दो पर तो वोट दे नहीं सकता , अतः पार्टी
ज़ाती - धर्म --इलाका ही निर्णायक बन गए ----जैसा पिछले चुनावो मे होता आया हैं | भारतेन्दु हरिश्चंद्र के शब्दो मे दुर्भाग्य -
हत भारत देश .................









Apr 10, 2014

चुनाव प्रचार के दौरान कहे गए कुछ दिलचस्प बयान और असंभव कथन


चुनाव प्रचार के दौरान कहे गए कुछ दिलचस्प बयान और असंभव कथन !


चुनाव प्रचार की गर्मी मे अक्सर नेता बहुत कुछ ऐसा बोल जाते हैं जिसको अगर धरातल की सच्चाई पर परखा जाये तो
वे निहायत मिथ्या लगते हैं | यह सही है की सभी नेता अपने - अपने दल की ओर से सत्ता के बाद की जो तस्वीर पेश करते है वह
अतिशयोक्ति और विशेषणो का अंबार लगा देते है | जो अनेक मानो मे यथार्थ से बहुत दूर होता है|कुछ ऐसे ही बयान और कथन यहा
प्रस्तुत है , जो यह स्पष्ट करेगा की वे ''सत्य'''से कितने दूर होते है जब वे मंच पर होते है| कुछ लोग तो मर्यादा की सीमा भी पार
कर जाते हैं | योग शिक्षक राम देव ने उत्तर प्रदेश की एक सभा मे "'सोनिया देश की लुटेरी बहू है और जवाहर लाल नेहरू देश के
खलनायक है" अब इस बयान को मान हानि ही मानना होगा |क्योंकि इस बयान द्वारा एक ओर एक महिला का अपमान किया गया है ,
दूसरी ओर देश के दिवंगत प्रधान मंत्री का अपमान किया है| परंतु वे तो चुनाव प्रचार कर रहे थे !

छतरपुर मे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा की """ काँग्रेस ने साठ साल तक देश मे सरकार
चलायी है --शासन नहीं किया हैं ? अब इसका क्या अर्थ है आखिर शासन तो सरकार ही चलाती हैं , कोई अन्य नहीं | पर बात चुनावी
मंच से की गयी थी |मुख्यमंत्री शिव राज सिंह ने एक सभा मे कहा की काँग्रेस ने देश की ''अस्मिता' को बेच दिया हैं | अब इसका क्या
अर्थ निकाला जाये ??आखिर कर देश की अस्मिता किन तत्वो मे होती है ? जिसके कारण अस्मिता बनती है ? यह कथन अनुतरित है |
काँग्रेस ने देश को साठ सालो मे देश को ""तबाह""कर दिया हैं ? अब तबाह की परिभाषा क्या होगी ? मंहगाई वृद्धि हुई --परंतु
साइकल से आज बड़ी बड़ी कारो का काफिला जो सदको पर दिखाई पड़ता हैं क्या वह विकास नहीं हैं ?खाद्यान्न उपज मे वृद्धि देश मे
औद्योगिक सामानो का उत्पादन कितना बड़ा है यह किसी से छुपा नहीं हैं |
पर यह सब कुछ चलता है क्योंकि बात चुनाव की हैं |और इस मौसम मे सब कुछ चलता है |

एक नारा यह भी दिया गया है भाजपा जीतेगी तो देश जीतेगा , अर्थात अभी तक """देश हर चुनाव मे हारता रहा हैं '''क्योंकि
भारतीय जनता पार्टी तो जीती नहीं !





Apr 9, 2014

संवैधानिक संस्थाओ को चुनौती देते राजनीतिक दल



संवैधानिक संस्थाओ को चुनौती देते राजनीतिक दल

बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग के उन निर्देशों को मानने से इंकार कर दिया की वे जिसमे उन्होने
सात अधिकारियों के तबादले करने को कहा था| बंगाल की शेरनी जब दहाड़ी तब लगा की कोई संवैधानिक संकट खड़ा होगा | परंतु जब
चुनाव आयोग ने सम्पूर्ण प्रदेश के चुनाव स्थगित करने का निश्चय किया , तब मुख्य मंत्री को लगा की उनकी ज़िद्द उनकी पार्टी और सरकार
पर भारी पड़ेगा | तब उन्होने मजबूरी मे सर झुका कर मंजूर किया | दिन भर चली रस्साकशी के बाद सब कुछ वापस सामान्य हो गया |
परंतु ममता का आरोप की आयोग छोटे डालो के साथ भेदभाव करता हैं और काँग्रेस और बीजेपी के कहने पर चलता हैं | साथ ही उन्होने यह भी
स्पष्ट कर दिया की चुनाव के बाद हटाये गए अधिकारियों को पुनः उनही स्थानो पर पदस्थ करेंगी | कुछ ऐसी ही गुत्थी मध्य परदेश मे भी फंस
गयी | जब चुनाव आयोग ने तीन जिलाधिकारियों को बदलने का निर्देश दिया | राज्य सरकार ने विरोध जताया और कहा की विधान सभा
चुनाव मे इनहि अधिकारियों को आयोग ने अच्छे होने का प्रमाण पत्र दिया | परंतु बाद मे मामले की नज़ाकत को समझते हुए राज्य सरकार ने
आयोग के निर्देशों के अनुसार उन सभी अधिकारियों को पद मुक्त कर दिया |

उत्तर प्रदेश मे भी आयोग को भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करना पड़ा ,जहा
बीजेपी नेता के विवादास्पद बयान की सीडी के बाद उन्हे कारण बताओ नोटिस दिया था जिस पर पार्टी का कहना था की चुनाव आयोग द्वारा
भेजी गयी सीडी ''सही;; नहीं है|पार्टी की ओर से प्रवक्ता राम कृष्ण ने कहा की प्रदेश सरकार ने अमित शाह के विरुद्ध भड़काऊ भासण
देने के आरोप मे आपराधिक मुकदमा दर्ज़ किया हैं | अतः बीजेपी का कहना था की अगर आयोग को सुनवाई करना है तो उसे दुबारा
नोटिस भेजना चाहिए | काँग्रेस शाह की गिरफ्तारी की मांग कर रही है , बीजेपी भी स्थिति को उस हालत मे ले जाना चाहती हैं जनहा
गिरफ्तारी हो --और चुनावी माहौल मे गर्मी आए | देखना होगा की आगे क्या होता हैं

उधर काँग्रेस भी इस मामले मे पीछे नहीं रहना चाहती हैं --उसके नेता दिग्विजय सिंह ने
कहा अदलते न्याय नहीं स्टे दे रही हैं | यह बयान सीधे तौर पर अवमानना की श्रेणी मे आता हैं | हालांकि उन्होने किस संबंध मे ऐसा कहा
यह साफ नहीं हैं , लेकिन भ्रष्ट आचरण के लिए उन्होने प्रदेश की सरकार और मुख्य मंत्री पर आरोप लगाए | उन्होने कहा की वे अपनी बात
पर कायम है भले ही इसके लिए उन्हे जैल ही क्यो न जाना पड़े |चुनाव की गर्मी मे संवैधानिक संस्थानो को पहली बार ऐसी समस्याओ से
जूझना पद रहा हैं |



|

विश्वास और भरोसा टूटने का परिणाम --क्या थप्पड़ और जूता है - तब चुनाव परिणाम ?


विश्वास और भरोसा टूटने का परिणाम --क्या थप्पड़ और जूता है - तब चुनाव परिणाम ?

केजरीवाल को थपप्ड और घूंसा मारे जाने के बाद अनेक तरह की प्रतिकृया सामने आई है , अधिकांश ने
इन घटनाओ को उनके द्वारा इस्तीफा दिये जाने के फैसले से जोड़ कर , बयान दिया है | जिसमे उनकी भर्त्स्ना ही की गयी हैं | घटना
को विद्रुप बना कर राजनीति का हथियार बना कर भी टिप्पणिया की गयी हैं | बयान बाज़ी की इस भीड़ मे ''समझ और संयम " का तो
अभाव ही हैं | परंतु अति उत्साही इन नेताओ और ''समर्थको''' को इस घटना के दूरगामी परिणाम की कोई जान करी नहीं हैं | वे
समझ रहे हैं की इस चुनावी संग्राम मे वे जितना आगे"" बढ """ कर हमले की मुद्रा का ''प्रदर्शन'' करेंगे उतना ही वे अपने नेता की
"" नजरों """ मे आ जाएंगे |परंतु वे भूल जाते है की ''लाभ के साथ हानि "" भी आती है |क्या होगा जब वायदे की झाड़ी के
आश्वासन पूरे नहीं हो पाये ? तब वही हालत होगी जो चिट फंड कंपनी के उन अधिकारियों की होती हैं , जो लोगो से रोज बचत की रकम
एकत्र करते हैं -- गुस्साये लोगो की भीड़ , जिसे वह उनका पैसा लौटाने मे असमर्थ होता हैं | यह अंडे स्याही और घूंसा की घटनाए उसी
का परिणाम अगर है तब तो भगवान ही मालिक है |

इसलिए आज जो लोग बयान देकर आगे बड़ रहे है ,वे भावी की पदचाप
को पहचान नहीं रहे है | यह समय '' संयम ''का हैं , चुनावी प्रति स्पर्धा को महा भारत बनाने का नहीं | और अगर बिना महाभारत
के राजनीतिक आकांछा नहीं पूरी हो रही हैं ---तब यह भी स्पष्ट है की उसका परिणाम भी कनही वैसा ही ना हो जाये जैसे पोहले हुआ था
अर्थात हिंसा का दावानल |नफरत और नापसंदगी को वैमनस्य मे परिवर्तित करने से परिणाम भी स्पर्धा ''जैसा''नहीं होता है |


17 मई को चुनाव परिणाम आने को है ---संभावना गैर कांग्रेस सरकार की है , अब वह पूर्ण बहुमत की होगी
तब तो देश को एक स्पष्ट दिशा मिलेगी | भले ही कुछ लोगो को वह ना पसंद हो , परंतु यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता परंतु
उसे सच्चे मन से मंजूर करना चाहिए |



Apr 8, 2014

मंहगाई को कम करने और विकास गति को बदने का दावा -एक मिथक ?भाग दो



मंहगाई को कम करने और विकास गति को बदने का दावा -एक मिथक ?भाग दो

मंहगाई और विकास दोनों ही साथ -साथ चलने वाली विधाए हैं , एक ऊपर जाएगा तभी दूसरा भी ऊपर जाएगा , मतलब
यह है की अगर देश मे राज्य द्वारा विकास के लिए घाटे की बजेट व्यवस्था करने से विभिन्न विकास की योजनाओ मे किए जाने वाले व्यय
से बाज़ार मे मुद्रा का ''परिमाण"" बढ जाता है | फलस्वरूप बाज़ार मे क्रय शक्ति मे व्रद्धि होती हैं | परंतु बाज़ार मे वस्तुओ की तुलना
मे मुद्रा की अधिकता तात्कालिक रूप से वस्तुओ के दामो को बड़ा देती हैं | क्योंकि मांग- आपूर्ति के सिद्धांत से ही बाज़ार मे संतुलन होता हैं |
यद्यापि यह संतुलन आने मे ""समय""" लगता हैं ---जिसको आम आदमी मंहगाई के रूप मे परिभासित करता हैं | यह कहना की साठ
साल मे देश मे कोई विकास नहीं हुआ और मंहगाई दावानल की तरह बदती रही |
अब इस मंहगाई को विकास के साथ मे समझने के लिए
उस स्थिति को समझना होगा जो साल दर साल मंहगाई मे व्रद्धि होती रही , वनही लोगो मे सुख सुविधा की वस्तुओ मे बदोतरी भी होती रही |
साइकल से लेकर एसयूवी - ऑडी और सड़क पर दौड़ती विदेशी गाड़ियो की भरमार ---अगर विकाश नहीं हैं तो फिर विकास का कौन सा मोडेल
हैं ? पिछले पचास सालो मे दहाई और सैकड़े के वेतन ने आज हज़ार और दस हज़ार का स्थान ले लिया हैं |आज़ादी के समय सिपाही का
वेतन दहाई मे होता हैं आज उसे दस हज़ार से कुछ थोड़ा ही कम मिलता हैं |किसान की पूरी फसल जो कुछ सैकड़े मे बनिया खरीद लेता था , आज हजारो रुपये का भुगतान शासकीय खरीद केंद्र से होता हैं | पहले कोई नकद फसल नहीं के बराबर थी , आज अधिकान्स छेत्रों मे
किसान नक़द फसलों द्वारा अतिरिक्त कमाई करता हैं | जिसकी बदौलत वह अपने बच्चो को नगर मे ऊंची शिक्षा दिलाने मे सक्षम हैं |गावों
मे मोटर साइकल और जीप या एसयूवी की उपस्थिती क्या ग्रामीण संपन्नता का पैमाना नहीं हैं ? शहरो मे सड्को से पिछले चालीस सालो मे
साइकल की जगह भांति - भांति के दुपहिया वाहनो को देखा जा सकता हैं--यह दस पंद्रह सालो मे तो नहीं हुआ हैं , इसकी शुरुआत तो 1950 से हो चुकी थी |गावों अब लोग शिक्षित और सुविधा सम्पन्न हो गए हैं | दातौन की जगह टूट पासते ने ले ली हैं , अब बिसकुट
बच्चो के लिए आम बात हैं | रेडियो और ट्रंजिस्टर के युग को छोड़ कर अब टीवी युग मे गावों का प्रवेश हो चुका हैं | मोबाइल तो लगभग
सभी के हाथो मे देखा जा सकता हैं | खत लिखना मनी ऑर्डर का इंतजार अब बीते दशको की बात हो चुकी हैं | अब बैंक और डेबिट कार्ड
ने इन का विकल्प दे दिया हैं | क्या यह सब विकास नहीं हैं तो फिर विकास क्या हैं ? हाँ पेट्रोल के दाम 1970 मे वेसपा दुपहिया से
मधायम वर्ग की जानकारी मे आए | इसके पहले पेट्रोल पम्प मुट्ठी भर लोगो की गाड़ियो का स्थान हुआ करता था , परंतु अब लंबी लाइन
ने इस वस्तु को भी आम आदमी की ज़िंदगी के इस्तेमाल की वस्तु बना दिया हैं | तब चार सादे चार रुपये लिटर का पेट्रोल आज सत्तर रुपय
से अधिक का हो गया हैं | परंतु पेट्रोल की खपत बदती ही जा रही हैं | साथ ही नए - नए मोडेल की बाइकों की बिक्री मे भी अभूतपुरवा
बदोतरी हुई हैं | यह सब गुजरात मे ही ही नहीं हुआ सारे देश मे हुआ हैं | फिर मंहगाई को क्यो रोना ?क्या औसत आय मे व्रद्धि
नहीं हुई हैं ? अगर बदोतरी नहीं हुई होती तो कार और दुपहिया वाहनो की बिक्री मे इतना इजाफा कैसे हुआ ? कान्हा से पैसा आया ?बंकों
की शाखाओ मे जमा की व्रद्धि का आधार क्या हैं ? इन उदाहरणो से साफ हैं कि अगर विकाश की गति बदेगी तो मंहगाई भी बदेगी |
इसलिए यह कहना की मंहगाई को नियंत्रित करेंगे कहना गलत होगा | क्योंकि अगर नियंत्रित किया तो किस वर्ष के दामो को आधार मानेगे ?
और उस वर्ष के विकास की स्थिति को देखना क्या उचित नहीं होगा | इसलिए यह चुनावी वादा भर ही हैं जमीनी धरातल का सत्य नहीं |